19 August, 2008

अब सवाल नहीं

ना पूरे होने वाले सपने भी तो देखती हूँ मैं
अनजाने...
सफ़ेद बादलों के बीच उड़ते हुए...
खूब सारी धूप और खिलखिलाहटों सा
इन्द्रधनुषी किरणों का

और नींद में ही मुस्कुराती हूँ
हाथ बढ़ा कर छूना चाहती हूँ
बर्फ के उस सफ़ेद नर्म गोले को...
उससे शायद एक घर बनाना चाहती हूँ

बर्फ का घर जिसमे अलाव जल रहा हो
खिड़कियों पे टंगे हो नीले परदे
खरगोश दौड़ रहे हों आसपास
और नन्ही नन्ही परियां हो

वहां कोई रोये ना
आंसू निकलते ही जम के आइसक्रीम बन जाएँ
छोटी छोटी घंटियाँ बजती रहे
और हाँ एक जलतरंग भी

जहाँ थिरकते फव्वारे हों
हवा में उड़ते फूल हों

सपने...ऐसे ही नहीं होते
ऐसे भी होते हैं

जहाँ मुझे कुछ भी करने के पहले
हर किसी को जवाब न देना पड़े
एक ऐसी भी जगह होती
जहाँ सवालों के कटघरे न होते

जहाँ मैं राजकुमारी होती
और मेरी हर ख्वाहिश यूँ ही पूरी होती
जहाँ तर्क नहीं होते
जहाँ गम नहीं होता
जहाँ समझौता नहीं करना पड़ता...

काश
ऐसी जगह होती
जहाँ मैं...बस मैं होती



18 August, 2008

दुविधा...pleasure या flyte की




सबसे पहले तो इस मुसीबत से बाहर आई कि बाईक चलाऊँगी...सोचा अच्छे बच्चों की तरह छोटी सी चीज़ चलाती हूँ, कल को कहीं किसी को ठोक भी दिया तो सब मेरे सर पे नहीं चढेंगे कि "मैंने तो पहले ही कहा था...तुम किसी को सुनती कहाँ हो"
अब मुझे पसंद आए दो ऑप्शन्स...hero honda pleasure(left,red) और kinetic flyte(right,green)
red pleasure तो देखते ही दिल आ गया...its stunning!! बाकी फीचर्स भी अच्छे हैं...पर एक समस्या आई...हमारे यहाँ लाल रंग को गाड़ी को थोड़ा अपशगुनी माना जाता है, मैं तो खैर इन चीज़ों से कोसों ऊपर हूँ...पर नहीं चाहती को ऐसा कुछ करूँ जिससे किसी का दिल दुखे...और उनको लगे को मैं उनकी इज्ज़त नहीं करती हूँ या प्यार नहीं करती हूँ। अन्धविश्वास के बारे में कुछ किया नहीं जा सकता है, ये हर तर्क के परे होता है, कभी कभी मैं भी कुछ चीजों को लेकर ऐसा सोचती हूँ को कोई वजह नहीं होती...
pleasure के ग्राफिक्स भी बहुत अच्छे लगे मुझे...पर मैंने इसका सिल्वर, ब्लू और कला रंग देखा...वो मुझे बिल्कुल अच्छे नहीं लगे। अब मुझे देखना बाकी है ग्रीन और light purple। पर मेरे ख्याल से अगर मैं pleasure लुंगी तो सिर्फ़ इसलिए की ये दिखने में सबसे अच्छा है, और इस लिहाज से अगर रेड नहीं लेती हूँ तो लेने का कोई खास मन नहीं है...so to conclude...pleasure is all about the looks...and falling in love with it at the first glance...a head turner when you burn the roads etc etc...and no doubt i am the one most of the time. i just cannot take something common.
अब आते हैं मेरी दूसरी पसंद...kinetic flyte पर...ये मैंने लाइट ग्रीन रंग में देखी और मुझे अच्छी लगी, टेस्ट ड्राइव भी किया। एक अच्छी सोबर बाईक जिसमे बहुत से अच्छे फीचर्स हैं. जैसे front fuelling, underseat lighting, खूब sari जगह और इसका front wheel suspension इतना अच्छा है की बाईक जैसा लगता है(ऐसा मैंने पढ़ा है). सोचती हूँ इसे लेना एक समझदारी वाला फ़ैसला होगा. और लंबे टाइम तक सही रहेगा. इसमें सबसे अच्छी बात है की ये एक १२५ सीसी स्कूटर है, जो की अभी के मार्केट में सिर्फ़ सुजुकी एक्सेस है (जो की बहुत ही बोरिंग स्टाइल वाला है). मुझे वैसे भी इन गाड़ियों से यही प्रॉब्लम थी की इनमें इंजन में पॉवर नहीं होती. कितना भी कुछ कर लो १०० सीसी में वो बात नहीं आ पाती, पीछे बिठा के चलाना तो अच्छा खासा सरदर्द है. १२५ में स्पीड में कोई ज्यादा प्रॉब्लम नहीं होती है.इसमें वो glamour नहीं है या हो सकता है मैंने अभी इसका रेड नहीं देखा है...pleasure के भी तो बाकी रंग अच्छे नहीं लगे थे.
so its time to choose in looks vs power
and passion vs practicality

