08 February, 2016

फरिश्ते सुनते भी हैं

बच्चों के बारे में सुष्मिता ने पहली बार पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद सोचा था. उसका लिव-इन पार्टनर एक दूसरी जाति से था और उसे मालूम था कि घर वाले कभी उनकी शादी के लिए नहीं मानेंगे. उसने शुरू से ही खुद को समझा रखा था कि उम्र भर के किसी बंधन की कसमें नहीं खायेंगे. इक रोज़ वे दोनों फोटो-जर्नलिज्म के एक प्रोजेक्ट के लिए कैमरा ले कर गरीबों की झुग्गी झोपड़ी में घूम रहे थे. एक बेहद नीची छत वाला एक कमरा था. उसमें एक बेहद छोटा सा टीवी फिट था. दो बच्चे नीचे जमीन पर पसरे हुए थे. एक साड़ी का झूला बनाया हुआ था जिसमें एक दुधमुंहां बच्चा किहुंक किहुंक के रो रहा था. उसकी आवाज़ से सबको दिक्कत हो रही थी. आखिर उसकी माँ ने उसे झूले से निकाला और एक झापड़ और मार दिया, 'क्या करें दीदी दूध उतरता ही नहीं हैं, पेट भरेगा नहीं तो रोयेगा नहीं तो क्या करेगा'. फिर अपने में दुःख के अपार बोझ से टूटती बच्चे को दूध पिलाने लगी. सुष्मिता ने चाहा उस लम्हे को कैप्चर कर ले मगर उस दुःख को हमेशा के लिए ठहरा देना इतना अमानवीय लगा कि उसकी हिम्मत ही नहीं हुयी. बाहर आई तो नावक अचरज से उसे देख रहा था. 'अच्छी जर्नलिस्ट बनोगी तो कभी कभी जरा बुरा इंसान भी बनना पड़ता है. दुःख की दवा करने के लिए उसकी तसवीरें कैद करनी जरूरी हैं बाबू'. फाके के दिन थे. बीड़ी के लिए पैसे जुट पाते थे बस. चाय की तलब लगी थी और सर दर्द से फटा जा रहा था. वहाँ से चलते चलते कोई आधे घंटे पर एक चाय की टपरी आई. एक कटिंग चाय बोल कर दोनों वहीं पत्थरों पर निढाल हो गए. 

सुष्मिता इस पूरे महीने के पैसे की खिचखिच से थक गयी थी, दूर आसमान में देखती हुयी बोली, 'इस वक़्त अगर फ़रिश्ते यहाँ से गुज़र रहे हों तो कोई जान पहचान का यहाँ मिल जाए और एक सिगरेट पिला दे मुझे. बस इतना ही चाहिए'. नावक ने कुछ नहीं कहा बस मुस्कुरा कर दूर के उसी बस स्टॉप पर आँखें गड़ा दीं जहाँ सुष्मिता की नज़र अटकी हुयी थी. चाय बनने के दरम्यान वहाँ एक स्कूल बस रुकी और फुदकते हुए बच्चे उसमें से उतरे. अपनी लाल रंग की स्कर्ट और सफ़ेद शर्ट में एकदम डॉल जैसी लग रही थी बच्चियां. बस गुजरी तो उन्होंने देखा उनकी कॉलेज की एक प्रोफ़ेसर भी वहां से अपनी बेटी की ऊँगली थाम सड़क क्रॉस कर रही हैं. सड़क के इस पार आते हुए उन्होंने दोनों को देखा और चाय पीने रुक गयीं. अपने लिए एक डिब्बा सिगरेट भी ख़रीदा और सुष्मिता को ऑफर किया. उसने जरा झिझकते हुए दो सिगरेटें निकाल लीं. जैसे ही मैडम अपनी बेटी को लेकर वहां से गयीं सुष्मिता जैसे जन्मों के सुख में डूब उतराने लगी. सिगरेट का पहला गहरा कश था और उसकी आँखें किसी परमानंद में डूब गयीं. नावक लाड़ में बोला, 'सुम्मी...कुछ और ही माँग लिया होता...'. 'लालच नहीं करते नावक. इस जिंदगी में एक सिगरेट मिल जाए बहुत बड़ी बात होती है. तुम्हें माँगना होता तो क्या मांगते?'. नावक के चहरे पर एक बहुत कोमल मुस्कान उगने लगी थी. वो अभी तक मैडम के जाने की दिशा में देख रहा था. उनकी बेटी की पोनीटेल हिलती दिख रही थी. बच्ची काफी खुश थी और उसकी आवाज़ की किलकारी सुनाई पड़ रही थी. 'अगर वाकई फ़रिश्ते होंगे अभी तक अटके हुए...तो सुम्मी, मुझे तुम्हारे जैसी एक बेटी चाहिए. एकदम तुम्हारे जैसी. यही बदमाश आँखें. यही बिगड़ी हुयी लड़कियों वाले तेवर और अपने पापा की इतनी ही दुलारी'. सुम्मी ने पहली बार अपना औरत होना महसूस किया था. शादी की नहीं, बच्चों की ख्वाहिश मन में किसी बेल सी उगती महसूस की थी. फीकी हँसी में बोली, 'ज्यों नावक के तीर, देखन में छोटे लगे, घाव करें गंभीर'.

सिगरेट ख़त्म हो गयी थी. उन्होंने तय किया कि यहाँ से कमरे तक पैदल चला जाए और बचे हुए पैसों से आज रात चिकन बिरयानी खायी जाए. सुम्मी को ऐसी गरीबी बहुत चुभती थी. खास तौर से वे दिन जब कि सिगरेट के लिए पैसे नहीं बचते थे. उसे नावक का बीड़ी पीना एकदम पसंद नहीं था. कैसी तो गंध आती थी उससे उन दिनों. गंध तो फिर भी बर्दाश्त कर ली जाती मगर उस छोटे कमरे में बीड़ी की बची हुयी टोटियों को ढूंढते हुए नावक पर वहशत सवार हो जाती. सुम्मी को उन दिनों यकीन नहीं होता कि यही नावक अच्छे खाते पीते घराने का है और पटना के सबसे प्रतिष्ठित कॉलेज से समाजशास्त्र में पी एच डी कर रहा है. उन दिनों वह कोई गरीब रिक्शा चलाने वाले से भी बदतर हो जाता था और सुम्मी से ऐसे पेश आता जैसे नावक उसका रेगुलर ग्राहक हो और सुम्मी बदनाम गलियों की सबसे नामी वेश्या. नावक को उसके शरीर से कोई लगाव नहीं होता. गालियों से उसकी रूह छिल छिल जाती. कौन सोच सकता था कि नावक जैसा लड़का सिर्फ बीड़ी पीने के बाद 'रंडी, बिस्तर, ग्राहक, दल्ला' जैसे शब्द इस चिकनी अदा के साथ बोलेगा कि रंगमंच की रोशनियाँ शरमा जाएँ. सुम्मी को उन दिनों यकीन नहीं होता था कि ऐसी भाषा नावक ने थियेटर करते हुए सीखी है या वाकई गुमनाम रेड लाइट एरिया जाता रहा है. उन रातों में 'मेक लव' जैसा कुछ नहीं होता. वे जानवरों की तरह प्रेम करते. सुम्मी को डेल्टा ऑफ़ वीनस याद आता. अनाईस निन की कहानियों के पहले का हिस्सा जब कि रईस व्यक्ति कि जो हर कहानी के सौ डॉलर दे रहा है, फीडबैक में बस इतना ही कहता, 'cut the poetry'. निन ने उन दिनों के बहुत से कवियों को जुटाया कि पैसों की जरूरत सभी को थी...उन दिनों के बारे में वह लिखती है, 'we had violent explosions of poetry.' 'हममें कविता हिंसक तरीके से विस्फोटित होती थी.' मुझे रात की तीखी कटती हुयी परतों में किताब की सतरें याद आयीं. दुनिया में कुछ भी पहली बार घटित नहीं हो रहा है. हम वो पहले लोग नहीं होंगे जिन्होंने प्रेम के बिना यह हिंसा एक दूसरे के साथ की है. आज की शाम तो वैसे भी ख़ास थी. नावक की एक ईमानदार ख्वाहिश ने सुम्मी को अन्दर तक छील दिया था. उस रात मगर वही हुआ जो हर उस रात को होता था जब महीने के आखिरी दिन होते थे और बीड़ी, सिगरेट सब ख़त्म हुआ करती थी. इस हिंसा में शायद सुम्मी के मन में दुनिया की सबसे पुरातन इच्छा ने जन्म लिया. जन्म देने की इच्छा ने. 

अगले दिन किसी मैगजीन में छपे नावक के पेपर का मेहनताना आ गया तो सब कुछ नार्मल हो गया. सुम्मी भूल भी गयी कि उसने कोई दीवानी ख्वाहिश पाल रखी है मन में कहीं. ये सेमेस्टर कॉलेज में सबसे व्यस्त सेमेस्टर होता भी था. कुछ यूं हुआ कि डेट निकल गयी और सुम्मी को ध्यान भी नहीं रहा कि गिनी हुयी तारीखों में आने वाले पीरियड्स लेट कैसे हो गए. क्लास में जब उसकी बेस्ट फ्रेंड ने फुसफुसा के पूछा, 'सुम्मी, पैड है तेरे पास?' तो सुम्मी जैसे अचानक से आसमान से गिरी. उसके और शाइना के डेट्स हमेशा एक साथ आते थे. तारीख आज से चार दिन पहले की थी. कुछ देर तो उसका दिमाग ब्लैंक हो गया. क्लास का एक भी शब्द उसके पल्ले नहीं पड़ रहा था. जैसे ही क्लास ख़त्म हुयी भागती हुयी बाहर आई और बैग से सिगरेट का पैकेट निकाला. आज ही नावक के पैसों से नया डिब्बा खरीदा था. सिगरेट निकालने को ही हुयी कि उसपर लिखी वार्निंग पर नजर पड़ गयी. 'smoking when pregnant harms your baby' आज ही इस पैकेट पर ये वार्निंग लिखी होनी थी. सुम्मी ने खुद को थोड़ी देर समझाने की कोशिश की कि कौन सा इस बच्चे को जन्म दे पाएगी...क्या फर्क पड़ेगा अगर एक आध कश मार भी लेती है. मगर फिर ख्यालों ने उड़ान भरनी शुरू की तो सारा कुछ सोचती चली गयी. उसे सिर्फ एक अच्छी नौकरी का इन्तेजाम करना है. जो कि अगले एक महीने में उसे मिल जायेगी. अपनी सहेलियों के साथ दिल्ली में कमरा लेने का उसका प्रोग्राम पहले से सेट था. ये ऐसी सहेलियां थीं जिनसे किसी चीज़ के लिए कभी आग्रह नहीं करना पड़ा था. चारों मिल कर आपस में एक बच्चा तो पाल ही लेंगी तीनेक साल तक. उसके बाद तो स्कूल शुरू हो जाएगा. फिर तो किसी को दिक्कत नहीं होगी. सुम्मी को वैसे भी कॉलेज में ही लेक्चरर बनने का शौक़ था. उसका मन दो भागों में बंट गया था. सारे तर्क उसे कह रहे थे कि ऐसा कुछ नहीं हो सकता. हिंदुस्तान में आज भी बिन ब्याही माँ के बच्चे इतनी आराम से नहीं पल सकते जितना कि वह सोच रही है. उसे ये भी मालूम था कि घर में लड़का देखना शुरू कर चुके हैं लोग. मगर कुछ शहर ऐसे होते हैं जिनकी सीमा में घुसते ही पुरानी रूढ़ियाँ पीछे रह जाती हैं. पटना ऐसी ही असीमित संभावनाओं का शहर था उसके लिए. यहाँ कुछ भी मुमकिन था. दिलेर तो वह थी ही, वर्ना आज भी पटना में कितनी लड़कियां लिव-इन में रह रही थीं. कल्पना के पंखों पर उड़ती उड़ती वह बहुत दूर पहुँच गयी थी. बच्चों के नाम सोचने शुरू किये. लड़के के, लड़कियों के. दोनों. कमरे के परदे. प्रेगनेंसी के समय क्या पहनेगी वगैरह वगैरह. ख्याल में डूबे हुए कब केमिस्ट की दुकान तक पहुँच गयी उसे पता ही नहीं चला. टेस्ट किट मांगते हुए उसका चेहरा किसी नव विवाहिता सा खिला हुआ था. न तो उसके चेहरे पर, न तो उसकी आत्मा में कोई अपराध बोध जगा था. कमरे पर आई तो सीधे बाथरूम न जा कर किताब खोल ली. किताब भी कौन सी, मित्रो मरजानी. हाँ...बेटी हुयी तो नाम रखेगी मित्रो...और बेटा हुआ तो...बहुत सोच के ध्यान आया कि नावक से शादी थोड़े करनी है...तो बेटे का नाम नावक रख सकती है. 

रात के आते आते सुम्मी ने अनगिन चाय के कप खाली कर के रख दिए थे. उसे अब भी समझ नहीं आ रहा था कि नावक को बताये या नहीं. आखिर दुआ तो उसकी क़ुबूल हुयी थी. बतानी तो चाहिए. उसने सोचा कि उसे आने देती है. उसके सामने ही टेस्ट करेगी और फिर दोनों एक ही साथ कन्फर्म करेंगी अपनी जिंदगी के सबसे खुशहाल दिन को. पर वो क्या कह के बताएगी...एक गुड न्यूज़ है या कि एक गड़बड़ हो गयी है. फिर अचानक से आये एक ख्याल से डर गयी. नावक को कृष्णा सोबती फूटी आँख नहीं सुहाती थी. वो उसे अपनी बेटी का नाम मित्रो तो हरगिज़ नहीं रखने देगा चाहे वो कितना भी लड़ झगड़ ले. उसके लौटने में अभी वक़्त था. सुम्मी ने कागज़ के टुकड़े फाड़े और उनपर नाम लिखने लगी. कोई पांच टुकड़े थे जिनपर एक ही नाम लिखा था 'मित्रो'. उसने कागज़ के टुकड़े फाड़े और उन्हें ठीक से मोड़ कर छोटी सी कटोरी में रख दिया. कि नावक जब आएगा तो उसे एक पुर्जा चुन लेने को कहूँगी. अपनी बेईमानी पर उसे जरा भी बुरा नहीं लगा. ये तो दुनिया की सबसे पुरानी टेक्नीक है. फिर कलयुग है भई. कोई रात के दस बजे नावक कमरे पर आया. कमरा इस वक़्त हमेशा धुएं की गंध से भरा हुआ होता था, ऐशट्रे में अम्बार लगा होता था और सुम्मी किसी कोने में पढ़ रही होती थी. मगर आज कुछ बात और थी. कमरे में चावल की हलकी गंध आ रही थी. तो क्या सुम्मी ने खाना बनाया है. लड़की पागल हो गयी है क्या. एक आध कैंडल्स भी जल रहे थे. कमाल रूमानी माहौल था. 'पैसे आ जाने से इतनी रौनक. भाई कमाल हो सुम्मी. पहले पता होता तो दो चार और पेपर्स भेज दिया करता वक़्त पर छपने के लिए'. सुम्मी बाहर आई तो लाज की हलकी लाली थी उसके चेहरे पर. उसने बिना कुछ कहे टेस्ट किट दिखाया और बाथरूम में घुस गयी. पांच मिनट. दस मिनट. आधा घंटा. जब कोई हरकत नहीं हुयी तो नावक ने दरवाज़ा खटखटाना शुरू किया. दस मिनट खटखटाने के बाद सुम्मी ने दरवाज़ा खोला. बाथरूम से उसकी परछाई बाहर निकली. नावक ने उसे उस तरह टूटा हुआ कभी नहीं देखा था. घबराये हुए उसके चेहरे को हाथों में भरा. सुम्मी ने टूटे शब्दों के बीच बताया कि उसे दिन भर धोखा हुआ कि वो प्रेग्नेंट है. पूरा पूरा दिन नावक. सच्ची. देखो. मुझे लगता रहा कि मेरे अन्दर कोई सांस ले रहा है. मैंने इसलिए सिगरेट भी नहीं पी. एक भी सिगरेट नहीं. ये सब मेरा भरम था. मगर कितना सच था. मुझे लगा फरिश्तों ने तुम्हारी बात भी सुन ली है. उस रात किसी ने खाना नहीं खाया. पूरी रात सिगरेट फूंकते बीती. सुम्मी और नावक के बीच कुछ उसी मासूम सी रात को टूट गया था. शहर छोड़ना तो बस एक फॉर्मेलिटी थी. नावक जानता था कि इस रिश्ते के लिए आगे लड़ने का हासिल कुछ नहीं है. दोनों बहुत प्रैक्टिकल लोग थे. अलविदा के नियम कायदे में बंधते हुए एक दूसरे को हँस कर विदा किया. 
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सुम्मी को अब सुम्मी कहने की हिम्मत किसी की नहीं होती. उम्र पैंतीस साल मगर आँखों में अब भी एक अल्हड़ लड़की सी चमक रहती है. वो मिसेज सुष्मिता सरकार हैं. शहर के डिप्टी मेयर की वाइफ और मुंगेर के जिला विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग की प्रमुख. उनसे छोटे उन्हें सम्मान से देखते और उनके साथ वाले इर्ष्या से. उनके ड्रेसिंग सेन्स से शहर को फैशन की समझ आती. चाहे सरस्वती शिशु मंदिर का वार्षिक समारोह हो या कि किसी गाँव में नयी लाइब्रेरी का उद्घाटन, उसकी शख्सियत उसे सबसे अलग करती थी. भीड़ में गुम हो जाने वाला न उसका चेहरा था न उसका व्यक्तित्व.  

शादी के दस साल होने को आये थे और उसकी उम्र जैसे ठहर गयी थी. 

सहेलियां चुहल करतीं कि तुझे किस चीज़ की कमी है. पति है, परिवार है, समाज में नाम है. चाहिए ही क्या. वाकई मिसेज सरकार के पास वो सब कुछ था जिसके सपने देखती लड़कियां बड़ी होती हैं. मगर मिसेज सरकार की आँखों के पीछे ही सुम्मी रहती थी. अपने भूले हुए नाम की आवाज़ में. 

उसकी कोख जनती है नाजायज चिट्ठियां और अनाथ किरदार. वो चाहती है कि एक जरा सा सौंप सके खुद के जने बच्चे को. आँख का नीला रंग. ठुड्डी के डिम्पल. अपना लम्बा ऊंचा कद. दिनकर के प्रति अपनी दीवानगी. या कि अपना ठहरा हुआ निश्चल स्वाभाव ही. 

