24 November, 2017

ये सातवाँ था ब्रेक-अप और बारवीं मुहब्बत, दिल तोड़ने की तौबा मशीन हो रहे हो

ग़ुस्ताख़ हो रहे हो 
रंगीन हो रहे हो 
सारी हिमायतों की 
तौहीन हो रहे हो 

वो और होते होंगे 
बस हैंडसम से लड़के 
तुम हैंडसम नहीं रे 
हसीन हो रहे हो

होठों पे जो अटकी है 
आधी हँसी तुम्हारी
चक्खेंगे हम भी तुमको 
नमकीन हो रहे हो 

ये सातवाँ था ब्रेक-अप 
और बारवीं मुहब्बत 
दिल तोड़ने की तौबा 
मशीन हो रहे हो 

इतनी अदा कहाँ से 
तुम लाए हो चुरा के 
इतना नशा कहाँ पे   
तुम आए हो लुटाते 
छू लें तो जल ही जाएँ 
उफ़, इतने हॉट हो तुम 
हों दो मिनट में आउट
टकीला शॉट हो तुम 

थोड़ा रहम कहीं से 
अब माँग लो उधारी 
वरना तो मेरे क़ातिल
लो जान तुझपे वारी 
अब जान का मेरी तुम
चाहे अचार डालो 
हम फ़र्श पे गिरे हैं
पहले हमें उठा लो 

इतना ज़रा बता दो
तुम्हें पूरा भूल जाएँ 
या दोस्ती के बॉर्डर 
पर घर कोई बनाएँ 
लेकिन सुनो उदासी 
तुमपर नहीं फबेगी
कल देखना कोई फिर
अच्छी तुम्हें लगेगी 

तुम फिर से रंग चखना 
तुम फिर अदा से हँसना 
दिल तोड़ना कोई फिर 
और ज़ख़्म भर टहकना 
तुम इक नया शहर फिर
होना कभी कहीं पर 
हम फिर कभी मिलेंगे 
आँखों में ख़्वाब भर कर

अफ़सोस की गली की  
कोठी वो बेच कर के 
लाना बुलेट नयी फिर 
घूमेंगे हम रगड़ के
ग़ालिब का शेर बकना 
विस्की में चूर हो के 
कहना दुखा था कितना
यूँ हमसे दूर हो के 

इस बार पर ठहरना 
जैसे कि बस मेरे हो 
मन, रूह या बदन फिर 
कोई जगह रुके हो 
हम फिर कहेंगे तुमसे 
ग़ुस्ताख़ हो गए हो 
तुम चूम के चुप करना 
और कहना तुम मेरे हो 

21 November, 2017

तुम मुझसे किसी कहानी में मिलोगे कभी?



वैसे तो पेज पर कभी भी सच का कुछ एकदम नहीं लिखती हूँ। लेकिन कभी कभी लगता है कि सकेर देने के लिए और कोई भी जगह नहीं है मेरे पास। तो वैसे में। एक मुट्ठी सच यहीं रख देती हूँ।

कुछ महीनों पहले, ऐसे ही एक रैंडम सी शाम में एक लड़के से मिली थी। कुछ बातें की, थोड़ी कॉफ़ी पी और थोड़ा वक़्त साथ में बिताया। कल Coke Studio पर कोई गाना सुन रही थी। ऑटोप्ले में 'रंजिश ही सही' बजने लगा अगला...ये हमने उस दिन ऐसे ही गुनगुनाया था और एक लाइन पर अटक गए थे। याद ही नहीं आ रहा था कि कौन सी लाइन है। कल इसे सुनते हुए उसकी याद आयी।

रात आधी गुज़र गयी थी। Whatsapp पर मेसेज भेजा उसे। एक सुंदर कविता की कुछ पंक्तियाँ।
बात में यूँ ही बात हुयी तो उसने कहा, बात किया करो, ख़ुश रहोगी...मैंने कहा, वक़्त है तुम्हारे पास...
उसने जवाब दिया, 'वक़्त ही वक़्त है...हक़ से माँग कर देखो...माँगने वाले नहीं हैं।'
***

मुझे ये बात बहुत उदास कर गयी। इसकी दो सच्चाइयों के कारण। पहली ये कि मैं कभी किसी से हक़ से कुछ माँगती नहीं। किसी से भी नहीं। परिवार से नहीं। दोस्तों से नहीं। पति से भी नहीं। बेस्ट फ़्रेंड से भी नहीं। जब से माँ नहीं रही, मैंने हक़ से किसी से तो क्या ईश्वर से भी कभी कुछ नहीं माँगा। 'हक़' क्या होता है। कैसे जताते हैं हक़ किसी पर?