कल मैं pleasure का ग्रीन देखने जा रही हूँ और किनेटिक का रेड. उसके बाद decide करुँगी की क्या लेना है. अगर मुझे kinetic का रेड पसंद आ गया, pleasure के जितना ही तब तो बेस्ट रहेगा. हालाँकि हीरो होंडा के साथ एक ट्रस्ट फैक्टर होता है, पर किनेटिक के इतने फीचर्स हैं की बरबस मन मोह लेता है.
the D day tommorow :D
और यूँ ही ख्याल आया छोटी छोटी चीज़ों में इतना वक़्त जाया कर रही हूँ
इतनी बड़ी बात तो नहीं...
शायद?!?!?!?!?!?!?!
i am literally confused

15 August, 2008

जलेबियों के दिन...


१५ अगस्त का हमें साल भर बड़े बेसब्री से इंतज़ार रहता था...उस दिन स्कूल में परेड होती थी, और मैं अपनी बटालियन की कैप्टेन थी, झंडे को सलामी देना, सावधान,विश्राम...और जब प्रिसिपल चेकिंग करती थी, बिल्कुल स्थिर खड़े होना।
और सबसे बेहतरीन बात होती थी कि पापा हमेशा जलेबी ले के आते थे। तो हम जैसे ही घर पहुँचते सीधे किचन की तरफ़ भागते, और ठोंगा में जलेबी मिलता, इसके साथ सेव भी रहता था, जो तीता होता था इसलिए हम नहीं खाते थे।
इसके बाद शाम में हम घूमने जाते थे, और मैं और भाई सारे रस्ते गिनते रहते थे कि कितने झंडे देखे, जो झंडा मैंने देखा उसे वो नहीं गिन सकता था...इसलिए हम सारे टाइम ध्यान से देखते रहते थे कि किसने ज्यादा झंडे गिने। अब सोचती हूँ तो मुस्कुरा देती हूँ।
इसके अलावा कुछ और भी १५ अगस्त थे जब सुबह उठ कर तैयार हो जाते थे, मेरे पापा स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया में काम करते हैं...तो उसदिन सफेत शर्ट और पन्त पहन के जाते थे पापा, और हम भी उनके साथ। बैंक में झंडा फहरते देखना और फ़िर जलेबी, सेव और एक रसगुल्ला...वैसे हम जितना चाहे रसगुल्ला मिलता था। फ़िर आस पास के बच्चो में टाफी बाँटी जाती थी, उसके लिए बड़ी मारा मारी मचती थी। पापा या जो भी अंकल बांटते थे, कहते रहते थे कि झगडा मत करो ,सबको मिलेगा...पर नहीं
वापस जीप में आना भी एक सुखद सफर होता था, पापा के collegues, यानि बाकि अन्क्ले लोगो के बच्चे भी लगभग हमउम्र होने के कारण ,अच्छी दोस्ती थी सारे रास्ते हम देशभक्ति के गीत गाते आते थे...उस दिन मेरी बड़ी पूछ होती थी, एक तो अच्छा गाती थी और सबसे ज्यादा गाने भी मुझको याद रहते थे, वो भी पूरे पूरे।
घर में मम्मी हमेशा कुछ अच्छा बनती थी, पूडी और कोई बढ़िया सब्जी, खीर या सेवई वगैरह।
जब भी हॉल में फ़िल्म के पहले जन गण मन सुनती हूँ तो अनायास ही रोयें खड़े हो जाते हैं, कुछ तो है कि जब भी सुनती हूँ...अजीब सा फील होता है। और कुछ ऐसा ही आनंद मठ के वंदे मातरम को सुन के लगता है...
आज मैंने भी सफ़ेद सूट और केसरिया दुपट्टा ओढा है...
मोरा रंग दे बसंती चोला माई रंग दे....रंग दे बसंती चोला
और अंत में मेरा फवोरिते कुछ शेर
shaheedon ki चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पे मरने वालों का यही बाकी निशां होगा
और कश्मीर के लिए
है लिए हथियार दुश्मन ताक में बैठा इधर
और हम तैयार हैं सीना लिए अपना इधर
खून से खेलेंगे होली जब वतन मुश्किल में है
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है...

