31 December, 2015

साल २०१५. तीन रोज़ इश्क के नाम.

साल २०१५ की पहली रात थी. दोस्त लोग अपने अपने घर वापस लौट गए थे. सिर्फ मैं और कुणाल गप्पें मार रहे थे. कुणाल ने मुझसे पूछा...अगर इस साल तुम्हारा जो मन करे वो कर सकोगी...तो क्या करने का मन है...मैंने कहा, मेरा घूमने का मन है...मैं खूब घूमना चाहती हूँ. चार बजे भोर का वक़्त रहा होगा. भगवान तक हॉटलाइन गयी हुयी थी, उन्होंने कहा होगा...तथास्तु. बस. २०१५ की गाड़ी निकल पड़ी. इस साल मैं अपनी जिंदगी में सबसे ज्यादा घूमी हूँ. अलग अलग शहर, अलग अलग अनुभव.

सिर्फ अपनी तसल्ली के लिए शहरों के नाम लिख रही हूँ. दुबारा जाने वाली जगहों के नाम दुबारा नहीं लिखूंगी. साल की शुरुआत हुयी फरवरी में गोवा के रोड ट्रिप से. दिल्ली. बुक फेयर. पटना. देवघर. बीकानेर. जैसलमेर. जोधपुर. अहमदाबाद. डैलस. दीनदयालपुर, सुल्तानगंज, पोंडिचेरी. कूर्ग. सैन फ्रांसिस्को. मैसूर. एटलांटा. शिकागो. कोलकाता. लगभग नब्बे हज़ार किलोमीटर का सफ़र रहा. बंगलौर बमुश्किल रही हूँ.

ये साल जैसे आईपीएल हाइलाइट्स की तरह रहा. सब कुछ जरूरी और खूबसूरत. किताब का छपना. भाई की शादी. अमेरिका ट्रिप. पापा के साथ राजस्थान घूमना. दिल्ली बुक फेयर. और मोने को देख कर पेंटिंग्स पर मर मिटना बस. शिकागो. क्या क्या क्या.

इस साल मैं पहली बार वर्चुअल दुनिया से निकल कर रियल दुनिया मे लोगों से मिली. दिल्ली बुक फेयर एक जादू की तरह था. बैंगलोर में रहते हुए भूल भी जाती हूँ कि कितनी सारी हिंदी किताबें छपती होंगी और कितने सारे लोग हैं जो उन्हें खरीद कर पढ़ते हैं. किसी से किताबों पर बात करना. हिंदी में लिखने पर बात करना. हिंदी में बात करना. सब कुछ फिर से डिस्कवर किया. मैंने पिछले सात-आठ सालों में बहुत कम हिंदी किताबें पढ़ी हैं. एक तो वहां मिलती नहीं हैं, इन्टरनेट पर खरीदने में मजा नहीं आता है. कुछ किताबें खरीदीं बुक फेयर में भी. मगर वहाँ जाना किताबों से ज्यादा उनके पढ़ने वालों के बारे में था. नैन्सी. पहले दिन से आखिर दिन तक. दिल्ली की हर मुस्कराहट का इको. धूप का अनदेखा आठवां रंग. चाय. सिगरेट. धुआं. और हलकी ठंढ. हिमानी. अभिनव. नए लोग मगर इतने अपने जैसे कॉलेज के जमाने की यारी हो. अभिनव की कविता कहने का अंदाज़ और उसकी ट्रेडमार्क, 'के मुझे डर लगता है तुम्हारी इन बोलती आँखों से'. कर्नल गौतम राजरिशी. ग़ज़ल का अंदाज़. कहने की अदा. और तुम्हारा डाउन टू अर्थ होना. लगा ही नहीं कि पहली बार मिल रहे हैं. मगर याद में रहता है वो आखिर वाले छोले भटूरे...दो प्लेट. तुम्हारी खूबसूरत किताब. पाल ले एक रोग नादां. प्रमोद सिंह. पॉडकास्ट में जितनी खूबसूरत और सम्मोहक होती है आवाज़...उससे ज्यादा भी हो सकता है कोई रियल लाइफ में? आप एकदम जादू ही हो. सोचा भी नहीं था कि आपसे इतनी बात हो भी सकेगी कभी. कैरामेल. जरा सा जापान. पचास साल का आदमी. सब कुछ एक साथ, और इससे कहीं ज्यादा.