अभी तक उसे लगता था कि उसके अन्दर का खालीपन रूह का खालीपन है...मन का टूटा हिस्सा होना है. वो इसे भरती रहती थी लोगों से. गीतों से, कविताओं से और रंगों से. वो इन्द्रधनुष से रंग मांगती और रेशमा से उसकी आवाज़ की हूक...रेगिस्तान से उसकी प्यास तो समंदर से उसकी बेचैनी. मगर उसके अन्दर का खालीपन भरता नहीं. उसका चीज़ों को हिसाब से रखने से दिल भर जाता. अपने करीने से सजाये घर में उसे घुटन होने लगती. वो चाहती कि कोई आये और पूरा घर बिखेर डाले. उसे शिकायतें करने का दिल करता था. दुखती देह और बिना नींद वाली रातों का. वो चीज़ों को बेतरतीबी से रखती. कपड़े. किताबें. जूते. या कि लोग ही. सब कुछ बिखरा बिखरा रहता लेकिन उसकी जिंदगी का एक कोरा कोना भी नहीं भरता इन चीज़ों से. 

उसने जाना कि वह डरने लगी है. नवजात शिशुओं से. गर्भवती महिलाओं से. उन रिश्तेदारों से जो हमेशा उसके बढ़े हुए पेट को देख कर पूछतीं कि कोई खुशखबरी है क्या. वो चाहती कि खूब सारा एक्सरसाइज करके एकदम साइज ज़ीरो हो जाए ताकि किसी को ग़लतफ़हमी न हो. उसे डर लगता था अपने जीवन में होने वाली किसी भी अच्छी घटना से...क्यूंकि किसी को भी बताओ कि कोई अच्छी खबर है तो उसे सीधे उसके प्रेग्नेंट होने से जोड़ लिया जाता था...और उस खुशखबरी के सामने दुनिया के सारे सुख छोटे पड़ते.

बचपन के रिपोर्ट कार्ड में कभी लाल निशान नहीं लगा. इसलिए उसे मालूम नहीं था कि पूरी तैय्यारी करने के बावजूद जिंदगी के रिपोर्ट कार्ड में कभी कभी लाल निशान लग जाते हैं. स्कूल और कॉलेज के एक्जाम साल में दो बार होते थे. मगर यहाँ हर महीने एक एक्जाम होता था और गहरे लाल निशान लगते थे. खून की नमक वाली गंध उसे पूरे हफ्ते अस्पतालों की याद दिलाती रहती. टीबी वार्ड हुआ करता था उन दिनों. वो किससे मिलने जाती थी जामताड़ा के उस अस्पताल में? कोई मेंटल असायलम था. उसकी दूर के रिश्ते की एक मामी वहां एडमिट थी. उन्हें खुद की नसें काटने से रोकने के लिए अक्सर बेड से बाँध कर रखा जाता था. बाथरूम तक जाने के लिए नर्स आ कर भले उनके बंधन खोल देती थी लेकिन उसके अलावा सारे वक़्त उनके हाथ पैर बिस्तर से बंधे रहते थे. उस बिस्तर पर एक बहुत पुरानी घिसी हुयी फीकी गुलाबी रंग की चादर थी जिसपर किसी जमाने में नीले रंग के फूल बने होंगे. चादर पर वो खून के धब्बे देखती थी. कभी ताजा तो कभी कुछ दिन के सूखे हुए. जिस दीदी के साथ वहाँ जाती वो अक्सर उन दागों को धोने की कोशिश करती. मगर कॉटन की चादर थी. ज्यादा रगड़ने से फट जाती. मामी के बाल महीने में बस एक ही दिन धुलाये जाते. उस दिन के पहले वो रटती रहतीं कि 'तुम अशुद्ध हो'. वर्तमान में खून की गंध के साथ हमेशा उस हस्पताल की गंध और कॉटन की पुरानी चादर का रूखापन साथ चला आता था. मामी के मरने पर वो अंतिम क्रिया के पहले पहुँच नहीं सकी थी. जिन लोगों को हम आखिरी बार नहीं मिल पाते, न उनका पार्थिव शरीर देखते हैं, उनके चले जाने का यकीन कचपक्का सा होता है. 

खून की पहली पहचान उसे मामी के बिस्तर से हुयी थी. बचपन में उसे किसी ने बताया नहीं कि मामी को ऐसा कोई ज़ख्म नहीं है. वो जब भी वो लाल कत्थई निशान देखती तो डॉक्टरों को ज्यादा खूंख्वार होके घूरती. उसे पूरा यकीन था कि डॉक्टर्स उनके ऐसे ज़ख्मों की दवा नहीं कर रहे जो उन्हें सामने नहीं दिखते. उसका डॉक्टर्स के प्रति हलकी घृणा भी उन दिनों की देन थी. उसे अंग्रेजी दवाइयों पर यकीन ही नहीं होता. न रिसर्च पर. और उसे पक्का यकीन भी था कि अगर दवाई में भरोसा नहीं है तो उसकी इच्छाशक्ति के बगैर कोई भी दवा उसे ठीक नहीं कर सकती है. बढ़ती उम्र के इस पड़ाव पर जबकि मेनोपौज कुछ ही दिन दूर था उसे हर गुज़रता महीना एक स्टॉपवॉच की तरह उलटी गिनती करता हुआ दिखता. इन दिनों वह एग्स फ्रीज करने के बारे में भी सोचने लगी थी. नींद में उसे बाबाओं के सपने आते. जाग में उसे इश्वर का ख्याल. मगर हर महीने एक कमबख्त तारीख होती. उसका खौफ इस कदर था कि कैलेण्डर की तारीख से उठ कर उसकी नफरत उस संख्या के प्रति आ गयी. जिस महीने उसके पीरियड्स ७ तारिख को आते, उस पूरे महीने उसके लिए ७ नंबर बेहद मनहूस रहता. इसी नंबर वाली सड़क पर उसका एक्सीडेंट होता. और उन्हीं दिनों जब कि उसे इश्वर की सबसे ज्यादा जरूरत होती थी उसका धर्म उससे सिर्फ उसके देवता ही नहीं उसका मंदिर भी उससे छीन लेता. वो शिवलिंग पर सर रख कर रोना चाहती मगर फिर बहुत साल पहले मामी का अस्पताल बेड पर का बड़बड़ाना याद आ जाता. अशुद्ध हो तुम. अशुद्ध. मुझे मत छुओ. घर जा कर नहा लेना. तीखी गंध उसकी उँगलियों के पोर पोर जलाती. 

उसकी याद में वो कॉलेज का एक दिन आता कि जब उसने महसूस किया था कि माँ बनना क्या होता है. भले ही वो छलावा था मगर कमसे कम जिंदगी में एक ऐसा दिन था तो सही. पिछले हफ्ते भर से ब्लीडिंग रुक ही नहीं रही थी. उसे ऐसा लग रहा था जैसे बदन का सारा खून निचुड़ कर बह जाएगा. डॉक्टर के यहाँ जाने लायक ताकत भी नहीं बची थी. डॉक्टर शर्मा को घर बुलाया गया. बड़ी खुशमिजाज महिला थीं. सुम्मी के खास दोस्तों में से एक. कुछ टेस्ट्स लिखाए और थोड़ी देर गप्पें मारती रहीं. इधर उधर की बातों में दिल लगाये रखा. इसके ठीक तीन दिन बाद उनका फिर आना हुआ, इस बार सारी टेस्ट रिपोर्ट्स साथ में थीं. उससे बात करने के पहले मिस्टर सरकार से आधे घंटे तक बातें कीं. सुम्मी के लिए वे उसकी पसंद का गाजर का हलवा लेकर आई थीं. आज फिर उन्होंने बीमारी की कोई बात नहीं की. उनके जाने के बाद अनंग कमरे में आये थे. उनके चेहरे पर खालीपन था. एक लम्बी लड़ाई के बाद का खालीपन. 'सुम्मी, यूट्रस में इन्फेक्शन है. ओपरेट करके निकालना पड़ेगा. कोई टेंशन की बात नहीं है. छोटा सा ओपरेशन होता है.' कहते कहते उनकी आँखें भर आयीं थीं. देर रात तक दोनों एक दूसरे से लिपट कर रोते रहे. सुबह कठिन फैसले लेकर आई थी. हॉस्पिटल की भागदौड़ शुरू हो गयी. इसके बाद का कुछ भी सुम्मी को ठीक से याद नहीं. रिश्तेदार. दोस्त. कलीग्स. सब मिलने आते रहे. देखते देखते महीना बीत गया और उसकी हालत में बहुत सुधार हो गया. इस ओपरेशन ने सुम्मी में बहुत कुछ बदल दिया. वो जिंदगी में पागलपन की हद तक चीज़ों को अपने कण्ट्रोल में रखती थी. घर के परदे. घर का डस्टर. गार्डन के फूल. सब कुछ उसकी मर्ज़ी से होता था. मगर अब सुम्मी ने खुद को अनंग के भरोसे छोड़ दिया था. जिसने जीवनभर साथ निभाने का वचन दिया है, कुछ उसका हक भी है और उसकी जिम्मेदारी भी. सुम्मी को आश्चर्य होता था कि उसके ठीक रहते अनंग ने कभी खुद से एक ग्लास पानी तक नहीं पिया मगर उसकी बीमारी में हर घड़ी यूं साथ रहे कि जैसे खुद के बच्चे भी शायद नहीं कर पाते. 

ऐसे ही किसी एक दिन अनंग उसके लिए एक गहरी नीले रंग की साड़ी लेकर आये कि तैयार हो जाओ, हमें बाहर जाना है. सुम्मी का मन नहीं था लेकिन उनकी ख़ुशी देखते हुए तैयार हो गयी. कोई सात आठ घंटे का सफ़र था. सुम्मी को नींद आ गयी. नींद खुली तो एक अनाथ आश्रम सामने था. अनंग ने कुछ नहीं कहा. वे अपने रिश्ते में ऐसी जगह पहुँच भी गए थे जब कहना सिर्फ शब्दों से नहीं होता. आश्रम में अन्दर घुसते ही एक छोटा सा तीर आ कर सुम्मी की साड़ी में उलझ गया. सामने एक तीन साल का बच्चा था. धनुष लिए दौड़ता आया. सुम्मी घुटनों के बल बैठ गयी, साड़ी के पल्लू से तीर निकालते हुए वो और अनंग साथ में बुदबुदाए, 'ज्यों नावक के तीर, दिखने में छोटे लगें, घाव करें गंभीर'. सारी फॉर्मेलिटी पूरी कर के वे बाहर आये. अनाथ आश्रम की हेड ने बच्चे का हाथ सुम्मी के हाथ में दिया और बच्चे से बोली, 'आज से ये आपकी मम्मी हैं'. सुम्मी का दिल भर आया था. आँखें भी. उसने उसका नन्हा ललाट चूमते हुए कहा, तुम्हारा एक ही नाम हो सकता है...नावक. 

घर लौटते हुए बहुत देर हो गयी थी. नावक सो गया था. सुम्मी आँगन में चाँद की रौशनी को देख रही थी कि अनंग पीछे से आये और उसे बाँहों में भर लिया. 'आँखें बंद करो और हथेली फैलाओ'. 'अनंग, आज मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए' मगर उसने आँखें बंद कर हथेली खोल दी. अब खोलो आँखें. चाँद रात में उसके चेहरे पर सुनहले धूप सा नूर फ़ैल गया. उसकी हथेली पर एक पैकेट सिगरेट और माचिस रखी थी. उसने सिगरेट का गहरा कश लिया और आसमान की ओर देखा. आह री लड़की. कुछ और ही माँग लिया होता और...मगर आज शायद अनंग की बारी थी मांगने की, 'तुम देखना...तुम्हारी बेटी होगी...बिलकुल तुम्हारे जैसी'.

और उस दिन फ़रिश्ते वाकई सुन रहे थे. डॉक्टर्स भी आश्चर्यचकित थे कि ऐसा कैसे हुआ. सुम्मी अनंग की गोद में अपनी बेटी को देख कर सुख में डूब रही थी कि अनंग ने कहा, इसका नाम मेरी पसंद से रखेंगे, 'मित्रो'. 

30 January, 2016

खोये हुये लोग सपने में मिलते हैं

कभी कभी सपने इतने सच से होते हैं कि जागने पर भी उनकी खुशबू उँगलियों से महसूस होती है. अभी भोर का सपना था. तुम और मैं कहीं से वापस लौट रहे हैं. साथ में एक दोस्त और है मगर उसकी सीट कहीं आगे पर है. ट्रेन का सफ़र है. कुछ कुछ वैसा ही लग रहा है जैसे राजस्थान ट्रिप पर लगा था. ट्रेन की खिड़की से बाहर छोटे छोटे पेड़ और बालू दिख रही है. ट्रेन जोधपुर से गुजरती है. मालूम नहीं क्यूँ. मैंने यूं जोधपुर का स्टेशन देखा भी नहीं है और जोधपुर से होकर जाने वाली किसी जगह हमें नहीं जाना है. सपने में ऐसा लग रहा है कि ये सपना है. तुम्हारे साथ इतना वक़्त कभी मिल जाए ऐसा हो तो नहीं सकता किसी सच में. इतना जरूर है कि तुम्हारे साथ किसी ट्रेन के सफ़र पर जाने का मन बहुत है मेरा. मुझे याद नहीं है कि हम बातें क्या कर रहे हैं. मैंने सीट पर एक किताब रखी तो है लेकिन मेरा पढ़ने का मन जरा भी नहीं है. कम्पार्टमेंट लगभग खाली है. पूरी बोगी में मुश्किल से पांच लोग होंगे. और जनरल डिब्बा है तो खिड़की से हवा आ रही है. मुझे सिगरेट की तलब होती है. मैं पूछती हूँ तुमसे, सिगरेट होगी तुम्हारे पास? तुम्हारे पास क्लासिक अल्ट्रा माइल्ड्स है.  

तुम्हारे पास एक बहुत सुन्दर गुड़िया है. तुम कह रहे हो कि घर पर कोई छोटी बच्ची है उसके लिए तुमने ख़रीदा है. गुड़िया के बहुत लम्बे सुनहले बाल हैं और उसने राजकुमारियों वाली ड्रेस पहनी हुयी है. मगर हम अचानक देखते हैं कि उसकी ड्रेस में एक कट है. तुम बहुत दुखी होते हो. तुमने बड़े शौक़ से गुड़िया खरीदी थी. 

फिर कोई एक स्टेशन है. तुम जाने क्या करने उतरे हो कि ट्रेन खुल गयी है. मैं देखती हूँ तुम्हें और ट्रेन तेजी से आगे बढ़ती जाती है. मैं देखती हूँ कि गुड़िया ऊपर वाली बर्थ पर रह गयी है. मैं बहुत उदास हो कर अपनी दोस्त से कहती हूँ कि तुम्हारी गुड़िया छूट गयी है. गुड़िया का केप हटा हुआ है और वो वाकई अजीब लग रही है, लम्बी गर्दन और बेडौल हाथ पैरों वाली. हम ढूंढ कर उसका फटा हुआ केप उसे पहनाते हैं. वो ठीक ठाक दिखती है. 

दिल में तकलीफ होती है. मैंने अपना सफ़र कुछ देर और साथ समझा था. आगे एक रेलवे का फाटक है. कुछ लोग वहां से ट्रेन में चढ़े हैं. मेरी दोस्त मुझसे कहती है कि उसने तुम्हें ट्रेन पर देखा है. मैं तेजी पीछे की ओर के डिब्बों में जाती हूँ. तुम पीछे की एक सीट पर करवट सोये हो. तुम्हारा चेहरा पसीने में डूबा है. मैं तुमसे थोड़ा सा अलग हट कर बैठती हूँ और बहुत डरते हुए एक बार तुम्हारे बालों में उंगलियाँ फेरती हूँ और हल्के थपकी देती हूँ. ऐसा लगता है जैसे मैं तुम्हें बहुत सालों से जानती हूँ और हमने साथ में कई शहर देखे हैं.

तुम थोड़ी देर में उठते हो और कहते हो कि तुम किसी एक से ज्यादा देर बात नहीं कर सकते. बोर हो जाते हो. तुम क्लियर ये नहीं कहते कि मुझसे बोर हो गए हो मगर तुम आगे चले जाते हो. किसी और से बात करने. मैं देखती हूँ तुम्हें. दूर से. तुम किसी लड़के को कोई किस्सा सुना रहे हो. किसी गाँव के मास्टर साहब भी हैं बस में. वो बड़े खुश होकर तुमसे बात कर रहे हैं. अभी तक जो ट्रेन था, वो बस हो गयी है और अचानक से मेरे घर के सामने रुकी है. मैं बहुत दुखी होती हूँ. मेरा तुमसे पहले उतरने का हरगिज मन नहीं था. तुमसे गले लग कर विदा कहती हूँ. मम्मी भी बस में अन्दर आ जाती है. तुमसे मिलाती हूँ. दोस्त है मेरा. वो खुश होती है तुम्हें देख कर. तुम नीचे उतरते हो. मैं तुम्हें उत्साह से अपना घर दिखाती हूँ. देखो, वहां मैं बैठ कर पढ़ती हूँ. वो छत है. गुलमोहर का पेड़. तुम बहुत उत्साह से मेरा घर देखते हो. जैसे वाकई घर सच न होके कोई जादू हो. मैं अपने बचपन में हूँ. मेरी उम्र कोई बीस साल की है. तुम भी किसी कच्ची उम्र में हो. 
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कहते हैं कि सपने ब्लैक एंड वाइट में आते हैं. उनमें रंग नहीं होते. मगर मेरे सपने में बहुत से रंग थे. गुलमोहर का लाल. गुड़िया के बालों का सुनहरा. तुम्हारी शर्ट का कच्चा हरा, सेब के रंग का. बस तुम्हारा चेहरा याद नहीं आ रहा. लग रहा है किसी बहुत अपने के साथ थी मगर ठीक ठीक कौन ये याद नहीं. सपने में भी एक अजनबियत थी. इतना जरूर याद है कि वो बहुत खूबसूरत था. इतना कि भागते दृश्य में उसका चेहरा चस्पां हो रहा था. लम्बा सा था. मगर गोरा या सांवला ये याद नहीं है. आँखों के रंग में भी कन्फ्यूजन है. या तो एकदम सुनहली थीं या गहरी कालीं. जब जगी थी तब याद था. अब भूल रही हूँ. हाँ चमक याद है आँखों की. उनका गहरा सम्मोहन भी. 