08 August, 2008

और भी गम हैं ज़माने में...

कुछ लोगो के ऊपर हमेशा किसी न किसी चीज़ का भार रहता है...
आजकल लगने लगा की मैं ऐसे ही कुछ लोगो में से हूँ शायद। पहले घर ढूँढने की आफत, अब घर मिल गया है तो दूसरी समस्या खड़ी है। अगर देखा जाए तो समस्या है नहीं, ये मेरी बनाई हुयी समस्या है।

मैं एक लड़की हूँ...और मेरे लड़की होने में मेरी पसंद नापसंद नहीं पूछी गई, पर इसके बाद जो चीज़ें मेरे सामने आती हैं उनमे मेरा लड़की होना बहुत बड़ा माद्दा बन जाता है। मुझे मोटरसायकिल चलने का मन करता है। मुझे बहुत अच्छा लगता था चलाना, पर पहले भी चूँकि कोई और नहीं चलाती थी तो मम्मी पापा मुझे भी नहीं चलाने देते थे। अब जब मुझे लगता है मैं वो कर सकती हूँ जो मेरा मन करता है...मैं देखती हूँ की समस्या अब भी वहीँ है।
और जो मेरे अपने थे वो भी मेरे इस शौक़ को बेवकूफी बोलते हैं। मैं सच में सवाल करना चाहती हूँ की इसमे बेvakufi क्या है, सिर्फ़ इसलिए की बाकी लड़कियां नहीं चलाती, मैं शायद बंगलओर में एकलौती लड़की होउंगी जो bike चलाती है so what...big deal.
mera कुछ करना इसपर dependent क्यों हो की बाकी लोग ऐसा कर रहे हैं कि नहीं, उनका मन, न करें मेरी बाला से। मैं क्यों इसके कारण दुखी होऊं। इतना दिमाग ख़राब करने के बाद कुछ पसंद आया था...honda aviator , तो पता चला कि वो ५"७ से कम के लोगो के लिए नहीं है। अब भाई साईकिल तो नहीं है न कि हाफ पैडल चला लेंगे, सड़क पर आधे वक्त तो पैर नीचे ही रहते हैं। तो ये आप्शन भी आउट हो गया।
अब मैं सोच रही हूँ कि कौन सा मॉडल खरीदूं। ये कम स्पीड वाली चीज़ें ऐसे ही मुझे एकचइ नहीं लगती, अधिकतर में सिर्फ़ १०० सीसी का इंजन है, उसमे क्या होगा। बस एक सुजुकी access में १२५ सीसी इंजन है और मैंने अभी तक गौर से देखा नहीं है उसे, शायद वो एकदम स्कूटर टाइप है,जैसा कि फोटो में दिखता है।
शायद मैं "pleasure" confirm karun...why should boys have all the fun।

