उसे हुनर बख्शते हुए इश्वर का हाथ जरा तंग था. उस दिन अचानक से इश्वर की नज़र कैलेंडर पर गयी थी और उसने गौर किया था कि इस सदी के महानतम लेखकों, गायकों और तरह तरह के हुनरमंद लोगों को वह धरती पर भेज चुका है. इश्वर इस सदी को सृजनशील लोगों से भर देना चाहता था. वह चाहता था कि इनमें से कोई उठे और उसकी सत्ता को चुनौती दे, कि जैसे मंटो ने कहा था बहुत साल पहले, 'उसे मालूम नहीं कि वह ज्यादा बड़ा कहानीकार है या खुदा'. मगर लड़की को रचते हुए उसके दिल में ख्याल आ रखा था कि इस लड़की को दुनिया आम लोगों की तरह नहीं दिखेगी...मगर जहाँ उसे वो काबिलियत देनी थी कि अपनी छटपटाहट को किसी माध्यम से बयान कर सके, वहाँ इश्वर ने अपने हाथ रोक लिए.
तो लड़की महसूस तो बहुत कुछ करती थी मगर लिख नहीं पाती थी उस तरह का कुछ भी. उसके बिम्ब मोहक होते थे लेकिन मन को किसी गहरे लेवल में जा कर कचोटते नहीं थे. उसकी कहानियों के किरदार भी कागज़ी होते थे. सच लगते थे, मगर होते नहीं. उसकी कहानियों में इश्क़ ने अपना खूंटा गाड़ रखा था...सब कुछ उसकी परिधि के इर्द गिर्द होने को अभिशप्त था. वो चाह कर भी अपने किरदारों के बीच कोई वहशत, कोई दरिंदगी नहीं डाल सकती थी. उसे अपने किरदारों के प्रति गज़ब आसक्ति हो जाती थी. रचने के लिए बैराग की जरूरत होती थी. साधना की जरूरत होती थी. खुद को दुःख की भट्टी में झोंक कर तपाना होता. लड़की मगर कतराते हुए चलती. किनारा पकड़ कर. हमेशा सेफ खेलना चाहती. उसे रिस्क उठाने से डर लगता था. उसके एक आधे किरदार अगर बागी हो भी जाते तो वो उनकी अकाल मृत्यु रच देती. इश्क़ उसके कलेजे को चाक करता मगर वो कन्नी काट जाती. रास्ता बदल देती. नज़रें झुका लेती. इतने दिनों में उसे ये तो मालूम ही हो गया था कि इश्वर की टक्कर का कुछ लिखना उसके हाथ में नहीं इसलिए उसने जिंदगी भी हिसाब से जीनी शुरू कर दी. उसे मालूम था कि टूटने की एक हद के बाद उसे सम्हालने वाला कोई नहीं है. कागज़ पर पड़ी दरारें उसके बदन पर नदियों की तरह खुलती चली जाती थीं और उनमें कभी ज्वालामुखी का लावा बहता तो कभी सान्द्र अम्ल. वह खुद ही अस्पताल जाती. खुद को आईसीयू में भरती करने के कागज़ भरती और वहां की बेजान खिड़की के बाहर ताकते हुए सोचती कि उसके लिखे किसी किरदार से उसे इश्क़ हुआ होता तो ये फीके दिन उस किरदार को आगे बढ़ाने के बारे में सोच कर बिठाये जा सकते थे.