सब खोये हुए लोग थे सपने में. माँ. वो दोस्त. और तुम. मुझे याद नहीं कि कौन. मगर ये मालूम है उस वक़्त भी कि जो भी था साथ में उसका होना किसी सपने में ही मुमकिन था. मैं अपने दोस्तों की फेरहिस्त में लोगों को अलग करना चाहती हूँ जो खूबसूरत और लम्बे हैं तो हँसी आ जाती है...कि मेरे दोस्तों में अधिकतर इसी कैटेगरी में आते हैं. रास्ता से भी कुछ मालूम करना मुश्किल है. जबसे राजस्थान गयी हूँ रेगिस्तान बहुत आता है सपने में. पहले समंदर ऐसे ही आता था. अक्सर. अब रेत आती है. रेत के धोरे पर की रेत. शांत. चमकीली. स्थिर. 

उँगलियों में जैसे खुशबू सी है...अब कहाँ शिनाख्त करायें कि सपने से एक खुशबू उँगलियों में चली आई है...सुनहली रेत की...

25 January, 2016

एक था इमलोज


उसका नाम लोरी था. ठीक ठीक मालूम नहीं क्यूँ. मगर इक शाम काफिया उसके साथ पहाड़ो पर चाँद की शूट पर गया था तो महसूस होता था...उसके साथ का हर लम्हा किसी स्वप्न की मानिंद होता था. जाग के किसी लम्हे उसके भागते दुपट्टे का कोर भी हाथ नहीं आ सकता. उसके साथ होते ही सपनों के चमकीले रंग खुलते थे. जो कहीं नहीं हो सकता था, वो होता था.

लोरी को बचपन में किसी ने मज़ाक में कह दिया कि आँगन के इस शम्मी के पेड़ से तुम्हारी शादी हो गयी है. अब ये पेड़ तुम्हारा जीवनसाथी है. बच्ची ने भोलेपन में पूछा जीवनसाथी मने? तो उससे जरा ही बड़ी फागुन दी ने बताया कि बेस्ट फ्रेंड. उस दिन के बाद से लोरी की किसी से गहरी दोस्ती नहीं हुयी. उसके सारे दोस्त उसका मजाक उड़ाते थे कि लोरी का बेस्ट फ्रेंड एक पेड़ है. लोरी छोटी थी तब से स्कूल में बहुत से दोस्त होते थे उसके...ये अचानक से सबका रूठ जाना उसे बिलकुल रास नहीं आया. वो रोज़ घर आ कर शम्मी को सब कुछ सुनाती. शम्मी मगर उसके किसी सवाल का जवाब नहीं देता. हाँ सुनने का धैर्य उसमें असीमित था. वो सब कुछ सुन लेता था. घर की बातें भी. माँ का डर कि अगर पिताजी घर नहीं लौटे तो इस महीने का खर्चा कहाँ से आएगा...लोरी के लिए इस बार नयी स्कूल ड्रेस नहीं आ पाएगी या कि ये भी कि स्कर्ट को रात भर में सुखाने के लिए चूल्हे के ऊपर गरमाया जाता है और इसमें कोयले ख़त्म हो जाते हैं तो उसे ठंढा दूध ही पीना पड़ेगा रात में. लोरी ये सब समझती थी. और साथ में शम्मी का पेड़ भी.

धीरे धीरे लोरी बड़ी होती गयी और साथ में शम्मी का पेड़ भी. देखते देखते पेड़ की सबसे मोटी शाख पर एक बड़ा सा झूला लग गया. लोरी को बिलकुल अच्छा नहीं लगता कि उसके पेड़ पर मोहल्ले भर के बच्चे झूलें, आंटियां अपनी सासों की बुराई करें. मगर लोरी को समझाया गया कि वो भले ही सिर्फ शम्मी के पेड़ की है पूरी की पूरी और उसे इमानदारी से पेड़ के प्रति अपना प्रेम बिना बांटे बरकरार रखना है लेकिन शम्मी का पेड़ सिर्फ उसका नहीं है. उसपर बाकी लोगों का भी हक बनता है और उसे एक समझदार लड़की की तरह ये बात समझनी चाहिए और इस पर कोई हल्ला हंगामा खड़ा नहीं करना चाहिए. आखिर पेड़ ने तो कभी हामी नहीं भरी थी कि वो पूरा का पूरा लोरी का ही है और उससे किसी का कुछ भी जुड़ नहीं सकता. फिर ये भी तो बात थी कि पेड़ पर झूला पड़ जाने से लोरी को कोई दिक्कत तो नहीं थी. ऐसा थोड़े है कि उसके हिस्से का छीन कर किसी के हवाले किया जा रहा था. इतने बड़े पेड़ को वो अपने स्कूल बैग में लिए थोड़े न घूम सकेगी. लोरी बहुत समझदार बच्ची थी. सब समझ गयी. अब उसकी अपने शम्मी से अकेले में मुलाकातें काफी कम हो गयीं थीं. सिर्फ कभी कभी जब पूरनमासी की रात होती तो वह शम्मी के पास आ जाती और झूले पर हौले हौले झूलती रहती. या कभी कभी ऐसा दिन होता कि किसी ने उसको स्कूल में बहुत चिढ़ाया होता तो वो उसकी शिकायत करने शम्मी के पास आ जाती.

शम्मी का पेड़ उसकी जिंदगी में कम शामिल हो गया हो ऐसा नहीं हुआ कभी. लोरी की दुनिया में अब भी सब कुछ शम्मी के इर्द गिर्द ही घूमता था. जैसे जैसे उसकी उम्र सोलह के पास जा रही थी लोरी के सपनों का रंग बदलता जा रहा था. उसने शम्मी के पेड़ का नाम रखा था. दुनिया में उसके हिसाब से आदर्श प्रेमी...इमरोज़...आखिर शम्मी भी तो उसे अपनी सारी बातें करने देता था. कभी जलता नहीं था. कभी मना नहीं करता था. लोरी के दिन रात में अलग अलग चीज़ें घुलने लगी थीं. वो अक्सर अपने बैग में शम्मी के पत्ते लिए घूमती थी. उसे लगता था कि उसकी उँगलियों से एक ख़ास खुशबू आती है...इमरोज़ की. लोग उसे समझाते थे कि शम्मी के पत्तों में गंध नहीं होती और दुनिया में किसी भी इत्र का नाम इमरोज़ नहीं है. लोरी की उम्र में लेकिन खुदा पर भी यकीन नहीं होता और हवा में उड़ती आयतें भी दिखती हैं.

उसकी सारी दोस्तों के महबूब होने लगे थे. लोरी ने एक दिन देखा कि उसकी ही छोटी बहन धानी ने शम्मी के पेड़ पर अपने नाम पहला अक्षर प्रकार से खोद खोद कर लिख दिया. प्रकार की तीखी नोक लोरी के दिल को बेधती निकली थी. वो कितना ही अपनी बहन पर चीखी चिल्लाई मगर पेड़ पर लिखा अंग्रेजी का कैपिटल D और उसके इर्द गिर्द बना हुआ आधा दिल उसके सपनों में रात रात चुभता रहता. उसके लाख चाहने पर पेड़ पर खोदा हुआ कुछ गायब नहीं किया जा सकता था. उसे मिटाने के लिए उस पूरे हिस्से की छाल को हटाना होता. इससे इमरोज़ का दिल दुखता. लोरी को हिम्मत नहीं हो पायी कि वो तीखी ब्लेड से छील कर छाल का वो हिस्सा अलग कर दे. इमरोज़ शायद कहना चाहता होगा उससे कि वो सिर्फ एक पेड़ है, कुछ भी नहीं कर सकता अगर कोई उसपर अपना नाम लिख देना चाहे तो. इमरोज़ लेकिन जाने क्या कहना चाहता था. लोरी को कभी मालूम नहीं चल पाता. अब वो बचपन के दिन नहीं थे कि उसे रोज़ पानी देना होता था और अगली सुबह पत्तों के रंग से इमरोज़ की ख़ुशी या गम का पता चल जाता. लोरी हमेशा कहती थी कि जिस सुबह वो शम्मी में जल डालती है शम्मी के पत्तों का रंग ज्यादा चमकीला होता है. लोरी को जानने वाले उसकी किसी भी बात का यकीन करते थे...तो इस बात को मानने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती थी. लोरी ने चाहा कि उस जगह पर आर्किड के पौधे लगा दे. बेल के नीचे शायद वो एक अक्षर छिप जाएगा और उसे चैन से नींद आ सकेगी. कुछ छलावे भी जीवन में जरूरी होते हैं ये उसने पहली बार जाना था.

इकतरफे प्रेम के बहुत रंग होते हैं. लोरी की सहेलियों ने महसूस किया था कि लड़के दिल तोड़ने की कला एक ही स्कूल से सीख कर आते हैं. इस स्कूल में लड़कियों की एंट्री बंद थी. लोरी अपने इमरोज़ को रोज़ एक नए टूटे हुए दिल की दास्तान सुनाती और इमरोज़ अपनी पूरी पेशेंस के साथ सुनता. लोरी अब इमरोज़ से निशान मांगने लगी थी कि उसने लोरी की बात ठीक से सुनी कि नहीं. बातें सिंपल होती थीं कि जैसे अगर इमरोज़ को लगता है कि फलाना ने उस लड़के का प्रपोजल ठुकरा के ठीक किया तो कल सुबह जब लोरी उसके पास आएगी तो उसकी शाख पर एक तोता बैठा हुआ होना चाहिए. लोरी बहुत ख्याल रखती थी इमरोज़ का...कभी कोई उलटी सीधी माँग नहीं रख देती थी कि जैसे अगर उसकी बात सच है तो कल इमरोज़ की शाख पर फुलवारी चचा की भैंस चढ़ी हुयी मिले तब ही सबूत पर यकीन करेगी. इमरोज़ भी उसके सवालों के हिसाब से जवाब देता था. जैसे जैसे लोरी की उम्र बढ़ रही थी, उसकी खूबसूरती भी बढ़ती जा रही थी. ऐसे में इमरोज़ भी अक्सर उसे इश्क़ को बचाए रखने के लिए अपनी तरफ से कोशिशें कर लेता था. जब लोरी की सहेलियां उसे बहुत चिढ़ातीं तो लोरी को शक होने लगता कि उसकी और इमरोज़ की मुहब्बत सिर्फ उसके अपने दिमाग की उपज है. मगर फिर वो बायोलोजी की किताबें पढ़ती, कि जब जगदीश चन्द्र बोस ने कहा था कि पौधों में भी जान होती है. वो इमरोज़ की संगीत की समझ बचपन से विकसित कर रही थी. अब तो इमरोज़ जैज़ सुनकर झूमने ही लगता था. कभी कभी तो इमरोज़ तितलियों को अपनी ओर मिला लेता. उन दिनों लोरी को किसी न किसी कोटर में कभी फूल मिलते तो कभी कच्चे अमरुद और टिकोले. उसकी किसी सहेली के बॉयफ्रेंड को नहीं पता था कि लड़कियां चमकदार गोटे में लगी चीज़ें देख कर खुश भले हो जाएँ उनका दिल कच्ची अमिया और खट्टे अमरूदों में लगता है. ये बात इमरोज़ के सिवा किसी को मालूम ही नहीं होती थी. इमरोज़ किसी लड़के को ये सब बताता भी तो नहीं था.

लोरी के इमरोज़ की बराबरी किसी लड़के से हो ही नहीं सकती थी. यूं उसकी सारी सहेलियां भी अपने अपने महबूब को लेकर आसमान तक कल्पनाएँ करती थीं मगर लोरी की कविता की एक पंक्ति के आगे किसी की बात नहीं ठहरती थी. चाँद के साथ रोज खिड़की से झाँकने वाला महबूब किसी की किस्मत में कहाँ लिखा होता है. फिर इमरोज़ की जड़ें लोरी के घर में थी...वहां से उसे कौन निकाल सकता है. हर मुहब्बत की उम्र लेकिन आसमानों में तय होती है...और इमरोज़ कितना भी ऊंचा लगता हो लोरी की छोटी सी दुनिया में मगर खुदा के दरबार तक तो न उसकी कोई डाली पहुँचती थी न लोरी की कोई दुआ. घर वालों को जाने किस दिन लगा कि लोरी इमरोज़ के इश्क़ में कुछ ज्यादा ही दीवानी हो रही है. वे उसका नाम किसी गुमशुदा कॉलेज में लिखवा आये. दुनिया के दूसरे छोर पर खुले उस कॉलेज की जलवायु एकदम अलग थी. वहां शम्मी के पेड़ नहीं होते थे. लोरी गुलमोहर की नन्ही पत्तियां देखती और उसका नन्हा सा दिल दहकते गुलमोहरों की तरह जल उठता. बेरहम दुनिया ने इश्क़ के किसी रंग को कब समझा था जो लोरी की उदास आँखों और गीले खतों के कागज़ से जान जाए कि इमरोज़ को किसी दूसरे शहर भेजना कितना नामुमकिन है. 

ये वोही दिन थे जब लोरी चुप होती जा रही थी. उसके इर्द गिर्द शोर बढ़ता जा रहा था मगर उसका दिल उसकी आँखों की तरह शांत हो रहा था. ऐसी किसी चुप्पी शाम लोरी गुलमोहर के पेड़ के नीचे बैठी इमरोज़ को ख़त लिख रही थी कि सामने एक बेहद खूबसूरत लड़के को देख कर हड़बड़ा गयी. वो उसकी नोटबुक देख रहा था. उसने हरे रंग का हल्का कुरता पहन रखा था. लोरी के चेहरे पर अनायास मुस्कान आ गयी. ये वैसा ही रंग था जब बचपन में इमरोज़ को पानी देती थी तो शाम उतरते वो इतराने लगता था. मुहब्बत का रंग. शांत हरा. लड़के का नाम काफिया था. इस गुलमोहर के नीचे वो अक्सर सिगरेट पीने आता था. इधर कुछ दिन से चूँकि यहाँ लोरी स्केच किया करती थी वो कहीं और जा के कश मार लेता था. मगर जगहों की आदत भी लोगों से कम बुरी नहीं होती. पूरे दो हफ्ते तक लोरी रोज़ इसी गुलमोहर के नीचे इसी वक़्त दिखती थी. आज काफिया का दिल नहीं माना तो वो भी इधर ही चला आया. लोरी मुस्कुरा कर ख़त लिखती रही. काफिया अनमना सा सिगरेट फूंकता रहा. काफिया ने नोटिस किया कि जिस दिन वो हरे रंग का कुर्ता पहनता है लड़की के चेहरे पर मुस्कराहट खेलती रहती है. आखिर एक दिन उससे रहा नहीं गया तो उसने लोरी को टोक ही दिया...'मेरा नाम काफिया है, आपको हरा रंग बहुत पसंद है न?'...लोरी ने आँखें ऊपर उठायीं तो काफिया को लगा कि उसकी आँखें हरी हैं...सिर्फ इसलिए कि वो उसके रंग में रंग जाना चाहती है...लोरी ने कहा, 'मेरा नाम लोरी है'...'लेकिन लोरी में तो काफिया नहीं मिलता'...'जी?!' काफिया भी हड़बड़ा गया...जाने क्यूँ घबरा गया था वो...ऐसा कुछ कहने का इरादा तो नहीं था. पर उस दिन के बाद दोनों अक्सर बातें करने लगे थे. लोरी ने बहुत दिनों बाद किसी को पाया था जो उसकी बातें सिर्फ सुनता ही नहीं था, बल्कि वापस बातें भी करता था. हालाँकि लोरी ने कभी उसका हाथ नहीं पकड़ा था लेकिन उसकी ख्वाहिश होती थी कि वो जाने कि सिगरेट पीने से उँगलियाँ कैसी महकती हैं...इक रोज़ ऐसे ही गुलमोहर के नीचे पड़े सिगरेट के टुकड़े को लेकर सूंघ रही थी कि काफिया वहां आ गया. वो बुरी तरह झेंप गयी कि उसकी चोरी पकड़ी गयी थी.

लोरी ने अब तक अपनी ओर से बनायी हुयी दुनिया के रंग ही देखे थे. इमरोज़ का सारा इश्क़ उसके बनाए रंगों में घुलता था. ये सारे शुद्ध रंग होते थे. लाल. पीला. नीला. काफिया के साथ होने से रंगों में मिलावट होने लगी थी. एक दिन उसके लिए रजनीगंधा के फूल लेता आया तो शाम का रंग गुलाबी हो गया. एक दिन डार्क चोकलेट ले आया तो रातें नीली सियाह हो गयीं कि तारे और भी तेज़ चमकते महसूस होते थे और चाँद के किनारे इतने तीखे थे कि सपनों के कट जाने का डर लगता था. लोरी ने डर जाना नहीं था कि उसका दिल कभी टूटा नहीं था. मगर उसने कभी लौटती आवाज़ भी नहीं जानी थी. उसे मालूम नहीं था कि इश्क़ में किसी का एक नज़र भर देख लेना अपने पूरे वजूद को सुकून से भर लेना हो सकता है. इक रोज़ काफिया और लोरी ट्रेक करके पहाड़ों पर बर्फ की शूट पर गए थे. चाँद के स्वप्निल रंगों में सब जादू था. उसकी चुप्पी में बहुत सी जगह थी. मगर काफिया मिलना चाहता था...लोरी में बंधना चाहता था. काफिया की आवाज़ बहुत गहरी थी. रूह के किसी वाद्ययंत्र से निकलती. रात की ठंढ में कॉफ़ी का मग लोरी को देते हुए उसके कानों में गुनगुनाया...हवा की शरारत भरी सरगोशी के साथ. 'इश्क़. तुमसे. जानां.' लोरी ने पहली बार इस कदर ठंढ और थरथराहट महसूस की कि अचानक किसी की बाँहों में सिमटने को जी चाहा. उसे मालूम नहीं था किसी की बांहों में सिमटना क्या होता है मगर जब काफिया उसके इर्द गिर्द बंधा तो लोरी ने पहली बार खुद को मुकम्मल महसूस किया.

लोरी लौटी तो काफिया की हो चुकी थी. इक आवाज़ पर उसने अपनी जिंदगी के सारे पन्ने लिख दिए थे. जवाब देना कुछ लोगों के लिए कितना जरूरी हो जाता है. लोरी यूं हवा में घुल जाती और रह जाती यादों में सिर्फ एक प्रतिध्वनि की तरह और उसे अफ़सोस नहीं होता. मगर अब कोई था जो उसे हर लम्हा गुनगुनाता रहता था. हर बार अलग अलग सुर में, अलग अलग शब्दों में. शादी के बाद लोरी पेरिस चली गयी. अब उसे जगदीश चन्द्र बोस की किताबें पढ़ने वाला कोई नहीं मिलता था जो उसे कहे कि पेड़ों को भी अलविदा कहना चाहिए. शादी के एक दिन पहले रात को चुपचाप शम्मी के पेड़ के नीचे गयी. 'इमरोज़. अब कौन पुकारेगा तुम्हें इस नाम से...मेरी यादों में जैसे तुम गुम हो रहे हो...तुम्हारी यादों से वैसे ही मैं भी गुम हो जाउंगी न?' विदाई में सबके सीने लग के रोई और इमरोज़ की ओर बस एक नज़र भर देखा. इतने लोगों के सामने कैसे विदा कहती. उसका और इमरोज़ का रिश्ता तो बस उसकी दिल की धड़कनों तक था. इमरोज़ तक हवाएं उसकी महक बहुत दूर से तलाश कर लाती रहीं. कई बारिशों तक. मगर उस दिन के बाद लोरी ने इमरोज़ का नाम कभी नहीं लिया.
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इसके बहुत साल बाद कोई साल. 