खैर
और भी गम हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
रातें और भी हैं वस्ल की रहत के सिवा
मुझसे पहली सी मुहब्बत (enticer) मेरे महबूब न मांग..

05 August, 2008

मुझे मुहब्बत है...

















i absolutely love my new home...if love can be absolute in any वे


























मेरे नए घर की हर चीज़ मुझे बेहद पसंद है...एक एक कर के बताती हूँ













मेरे घर आने का रास्ता इस इस इस के पेड़ों से ढका हुआ है, दोनों तरफ़ गुलमोहर के पेड़ और रास्ते पर आती हलकी धूप छाँव, जैसे चलते हुए ही महसूस होने लगता है कि मंजिल बाहें फैलाये इन्तेज़ार कर रही है।













वैसे रास्ता इतना खूबसूरत हो तो मंजिल न भी मिले अफ़सोस नहीं होता...






मेरे घर के ठीक पीछे एक मन्दिर है, और हर shaa जब साँझ देती हूँ तो वहां से आती घंटियों की आवाज़ ऐसे लगती है जैसे मेरे कमरे में ही आरती हो रही हो...आंख बंद करती हूँ तो जैसे मन्दिर में ही पहुँच जाती हूँ। उसपर बालकनी में चिडियों के वापस लौटने का शोर...बादलों के कई रंगों में रंगी शाम, जैसे जिंदगी इसी को कहते हैं।







और is के बाद होती रहती है मेरी खुराफात, किचन में...तो मैंने दिखाती हूँ की मैंने क्या बनाया कलlको





और इसके बाद होती रहती है मेरी खुराफात, किचन में...तो मैंने दिखाती हूँ की मैंने क्या बनाया कल रात को...इसे हमारे यहाँ चितवा कहते हैं, कई जगह चिल्का या चिल्ला भी कहा जाता है. इसे बनाना आसन है, बस बेसन में थोड़ा प्याज, हरी मिर्च, टमाटर, बंधगोभी टाइप चीज़ बारीक काट के डालो, अजवाइन, जीरा, थोड़ा सा लाल मिर्च पाउडर, जीरा पाउडर डालो, पानी दल ke मिक्स करो और बस, तवा पर डोसा टाइप फैलाते जाओ. दो मिनट में awesome खाना तैयार इसको कोई भी प्राणी सिर्फ़ अचार के साथ चट कर सकता है...लेकिन कुछ भुक्खड़ लोग हल्ला कर के सब्जी भी बनवाते हैं जैसा कि आप देख रहे हैं. खुशनसीब लोगो को हमारे हाथ का खाना खाने मिलता है. :D






aur khushnaseeb logo ko milti hai aisi neend








04 August, 2008

फिल्में और हम

इस वीकएंड दो फिल्में देखीं घर पर ही, और कोई उपाय भी नहीं था। २ अकेडमी अवार्ड विनर "crash", मुझे काफ़ी पसंद आई, खास तौर से इसकी पटकथा और डायलॉग बहुत अच्छे लगे मुझे। मेरा फेवरिट है "you think you know who you are, you have no idea", यह डायलॉग एक पुलिस ऑफिसर अपने जूनियर को कहता है और जैसे जैसे फ़िल्म आगे बढती है हम देखते हैं वही जूनियर ऑफिसर एक नीग्रो की मदद तो करता है उसका आत्मसम्मान बचने के लिए और उसका भरोसा जीतने के लिए मगर एक दूसरे नीग्रो को अपने अविश्वास के कारन गोली मार देता है।