'माँगने वाले लोग नहीं हैं'। ये भी उतना ही सच है। मैंने देखा है, कभी कभी कोई कुछ इतने प्यार और अधिकार से माँग लेता है कि मना करने को एकदम दिल नहीं करता। छोटी छोटी चीज़ें जो नॉर्मली एकदम से मेरा दिमाग़ ख़राब कर देती हैं...जैसे कि कोई मुझे दीदी कहता है तो अधिकतर मुझे ग़ुस्सा आता है...लेकिन एक बार किसी एकदम ही रैंडम से लड़के ने सीधे जिज्जी ही कहा था...उसके उस अनाधिकार पर भी ग़ुस्सा नहीं आया। पता नहीं क्यूँ। शायद ईमानदारी से कहा होगा। शायद शब्द सही रहे होंगे। ठीक नहीं मालूम। पर उसे टोका नहीं। डाँटा नहीं।

ऐसे ही एक लड़की थी...मालूम नहीं कितने साल पहले...मगर उसने अधिकार जताया था...मेरी धूप पर, मेरी छांव पर, मेरे दुःख पर, मेरी यादों पर...और मैंने कहीं भी उसके लिए दरवाज़े बंद नहीं किए थे। ऐसी एक लड़की। थी।

मुझे माँगने में बहुत हिचक होती है। बहुत ज़्यादा। मरती रहूँगी लेकिन एक अंजुली जल नहीं माँगूँगी किसी से। एक शब्द से बुझेगी प्यास लेकिन कहूँगी नहीं किसी से। किसी किसी शाम बस इतना लगेगा कि दुनिया बहुत बेरहम है। कि जो लोग हमेशा ख़ुद को उलीचते रहते है वे कभी कभी एकदम ही ख़ाली हो जाते हैं। तो, ओ री दुनिया, मेरे हिस्से में भी तो थोड़ा प्यार रख।

फिर कभी कभी ऐसा रैंडम सा कोई होता है। कहता है, कैसे तो, हक़ से क्यूँ नहीं माँगती तुम। मुझे याद आते हैं बहुत से शब्द। दिल का गहरा ज़ख़्म भरता है। शब्द के कुएँ में प्यार भी।
***

मैं ऊनींदे होती हूँ जब उसका फ़ोन आता है। रात के ढाई बज रहे हैं।फ़ोन की स्क्रीन पर उसकी तस्वीर है। फ़ुल लेंथ। वो मुस्कुरा रहा है। मुझे लगता है फ़ोन की स्क्रीन छूने से मैं छू लूँगी उसको। मैं तकलीफ़ के अतल कुएँ में हूँ। सोचती हूँ उसका फ़ोन उठाऊँ या नहीं। लेकिन फिर रहा नहीं जाता।

मैं नींद में उलझी, नाम लेती हूँ उसका, 'सुनो, मैं सो चुकी हूँ।'। उसकी आवाज़ कोई थपकी है। माथे पर चूमा जाना है। उसकी आवाज़ उसका मेरे क़रीब होना है।
***

उसको मालूम नहीं है। पर उसने मुझे उस रात की मृत्यु से बचा लिया है। मैं अपनी बेस्ट फ़्रेंड को कहती हूँ। मेरा उसे 'फ़रिश्ते' बुलाने का मन करता है।
***

ज़िंदगी के किरदार सारे झूठे हैं।
सच सिर्फ़ कहानियों में मिलता है।

तुम मुझसे किसी कहानी में मिलोगे कभी?