हर माँ बेटे के अपने खेल होते हैं. सीक्रेट वाले. जो पूरे घर से छुपा कर खेले जाते हैं. धानी ने घर वालों के सामने एक ही शर्त रखी थी कि उसके लिए लड़का उसी शहर में ढूँढा जाये. वो अपने मायके के आसपास रहना चाहती है. यूं भी लोरी की शादी इतने सात समंदर पार हुयी थी कि घर वाले चाहते भी थे कि छोटी कमसे कम पास रहे. बेटियों के बिना घर सूना लगता है. धानी का दूल्हा बड़ा खूबसूरत बांका नौजवान था. शादी के साल होते ही घर में बेटे की किलकारियां गूंजने लगी. चूँकि उसका मायका इतना पास था तो रिवाज़ के हिसाब से धानी साल दो साल मायके में ही रहती थी. इन्ही दिनों उसके बेटे ने बोलना सीखा था. दोनों माँ बेटा गरमी की दुपहरों में पूरे घर से भाग कर शम्मी के पेड़ के नीचे चादर डाल कर पिकनिक मना रहे होते तो कभी झूला झूल रहे होते थे. तीखी गर्मियों में शम्मी का पेड़ पूरी तरह फ़ैल जाना चाहता कि धूप का कोई टुकड़ा उन्हें झुलसा न सके. धानी उन्हीं दिनों अपने बेटे को शब्द सिखा रही थी. 

शाम ढल आई थी...आम के बौर के मौसम थे...धानी झूले पर हल्के हल्के झूल रही थी और लाड़ में बेटे से पूछ रही थी, 'अच्छा, बताओ, मम्मा प्यारा बेटा को क्या बुलाती है जो कोई नहीं जानता?' फूल से खिलते उस बच्चे ने अपनी तोतली बोली में कहा 'इमलोज'...धानी उसे ठीक से समझा रही थी, 'इमलोज नहीं बेटा, फिर से बोलो...इम रो ज़'...बच्चा अपनी तुतलाहट को पूरे हिसाब से बाँध कर कहता है, 'इमरोज'. धानी खिलखिला उठती है. बेटे को गोदी में भर कर गोल गोल नाचती है और झूले में पींग दिए जाती है...ऊंची...ऊंची और ऊंची...

शम्मी के पेड़ की भाषा कोई नहीं जानता लोरी के सिवा. उसकी शाखों पर रोज़ तोतई रंगों का कोलाज होता है. उनकी सुर्ख लाल चोंच इश्क़ के रंग सी होती है. लाल. शम्मी की रुलाई को हरसिंगार थामे रहता है. जमीन के बहुत नीचे उनकी जड़ें आपस में गुंथ गयी हैं. जब इमरोज़ बहुत उदास होता है तो रात रात भर हरसिंगार के गले लग कर रोता है. अगली सुबह हरसिंगार के सफ़ेद फूलों की चादर बिछी होती है. लोग कहते हैं हरसिंगार के फूलों का मौसम साल में एक बार आता है. इमरोज़ को नहीं पता कि याद का मौसम कितने बार आता है. मगर जब भी धानी का नन्हा बेटा उसके इर्द गिर्द घूमता हुआ अपनी तोतली जुबान में कहता है, इमलोज, तो शम्मी के पेड़ के सारे पत्ते उड़ते उड़ते किसी दूर समंदर में गिर के मर जाना चाहते हैं...उस रात बेमौसम भी हरसिंगार के नीचे बहुत बहुत बहुत से फूल गिर जाते हैं...और कोई नहीं जानता कि याद का मौसम बेमौसम भी आता है. इश्क़ की तरह.

धीरे धीरे धानी का बेटा बड़ा हो रहा था. उसने बड़े प्यार से उसका नाम विधान रखा था. उसका घर और मायका इतना पास था कि अक्सर आती जाती रहती. लोग भूल ही गए थे कि शम्मी के उस पेड़ को कभी इमरोज़ कह कर पुकारता था कोई. कि लोरी ने उसका नाम इमरोज़ के नाम पर रखा था. धानी के बेटे ने उसे इमलोज क्या कहना शुरू किया पूरा घर उसे इमलोज कहने लगा. बात यहाँ तक हुयी कि विधान कोई बदमाशी करता तो लोग उसे 'इमलोज का बच्चा' कह कर मारने को दौड़ते. लेकिन वो नन्हा सा विधान अब उतना छोटा नहीं रहा था. भाग कर बिल्ली की तरह अपने इमलोज की घनी शाखों पर छुप जाता. यूं हर किसी को उसके कांटे चुभते मगर जाने विधान और इमलोज की ये कैसी यारी थी कि आज तक बच्चे को एक खरोंच तक नहीं आई थी. मुहब्बत के दिन थे कि जब लोरी का वापस लौटना हुआ. बिना किसी को बताये वो अचानक पहुँच गयी थी कि सबको सरप्राइज देगी. घर के गेट से अन्दर घुसी तो देखती है कि माँ, बाबा, बड़ी मम्मी सब लोग उसके इमरोज़ को घेर कर खड़े हैं और प्यार मनुहार से एक एक करके बात कर रहे हैं. ये क्या अजूबा हरकत है सोचती वो दरवाज़े पर ही खड़ी थी कि धानी साड़ी का लपेटा लिए उधर से आई 'इमलोज के बच्चे, नीचे उतर वरना तेरे साथ साथ तेरे इमलोज की भी डाली तोड़ दूँगी'. 'नहीं...मम्मी...सॉरी...सॉरी'...प्लीज इमलोज को कुछ मत करना', इसके साथ ही धम्म से कोई पांच साल का बच्चा नीचे कूदा और सीधे हरसिंगार की ओर भागता आया और लोरी के पीछे छुप गया. जहाँ लोरी को देख कर घर वाले ख़ुशी से पागल हो जाते...यहाँ सब ऐसे घबराए जैसे उसके पीछे उन्होंने लोरी की जमीन हड़प ली हो. 'वो दीदी, कुछ नहीं ये तुम्हारा विधान का किया धरा है...इसी ने तुम्हारे इमरोज़ का नाम बिगाड़ा है'. लोरी को शायद खुद से उतना सदमा नहीं लगता लेकिन धानी के सफाई देने से बरसों पुराना बचपन का किस्सा याद आ गया कि जब उसने इमरोज़ पर अपने नाम का पहला अक्षर खोद दिया था.
रात भर लोरी को नींद नहीं आई. पैर पटकती कमरे में चहलकदमी करती सोचती रही कि ऐसा कौन सा अकाट्य तर्क हो कि जिसके सामने लोग शम्मी के पेड़ को काटने को राजी हो जाएँ. प्रेम का अधिकार भाव जब अपनी पूरी तीक्ष्णता के साथ मुखर होता है तो उसमें किसी तरह की करुणा नहीं रहती. लोरी कोई रियायत नहीं बरतना चाहती थी. आखिर उसे एक ऐसा कारण मिल ही गया जिसके आगे सब हार जाते.
'मम्मा, मैं इस बार एक बहुत ख़ास काम से आई हूँ...लेकिन लगता नहीं है कि ऐसा हो पायेगा'.
'अरे लोरी, ऐसा क्या हो गया...बता मुझे क्या मुश्किल है?'
'वो मम्मा, तुम तो जानती हो, शादी के सात साल होने को आये, कोई बाल बच्चा नहीं है. हम सब जगह दिखा के हार गए लेकिन डॉक्टर्स के हिसाब से कहीं कोई दिक्कत नहीं है. एक दिन पेरिस में एक बहुत पहुंचे हुए बाबा मिले. उन्हें मेरे बारे में सब पता था. ये भी कि घर में एक शम्मी का पेड़ है जिसका मैंने कोई नाम रखा है.'
'सच्ची. तब तो वाकई बहुत पहुंचे हुए बाबा थे...क्या कहा बाबा ने?'
'वो माँ...अब तो नहीं लगता है कि उनका कहा सच हो पायेगा. उन्होंने कहा है कि इसी शम्मी के पेड़ को काट कर उसके तने के भीतरतम हिस्से से एक लड्डू गोपाल की मूर्ति बनवा कर गंगा में विसर्जित करनी होगी. पेड़ शापित है. उसके कारण ही घर में संतान का अभाव है. अब तुम ही बताओ माँ, विधान और धानी के रहते कैसे पेड़ कटवा दूं मैं'
माँ आखिर माँ थी. इस वजह के आगे तो कोई तर्क वाजिब नहीं ठहरता. सबने निश्चय किया कि धानी और विधान को इस बारे में कुछ नहीं बताएँगे और जल्द से जल्द पेड़ कटवा देंगे ताकि लोरी वक़्त पर घर लौट सके और उसे टिकट पोस्टपोन नहीं करना पड़े. लोरी ने खुद से फोन करके बिजली से चलने वाली आरी का इन्तेजाम किया.

उधर धानी और विधान दोपहर को मीठी नींद सो रहे थे कि अचानक एक ही सपने से दोनों की आँख खुली और वे इमलोज को लेकर भयानक घबराहट में घिर गए. धानी ने एक सेकंड तो सोचा कि मन का वहम है मगर फिर कुछ था जो उसे तेजी से घर की ओर खींच रहा था. उसने मन को समझाया कि इसी बहाने लोरी से भी मुलाक़ात हो जायेगी. फटाफट तैयार होकर दोनों माँ बेटा चल दिए. घर की गली के मोड़ पर ही धानी का दिल आशंका से डोलने लगा. दरवाजे जैसे ही पहुंची वैसे ही इमलोज धराशायी हुआ. उसकी चीख इतनी गहरी थी कि इमलोज की जड़ें तक सिहर गयीं. लोरी का चेहरा सपाट चट्टान बना हुआ था जिसपर कुछ भी पढ़ना नामुमकिन था. इमलोज के सीने में दफ्न राज़ तो लेकिन और भी गहरे थे. हर पेड़ के तने में वर्तुल बने होते हैं जिससे पेड़ की उम्र पता चलती है. शम्मी के पेड़ के सबसे छोटे वलयों में स्पष्ट रूप से अंग्रेजी का L दिख रहा था. भीतरतम के वलय जो कि सबसे पुराने होते हैं. पेड़ के बचपन के. इसी अक्षर की अनुकृति थे मगर जैसे जैसे बाहरी वलय बन रहे थे, उनका कोण बदलता गया था और वो अंग्रेजी के V जैसे होते गए थे. विधान और लोरी दोनों ही चुप थे. शम्मी का पेड़ अपने दिल में इतने गहरे राज़ लिए जी रहा था कि उसके जीते जी किसी को नहीं मालूम चलता. ये कैसा इश्क़ था. ये कैसी चुप्पी थी.

उस साल के बाद हरसिंगार में कभी फूल नहीं आये. जाने क्यूँ धानी को ऐसा लगता था कि ये बात सिर्फ उसे मालूम है. घर में तो और किसी को अब ये भी याद नहीं कि कभी यहाँ एक शम्मी का पेड़ था...जिसका नाम था इमलोज.

24 January, 2016

कविताओं का जीवन में लौट आना

मुझे क्या हो गया है. ऐसा तो नहीं है कि मैंने पहले कवितायें नहीं पढ़ीं. या शायद नहीं पढ़ीं. बचपन में या कॉलेज के लड़कपन में पढ़ी होंगी. होश में ध्यान नहीं है कि आखिरी कौन सी कविता पढ़ी थी कि जिसे पढ़ कर लगे कि रूह को गीले कपड़े की तरह निचोड़ दिया गया है. कलेजे में हूक सी उठ जाए कि जैसे प्रेम में होता है...या कि विरह में. 

मैं बहुत दिन बाद कागज़ की कवितायें पढ़ रही हूँ. किताब को हाथ में लिए हुए उसके धागों को अपनी आत्मा के धागों से मिलता हुआ महसूस करती हूँ. पन्ना पलटते हुए शब्द मेरी ऊँगली की पोरों में घुलते घुलते लगते हैं. जैसे बरसों की प्यासी मैं और अब मुझे शब्द मिले हैं और मैं ओक ओक पी रही हूँ. समझती हूँ जरा जरा कि मुझे प्रेम की उत्कंठा नहीं थी जितनी किताबों की थी. मेरा मन पूरी दुनिया तज कर इस कमरे की ओर भागता है जहाँ मेरी इस बार की लायी किताबें सजी हुयी हैं. मुझे मोह हो रहा है. इन पर मेरा अपार स्नेह उमड़ता है. मन शब्दों में पगा पगा दीवानावार चलता है. 

सुबह को लगभग सात बजे उठ जाने की आदत सी है. उस वक़्त घर में सब सोये रहते हैं. शहर भी उनींदा रहता है और कोई आवाजें मेरा ध्यान भंग नहीं करतीं. खिड़की से रौशनी नहीं आती बस एक फीका उजास रहता है. ज़मीन पर पढ़ना मुझे हमेशा अच्छा लगता है. दीवार की ओर एक पतला सा सिंगल गद्दा है जिसपर सफ़ेद चादर है जिसमें पीले और गुलाबी फूल बने हैं. कल मैं दो कुशन खरीद के लायी. मद्धम रंग के खूबसूरत कुशन कि जिन्हें देख कर आँखों को ठंढक मिले. आजकल कमोबेश रोज ही उठते हुए मेरा कुछ लिखने को दिल करता है. मगर आज जाने क्यूँ लिखने का मन नहीं था. 

कमलेश की किताब 'बसाव' को पढ़ने का मन किया. ये किताब अनुराग ने दिल्ली पुस्तक मेले में अपनी तरफ से गिफ्ट की है...कि तुम्हें कमलेश को पढ़ना चाहिए. किताब अँधेरे में खुलती है और जैसे जैसे कवितायें पढ़ती जाती हूँ ये किताब मन में किसी पौधे की तरह उगती है. बारिश के बाद की गीली, भुरभुरी मिट्टी...गहरी भूरी...और नए पत्तों की कोमल हरीतिमा. किताब मन में उगती है. जड़ें जमाती हुयी. मुझे याद नहीं मैंने ऐसी आखिरी किताब कब पढ़ी थी. अगला पन्ना पलटते हुए आँखों में होता है एक भोला इंतज़ार. बचपन के इतवारों की तरह कि जब घर की छत पर से देखा करते थे दूर का चौराहा कि आज कौन मेहमान आएगा. कौन से दोस्त. कौन वाले अंकल. झूले पर कौन झूलेगा साथ. ये कवितायें मुझे भर देती हैं एक सोंधी गंध से. गाँव में चूल्हा लगाती हुयी दादी याद आती है. लकड़ी से उठता धुआं और कोयले. लडुआ बनाने की तैय्यारी और गीला गुड़. मेरी नानी और मेरी माँ. शमशानों को पढ़ते हुए मुझे याद आते हैं वो पितर जो कहीं दूर आसमानों में हैं.

ऐसी भी होती है कोई किताब क्या...ऐसा होता है कवि और ऐसी होती हैं कवितायें...मन में साध जागती है कि हाँ...ऐसा ही होता है जीवन...और इसलिए जीना चाहिए. कि हम भर सकें खुद को. कि किताबें मुझे और वाचाल बनाती हैं. 

मैं पृष्ठ संख्या ७७ पर ठहरती हूँ. एक आधी तस्वीर खींचती हूँ. खिड़की से धूप उतर आई है. चौखुट धूप और किताब पर रखी है महीन होके. इस शहर में धूप कितनी दुर्लभ है. किताब पढ़ने के पहले फिर शब्द उतरते हैं मन पर. अपनी बोली में. वे शब्द जिन्हें भूले अरसा हुआ. दातुन. खजूर का पेड़. कुच्ची. कुइय्या. दिदिया. हरसिंगार. मौलश्री. तुलसी चौरा. एन्गना. भागलपुरी नहीं बोल पाने की कसक चुभती है. मन करता है कि चिट्ठियां लिखूं. अपने गुरुजनों को. कि जिन्होंने भाषा सिखाई. जिन्होंने लिखना सिखाया. जिन्होंने जीना सिखाया. और फिर मित्रों को. स्नेह भीगी चिट्ठियां. भरी भरी चिट्ठियां. 

मैं पढ़ती हूँ आगे, कुछ कहानियों जैसा है...प्राक्कथन. कविता के पीछे की कहानी. कैसे बसते हैं बसाव. इंद्र का सिंहासन डोलता है. दानवान, यज्ञवान, सत्यवान पौत्र अपने अपने हिस्से का पुण्य देते हैं. कहाँ चले गए थे ये किरदार. मेरे जीवन ही नहीं मेरी कहानियों से भी लुप्त हो गए थे. मैं सोचती हूँ कि कितनी चीज़ों से बने होते हैं हम. क्या क्या खो जाता है हर एक इंसान के जाने के साथ ही. अपने शहर से अलग होने के कारण हमसे छिन जाते हैं वो सारे वार्तालाप भी जो चौक चौराहों तक इतने सरल और सहज थे जैसे कि वो उम्र और वो जीवन. कि प्रेम कितना आसान था उन दिनों. मैं अपनी नोटबुक में लिखे कुछ शब्दों को उकेरा हुआ देखती हूँ और सहेजती हूँ जितना सा जीवन बाकी है. इस सब में ही मैं इस किताब की आखिरी कविता तक आती हूँ...और जैसे सारा का सारा जीवन ही एक कविता में रह जाता है. मुझ में. मेरे होने में. मेरी सांस में. 

उजाड़ 
माँ ने कहा था:
अमुक 'राम' ने डीह का मंदिर बनवाया था -
शिवलिंग की प्राण-प्रतिष्ठा करवाई थी 
पुजारी नियुक्त किया था. 

अब सब परदेस चले गए.
जो लोग जल चढ़ा सकते थे वे नहीं रहे 
शिवालय खण्डहर हो गया.

माँ रोज सुबह नहा कर मंदिर में 
जल चढ़ाती रहती थी 
फिर वहाँ कुछ भी नहीं रहा शेष,
मंदिर के ईंट पत्थर भी धीरे-धीरे 
राह में लगने लगे. 