फ़िल्म में जिस तरह समाज के अलग अलग हिस्सों की सोच और एक खास तरह के हालात में उनका व्यवहार दिखाया है, वह वाकई आपको सोचने पर मजबूर कर देता है कई जगह व्यथित भी करता है। जिस तरह हमारे समाज में भी कई पूर्वाग्रहों से बंधे होने के कारण हमारी सोच प्रभावित होती है वैसा ही ताना बना बुना गया है और अंत में बड़े कौशल से सारी घटनाओं का आपस में जुडाव दिखाया गया है। मुझे फ़िल्म अच्छी लगी...a very different kind of cinema

अभी अभी दूसरी फ़िल्म ख़त्म हुयी है..."परजानिया", कहानी अहमदाबाद की है दंगों के सन्दर्भ में बनाई गई है। फ़िल्म अच्छी है पर मुझे सिर्फ़ एक चीज़ समझ नहीं आती, ऐसी फिल्मो को ये डॉक्युमेंटरी टाइप फीलिंग देने के लिए इंग्लिश में क्यों बनाया जाता है। अगर इसमे दंगो का सच ही दिखाया गया था तो क्या ये और जरूरी नहीं था की इसे हिन्दी में बनाया जाए ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक बात पहुंचे, और अगर नहीं तो कम से कम गुजराती में बनाया जाता ताकि वहां के लोगों को ये फ़िल्म देखने को मिलती। हमारे लिए इंग्लिश में subtitles दे दिए जाते। औरतें आपस में घरेलू बातें भी अंग्रेजी में कर रही हों तो फ़िल्म चुभने लगती है और सच्चाई(वही सच्चाई जिसे दिखने के लिए ये फ़िल्म बनाई गई है) से दूर लगने लगती है।

its in being able to strike a fine balance. कुछ फिल्में जैसे Mr & Mrs Iyer में उनका इंग्लिश में बोलना पूरी तरह सही लगता था, क्योंकि एक साउथ इंडियन और एक कोलकाता का रहने वाला युवक इसी भाषा में बात करेंगे यही नहीं फ़िल्म में जहाँ जरूरत रही लोग हिन्दी में भी बोलते हैं। हमारे यहाँ फिल्मो की भाषा बहुत जरूरी है अगर कोई multiplex के लिए फ़िल्म बन रही है जिसकी विषयवस्तु कुछ ऐसा डिमांड करती है तब तो ठीक है, नहीं तो मुझे औचित्य समझ नहीं आता इंग्लिश में बनाने का. ये मेरा अपना नज़रिया है और मुझे लगता है की हमारी फिल्में हमारी भाषा में हो तो बेहतर, किसी को भी ऐसी भाषा बोलते दिखाना जो वो आम जिंदगी में प्रयोग नहीं करता हो सिवाए बेवकूफी के और क्या है. अब आज रात ममी पार्ट ३ देखने का मन है...देखीं क्या होता है.