विवेक. IIMC. यकीन कि कुछ खूबसूरत चीज़ें बची रह जायेंगी शायद जिंदगी भर. दस साल जैसे गुज़रे कुछ वैसे ही. सुकून. और एक तुम्हारी वाइट फाबिया और वो कुछ गाने. इक चश्मेबद्दूर वाली अपनी दोस्ती. अपने हॉस्टल के आगे बैठ कर निड की 'तमन्ना तुम अब कहाँ हो पढ़ना'. अपना क्लास. अपनी लाइब्रेरी. पानी का नल. सीढ़ियाँ. नास्टैल्जिया के रंग में रंगा सब.

पापा के साथ राजस्थान ट्रिप. कमाल का किस्सागो ड्राईवर मालम सिंह. बीकानेर. जैसलमेर. कुलधरा. जोधपुर. किले. खंडहर. रेत के धोरे. महल. बावलियां. सब कुछ लोककथा जैसा था. गुज़रना शहर से. सोचना उसके बाशिंदों के बारे में. सोचना उन मुसाफिरों के बारे में जो गुज़रते शहर से इश्क किये बैठे हैं. खोये हुए गाँव कुलधरा में क्या क्या रह गया होगा. रेत के धोरों पर अधलेटे हुए देखना सूर्यास्त. सुनना किसी दूर से आती धुन. कि जैसे रेत सांस लेती है...इश्क़...भागना आवाजों के पीछे. जैसे रूहों का कोई पुराना नाता है मुझसे. जोधपुर का दुर्ग. गर्मी. कहानियां. जोधपुर के किले से देखना नीला नीला शहर और सोचना संजय व्यास का नील लोक. और शाम को मिलना इसी कहानियों जैसे शख्स से. सकुचाहट से देना अपनी किताब. पहली दस कॉपीज में से एक. कोई कितना सरल हो सकता है. अच्छा होना कितना अच्छा होता है. फिर से याद करती हूँ...फिर से सोचती हूँ...हम अच्छा होना सीखेंगे...आपसे ही SV. पापा के साथ घूमना माने खूब सी कहानियां. गप्पें. और उसपर राजस्थान. मैं पुरानी इमारतों से कभी ऊब नहीं सकती. उसपर राजाओं के किस्से. सबरंग. 

तीन रोज़ इश्क. पहली किताब. कि साल ख़त्म होने को आया अब तक भी कभी कभी सपने जैसी लगती है 'गुम होती कहानियां'. मई में छोटा सा बुक लौंच. दिल्ली के ही IWPC में. निधीश त्यागी, फेवरिट ऑथर...वाकई कभी भी सोचा नहीं था कि जिनका लिखा इतने दिन से इतना ज्यादा पसंद है, मेरी खुद की किताब उन्हीं के हाथों लौंच होगी. अनु सिंह चौधरी. जान. दोस्त. बड़ी दिदिया. और फेमस ऑथर तो खैर कहना ही क्या. मनीषा पांडे. फेसबुक और ब्लॉग पर कई बार पढ़ती रही मगर रूबरू पहली बार हुयी. कितनी मिठास है. कितना अपनापन. और बड़प्पन भी कितना ही. रेणु अगाल. पेंगुइन की पब्लिशर. किताब के सफ़र पर हर कदम साथ रहीं. मार्गदर्शन. हौसला और बहुत सा सपोर्ट भी. इवेंट पर जितना सोचा था उससे कहीं ज्यादा लोग आये. बचपन के दोस्त. स्कूल के दोस्त. कॉलेज के दोस्त. ब्लॉग्गिंग की दुनिया से दोस्त. आह. कितना भरा भरा सा दिल था. शुक्रिया अनुराग वत्स, बेजी, इरफ़ान...मैंने वाकई नहीं उम्मीद की थी कि आप लोग आयेंगे. इरफ़ान ने इवेंट की साउंड रिकोर्डिंग अपने ब्लॉग पर पोस्ट की...उसे सुनती हूँ तो सोचती हूँ, जरा सी नर्वसनेस है आवाज़ में. निहार को कितने सालों बाद देखा. फिर घर से विक्रम भैय्या, छोटू भैय्या और रिंकू मामा. कॉलेज से संज्ञा दी, ऋतु दी और कंचन दी. संज्ञा दी हमारी सुपरस्टार रही हैं. उनके आने से जैसे एक्स्ट्रा चाँद उग आये हमारे आसमान में. और अपने IIMC से राजेश और रितेश. आह. विवेक को तो आना ही था :) इकलौता सवाल भी उसी ने पूछा. इसके अलावा कितने सारे लोग जो सिर्फ ब्लॉग या पेज से जानते थे. साल के ख़त्म होते धुंधला रहे हैं चेहरे. पर सबका बहुत शुक्रिया. 