माँ ने पूछा: क्या मेरे कर्मों में है 
मंदिर बनवाना,
क्या मेरे बेटों के कर्मों में है 
मंदिर बनवाना!

पौत्र अभी गर्भ में नहीं आये
कौन माँ उन्हें डीह पर जनेगी.

माँ उनका प्रारब्ध पूछती है,
माँ की आँखों में अनेक प्रश्न हैं
अनुत्तरित,
प्रश्नों में ही कहीं उत्तर छिपा हुआ है.

डीह शिवरात्रि को उजाड़ रहा है
मंदिर में जल चढ़ाने को 
कोई नहीं बचा. 

- कमलेश

21 January, 2016

आँखों के आखिरी यातना शिविर

स्टैंडिंग सेल्स
२ बाय २ बाय ६ फुट के टेलेफोन बूथ नुमा कमरे थे जिन्हें स्टैंडिंग सेल्स कहा जाता था. यहाँ कैदी बमुश्किल खड़े हो सकते थे. इन में प्रवेश करने के लिए नीचे की ओर एक छोटा सा दो फुट बाय दो फुट का लोहे की सलाखों वाला दरवाज़ा होता था. हवा के आने जाने को भी बस इतनी ही जगह होती थी. इन में बैठ कर घुसना होता था और फिर खड़े हो जाना होता था. कई बार इन सेल्स में चार कैदी तक भर दिए जाते थे. इन में न सांस लेने भर हवा होती थी न रौशनी भर उम्मीद. सबसे ज्यादा आत्महत्याएं इन स्टैंडिंग सेल्स वाले कैदी ही करते थे.
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तुमने उसकी आँखें देखीं? उसकी आँखों में यही स्टैंडिंग सेल्स हैं. उसकी आँखों को न देखो तो उसके पूरे वजूद में पनाह जैसा महसूस होता है. उसकी हंसी, उसका रेशम का स्कार्फ...उसकी ऊँगली में चमकती गहरे लाल पत्थर की अंगूठी...और उसकी बातों का सम्मोहन...मगर उसके करीब मत जाना. उसकी आँखें टूरिस्म के लिए नहीं हैं. वहां कैद हो गए तो बस मौत ही तुम्हें मुक्ति देगी.

तुमसे बात करते हुए अगर वह दूर, किसी बिना पत्तियों वाले पेड़ को देख रही है तो खुदा का शुक्र मनाओ कि वह तुम पर मेहरबान है. शायद उसे तुम्हारी मुस्कराहट बहुत नाज़ुक लगी हो और वह अपने श्रम शिविर से तुम्हें बचाना चाहती हो. उससे ज्यादा देर बातें न करो. उसका मूल स्वाभाव इस तरह क्रूर हो चूका है कि वह खून करने के पहले सोचती भी नहीं. She kills on autopilot. But isn't that how all mercenaries are? All, but women. तुम्हें कन्या भ्रूण हत्या के आंकड़े पता हैं? After a point of time it should stop hurting. But it doesn't.

स्टैंडिंग सेल्स की दीवारों पर जंग लगे ताले हैं. गुमी हुयी चाभियाँ हैं. भूल गए जेलर्स हैं. भूख, प्यास और विरक्ति है. नाज़ी अमानवीय यातनाएं दे कर यहूदियों को जानवर बना देना चाहते थे मगर उन्होंने बचाए रक्खी जरा सी रंगीन चौक...बत्तखें, खरगोश और अपने अजन्मे, मृत और मृत्पाय बच्चों की किलकारी.

लड़की कह नहीं सकती किसी से...इस आँखों के श्रम शिविर को बंद करो. गिराओ बमवर्षक विमानों से ठीक जगह बम. जला दो फाइलें. मैं भूल जाना चाहती हूँ अपने गुनाह. किसी न्यूरेमबर्ग कोर्ट में लगवाओ मेरा मुकदमा भी या कि सड़क पर ही पास करो फैसला मेरे अपराधी होने का.

प्रेम उसकी दुनिया का अक्षम्य और सबसे जघन्य अपराध है. 
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लाइन से खड़े हैं लोग दीवार की ओर मुंह कर कर. मेरे साथ और भी कई लोगों को फायरिंग स्क्वाड से उड़ाने का फैसला सुनाया गया. हवा में एक अजीब, निविड़ स्तब्धता ठहरी हुयी है. कोई सांस नहीं लेता यहाँ. मुझे अपने पहले जन्मदिन पर लाया केक और फूँक मार कर मोमबत्तियां बुझाना याद आ रहा है. हर बार बन्दूक चलती है और बारूद का धुआं उड़ता है.  आखिरी ख्वाहिश पूछने का रूमान बहुत पहले की दुनिया से छूट चूका है. मुझे कोई पूछे भी तो शायद मैं कोई इस तरह की ख्वाहिश बता नहीं पाऊँगी. मुझे जाने क्यूँ इक स्कूल के बच्चे याद आ रहे हैं. मैं वहां गयी नहीं हूँ शायद पर उस इकलौते स्कूल के बारे में पढ़ा है. नाजियों ने वहां मौजूद हर बच्चे को गोली मार दी थी. न उनका दोष पूछा गया था न उनकी आखिरी इच्छा. क्या ही होगी उन बच्चों की आखिरी इच्छा. कोई ख़ास फ्लेवर का आइसक्रीम...या चोकलेट...या शायद किसी दोस्त से किये गए झगड़े का समापन...मगर मेरी किताबें कहती हैं बच्चों को कमतर नहीं आंकना चाहिए. हो सकता है उनमें से किसी की ख्वाहिश देश का प्रधानमंत्री बनने की हो. 

कायदे से मुझे अपने इन अंतिम क्षणों में जीवन एक फिल्म रील की तरह चलता हुआ दिखाई पड़ना चाहिए. करीबी लोग स्लो मोशन में. मगर मेरे सामने खून में डूबे हुए लकड़ी के तख्ते हैं. बेढब और आड़े टेढ़े सिरों वाले. उन्हें आरी से काटा नहीं गया है, तोड़ कर छोटा किया गया है. इनके नुकीले सिरे भुतहा और डरावने हैं. अचानक मेरा ध्यान इन तख्तों के जरा ऊपर गया है. वहाँ एक सुर्ख पीला फूल अभी अभी खिला है. गोली की आवाज़ आती है. मेरे पहले तीन लोग और हैं जो मेरी बायीं ओर खड़े हैं. हवा बारूद की गंध से भरी हुयी है मगर हर फायर के साथ जरा और सान्द्र हो जाती है कि सांस लेने में तकलीफ होती है. अगली फायर के साथ मेरे ठीक दायीं ओर का कैदी धराशायी होता है और खून से वह पीला फूल पूरी तरह नहा कर सुर्ख लाल हो जाता है. कैदियों को किसी क्रम में सिलसिलेवार गोली नहीं मारी जा रही. मुझे आश्चर्य और सुख होता है. जिंदगी अपने आखिरी लम्हे तक अप्रत्याशित रही. अगली गोली निशाना चूक जाती है. कोई नौसिखुआ सैनिक होगा. शायद उसके हाथ कांप गए हों. मैं मुस्कुरा कर पीछे देखना चाहती हूँ. उसका उत्साह बढ़ाना चाहती हूँ कि तुम अगले शॉट में कर लोगे ऐसा. देखो, मैं कहीं भागी नहीं जा रही. मिसफायर की गोली जूड़े को बेधती निकली थी और इस सब के दरमयान बालों की लट जैसे लड़ कर आँखों के सामने झूल गयी. उस क्षणिक अँधेरे में तुम्हारी आँखें कौंध गयीं. किसी ने तुम्हें ठीक इसी लम्हे बताया है कि मुझे आज गोली मार दी जायेगी. तुम अचानक खड़े हो गए हो. तुम्हारी आँखों में कितने जन्म के आँसू हैं. तुम जानते हो, सीने में चुभते दर्द का मतलब. अब. मेरे ठीक सामने हो तुम. अश्कबार आँखें. 
आह! काश मैं ज़रा सा और जी पाती!

18 January, 2016

खुदा ने प्यास के दो टुकड़े कर के इक उसकी रूह बनायी...एक मेरी आँखें...

गुम हो जाना चाहती हूँ.
सोच रही हूँ कि खो जाने के लिये अपनी रूह से बेहतर जगह कहाँ मिलेगी. अजीब सी उदासी तारी है उंगलियों में. कि जाने क्या खो गया है. कोई बना है प्यास का...जैसे जैसे वो अंदर बसते जाता है उड़ती जाती हैं वो चीजें कि जिनको थाम कर जीने का धोखा पाला जाता है. मंटो की कहानी याद आती है कि जिसमें एक आदमी को खाली बोतलें इकठ्ठा करने का जुनून की हद तक शौक था.

अपनी दीवानावार समझ में उलीचती जाती हूँ शब्द और पाती हूँ कि मन का एक कोरा कोना भी नहीं भीगता. शहर का मौसम भी जानलेवा है. धूप का नामोनिशान नहीं. रंग नहीं दिखते. खुशबू नहीं महसूस होती. सब कुछ गहरा सलेटी. कुछ फीका उदास सफेद. कि जैसे थक जाना हो सारी कवायद के बाद.

मैं लिख नहीं सकती कि सब इतना सच है कि लगता है या तो आवाज में रिकौर्ड कर दूँ या कि फिल्म बनाऊँ कोई. शब्द कम पड़ रहे हैं. 

एक कतरा आँसू हो गयी हूँ जानां...बस एक कतरा...कि तुम्हारा जादू है, नदी को कतरा कर देने का. इक बार राधा को गुरूर हो गया था कि उससे ज्यादा प्रेम कोई नहीं कर सकता कृष्ण से...उसने गोपियों की परीक्षा लेने के लिये उन्हें आग में से गुजर जाने को कहा, वे हँसते हँसते गुजर गयीं, उनहोंने सोचा भी नहीं...कुछ अजीब हो रखा है हाल मेरा...सब कुछ छोटा पड़ता मालूम है...गुरूर भी...इश्क़ भी...और शब्द भी. सब कितना इनसिगनिफिकेंट होता है. इक लंबी जिन्दगी का हासिल आखिर होना ही क्या है.

दुनिया भर की किताबें हैं. इन्हें सिलसिलेवार पढ़ने का वादा भी है खुद से. मगर मन है कि इश्क़ का कोई कोरा कोना पकड़ कर सुबकता रहता है. उसे कुछ समझ नहीं आता. लिखना नहीं. पढ़ना नहीं. जब मन खाली होता है तो उसमें शब्द नहीं भरे जा सकते. उसे सिर्फ जरा सा प्रेम से ही भरा जा सकता है. दोस्तों की याद आती है. और शहर इक. 

कभी कभी देखना एक सम्पूर्ण क्रिया होती है...अपनेआप में पूरी. तब हम सिर्फ आँखों से नहीं देखते. पूरा बदन आँखों की तरह सोखने लगता है चीज़ें. बाकी सब कुछ ठहर जाता है. कोई खुशबू नहीं आती. कोई मौसम की गर्माहट महसूस नहीं होती. वो दिखता है. सामने. उसकी आँखें. उन आँखों में एक फीका सा अक्स. खुद का. उस फीके से अक्स की आँखों में होती है महबूब की छवि. मैं उस छवि को देख रही हूँ. वो इतना सूक्ष्म है कि होने के पोर पोर में है. दुखता. दुखता. दुखता. छुआ है किसी को आँखों से. उतारा है घूँट घूँट रूह में. देखना. इस शिद्दत से कि उम्र भर एक लम्हा भर का अक्स हो और जीने की तकलीफ को कुरेदे जाये. मेरे पास इस महसूसियत के लिए कोई शब्द नहीं है. शायद दुनिया की किसी जुबान में होगा. मैं तलाशूंगी. 

इश्क़ तो बहुत बड़ी बात होती है...रूह के उजले वितान सी उजली...मेरे सियाह, मैले हाथों तक कहाँ उसके नूर का कतरा आएगा साहेब...मैं ख्वाब में भी उसे छूने को सोच नहीं सकती...मेरे लिए तो बस इतना लिख दो कि इस भरी दुनिया में एक टुकड़ा लम्हा हो कि मैं उसे बस एक नज़र भर देख सकूँ उसे...मेरी आँखें चुंधियाती हैं...जरा सा पानी में उसकी परछाई ही दिखे कभी...आसमान में उगे जरा सा सूरज...भोर में और मैं उसकी लालिमा को एक बार अपनी आँखों में भर सकूं. क्या ऐसा हो सकेगा कभी कि मैं उसकी आँखों से देख सकूंगी जरा सी दुनिया. 

मैंने एक लम्हे के बदले दुःख मोलाये हैं उम्र भर के. हलक से पानी का एक कतरा भी नहीं उतरा है. कहीं रूह चाक हुयी है. कहाँ गए मेरे जुलाहे. बुनो अपने करघे पर मेरे टूटे दिल को सिलने वाले धागे. करो मेरे ज़ख्मों का इलाज़. जरा सा छुओ. अपनी रूह के मरहम से छुओ मुझे. 

खुदा खुदा खुदा. इश्क़ के पहले मकाम पर तकलीफ का ऐसा मंज़र है. आखिर में क्या हो पायेगा. ऐसा हुआ है कभी कि आपको महसूस हुआ है कि आपके छोटे से दिल में तमाम दुनिया की तकलीफें भरी हुयी हैं. मिला है कोई जिसने देख लिया है ज़ख़्मी रूह को. रूह रूह रूह. 

इस लरजते हुए. ज़ख़्मी. चोटिल. मन. रूह. को थाम लिया है किसी ने अपनी उजली हथेलियों में. कि जैसे गोरैय्या का बच्चा हो. बदन के पोर पोर में दर्द है. उसकी हथेलियों ने रोका हुआ है दर्द को. कहीं दूर तबले की थाप उठती है...धा तिक धा धा तिक तिक...

और सारा ज़ख्म कम लगता अगर यकीन होता इस बात पर कि ये तन्हाई में महसूस की हुयी तकलीफ है...आलम ये है साहेब कि जानता है रूह का सबसे अँधेरा कोना कि ठीक इसी तकलीफ में कोई अपनी शाम में डूब रहा होगा...

11 January, 2016

इस दीवानावार दुनिया में

जादू. तिलिस्म. सम्मोहन.  
कुछ होता जो लड़की को अपनी तरफ खींचता बेतरह. यूँ उसे कोई तकलीफ नहीं होती मगर बात इतनी थी कि उसे अपनी मर्ज़ी से एक नयी दुनिया बनानी आती थी. वो कभी भी, किसी भी वक़्त...खुली आँखों से या बंद आँखों से भी, एक दुनिया बनाती चली जाती...

किसी कॉफ़ी शॉप में. किसी रेस्तरां में. किसी पब में. सब उसकी आँख के सामने होता मगर जुदा होता. सतरंगी रंगों में रंगा होता. खुशबुओं में भीगा होता. वैसे में लोग उसकी आँखें देखते और कहते कि उसकी आँखें बहुत खूबसूरत हैं. वे साधारण लोग थे. उनके पास ऐसे ही दो चार शब्द हुआ करते...ख़ूबसूरत. नाइस...अव्सम जैसे. मगर लड़की के पास कलम होती. कि जिससे सब कुछ बदला जा सकता. रात की धुंध पे नाचते सितारे होते. चाँद की लौलीपॉप होती कि जिसका स्वाद होता मिंट का. हल्का हरा दिखता चाँद. मुराकामी के नावेल के दूसरे चाँद की तरह. हल्का दिल टूटता उसका. गुलज़ार की नजाकत से लिखी कहानी की दूसरी औरत की तरह. लड़की के पास एक शहर था. सेकंड हैण्ड प्रेमियों का शहर. ये शहर प्रेमिकाओं का भी हो सकता था. मगर प्रेमिकाएं शहर में नहीं रहतीं. दिल में रहती हैं. लड़की शहर से आड़े टेढ़े लोग बुला सकती थी. बदसूरत. बदमिजाजी से भरे हुए. मगरूर और साबुत. दुनिया को तोड़ कर सिकंदर बनने की ख्वाहिश पाले. मगर लड़की हमेशा टूटे हुए लोग चुनती. उनकी दरारों में जाड़े के फूलों की क्यारियां दिखतीं. गुलदाउदी के सफ़ेद, बड़े, फूल होते. फूलों के पार झांकते लोग होते. लोगों के पास लम्हे चुराने का हुनर होता. वे लोगों के लम्हे चुरा कर शीशे की छोटी छोटी बोतलों में रखते जाते. ये दुनिया का सबसे महंगा नशा होता. सबसे नशीला भी. इसे दुनिया ओल्ड मोंक के नाम से जानती. लम्हों को हल्के गुनगुने पानी में मिला कर कोहरे की पाइप से पीना होता. फिर कहीं कोई दीवारें नहीं होतीं जो रोक सकतीं. लोग समंदर में कूद कर जान देने लायक हिम्मत पा जाते. 

लड़की मर जाना चाहती. मगर फिर उसे लगता कि दुनिया को कुछ और कहानियों की शायद दरकार हो. लोगों ने उसके भटकने के किस्से ही सुने थे. उसे भटकते देख नहीं सकता था कोई. लड़की जब अकेली होती तो पारदर्शी होती. उसके आर पार सिर्फ रौशनी ही नहीं, पूरे पूरे शहर गुज़र जाते. उसके कैमरे की ब्लैंक रील फिर स्टूडियो की डार्क रूम में डेवलप नहीं की जा सकती थी. उसे सिर्फ कागज़ पर लिखा जा सकता था. स्टूडियो हेड उसकी रील देखते और फिर हँसते उसपर. तुम्हें कहानियां ही लिखनी होतीं हैं तो तुम कैमरा की रील क्यों बर्बाद करती हो. नोटबुक लेकर चला करो. लड़की कैमरा से देखती थी लोगों को तो वे मुस्कुराने लगते थे. उसकी मुस्कान के कोने में छुपी होती थी उदासी. कैमरा मुस्कान कैप्चर करता था. लड़की उदासी. अब किसी को नोटबुक दिखा कर रोने को तो नहीं कह सकती न. कि मैं राइटर हूँ. तुम पर एक कहानी लिखूंगी. एक आध आँसू गिरा दो मेरी नोटबुक पर. 

सब कुछ मन का वहम होता है. लड़की जो होती. हो लिखती. और जो लिखना चाहती. सब कुछ वहम होता. कभी कभी वह बिना कुछ कहे सिर्फ भटकना चाहती दिल्ली में. सुर्ख लाल रंग के गाउन में. कैमरा में टेलीफ़ोटो लेंस लगाए हुए. लाल किले की चारदीवारी से भी किसी की ओर वो लेंस पॉइंट करो तो ज़ूम करते ही उसके सारे दुःख नज़र आ जाएँ. 