02 August, 2008

जाएँ तो जाएँ कहाँ ए दिल

बंगलोर में आए तीसरा हफ्ता होने को आया, और इस बार घर के सारे काम निपटा दिए हैं तो थोडी फुर्सत है, अब आराम से शनिवार की सुबह उठ कर सोचा कि आज तो कहीं घूमने जाना है। वैसे सवाल बहुत ज्यादा मुश्किल नहीं था कि कहाँ जाएँ...dark knight रिलीज़ हुए इतने दिन हो गए और हम अपनी व्यस्तताओं के कारन देख नहीं पाये हैं, तो तय किया कि देख ली जाए...पर ये क्या नेट पर टिकेट बुक करने कि सोची तो देखती हूँ कि सारे हाउसफुल हो चुके हैं, यही नहीं कल का टिकेट भी नहीं मिल रहा है कहीं पर। मेरे तो दिल के सारे अरमान घर कि सींक में बह गए...दुखित हो के खाना बनाया, क्या खाक मन करेगा खाना बनने का अगर वीकएंड में कहीं जाने का प्रोग्राम ही सेट नहीं हो पाये।
यहाँ पर टिकेट कि इतनी ख़राब हालत क्यों है, दिल्ली में तो कोई दिक्कत ही नहीं होती थी, और इस तरह कि अडवांस बुकिंग तो कभी नहीं सुनी थी। और यहाँ तो ये हाल है कि ब्लैक में भी टिकेट नहीं मिलते (ऐसा दोस्तों ने बताया ) सुबुक सुबुक...बहू हू हू हू ...अब क्या करूँ कहाँ जाऊं

दुखी हो के सुबह सुबह गुस्से में सिर्फ़ डोसा और साम्भर बना लिया वरना तो आज आराम से पूडी सब्जी बनती फुर्सत से हैप्पी हो के, मगर हाय रे बंगलोर...अब मुझे मेरे सारे बेचारे दोस्तों का दर्द समझ में आ रहा है जो विप्रो, तस्स, आईबीएम जैसी जगह हैं और इस तरह वीकएंड में रोते रहते हैं कि कहाँ जाएँ। और जब भी फ़ोन करो सोते हुए मिलते हैं, क्या करेंगे, और कोई काम तो है nahin मैं तो ऐसी प्राणी हूँ कि म्यूज़ियम बोटानिकल गार्डन टाइप कहीं पर भी खुश हो जाउंगी, पर अभी जो फ़िल्म देखनी थी उसका क्या, उसपर तुर्रा ये कि सबने मन कर रखा है घर में मत देखना, हॉल में देखने लायक है। बड़ी अच्छी बात है, बहुत अच्छी फ़िल्म भी होगी पर इसको देखने के लिए क्या हम बंगलोर में हॉल खोलें?

अब मेरे पास कल का दिन भी है, मगर मालूम नहीं कहाँ घूमने जाएँ
किसी को कोई आईडिया हो तो बताइए :(

30 July, 2008

तसवीरें और प्यार...



जादू सी रौशनी है

या प्यार है जो रंग देता है नज़रिया...



तुम्हारे इंतज़ार में
शाम भी जैसे बाहें फैलाये हुए है...



और सिर्फ़ मैं ही नहीं
फूल भी गुनगुना रहे हैं...



आते ही पकोड़े खिलाऊंगी
जल्दी आओ ना...

29 July, 2008

मौसम, प्यार और तुम

याद है वो ब्लैंक sms के दिन
जब कहने को कुछ खास नही होता
और तुम्हारी याद आती
एक ब्लैंक मेसेज कर देती...

तुम पूछते, क्या बात है
मैं बस हँसती...
बात पता होती तो लिखती न
बुद्धू :P

और ऐसे ही सिलसिला चलता रहता
दिन रात अनवरत

जिस अंगूठे में दर्द पेन पकड़ने से होता था
उसमें sms करने से होने लगा

याद है वो छोटी कहानियाँ
जो अक्सर मेल किया करती थी तुम्हें
हमारी कहानी जैसी

और वो जगह जगह की तस्वीरों पर
शीर्षक लिखना

वो दिन जब बहुत सारा कुछ होता था
कभी शब्द होते थे...कभी खामोशी होती थी

और सब कुछ तुम्हें बताने का मन करता था
दिखाने का मन करता था

कुछ कुछ वैसा ही है यहाँ का मौसम
बहुत सी बारिश, ठंढ, कम्बल, धूप
एक ही दिन में सब कुछ
जैसे पहला पहला प्यार...