बहुत दिन तक वहाँ अकेले, बिना किसी दोस्त के रहते हुए लड़की को महसूस हुआ, पहली बार...कि जिन फिल्मों और किताबों को वह मीडियोकर समझ कर उनके डायरेक्टर या लेखक के ऊपर नाराज़ होती है. वे ऐसा जान बूझ कर नहीं करते. उन्हें उतना सा ही आता है. वे चाह कर भी उससे बेहतर नहीं हो सकते. जैसे क्लास में सारे स्टूडेंट्स फर्स्ट नहीं आ सकते. अलग अलग लेवल के लोग होंगे. सब अपनी अपनी क्षमता के हिसाब से पढ़ेंगे. लिखेंगे. समझेंगे. मगर उनमें से कुछ ही होंगे जिन्हें दुनिया के हिसाब से सारी चीज़ें एकदम सही आर्डर में समझ आएँगी. ये लोग फिर सफल कहलायेंगे. लड़की को फिर सफल होने से ज्यादा बहादुर बनने का जी किया. बेहतरीन नहीं, बहादुर...करेजियस...गलतियाँ करने के लिए बहुत हिम्मत चाहिए. अपनी गलतियों को समझ कर, उनसे सीख लेकर आगे बढ़ने में तो और भी ज्यादा. इतना सारा सोच कर उसने बहुत से प्लान्स बनाये. कुछ छोटे छोटे कि अगले कुछ महीनों में पूरे हो सकें...और कुछ लम्बे, सपनों से भरे प्लान्स...जो शायद इस जन्म में पूरे हो जाएँ, वरना एक जन्म और लेना भी हो तो इस जन्म में उसकी तैय्यारी तो की ही जा सकती थी.
हॉस्पिटल से छूटते ही लड़की ने कुछ किताबों की लिस्ट बनायी. कुछ लोगों की भी. कुछ शहरों की. कुछ पुरानी गलियों की भी. इश्क़ के खूंटे को उखाड़ा और बढई के यहाँ दे आई कि इसका बुरादा बना दो. जाड़े की रातों में लकड़ी के बुरादे को आग में झोंकती रहती और उसकी गर्माहट में किताबें पढ़ती. उसके घर में एक ही कमरा था. पुराने स्टाइल का. उसमें एक बड़ा सा फायरप्लेस था. पत्थर की दीवारों पर जगह जगह किताबों के रखने की जगह बनायी गयी थी जिससे दीवारें बमुश्किल नज़र आती थीं. कमरे के कोनों में चिकने पत्तों वाले छोटे पौधे लगे हुए थे. उनसे कमरे की हवा में ओक्सिजन की बहुतायत रहती थी और लड़की हमेशा ताजादम महसूस करती थी. लड़की ने गमले खुद से पेंट किये थे...गहरे गुलाबी और फीके आसमानी रंग में. कमरे की फर्श देवदार की बनी होती. उसे दार्जीलिंग का रास्ता याद आता. गहरा. सम्मोहक. नशीला. आसमान तक जाते पेड़. उस फर्श में उन दिनों की याद की गंध थी...जब दिल टूटा नहीं था. जब मन जुड़ा हुआ था. कमरे के एक होने में होती चाय की केतली...सिंपल ग्रीन टी या ब्लैक कॉफ़ी के लिए. चीनी नहीं रखती थी वो. उसे मिठास पसंद नहीं थी. उसके कमरे में बिस्तर नहीं था. जब वो पढ़ते पढ़ते थक जाती तो सोफे पर सो जाती. या फर्श पर एक मोटा गुदगुदा कालीन ले आती और एक हलकी चादर डाले सो जाती. सुबह धूप से उसकी आँख खुलती और उसकी मेड घर को झाड़ पोछ कर दुरुस्त कर देती.