उसने मन बांधना सीख लिया था. गहरे लाल धागे थे वो. उलझे हुए. उन पर ख़ुशी की एक परत चढ़ी थी. मन ख़ुशी से बाहर नहीं आना चाहता और हर सम्भावना पर बंध जाता. वो अपने दायें हाथ की सारी उँगलियों पर एक ख़ुशी का धागा लपेट कर रखती थी. इससे कलम पकड़ने में दिक्कत होती और उसे लिखते हुए भी हर लम्हा याद रहता कि उसे खुश रहना है. उसे दुखते किरदार नहीं लिखने हैं. मगर सारे किरदारों से चुरा कर एक किरदार रचना था उसे. जिसकी कमर में हमेशा रिवोल्वर या ऐसा कुछ रहे. छोटा कुछ जो हमेशा साथ लेकर चलना लाजिमी हो. छुपा हुआ कोई हथियार. क्यूंकि ज़ाहिर सी बात है न कि बड़ी किसी बन्दूक को लेकर लोग अपने दोस्तों से मिलने तो जायेंगे नहीं. किसी दुनिया में भी. उसने फिल्मों में देखा था कि किस तरह गैंगस्टर अपने सूट के नीचे हमेशा कोई सेमी आटोमेटिक रिवोल्वर रखते हैं. मैगजीन वाली बन्दूक होती है. उसे फिल्में देख कर ये भी मालूम था कि गन कैसे लोड करते हैं. उसने हाल में फिल्म में ही देखा था कि मरने के लिए बन्दूक को मुंह में रख कर गोली चलाना सबसे आसान होता है. मगर फिर भी उसे कभी कभी लगता था कि उसका हाथ कांप सकता है. उसने एक खूबसूरत किरदार लिखा. बेबी में अक्षय कुमार जैसा था. वैसा. सीक्रेट मिशन वाला. हँसते हुए उससे पूछा...कि तुम तो सोल्जर हो...तुम्हारे हाथ नहीं कांपेंगे न अगर गोली मार देने कहूँगी तो. किरदार उसका खुद का रचा हुआ था. शक की गुंजाइश ही कहाँ थी. लड़की सुकून में आ गयी. ख़ुशी का एक तागा उसकी उँगलियों पर भी बाँधा और कहा. वैसे किसी दिन भी खुश रहने का सोचना और मुझे गोली मत मारना. जिंदगी खूबसूरत है. खुशनुमा है. खुशफहम भले ही है मगर जीने लायक है. 

कहानी के हर दुखते मोड़ के बाद लड़की को मालूम होता था कि वो ख़ुशी रच सकती है. इसी सुख से भरी भरी रहती और जी लेती थी...इस बेतरह उलझी हुयी...नाराज़...दीवानावार दुनिया में. 

07 January, 2016

तुम्हें मुहब्बत से पढ़ेंगे ऐ नये साल

नया साल.
सुबह के कोहरे वाला शाल ओढ़े आया था. पापा के यहाँ आम के पेड़ पर झूला डाला था हमने. बचपन जैसा.
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इस साल की शुरुआत में जेन ने एक मेसेज शेयर किया था 'come to the new year empty', मुझे बात बड़ी अच्छी लगी थी. इसलिए पुरानी खुशियाँ. पुराने दुःख. पुराने झगड़े. भूल आती हूँ. नए साल में कुछ नया करेंगे. नया लिखेंगे. नया सीखेंगे. नयी जगहें घूमेंगे और नए तरह से बसाते जायेंगे नए शहरों को अपने भीतर.

बंगलौर में रहने के कारण हिंदी पढ़ना बहुत कम हो गया है. ऑनलाइन खरीदना उतना पसंद नहीं है. मैं किताबों को उनके पीछे वाले कवर पर लिखी चीज़ों से नहीं, किसी रैंडम पन्ने का कोई एक पैरा पढ़ कर खरीदती हूँ...यहाँ की दुकानों में हिंदी की वही पुरानी किताबें मिलती हैं जो मैंने कब से खरीद रखी हैं. अब तो हावड़ा स्टेशन पर भी हिंदी किताबें नहीं दिखतीं.

इसलिए दिल्ली वर्ल्ड बुक फेयर. सारे सारे दिन. 9 से 17 तक. बहुत से पुराने क्लासिक्स खरीदने हैं. कुछ नए लेखकों को पढ़ना है. थोड़ी इस बात की भी उत्सुकता है कि पहली बार अपनी 'तीन रोज़ इश्क़' मेले में बिकती हुयी देखूँगी. ऑटोग्राफ वैगेरह दूँगी. बहुत मज़ा आएगा. ब्लॉग पर वैसे तो बातचीत लगभग बंद है लोगों से...अपने रीडर्स से भी...मगर अगर कोई बुक फेयर आ रहा है तो थोड़ा पहले मेल वेल करके बातें की जा सकती हैं. मिला जा सकता है.

इस साल का टारगेट सिर्फ और सिर्फ किताबें पढ़ना है. बाकी सारे काम वगैरह छोड़ छाड़ के. अब ऐसा भी पाती हूँ कि अगर किसी से सिर्फ हिंदी में बात करनी हो तो अटकती हूँ...सही शब्द नहीं मिलता. शहर का आपके ऊपर कितना असर होता है. बैंगलोर में चूँकि लोग हिंदी में बात ही नहीं करते हैं तो लहज़ा ही बदल जाता है. ध्यान से सिर्फ सिंपल शब्दों का इस्तेमाल करती हूँ. जबकि दिल्ली में लोग भी वैसे मिलते हैं जिनसे बात करने के पहले सोचना नहीं पड़ता, हर शब्द का मतलब नहीं बताना पड़ता. दिल्ली आना भी किसी खूबसूरत किताब पढ़ना जैसा ही है.

मेरे घर में किताबों की गुंडागर्दी चलती है. इंसान को रहने की जगह मिले न मिले, किताबें अय्याशी में रहती हैं. आलम ये है कि सोचना पड़ रहा है कि किताबें खरीद तो लेंगे, रक्खेंगे कहाँ? अब दो दिन में नया बुकरैक तो लाने से रहे. दिल्ली से आने के साथ ही एक किताबों की अलमारी लानी पड़ेगी. देवघर गए थे तो वहां पुस्तक मेला लगा हुआ था. जानते हुए कि घर में और किताबें रखेंगे तो हम कहाँ रहेंगे की नौबत जल्द आने वाली है...कुछ सारी किताबों को ख़रीदे बिना रहा ही नहीं गया. इसमें से कुछ किताबें तो वहाँ घर पर रख दी हैं. हर बार कितना किताब यहाँ से ढो के ले जाएँ. ऑफिस की भागदौड़ और घर के काम को सम्हालते हुए हाल ये हुआ रहा कि रात को सोने समय किताब पढ़ने की आदत छूट गयी है. सोच रही हूँ, फिर से पढ़ना शुरू करूँ. फिलहाल ये किताबें आसपास हैं, देखें इनको कब खत्म कर पाती हूँ.


प्रेम गिलहरी दिल अखरोट- बाबुषा                           दोज़खनामा- अनुवाद - अमृता बेरा
संस्कृति के चार अध्याय- दिनकर                              त्रिवेणी- विजयदान देथा
लप्रेक- रवीश                                                      दीवान-ए-ग़ालिब - अली सरदार जाफरी (संपादन)
परछाई नाच- प्रियंवद
एक दिन मराकेश- प्रत्यक्षा                                     जंगल का जादू तिल तिल -प्रत्यक्षा
दुनिया रोज़ बनती है- आलोकधन्वा
आइनाघर- प्रियंवद (उधार by AS)                         Map - Szymborska
Dozakhnaama- translation Arunava Sinha    
The museum of innocence - Orhan Pamuk
Interpreter of Maladies - Jhumpa Lahiri        Letters to milena- Kafka
One hundred years of solitude - Marquez

इस साल कुछ फिल्में और बनानी हैं. छोटी फिल्में. अपने मन मिजाज मूड को बयान करती हुयीं. अपने हिसाब से. थोड़ा एडिटिंग पर ध्यान देना है. मन तो हारमोनियम खरीदने का भी कर रहा है बहुत जोर से. रियाज़ किये हुए बहुत वक़्त हुआ. घर गए थे तो पता चला म्यूजिक सर का ट्रान्सफर कहीं और हो गया है. अपनी लिखी कापियां तो जाने कहाँ खो गयीं. छोटा ख्याल की बंदिश...विलंबित आलाप...बड़ा ख्याल...सब गुम हुआ है. कुछ नहीं तो एक कैसियो का कीबोर्ड खरीद लेते हैं. कमसे कम इंस्ट्रुमेंटल बजा तो सकेंगे. मगर फिर लगता है कि हारमोनियम से रियाज़ करने में सुर दुरुस्त होता था. मन की शांति भी मिलती थी. और अभी भले जितना अजीब लगे सुनने में, पर उन दिनों जब रियाज़ करते थे तो योग करने जैसा, साधना करने जैसी फीलिंग आती थी. हमें गुरु बहुत अच्छे मिले थे. उन्होंने संगीत को मनोरंजन की तरह नहीं, साधना की तरह सिखाया. इस बार थोड़ा और संगीत की ओर लौटेंगे. कैसे लौटेंगे, मालूम नहीं.

जिंदगी में किये जाने वाले कामों की विशलिस्ट ख़त्म हो गयी है लगभग. अब नयी लिस्ट बनानी है. कुछ नए काण्ड करने हैं. कुछ तूफानी. कुछ खुराफाती. हालांकि अब बहुत हद तक स्थिरता आ गयी है मगर एक मन अभी भी बेलौस भागता है. पिछले साल का अजेंडा ट्रैवेल था. दुनिया छान मारी. इस साल लिखना और पढ़ना है. मन बहुत संतोषी प्राणी टाइप फील कर रहा है. बेकरारी नहीं लगती. घबराहट नहीं लगती. 

दिल्ली कमबख्त. रेड कारपेट की जगह रेड अलर्ट लगा के बैठी हो नालायक. कैसे आयेंगे हम. जल्दी जल्दी हालत दुरुस्त करो. 

मुझे ऐसा लगता है कि इस साल मैं आत्मचिंतन करूंगी. चुप होने वाली हूँ. सोचूंगी सब कुछ...भीतर भीतर. इक ऐसा दरवाजा बनाउंगी जिसके पार कोई न जा सके. कहीं न कहीं एक वैराग है जो बहुत जोर से हिलोरे मार रहा है. कन्याकुमारी का विवेकानंद रॉक बहुत अजीब किस्म से फ़्लैश कर रहा है. अभी के वैभवशाली रौशनी में डूबा हुआ नहीं. वैसा कि जब विवेकानंद उस तक तैर के चले गए थे. 

समुद्र है. लहरें हैं. 
मन. शान्ति की ओर है. 

31 December, 2015

साल २०१५. तीन रोज़ इश्क के नाम.

साल २०१५ की पहली रात थी. दोस्त लोग अपने अपने घर वापस लौट गए थे. सिर्फ मैं और कुणाल गप्पें मार रहे थे. कुणाल ने मुझसे पूछा...अगर इस साल तुम्हारा जो मन करे वो कर सकोगी...तो क्या करने का मन है...मैंने कहा, मेरा घूमने का मन है...मैं खूब घूमना चाहती हूँ. चार बजे भोर का वक़्त रहा होगा. भगवान तक हॉटलाइन गयी हुयी थी, उन्होंने कहा होगा...तथास्तु. बस. २०१५ की गाड़ी निकल पड़ी. इस साल मैं अपनी जिंदगी में सबसे ज्यादा घूमी हूँ. अलग अलग शहर, अलग अलग अनुभव.

सिर्फ अपनी तसल्ली के लिए शहरों के नाम लिख रही हूँ. दुबारा जाने वाली जगहों के नाम दुबारा नहीं लिखूंगी. साल की शुरुआत हुयी फरवरी में गोवा के रोड ट्रिप से. दिल्ली. बुक फेयर. पटना. देवघर. बीकानेर. जैसलमेर. जोधपुर. अहमदाबाद. डैलस. दीनदयालपुर, सुल्तानगंज, पोंडिचेरी. कूर्ग. सैन फ्रांसिस्को. मैसूर. एटलांटा. शिकागो. कोलकाता. लगभग नब्बे हज़ार किलोमीटर का सफ़र रहा. बंगलौर बमुश्किल रही हूँ.

ये साल जैसे आईपीएल हाइलाइट्स की तरह रहा. सब कुछ जरूरी और खूबसूरत. किताब का छपना. भाई की शादी. अमेरिका ट्रिप. पापा के साथ राजस्थान घूमना. दिल्ली बुक फेयर. और मोने को देख कर पेंटिंग्स पर मर मिटना बस. शिकागो. क्या क्या क्या.

इस साल मैं पहली बार वर्चुअल दुनिया से निकल कर रियल दुनिया मे लोगों से मिली. दिल्ली बुक फेयर एक जादू की तरह था. बैंगलोर में रहते हुए भूल भी जाती हूँ कि कितनी सारी हिंदी किताबें छपती होंगी और कितने सारे लोग हैं जो उन्हें खरीद कर पढ़ते हैं. किसी से किताबों पर बात करना. हिंदी में लिखने पर बात करना. हिंदी में बात करना. सब कुछ फिर से डिस्कवर किया. मैंने पिछले सात-आठ सालों में बहुत कम हिंदी किताबें पढ़ी हैं. एक तो वहां मिलती नहीं हैं, इन्टरनेट पर खरीदने में मजा नहीं आता है. कुछ किताबें खरीदीं बुक फेयर में भी. मगर वहाँ जाना किताबों से ज्यादा उनके पढ़ने वालों के बारे में था. नैन्सी. पहले दिन से आखिर दिन तक. दिल्ली की हर मुस्कराहट का इको. धूप का अनदेखा आठवां रंग. चाय. सिगरेट. धुआं. और हलकी ठंढ. हिमानी. अभिनव. नए लोग मगर इतने अपने जैसे कॉलेज के जमाने की यारी हो. अभिनव की कविता कहने का अंदाज़ और उसकी ट्रेडमार्क, 'के मुझे डर लगता है तुम्हारी इन बोलती आँखों से'. कर्नल गौतम राजरिशी. ग़ज़ल का अंदाज़. कहने की अदा. और तुम्हारा डाउन टू अर्थ होना. लगा ही नहीं कि पहली बार मिल रहे हैं. मगर याद में रहता है वो आखिर वाले छोले भटूरे...दो प्लेट. तुम्हारी खूबसूरत किताब. पाल ले एक रोग नादां. प्रमोद सिंह. पॉडकास्ट में जितनी खूबसूरत और सम्मोहक होती है आवाज़...उससे ज्यादा भी हो सकता है कोई रियल लाइफ में? आप एकदम जादू ही हो. सोचा भी नहीं था कि आपसे इतनी बात हो भी सकेगी कभी. कैरामेल. जरा सा जापान. पचास साल का आदमी. सब कुछ एक साथ, और इससे कहीं ज्यादा.

विवेक. IIMC. यकीन कि कुछ खूबसूरत चीज़ें बची रह जायेंगी शायद जिंदगी भर. दस साल जैसे गुज़रे कुछ वैसे ही. सुकून. और एक तुम्हारी वाइट फाबिया और वो कुछ गाने. इक चश्मेबद्दूर वाली अपनी दोस्ती. अपने हॉस्टल के आगे बैठ कर निड की 'तमन्ना तुम अब कहाँ हो पढ़ना'. अपना क्लास. अपनी लाइब्रेरी. पानी का नल. सीढ़ियाँ. नास्टैल्जिया के रंग में रंगा सब.

पापा के साथ राजस्थान ट्रिप. कमाल का किस्सागो ड्राईवर मालम सिंह. बीकानेर. जैसलमेर. कुलधरा. जोधपुर. किले. खंडहर. रेत के धोरे. महल. बावलियां. सब कुछ लोककथा जैसा था. गुज़रना शहर से. सोचना उसके बाशिंदों के बारे में. सोचना उन मुसाफिरों के बारे में जो गुज़रते शहर से इश्क किये बैठे हैं. खोये हुए गाँव कुलधरा में क्या क्या रह गया होगा. रेत के धोरों पर अधलेटे हुए देखना सूर्यास्त. सुनना किसी दूर से आती धुन. कि जैसे रेत सांस लेती है...इश्क़...भागना आवाजों के पीछे. जैसे रूहों का कोई पुराना नाता है मुझसे. जोधपुर का दुर्ग. गर्मी. कहानियां. जोधपुर के किले से देखना नीला नीला शहर और सोचना संजय व्यास का नील लोक. और शाम को मिलना इसी कहानियों जैसे शख्स से. सकुचाहट से देना अपनी किताब. पहली दस कॉपीज में से एक. कोई कितना सरल हो सकता है. अच्छा होना कितना अच्छा होता है. फिर से याद करती हूँ...फिर से सोचती हूँ...हम अच्छा होना सीखेंगे...आपसे ही SV. पापा के साथ घूमना माने खूब सी कहानियां. गप्पें. और उसपर राजस्थान. मैं पुरानी इमारतों से कभी ऊब नहीं सकती. उसपर राजाओं के किस्से. सबरंग. 

तीन रोज़ इश्क. पहली किताब. कि साल ख़त्म होने को आया अब तक भी कभी कभी सपने जैसी लगती है 'गुम होती कहानियां'. मई में छोटा सा बुक लौंच. दिल्ली के ही IWPC में. निधीश त्यागी, फेवरिट ऑथर...वाकई कभी भी सोचा नहीं था कि जिनका लिखा इतने दिन से इतना ज्यादा पसंद है, मेरी खुद की किताब उन्हीं के हाथों लौंच होगी. अनु सिंह चौधरी. जान. दोस्त. बड़ी दिदिया. और फेमस ऑथर तो खैर कहना ही क्या. मनीषा पांडे. फेसबुक और ब्लॉग पर कई बार पढ़ती रही मगर रूबरू पहली बार हुयी. कितनी मिठास है. कितना अपनापन. और बड़प्पन भी कितना ही. रेणु अगाल. पेंगुइन की पब्लिशर. किताब के सफ़र पर हर कदम साथ रहीं. मार्गदर्शन. हौसला और बहुत सा सपोर्ट भी. इवेंट पर जितना सोचा था उससे कहीं ज्यादा लोग आये. बचपन के दोस्त. स्कूल के दोस्त. कॉलेज के दोस्त. ब्लॉग्गिंग की दुनिया से दोस्त. आह. कितना भरा भरा सा दिल था. शुक्रिया अनुराग वत्स, बेजी, इरफ़ान...मैंने वाकई नहीं उम्मीद की थी कि आप लोग आयेंगे. इरफ़ान ने इवेंट की साउंड रिकोर्डिंग अपने ब्लॉग पर पोस्ट की...उसे सुनती हूँ तो सोचती हूँ, जरा सी नर्वसनेस है आवाज़ में. निहार को कितने सालों बाद देखा. फिर घर से विक्रम भैय्या, छोटू भैय्या और रिंकू मामा. कॉलेज से संज्ञा दी, ऋतु दी और कंचन दी. संज्ञा दी हमारी सुपरस्टार रही हैं. उनके आने से जैसे एक्स्ट्रा चाँद उग आये हमारे आसमान में. और अपने IIMC से राजेश और रितेश. आह. विवेक को तो आना ही था :) इकलौता सवाल भी उसी ने पूछा. इसके अलावा कितने सारे लोग जो सिर्फ ब्लॉग या पेज से जानते थे. साल के ख़त्म होते धुंधला रहे हैं चेहरे. पर सबका बहुत शुक्रिया. 