24 July, 2008

वाह बंगलोर...आह दिल्ली

बंगलोर एक खूबसूरत शहर है, खास तौर से दिल्ली से आने के बाद यहाँ के छोटे छोटे दो मंजिल के घर बड़े प्यारे लगते हैं। पर वो कहते हैं न, शहर की भी आदत होती है। जैसे सुबह सुबह अख़बार पढने की, चाहे आपके पास खबरों का कोई दूसरा मध्यम भी हो, अख़बार पढ़े बिना मन नहीं लगता।

कुछ वैसे ही दिल्ली की आदत है, खास तौर से जेऐनयू की गलियों में भटकने की आदत...अब इतनी दूर आ गई हूँ कि जाना सपना ही लगता है, पता नहीं अब कब जा पाऊँगी, बड़ा दुःख होता है। वो गलियां जैसे कहीं मुझमें ही भटकती रहती हैं मैं ख़ुद अपने अन्दर के रास्तों पर कुछ बिखरे लम्हे उठाती रहती हूँ। फ़िर याद आता है गुडगाँव और वो कितनी सारी रातें और कितनी सारी बातें। नैवैद्यम का डोसा, सुबह सुबह mac d पहुँच जाना, वो ऑफिस की इतनी भाग दौड़। वो हॉस्टल का खाना...

और मुझे यकीन नहीं होता की मैं सबसे ज्यादा मिस करती हूँ दिल्ली की बारिश...उससे जुड़ी सैकड़ों यादें, पकोडे, कॉफी और वो घुमावदार सड़कें जहाँ अक्सर मैं ख़ुद से टकरा जाती थी। बंगलोर में भी रोज बारिश होती है, पर यहाँ भीगने का मन नहीं करता(बीमार भी पड़ जाती हूँ)।

एक नए शहर में जिंदगी की नई शुरुआत करनी है, सब कुछ फ़िर से शुरू करना है...एक एक करके दो कमरों के अपार्टमेन्ट को घर बनाना है।
तो कमर कस के तैयार हूँ।
ॐ जय श्री गणेशाय नमः

16 July, 2008

एक गीत और एक कहानी

Ajnabi Shahar.mp3




जिंदगी...अजनबी क्या तेरा नाम है?
अजीब है ये जिंदगी ये जिंदगी अजीब है
ये मिलती है बिछड़ती है बिछड़ के फ़िर से मिलती है...


एक वो शहर होता है जिसमें हम बसते हैं
और एक शहर होता है जो हमारे अन्दर बसता है

अपने शहर को छोड़ कर आने से वो शहर तो शायद हमें भूल जाता है
पर जाने कैसे हमारे अन्दर जो शहर है उसकी मिट्टी से सोंधी खुशबु आने लगती है, चाहे कहीं भी बारिशो में फँसें हो हम। जाने कैसे गीत गुनगुनाने लगता है वो शहर, दर्द के, टूटने के, बिखरने के, एक बार अलग होकर कभी न मिलने के। जाने कैसी हवाएं बहती हैं इस शहर में की हमेशा टीस ही लगती है और जाने कैसी मिट्टी है इस शहर की कि जिसमें यादों की बेल कभी सूखती नहीं। मुस्कुराहटों का अमलतास हमेशा खिला रहता है और गुलमोहर के पेड़ छाया देते रहते हैं।

शहर बदलना एक अजीब सा अहसास होता है, मुझे कभी रास नहीं आता, जो अपनेआप में अजीब है, क्योंकि मैं ठहरी भटकती आत्मा, पर जाने कैसे जहाँ रुक जाती हूँ जैसे पैरों से जड़ें उग आती हैं, और शहर छोड़ते हुए उन्हें काट के आना पड़ता है।

दिल्ली शायद हमेशा मेरे दिल के सबसे करीब रहेगा, इस शहर में मैंने बहुत कुछ खोया...कुछ पाया और कुछ पीछे छोड़ आई। इस पाने खोने के दरमियाँ मैंने जाने कब अपने आप को उस मिट्टी में रोप दिया, या जाने दफ़न हो गई, कुछ तो हुआ जिससे मैं वाकिफ नहीं, लगता है कहीं वही मैं भी रह गई हूँ।