ऑफिस जाने के पहले लड़की कमरे को करीने से समेट कर रख देती. वो कमरा पूरा फोल्डेबल था. अपनी किताबों, फायरप्लेस और कालीन समेत एक मुट्ठी भर के बौक्स में आ जाता. लड़की को कभी कभी लगता कि कमरा जादू का बना है. उसकी किताबें और वो खुद भी. उसकी लायी नयी किताबों से रंग निकलते थे. कमरे में कई इन्द्रधनुष रहने लगे थे. जबसे लड़की ने कमरे को नए तरह से सजाया था वहाँ किताबें जिन्दा लगती थीं. लड़की ने कई सारी जगहें देखीं. कॉफ़ीशॉप्स. पब्स. लोगों के घर. लाइब्रेरीज. लेकिन हर जगह कोई कमी दिखती थी. कहानियाँ तो फिर भी कहीं भी बैठ कर पढ़ी जा सकती थीं. मेट्रो में. चलती ट्रेन में. हवाईजहाज में. बाथरूम में भी. मगर कवितायें कहती थीं कि हमें पढ़ने को एक खूबसूरत कमरा चाहिए. लड़की ने बहुत सारी जगहें देखीं और कविताओं के कहने के हिसाब से एक डायरेक्टरी बनायी. उसे समझ आ रहा था कि उसके जीने का मकसद क्या था...धुंधला सा ही सही मगर एक प्लेसमेंट पिन उसे अपनी जगह दिखता था...लड़की दुनिया में कवितायें पढ़ने लायक जगहें बनाना चाहती थी. वो हर शहर में कविता की किताब पढ़ने के कोने तलाशती. उन कोनों पर बैठ कर किताब पढ़ती और अपनी कहानी एक गूगल मैप्स के पिन में लिख जाती. किसी पुराने बरगद के पेड़ में एक खोहनुमा एक ऐसी जगह होती जहाँ एक छोटे से कुशन को टिकाने के बाद सिर्फ गिलहरियों की किटकिट होती. कुछ शाम की धूप होती और कागज़ में सुस्ताती कवितायें. तो कभी ऐसा होता कि शिकागो के ऊंचे किसी टावर पर दीवारें होतीं बहुत छोटीं. हवा होती इर्द गिर्द घूमती हुयी. दिखने को बहुत सारा कुछ होता. बादल होते. मगर शोर बिलकुल नहीं होता. इश्वर के पास होती जगह कोई. मन शांत करने वाली कविताओं को पढ़ने के लिए ये जगह बहुत मुफीद थी. ऐसी ही कुछ जगहों तक अकेले जाना मुश्किल होता. ऐसे में यार होते. दोस्त. जांबाज़ लोग. हिमालय के ऊंचे दर्रे पर साथ ले जाते उसे अपनी बुलेट पर बिठा कर. फूलों की घाटी के पास बहती नदी के पास तम्बू गाड़ते. उसके लिए विस्की का पेग बनाते. रात को अलाव जलाते. एक दूसरे की पीठ में पीठ सटाए पढ़ते ग़ालिब और फैज़ की शायरी. लकड़ी में आग चिटकती. आसपास दूर दूर तक कुछ न होता. कोई दूसरी रूह नहीं होती. कविताओं की एक वो भी जगह होती.
इन जगहों पर कवितायें पढ़ते हुए उसकी आवारा रूह को करार आता...लड़की चुनती रहती जगहें...तलाशती रहती धूप का कोई रंग. ओस का जरा स्वाद. चखती चुप्पियाँ. लिखती जाती डायरी में जगह के को-आर्डिनेट...जीपीएस लोकेशन. दुनिया अच्छी लगती. कविताओं के जीने लायक. कविताओं के कमरों में रहने लायक. कभी कभी उसे अकेले रास्तों पर कोई अजनबी मिल जाता...उसकी तरह कविताओं को जीने वाला. उसकी हथेली पर रखती कमरे का नन्हा डिब्बा. दोनों फायरप्लेस के सामने कई कई दिन एक कवितायें पढ़ते रहते. कभी खुद में गुम. कभी एक दूसरे को सुनाते हुए. कभी इश्क़ का बुरादा ख़त्म होने लगता तो लड़की इश्क़ को इजाज़त दे देती उनके बीच उगने की...और फिर वही...बुरादा बुरादा इश्क़...डूब डूब कवितायें.
दिल्ली के कोहरे में दिखती है लड़की...धुंध में गुम होती हुयी जरा जरा...चलना मेरे साथ कभी...हम भी पूछेंगे दुनिया की सबसे खूबसूरत जगह जहाँ बैठ कर तुम्हारी कवितायें पढ़ी जा सकें.
(ब. डार्लिंग, तुम्हारे लिए ये ख़त. जानते हुए कि तुम यहाँ नहीं पढ़ोगी इसे).
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