अमेरिका. हँसता मुस्कुराता देश. जहाँ कैफे में भी आपको कोई स्वीटहार्ट या डार्लिंग कह सकता है. बस ऐसे ही. डैलस में सोलवें माले पर कमरा था. फ्रेंच विंडोज. वहाँ के म्यूजियम में एंट्री मुफ्त थी. दिन भर बस घूमना. बस घूमना. सैन फ्रांसिस्को. पहली नज़र में दिल में बस जाने वाला शहर. लौट कर जाना बाकी है यहाँ. फुर्सत में जायेंगे कभी. एटलांटा. मोने की पेंटिंग से पहली बार इश्क यहीं हुआ...और फिर परवान चढ़ा शिकागो में. सर्दियाँ महसूस कीं कितने सालों बाद. कोट, दस्ताने और टोपी वाली सर्दियाँ. कोहरे. अँधेरे और ओस वाली सर्दियाँ.

अपूर्व. लूप में बजते गाने. कितनी शहरों की याद में घुलते. उनकी पहचान का हिस्सा बनते. तुमसे कितना कुछ सीखने को मिलता है हर बार. शुक्रिया. होने के लिए. 

ऐसी दिख रही हूँ मैं इन दिनों 
साल की सबसे कीमती चीज़ों में है एक नोटबुक. कि जिसमें अपने सबसे प्यारे लोगों के हाथों की खुशबू रखी हुयी है. उनके अक्षर रखे हुए हैं. फिरोजी, नीली, पीली, गुलाबी, हरी...सब सियाहियाँ मुस्कुराती हैं. मुझे यकीन नहीं होता कि मैं इतनी भी अमीर हो सकती हूँ. 

स्मृति. जान. मालूम नहीं क्यूँ. पर तुम हो तो सब खूबसूरत है. 

खोया है बहुत कुछ. टूटा है बहुत कुछ. मगर उनकी बात आज नहीं. आते हुए नए साल को देखती हूँ उम्मीद से...मुस्कराहट से...दुआओं में भीगती हुयी...जीने के पहले जो जो काम कर डालने थे, उनकी लिस्ट ख़तम हो गयी है...अब नयी लिस्ट बनानी होगी. नया साल नयी शुरुआतों के नाम. 

जाते हुए साल का शुक्रिया...कितनी चीज़ों से भर सी गयी है जिंदगी...


तो प्यारे भगवान...इस बेतरह खूबसूरत साल के लिए ढेर सा शुक्रिया...किरपा बनाए रखना. इसके अलावा उन सभी किताबों, गानों, फिल्मों और दोस्तों का शुक्रिया कि जिन्होंने मर जाने से बचाए रखा. पागल हो जाने से तो बचाए रखा ही. 

25 December, 2015

लड़की बुनती थी कविता का कमरा. धूप. फायरप्लेस और ब्लैक कॉफ़ी.


उसे हुनर बख्शते हुए इश्वर का हाथ जरा तंग था. उस दिन अचानक से इश्वर की नज़र कैलेंडर पर गयी थी और उसने गौर किया था कि इस सदी के महानतम लेखकों, गायकों और तरह तरह के हुनरमंद लोगों को वह धरती पर भेज चुका है. इश्वर इस सदी को सृजनशील लोगों से भर देना चाहता था. वह चाहता था कि इनमें से कोई उठे और उसकी सत्ता को चुनौती दे, कि जैसे मंटो ने कहा था बहुत साल पहले, 'उसे मालूम नहीं कि वह ज्यादा बड़ा कहानीकार है या खुदा'. मगर लड़की को रचते हुए उसके दिल में ख्याल आ रखा था कि इस लड़की को दुनिया आम लोगों की तरह नहीं दिखेगी...मगर जहाँ उसे वो काबिलियत देनी थी कि अपनी छटपटाहट को किसी माध्यम से बयान कर सके, वहाँ इश्वर ने अपने हाथ रोक लिए. 

तो लड़की महसूस तो बहुत कुछ करती थी मगर लिख नहीं पाती थी उस तरह का कुछ भी. उसके बिम्ब मोहक होते थे लेकिन मन को किसी गहरे लेवल में जा कर कचोटते नहीं थे. उसकी कहानियों के किरदार भी कागज़ी होते थे. सच लगते थे, मगर होते नहीं. उसकी कहानियों में इश्क़ ने अपना खूंटा गाड़ रखा था...सब कुछ उसकी परिधि के इर्द गिर्द होने को अभिशप्त था. वो चाह कर भी अपने किरदारों के बीच कोई वहशत, कोई दरिंदगी नहीं डाल सकती थी. उसे अपने किरदारों के प्रति गज़ब आसक्ति हो जाती थी. रचने के लिए बैराग की जरूरत होती थी. साधना की जरूरत होती थी. खुद को दुःख की भट्टी में झोंक कर तपाना होता. लड़की मगर कतराते हुए चलती. किनारा पकड़ कर. हमेशा सेफ खेलना चाहती. उसे रिस्क उठाने से डर लगता था. उसके एक आधे किरदार अगर बागी हो भी जाते तो वो उनकी अकाल मृत्यु रच देती. इश्क़ उसके कलेजे को चाक करता मगर वो कन्नी काट जाती. रास्ता बदल देती. नज़रें झुका लेती. इतने दिनों में उसे ये तो मालूम ही हो गया था कि इश्वर की टक्कर का कुछ लिखना उसके हाथ में नहीं इसलिए उसने जिंदगी भी हिसाब से जीनी शुरू कर दी. उसे मालूम था कि टूटने की एक हद के बाद उसे सम्हालने वाला कोई नहीं है. कागज़ पर पड़ी दरारें उसके बदन पर नदियों की तरह खुलती चली जाती थीं और उनमें कभी ज्वालामुखी का लावा बहता तो कभी सान्द्र अम्ल. वह खुद ही अस्पताल जाती. खुद को आईसीयू में भरती करने के कागज़ भरती और वहां की बेजान खिड़की के बाहर ताकते हुए सोचती कि उसके लिखे किसी किरदार से उसे इश्क़ हुआ होता तो ये फीके दिन उस किरदार को आगे बढ़ाने के बारे में सोच कर बिठाये जा सकते थे. 

बहुत दिन तक वहाँ अकेले, बिना किसी दोस्त के रहते हुए लड़की को महसूस हुआ, पहली बार...कि जिन फिल्मों और किताबों को वह मीडियोकर समझ कर उनके डायरेक्टर या लेखक के ऊपर नाराज़ होती है. वे ऐसा जान बूझ कर नहीं करते. उन्हें उतना सा ही आता है. वे चाह कर भी उससे बेहतर नहीं हो सकते. जैसे क्लास में सारे स्टूडेंट्स फर्स्ट नहीं आ सकते. अलग अलग लेवल के लोग होंगे. सब अपनी अपनी क्षमता के हिसाब से पढ़ेंगे. लिखेंगे. समझेंगे. मगर उनमें से कुछ ही होंगे जिन्हें दुनिया के हिसाब से सारी चीज़ें एकदम सही आर्डर में समझ आएँगी. ये लोग फिर सफल कहलायेंगे. लड़की को फिर सफल होने से ज्यादा बहादुर बनने का जी किया. बेहतरीन नहीं, बहादुर...करेजियस...गलतियाँ करने के लिए बहुत हिम्मत चाहिए. अपनी गलतियों को समझ कर, उनसे सीख लेकर आगे बढ़ने में तो और भी ज्यादा. इतना सारा सोच कर उसने बहुत से प्लान्स बनाये. कुछ छोटे छोटे कि अगले कुछ महीनों में पूरे हो सकें...और कुछ लम्बे, सपनों से भरे प्लान्स...जो शायद इस जन्म में पूरे हो जाएँ, वरना एक जन्म और लेना भी हो तो इस जन्म में उसकी तैय्यारी तो की ही जा सकती थी. 

हॉस्पिटल से छूटते ही लड़की ने कुछ किताबों की लिस्ट बनायी. कुछ लोगों की भी. कुछ शहरों की. कुछ पुरानी गलियों की भी. इश्क़ के खूंटे को उखाड़ा और बढई के यहाँ दे आई कि इसका बुरादा बना दो. जाड़े की रातों में लकड़ी के बुरादे को आग में झोंकती रहती और उसकी गर्माहट में किताबें पढ़ती. उसके घर में एक ही कमरा था. पुराने स्टाइल का. उसमें एक बड़ा सा फायरप्लेस था. पत्थर की दीवारों पर जगह जगह किताबों के रखने की जगह बनायी गयी थी जिससे दीवारें बमुश्किल नज़र आती थीं. कमरे के कोनों में चिकने पत्तों वाले छोटे पौधे लगे हुए थे. उनसे कमरे की हवा में ओक्सिजन की बहुतायत रहती थी और लड़की हमेशा ताजादम महसूस करती थी. लड़की ने गमले खुद से पेंट किये थे...गहरे गुलाबी और फीके आसमानी रंग में. कमरे की फर्श देवदार की बनी होती. उसे दार्जीलिंग का रास्ता याद आता. गहरा. सम्मोहक. नशीला. आसमान तक जाते पेड़. उस फर्श में उन दिनों की याद की गंध थी...जब दिल टूटा नहीं था. जब मन जुड़ा हुआ था. कमरे के एक होने में होती चाय की केतली...सिंपल ग्रीन टी या ब्लैक कॉफ़ी के लिए. चीनी नहीं रखती थी वो. उसे मिठास पसंद नहीं थी. उसके कमरे में बिस्तर नहीं था. जब वो पढ़ते पढ़ते थक जाती तो सोफे पर सो जाती. या फर्श पर एक मोटा गुदगुदा कालीन ले आती और एक हलकी चादर डाले सो जाती. सुबह धूप से उसकी आँख खुलती और उसकी मेड घर को झाड़ पोछ कर दुरुस्त कर देती. 

ऑफिस जाने के पहले लड़की कमरे को करीने से समेट कर रख देती. वो कमरा पूरा फोल्डेबल था. अपनी किताबों, फायरप्लेस और कालीन समेत एक मुट्ठी भर के बौक्स में आ जाता. लड़की को कभी कभी लगता कि कमरा जादू का बना है. उसकी किताबें और वो खुद भी. उसकी लायी नयी किताबों से रंग निकलते थे. कमरे में कई इन्द्रधनुष रहने लगे थे. जबसे लड़की ने कमरे को नए तरह से सजाया था वहाँ किताबें जिन्दा लगती थीं. लड़की ने कई सारी जगहें देखीं. कॉफ़ीशॉप्स. पब्स. लोगों के घर. लाइब्रेरीज. लेकिन हर जगह कोई कमी दिखती थी. कहानियाँ तो फिर भी कहीं भी बैठ कर पढ़ी जा सकती थीं. मेट्रो में. चलती ट्रेन में. हवाईजहाज में. बाथरूम में भी. मगर कवितायें कहती थीं कि हमें पढ़ने को एक खूबसूरत कमरा चाहिए. लड़की ने बहुत सारी जगहें देखीं और कविताओं के कहने के हिसाब से एक डायरेक्टरी बनायी. उसे समझ आ रहा था कि उसके जीने का मकसद क्या था...धुंधला सा ही सही मगर एक प्लेसमेंट पिन उसे अपनी जगह दिखता था...लड़की दुनिया में कवितायें पढ़ने लायक जगहें बनाना चाहती थी. वो हर शहर में कविता की किताब पढ़ने के कोने तलाशती. उन कोनों पर बैठ कर किताब पढ़ती और अपनी कहानी एक गूगल मैप्स के पिन में लिख जाती. किसी पुराने बरगद के पेड़ में एक खोहनुमा एक ऐसी जगह होती जहाँ एक छोटे से कुशन को टिकाने के बाद सिर्फ गिलहरियों की किटकिट होती. कुछ शाम की धूप होती और कागज़ में सुस्ताती कवितायें. तो कभी ऐसा होता कि शिकागो के ऊंचे किसी टावर पर दीवारें होतीं बहुत छोटीं. हवा होती इर्द गिर्द घूमती हुयी. दिखने को बहुत सारा कुछ होता. बादल होते. मगर शोर बिलकुल नहीं होता. इश्वर के पास होती जगह कोई. मन शांत करने वाली कविताओं को पढ़ने के लिए ये जगह बहुत मुफीद थी. ऐसी ही कुछ जगहों तक अकेले जाना मुश्किल होता. ऐसे में यार होते. दोस्त. जांबाज़ लोग. हिमालय के ऊंचे दर्रे पर साथ ले जाते उसे अपनी बुलेट पर बिठा कर. फूलों की घाटी के पास बहती नदी के पास तम्बू गाड़ते. उसके लिए विस्की का पेग बनाते. रात को अलाव जलाते. एक दूसरे की पीठ में पीठ सटाए पढ़ते ग़ालिब और फैज़ की शायरी. लकड़ी में आग चिटकती. आसपास दूर दूर तक कुछ न होता. कोई दूसरी रूह नहीं होती. कविताओं की एक वो भी जगह होती. 

इन जगहों पर कवितायें पढ़ते हुए उसकी आवारा रूह को करार आता...लड़की चुनती रहती जगहें...तलाशती रहती धूप का कोई रंग. ओस का जरा स्वाद. चखती चुप्पियाँ. लिखती जाती डायरी में जगह के को-आर्डिनेट...जीपीएस लोकेशन. दुनिया अच्छी लगती. कविताओं के जीने लायक. कविताओं के कमरों में रहने लायक. कभी कभी उसे अकेले रास्तों पर कोई अजनबी मिल जाता...उसकी तरह कविताओं को जीने वाला. उसकी हथेली पर रखती कमरे का नन्हा डिब्बा. दोनों फायरप्लेस के सामने कई कई दिन एक कवितायें पढ़ते रहते. कभी खुद में गुम. कभी एक दूसरे को सुनाते हुए. कभी इश्क़ का बुरादा ख़त्म होने लगता तो लड़की इश्क़ को इजाज़त दे देती उनके बीच उगने की...और फिर वही...बुरादा बुरादा इश्क़...डूब डूब कवितायें. 

दिल्ली के कोहरे में दिखती है लड़की...धुंध में गुम होती हुयी जरा जरा...चलना मेरे साथ कभी...हम भी पूछेंगे दुनिया की सबसे खूबसूरत जगह जहाँ बैठ कर तुम्हारी कवितायें पढ़ी जा सकें. 

(ब. डार्लिंग, तुम्हारे लिए ये ख़त. जानते हुए कि तुम यहाँ नहीं पढ़ोगी इसे). 

23 December, 2015

अस्थिकलश में मिले पुर्जे जोड़ कर बनी चिट्ठी


नींद जानती है तुम्हारे घर का पता कि जैसे जाग जानती है कि नहीं जाना है उस ओर. उस शहर. उस गली. उस आँख के अंधियारे में. तुम्हारी आँखों में खिलते हैं सूरजमुखी और मुड़ते हैं कागज़ की धूप देख कर. मैं घेरती हूँ बादल. बनाती हूँ बरसातों का मौसम. रचती हूँ धुंध. तुम हुए जाते हो वैन गौग. चटख रंगों का पहनते हो साफा. बांधते हो कलाई पर मंतर. 

बहुत दिन तक जब नहीं आता तुम्हारे ख़त का जवाब तो तुम जाते हो चबूतरे पर और उतारते हो डाल पर बैठा सर्दियों में जम चुका कबूतर. उसके पैर में नहीं बंधा होता है एक कोरा ख़त भी. तुम फ़ेंक मारते हो उसे पत्थर की दीवार पर इक चीख के साथ...चकनाचूर होता है बर्फ की सिल्ली बना कबूतर...तुम्हारे जूते तले आती है उसकी जमी हुयी आँख.

तुम हुए जाते हो कोई पागल मंगोल लुटेरा...छीनते चलते हो अस्मत...माल...असबाब...लगा देते हो गाँव में आग...डाल देते हो पानी कुओं में मुर्दा जानवर कि जिनकी सडांध से फैलती है बीमारियाँ... मौत के करीब भिनासायी हुयी देह में नहीं बाकी रहता कोई कोमल स्पर्श...कोई चाँद का चुम्बन...कोई सूरज की पीली रेख...

तुम्हारे चेहरे पर उतरता है विद्रूप सर्दियों का ठंढा चांदी रंग. माथे के ऊपर उभरती है एक नीली नस कि जहाँ होना था एक गुलाबी बोसा. मैं एड़ियों पर उचक कर भी नहीं चूम सकती तुम्हारा चौड़ा ललाट. मेरी उँगलियों से दूर होती है तुम्हारे माथे की उजली लट. मुझे याद आती है वो कंचे जैसे शाम. कि जब बिजली के बल्ब का खूब महीन चूरा किया था हमने और उसे आटे की लेई में मिला कर पतंग के मांझे को किया था धारदार. तुम्हारे बाल मांझे के उसी तागे जैसे हो गए हैं. धारदार. उँगलियाँ फेर भी दूँगी तो कटनी है मेरी उँगलियाँ ही. तुम्हारी दासियाँ  इसी से तो पहचान में आती हैं. उनकी उँगलियों पर होते हैं तीखे निशान. गहरे लाल. कत्थई. कभी कभी काले भी. 