अमेरिका. हँसता मुस्कुराता देश. जहाँ कैफे में भी आपको कोई स्वीटहार्ट या डार्लिंग कह सकता है. बस ऐसे ही. डैलस में सोलवें माले पर कमरा था. फ्रेंच विंडोज. वहाँ के म्यूजियम में एंट्री मुफ्त थी. दिन भर बस घूमना. बस घूमना. सैन फ्रांसिस्को. पहली नज़र में दिल में बस जाने वाला शहर. लौट कर जाना बाकी है यहाँ. फुर्सत में जायेंगे कभी. एटलांटा. मोने की पेंटिंग से पहली बार इश्क यहीं हुआ...और फिर परवान चढ़ा शिकागो में. सर्दियाँ महसूस कीं कितने सालों बाद. कोट, दस्ताने और टोपी वाली सर्दियाँ. कोहरे. अँधेरे और ओस वाली सर्दियाँ.

अपूर्व. लूप में बजते गाने. कितनी शहरों की याद में घुलते. उनकी पहचान का हिस्सा बनते. तुमसे कितना कुछ सीखने को मिलता है हर बार. शुक्रिया. होने के लिए. 

ऐसी दिख रही हूँ मैं इन दिनों 
साल की सबसे कीमती चीज़ों में है एक नोटबुक. कि जिसमें अपने सबसे प्यारे लोगों के हाथों की खुशबू रखी हुयी है. उनके अक्षर रखे हुए हैं. फिरोजी, नीली, पीली, गुलाबी, हरी...सब सियाहियाँ मुस्कुराती हैं. मुझे यकीन नहीं होता कि मैं इतनी भी अमीर हो सकती हूँ. 

स्मृति. जान. मालूम नहीं क्यूँ. पर तुम हो तो सब खूबसूरत है. 

खोया है बहुत कुछ. टूटा है बहुत कुछ. मगर उनकी बात आज नहीं. आते हुए नए साल को देखती हूँ उम्मीद से...मुस्कराहट से...दुआओं में भीगती हुयी...जीने के पहले जो जो काम कर डालने थे, उनकी लिस्ट ख़तम हो गयी है...अब नयी लिस्ट बनानी होगी. नया साल नयी शुरुआतों के नाम. 

जाते हुए साल का शुक्रिया...कितनी चीज़ों से भर सी गयी है जिंदगी...


तो प्यारे भगवान...इस बेतरह खूबसूरत साल के लिए ढेर सा शुक्रिया...किरपा बनाए रखना. इसके अलावा उन सभी किताबों, गानों, फिल्मों और दोस्तों का शुक्रिया कि जिन्होंने मर जाने से बचाए रखा. पागल हो जाने से तो बचाए रखा ही. 

1 comment:

  1. यूँ ही ऊपर वाले की कृपा बनी रहे ..
    वर्ष २०१५ का बहुत सुन्दर वृतांत ...
    नव वर्ष २०१६ के लिए हार्दिक शुभकामनायें!

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