शायद जिस लम्हा, माँ को खोया मैं भी कहीं घूमने निकल गई अपने शरीर से बाहर, अब भी हूँ तो सही, पर पहले जैसी नहीं। बदल गई हूँ और इस बदलाव को बर्दाश्त नहीं कर पा रही।

लिखना चाहती भी हूँ और नहीं भी, डर भी लगता है ऐसे ख़ुद को एक्स्पोज़ करने में, कई बार दुःख हुआ है इसके कारण. पर शायद लिखे बिना रह भी नहीं सकती।

जिंदगी में सिर्फ़ एक चीज़ से सबसे ज्यादा प्यार किया है...अपनी कविता से...शायद इसके बिना भी जीने की आदत डालनी पड़े।

कभी किसी को मुक्कमल जहाँ नहीं मिलता
कभी ज़मीं तो कभी आसमाँ नहीं मिलता


पर सोचती हूँ
मैंने कौन सा आसमाँ माँगा था

अलविदा दिल्ली...

बड़ी तेज़ी से भागता रहता है वो शहर मेरा
जाने कैसे मेरी यादों से छूटा ही नहीं

अब भी कुछ बदला नहीं आह मेरी दिल्ली में
उसे क्या फर्क हम रहे वहां या नहीं

पूछूंगी तो कह देगी की जाओ बंजारन
दो दिन को रुके और दिल्लगी की बातें
भटकने वालो का ऐसा दिल हुआ नहीं करता...बस जाओ कहीं

अब उम्र हो गई तुम्हारी भी...हमारी भी

11 July, 2008

कविता की मौत

मेरे अन्दर रहती थी एक कविता
मुझ जैसी थी
किसी अपने ने उसपर इल्जाम लगाया
बेवफाई का

वो कविता थी, सीता नहीं
कि अग्नि परीक्षा दे सकती

पन्ने तो जल जायेंगे ही आग में
चाहे उसपर जज्बात किसी के भी लिखे हों

इसलिए
कल रात
मेरे अन्दर की कविता ने
खुदखुशी कर ली

06 July, 2008

रिश्ता...

एक पल को तो लगा
तुम कहोगे
तुम मेरे साथ कुछ वक्त बिताना चाहते हो...

सिर्फ़ इस चाहने से ही
दर्द सा कुछ टीस उठा मेरे अन्दर

ऐसा क्यों होता है
कि सिर्फ़ मैं चाहती हूँ
गुज़रे दिनों जैसे कुछ लम्हे
अब भी...

रिश्तों के नाम बदलने के साथ ही
बदल जाते हैं हमारे तुम्हारे समीकरण भी

और हर गुजरते दिन के साथ
मैं और तनहा होती जाती हूँ

मुझे अच्छे लगते हैं वो दिन
जब हमारे रिश्ते का नाम नहीं था

क्योंकि तब बहुत कुछ चाहती नहीं थी तुमसे
अब चाहने लगी हूँ

तुमसे कुछ उम्मीदें जुड़ गई हैं
और इनका टूटना
मुझे तोड़ने लगता है

तुम तब कहीं ज्यादा अपने थे
जब तुम मेरे कोई नहीं थे

वो रिश्ता कहीं ज्यादा मजबूत था
जो बना ही नहीं था

अरसा पहले...

वो बातें और हुआ करती थी
वो ज़माने और हुआ करते थे

ठोकरों में रखते थे दुनिया को
वो हौसले और हुआ करते थे

हम ख़ुद ही अपने खुदा होते थे
वो ज़ज्बे और हुआ करते थे

रौंद देते थे हालातों की नागफनियाँ
वो काफिले और हुआ करते थे

जिनमें देने में खुशी मिलती थी
वो रिश्ते और हुआ करते थे

अब तो लगता है पुराने हो गए हम
वो नए और हुआ करते थे

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