मगर तुमने तो प्रेम किया था. तुमने कहा था तुम्हारे ह्रदय पर मेरा एकछत्र साम्राज्य रहेगा. अनंत काल तक. फिर तुम ये अश्वमेध का अश्व लेकर विश्वविजय पर क्यूँ निकल पड़े? तुमने तो कहा था मेरा शरीर ही तुम्हारा ब्रम्हाण्ड है. एक साधारण से मनुष्य थे तुम. एक अदना सिपहसालार. एक जवाब आने की देर में तुम्हारे अन्दर का कौन सा विध्वंसक विसूवियस जाग उठा? आदमी प्राण की बाजी लगा दे तो सब कुछ जीत लेता है...इश्वर को भी. मुझे तुम्हारी सफलता में कोई संदेह नहीं. मगर तुम्हें मालूम भी है कि तुम्हारी अंतिम विजय कौन सी होनी है? ऐसा न हो कि सिकंदर की तरह तुम भी किसी अजनबी शहर में आखिरी तड़पती सांस लो. तुम्हारी जिद एक आम औरत को उसके बच्चे से दूर करने के विवश हठ में खींचे जाए और तुम उस दलदल में आगे बढ़ते जाओ. मलकुल मौत जब आती है तो सब्जी काटने का हंसुआ एक भीरु स्त्री का हथियार हो जाता है.

तुम्हारे साथ तुम्हारे सैनिकों की क्रूरता की दास्तानें तुम सबके लिए जहन्नुम तक का शोर्ट कट रास्ता बना रही हैं. तुम इसी रास्ते घसीटे जाओगे. चीखते चिल्लाते लहूलुहान. ये कलयुग है. यहाँ सब कर्मों का फल इसी जन्म में चुकाना पड़ता है. तुम्हारी आखिरी पनाह मेरे शब्दों में थी. यहाँ से निष्काषित होने पर तुम्हारे लिए कहीं कोई दरवाजे नहीं खुलेंगे. अभी भी वक़्त है. शरणागत की हत्या अभी भी अधर्म है. लौट आओ. प्रायश्चित करो. अपना इश्वर चुनो और आपनी आस्था की लौ फिर से प्रज्वलित करो. मैं तुम्हारे लिए एक नयी दुनिया रच दूँगी. एक नया प्रेम और एक नया प्रतिद्वंदी भी. लौट आओ. ये वीभत्स रस लिखते हुए मेरी उँगलियाँ जवाब दे रही हैं. गौर से देखो. ये एक योद्धा की नहीं, कवि की उँगलियाँ हैं. इनमें इतना रक्तपात लिखने की शक्ति नहीं है. मैं अब फूलों पर लिखना चाहती हूँ कुछ कोमल गीत. मैं अब तुम्हारी अभिशप्त आत्मा के लिए करना चाहती हूँ मंत्रपाठ. तुलसी माला लिए गिनती हूँ कई सौ बार तुम्हारे लिए क्षमायाचना के मन्त्र. 

तुम्हारा विध्वंस अकारण है. तुम्हारा क्रोध सिर्फ एक दरवाज़ा खोलता है कि जिससे तुम्हारे अन्दर का पशु बाहर आ सके. गौर से देखो उसे. खड़ग उठाओ और इस रक्तपिपासु बलिवेदी को शांत करो.

ॐ शान्ति शांति शांति. 

15 December, 2015

चुप शहर के डुएट पार्टनर्स


वे किसी गीत में रहते थे. स्ट्रिंग्स के परदे थे उनके इर्द गिर्द और उनकी ही दीवारें. छत नहीं थी. उनके इस कमरे में आसमान को चले आने की इजाज़त थी. लड़की इन्द्रधनुष से इकतारा बजाया करती थी. वे जब मिलते तो इक नए गीत में रहने चले जाते और तब तक वहाँ रहते जब तक कि कोई चुप्पी उनमें से किसी एक का हाथ पकड़ कर उन्हें उस घर से बाहर नहीं ले आती. जब वे एक दूसरे से अलग होते तो धुनें तलाशते रहते कि जैसे किसी नए शहर में लोग किराये पर घर ढूंढते रहते हैं. उन्हें मालूम था कि कैसा होना चाहिए कमरा...कैसी खिड़कियाँ और दीवारें...

यूँ उन्हें शब्दों की जरूरत नहीं होती मगर कभी कभार शब्द भी होते. लड़के के भूरे कोट की जेब में पुर्जियों में लिखे हुए. लड़की की ब्राउन डायरी के हाशिये में बचे हुए. वे कभी कभी शब्दों की अदला बदली कर लेते. उनके बीच बहुत स्पेस हुआ करता. इतना कि पूरी दुनिया के गीत आ जाते और पूरी दुनिया की चुप्पी. वे जब भी मिलते इक नए गीत में रहने चले जाते. दोनों अपनी अपनी तरह से गीत के टुकड़ों को एक्सप्लोर करते. कभी लड़का पियानो की कीय्स से सीढ़ियाँ बनाता चाँद तक की तो कभी लड़की गिटार की स्ट्रिंग्स से लड़के की शर्ट की कफ्स पर कोई नाम काढ़ने लगती. धुनें उन दोनों के इर्द गिर्द रहतीं...कभी उन्हें करीब लातीं तो कभी बिलकुल ही अलग अलग छोरों पर छोड़ देती. उनका पसंदीदा शगल था चुप्पी में गीत का पहला वाद्ययंत्र ढूंढना. ये एक ट्रेजर हंट की तरह होता. कभी कभी वे एक ही गीत पर भी मिल जाते. 

वे. साथ थे पर एक नहीं. लड़का बेतरह खूबसूरत हुआ करता था. उसके बाल हल्के घुंघराले थे और जरा जरा साल्ट पेपर. यूं उसपर ध्यान देने की जरूरत नहीं थी मगर कभी कभी लड़की ब्लैक हार्ट प्रोसेशन सुनते हुयी सोचती कुछ और थी और अचानक से उसका ध्यान जाता था कि पियानो से आती हुयी धुन में शब्द बैकग्राउंड में हैं, फिर उसका ध्यान जाता था कि लड़के के माथे पर दायीं तरफ, कान के ठीक ऊपर एक सफ़ेद बालों की लट क्लॉकवाइज घूम जाती है. संगीत से उसका ध्यान एक लम्हे के लिए भटक जाता था. ये जरा सा भटकना उसे परफेक्शन से दूर करता था और वो गाने पर कभी ध्यान नहीं दे पाती थी. किसी गीत में रहते हुए उसे कई बार आईने की जरूरत महसूस होती थी...वैसे में उसे लगता था कि उन दोनों के ह्रदय और गीत के ड्रम्स का 'सम' एक ही क्षण में आता था.

वे एक गीत में रहा करते थे. लड़की अक्सर कहती कि हम किसी कहानी में रहने चलते हैं. कहानी की दीवारें ठोस होतीं. कहानी की ज़मीन ठोस होती. कहानी में सुकून होता. ठहराव होता. लड़का मगर गीत में रहना चाहता. गीत में सब कुछ बदलता रहता. वायलिन स्ट्रिंग्स की जगह चेलो हो जाता. पियानो की जगह अचानक से ट्रम्पेट की धुन होती. एक ही गीत को बहुत लोगों ने अपने हिसाब से सपनों में सुना होता. वे जब गुनगुनाते तो गीत की ज़मीन बदल जाती. दीवारों का रंग बदल जाता. खेतों में सरसों के फूलों की जगह सूरजमुखी उग आते. लड़के को बदलाव अच्छा लगता. वो जब भी उससे मिलता जुदा होता. उनका मिलना किसी विलंबित आलाप की तरह बंधन में होते हुए भी स्वतंत्र होता. 

कभी कभी ऐसा भी होता कि दोनों के ही पास कोई गीत नहीं होता. वे चुप्पी की सीढ़ियों पर बैठे सुर की ईंटें तलाशते. किसी धुन को पुकारते. सरस्वती की पूजा करते कि माँ शारदे...हमें अपनी वीणा का एक स्वर दे दो. इक अनहद नाद होता. उनके अन्दर कहीं गूंजता. 

कभी लड़की वीणा का तार होती तो कभी लड़का इलेक्ट्रिक गिटार होता...वे एक दूसरे को छेड़ते. उनकी हंसी एक नया राग रचती. एक नया गीत बुनती. 

गीतों की किस्में अलग अलग होतीं. एक बार वे सुबह के कलरव में रह रहे थे कि उन्हें प्यास लगी. लड़की ने झट अपनी गाड़ी निकाली और वे कहीं ड्राइव पर निकल गए. बारिश के गीत में रहना सुन्दर था. उसकी रिदम में शहर घुल गया. गाड़ी और सड़कें भी. बारिश ने उन्हें बहुत राग सुनाये. बारिश का गीत एक कागज़ की नाव की तरह सड़क किनारे की छोटी नदियों में डूब उतराने लगा और जा के कावेरी से मिल गया. दोनों नदी के गीत में रह गए. बहुत दिनों तक. लड़की लहरों पर थिरकती धान के खेत जाती और किसानों के गीत में रहने लगती. लड़का उसे ढूँढने निकलता और गाँव के शिवाले से आते किसी भजन में अटक जाता. फिर दोनों अपने अपने गीतों में खाली खाली सा महसूस करते. किसी सुबह दोनों एक साथ निकलते और गाँव की पगडंडी पर मिल जाते. पगडंडी पतली होती. लड़की उसपर चलते हुए लड़के का हाथ पकड़ना चाहती मगर इससे गीत में अवरोध आ जाता इसलिए उसके पीछे चला करती, बियाह का लोकगीत गाती हुयी. कभी लड़का किसी कुएं पर रुक जाता...बाल्टी से पानी भरता. ठंढे पानी से प्यास बुझती. अगली बार लड़की पानी भरने को बाल्टी कुएं में डालती...उसकी चूड़ियों में एक लय होती. लड़का एक नया गीत बनाना चाहता. उसके लिए. छन छन नींव रखता. लड़की मगर चूड़ियाँ खोल आती कुएं पर. बस उसकी पायल का घुँघरू बजता. लड़का जानता कि उनका कोई एक घर नहीं हो सकता हमेशा के लिए.

कभी कभी यूँ ही हो जाता कि वे निर्जन में भी खड़े हो जाते तो उनके इर्द गिर्द गीत उमड़ आता. किसी पेड़ की टहनी पर टंगा मिलता कोई पुराना ड्रीम कैचर...सपनों से छांक लाता किसी पुराने महबूब का नाम...भूरे रंग के पंख जाने किस पंछी की उड़ान को सहेज देते. कोई विंड चाइम होती समंदर के शोर जैसी. किसी खोह में होता एक म्यूजिक बॉक्स. उनके इर्द इर्द बुनता गुलाबी संगीत...ला वियों रोज. 

प्रेम किसी दूर खम्बे पर टेक लगाए उन्हें देखता. गीत में रहने की जगह मांगता. वे चकित निगाहों से देखते उसे और कहते कि उनके बीच किसी अजनबी के लिए जगह नहीं है. दोनों के पीछे से बैराग झाँकता...मुस्कुराता. प्रेम लौट जाता खिड़की पर मन्नत का धागा बांधे.

उम्र भर उन्होंने किसी कहानी में कच्चे पक्के मकान नहीं बनाए. किसी भीगी हुयी सी सलेटी रंग की शाम इक पीली रौशनी वाले लैम्पोस्ट के नीचे मिले...इक दूसरे को देख कर मुस्कुराए...एक दूसरे को हग किया और चुप्पी में घुल के हवा हो गए.

12 December, 2015

एक अम्ल से भरा शीशे का मर्तबान है. जिसमें रूह गलती जाती.

लड़की आधी रात को पसीने में तर बतर उठती. कमरे में ग्रीन टी की अजीब तिक्त गंध घुली होती. जैसे न पिए जाने का बदला ले रही हो. उसे लिखने के लिए सन्नाटा चाहिए होता था. जिसमें किसी की साँसों का और आधी नींद के सपनों का शोर न हो. मोबाईल में कुछ बेसिरपैर के मेसेज आये हुए होते व्हाट्सएप्प पर. फेसबुक में भी कुछ ऐरे गिरे लोग कुछ बेसिरपैर की बातें लिख जाते. कुछ फालतू की तसवीरें होतीं जो बिलकुल ही कूड़ेदान में फेंकने के लिए होती. वह उस दस सेकंड की बर्बादी के लिए खुद को कोसती...उनलोगों को कोसती जो ये तसवीरें भेजना चाहते थे. सिगरेट की खराश गले में उतरी होती. वो नीम नींद में ही सिरहाने रक्खा बीड़ी का डिब्बा खोलती और माचिस की खिस खिस में नाराज़ होती कि घर के इस अजायबखेल में लाइटर गुमशुदा होना कब बंद होगा. ऐशट्रे खाली होती. उसे याद आता कि दरवेश कितने दिनों से घर नहीं आया है. आखिरी बार कब लगाया था उसके बालों में बादाम का तेल...जरा सी उसकी मीठी महक बाकी रही है....जरा सा त्वचा पर चिकनाहट का धोखा कोई. उसके अपने खुद के बाल उलझे हुए हैं. उसे याद नहीं आखिरी बार बालों में कंघी कब की थी...याद होनी चाहिए ज्यादा जरूरी चीज़ें कि जैसे आखिरी बार मन से खाना कब खाया था. 

शायरा आधी रात को पसीने में तरबतर उठती कि उसे लगता बातें ख़त्म हुयी जा रही हैं. वो बताना चाहती किसी को कि शिकागो में जब वो मोने की पेंटिंग के पास खड़ी थी तो वक़्त रुक गया था...स्पेस, टाइम...सब कुछ उलझ गया था और कि वह ऐसा महसूस कर रही है कि जैसे उसी वक़्त वहीं खड़ी है कि जब मोने पेंटिंग बना रहा था. मगर दुनिया भर के मर्द एक जैसे होते. वे उससे उसके कपड़ों के बारे में जानना चाहते. औरत जानती कि कपड़ों का सिर्फ पर्दा है. वे जानना चाहते हैं कि पर्दा उठा सकें. बढ़ती उम्र के साथ बातें उसे और बेज़ार करती जातीं और वो कड़वी तम्बाकू चबाते हुए कहना चाहती कि सारे मर्द एक जैसे होते हैं. वह अपने शरीर से बेसुध होती जाती मगर जाने कैसे इस बेसुधपने में एक अजीब आकर्षण होता. उसकी त्वचा की ताम्बई चमक मद्धम हो गयी थी...जाड़ों में तो अब उनमें दरारें पड़ जाती थीं. वो अपने नाखूनों से खुरच कर आड़ी तिरछी रेखाएं बनाती. वो अनजाने भी अपनी त्वचा पर सींखचे खींच रही होती. कुछ आदतें बड़ी जिद्दी होती हैं. न छूने देने की उसकी जिद उसकी त्वचा को ही नहीं जिंदगी को भी रूखा करती जा रही थी. वसंत बीत चुका था. बारिश ख़त्म हो गयी थी. जाड़ों के दिन थे. हाड़ कंपाने वाले जाड़ों के. उसे लेकिन किसी के बदन की गर्मी नहीं चाहिए होती. उसे बातें चाहिए होतीं. बातों को दिल की भट्ठी में झोंक कर वो उम्र भर लम्बी ठंढ काटना चाहती थी. दीवानेपन की भी क्या क्या कहानियां होतीं हैं. 

उसके अन्दर का किस्सागो कभी कभी पागल हो जाता. वो चीखना चाहती कि आखिर क्या रक्खा है इस बदन में. मेरी कहानियों को सुनो. मेरी आँखों और मेरे होठों को मत देखो. मेरे शब्दों से इश्क करो. मुझसे नहीं. ये जिस्म तो मिट्टी में मिल जाना है. मगर वे उसके शब्दों में उसका जिस्म तलाशते रहते. उसकी गंध. उसका इत्र. उसकी अभिमंत्रित आवाज़. उसे चूमना चाहते सड़क किनारे किसी पेड़ की ओट में. सीढ़ियों भरे गलियारों में. कला दीर्घाओं में. किताब के पन्नों में भी. जिस्म एक अम्ल से भरा शीशे का मर्तबान हो जाता जिसमें रूह गलती जाती. वो कहानियों को कपड़े पहनाती चलती. किरदारों को शर्म में डुबो डुबो आत्महत्या करने को मजबूर कर देती. रूमान की जगह भुखमरी लिखती. मुहब्बत की जगह फाके वाली दोपहर और विरह की जगह मौत लिखती. मगर फिर भी उसके किरदार संदल से गमकते. उसकी आँखें ध्रुवतारे सी चमकतीं. कहीं न कहीं छूटे रह ही जाते काढ़े हुए रूमाल...किसी कालर पर लिपस्टिक का दाग कोई या कि किसी के काँधे पर अलविदा की गंध. हाथ की रेखाओं में उग आता बदन सराय का नक्शा और हर मुसाफिर उसके जिस्म की झील में कपड़े उतार कर अपने सफ़र की सारी धूल धो देना चाहता. 

एक दिन उसके बदन में बड़े बड़े नागफनी के कांटे उग आये. तीखे और जहरीले. उसे छूना तकलीफदेह होने लगा. उससे हाथ मिलाने भर से ऐसे ज़ख्म उगते कि भरने में हफ़्तों लग जाते. वो यूँ तो बहुत खुश होती मगर उँगलियों में भी कांटे उग आये तो उसके लिए लिखना मुश्किल हो गया. वो जब तक एक पन्ना लिखती कटा हुआ काँटा फिर से पूरा उग आता. आखिर उसने कहानियां न लिखने का फैसला किया. ये उसके अन्दर दफ्न कहानियां थीं जो कांटे बनकर उसके जिस्म से उग आई थीं. यूं भी कहानियों ने उसके लिए हमेशा ढाल का काम किया था. इसी बीच एक रोज़ दरवेश आया. वो सो रही थी. दरवेश ने माथे पर स्नेह से हाथ रख कर दुलराया तो कांटे भी सो गए. दरवेश बहुत देर तक उसके सिरहाने बैठ कर दुआएं कहता रहा. खुदा मगर उन दिनों काफी व्यस्त था. अधिकतर दुआएँ बैरंग वापस लौट आती थीं. दरवेश ने एक एक करके लड़की के बदन से सारे कांटे तोड़े. हर ज़ख्म के ऊपर कविता का फाहा रखता और सिल देता. मगर काँटों का गुरूर था. वे भीतर की ओर उगते गए. लड़की ने अपनी तकलीफ किसी से नहीं कही. बस उसने किसी से भी मिलना जुलना बंद कर दिया. 

इसके बहुत बहुत रोज़ बाद शाम की हवा में क्लासिक अल्ट्रामाइल्ड्स की गंध घुलने लगी. लड़की की उँगलियों में उसका गहरा लाल लोगो उभरा. इक यायावर उसके दिल से गुज़र रहा था. उसे लड़की के ज़हरीले काँटों के बारे में कुछ पता नहीं था. जाते हुए उसने लड़की को बांहों में भींच लिया...जैसे यहाँ से कहीं न जाना हो आगे...लड़की के सीने के बीचो बीच धंसा था एक ज़हरीला काँटा...उसकी रूह को बेधता हुआ.

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