15 November, 2017

प्यारे बॉलीवुड, हम लड़कियों के लिए भी कुछ गाने लिख दो, हम भी तो इश्क़ करते हैं

आज शाम एक अजीब समस्या की तरफ़ ध्यान गया। “हिंदी फ़िल्मों में लड़कों के ऊपर गाने बहुत ही कम बने हैं”। ये आर्टिकल किसी बहुत ज़्यादा रीसर्च पर बेस कर के नहीं लिख रही हूँ, अपनी समझ और एक पूरी शाम और रात भर गाने याद से और गूगल से और यूट्यूब से तलाशने के बाद लिख रही हूँ। हिंदी गाने बचपन से सुनती आयी हूँ, उसमें भी ऐसा नहीं कि सिर्फ़ अपनी जेनरेशन के, पापा को गानों का इतना शौक़ था कि घर में दो टेप रिकॉर्डर रहते थे। उसमें से एक में एक ब्लैंक कैसेट हमेशा cue कर के रखा रहता था कि कहीं भी अच्छा गाना आए, चाहे वो कोई टीवी सीरियल हो, रेडीओ का कोई प्रोग्राम हो या ऐसे ही टीवी पर आता कुछ भी हो। ये गूगल और Shazam से बहुत पहले की बात है। उन दिनों कोई गाना अगर खो गया तो बस एक अधूरी धुन ही गुनगुनाहट में रह पाएगी, बस। वो धुन कभी ज़िंदगी में दुबारा मिलेगी, इसमें भी शक था। मेरी बचपन की सबसे ख़ुशनुमा यादों में वो इतवार के दिन हैं जब पापा टेप रिकॉर्डर निकालते थे और कोई पुराना कैसेट बजाते थे। कोई रेकर्ड किया हुआ कैसेट होता था तो उसमें रेकर्ड हुए गानों की लिस्ट उस कैसेट के ऊपर के कवर पर लिखते थे। ज़ाहिर सी बात है, बचपन से बड़े होने तक बहुत बहुत सारे गाने सुनते रहे। सिर्फ़ अपने जेनरेशन के ही नहीं, पापा के और मम्मी के जेनरेशन के भी। देवानंद दोनों के फ़ेवरिट थे, शम्मी कपूर हम सबके फ़ेवरिट थे, विश्वजीत माँ को बहुत अच्छा लगता था। इसके अलावा ग़ज़ल वग़ैरह जो सुनते आए सो तो थे ही थे। अंत्याक्षरी में हम अकेले कई कई लोगों की टीम को हमेशा हरा दे सकने लायक गानों का शब्दकोश हुआ करते थे। घर छूटा। आगे पढ़ाई के लिए दिल्ली। यहीं आ कर पहली बार नोकिया के फ़ोन और fm रेडीओ से रिश्ता जुड़ा। फिर तो सारे लेटेस्ट गाने हमेशा ही सुनते रहते थे। पुराने गानों के सिवा। हम इतना बैक्ग्राउंड इसलिए दे रहे हैं कि हम बिलकुल बॉलीवुड और हिंदी फ़िल्मों में डूबे हुए पले बढ़े हैं।

इसके अलावा छह साल शास्त्रीय संगीत सीखे हैं, जिसको वहाँ हिंदुस्तानी संगीत कहते थे। कहने का मतलब, गला मीठा हुआ करता था और घर पे लोग बाग़ जुटते थे या पिकनिक वग़ैरह हुआ तो हमेशा फ़रमाइशी गाने भी ख़ूब गए हैं। इसके अलावा लड़कपन और जवानी में जब प्यार मुहब्बत हुयी है तो घर में रोज़ शाम को कोई ना कोई गाना गाने की आदत हमेशा रही ही। मूड के हिसाब से। नया प्यार हुआ है तो ख़ुश वाले गाने, दिल टूटा है तो बस उदास, दर्द भरे नग़मे। ‘जब दिल ही टूट गया टाइप’। जिसको भी गाने का शौक़ रहता है, उसकी पसंद के कुछ फ़ेवरिट गाने हमेशा रहते हैं, ये गाने अक्सर उन गीतों से चुने जाते हैं कि जो उसके जेंडर का हो, जैसे मैं फ़ीमेल वोकल वाले गाने चुनती थी। ये तो हुयी ख़ुद के गाने की बात, फिर है कि ईश्वर की दया और जीन्स के सही चुनाव के कारण उम्र भर ख़ूबसूरत भी रहे हैं और इश्क़ वग़ैरह में भी कभी पीछे नहीं हटे। तो इस सिलसिले में कई मौक़ों पर बड़े ख़ूबसूरत और ज़हीन लड़कों ने हमको इम्प्रेस करने के लिए एक से एक गाने गए हैं। चाहे घर में शादी ब्याह का माहौल हो और दीदी के देवर लोग आए हों कि किसी नयी पार्टी में युगल गीत गाने की कोई बात चल जाए। हँसी ख़ुशी के माहौल में गाने अक्सर रोमांटिक ही गए जाते थे, ख़ुशी वाले। कई बार हुआ है कि गानों की कोई लाइन गाते हुए कोई किसी ख़ास तरीक़े से हमको देख कर मुस्कुराया हो, भरी महफ़िल से नज़र बचा कर। हम समझ गए हैं कि गीत के बोल भले लिखे किसी और ने हैं, इशारा सारा हमारी ओर है। हिंदी फ़िल्मों में चाँद पर गाने भी इतने हैं कि ख़ुद को कभी चाँद से कम ज़मीन पर समझे ही नहीं हम। 

आज अचानक बात बहुत छोटी सी हुयी। एक दोस्त ने Whatsapp पर अपनी एक फ़ोटो भेजी। लड़का एक तो हैंडसम है, ड्रेसिंग सेन्स अच्छी है, फिर उसपर अदा बहुत है उसमें। जाड़ों के दिन हैं तो लम्बा ओवरकोट, गले में क़रीने से डाला हुआ मफ़लर। बेख़याली में खींची हुई तस्वीर थी, नीचे पता नहीं क्या तो देख रहा था। हल्की सी मुस्कान अटकी हुयी थी होठों की कोर पर। सब कुछ ही फ़ब रहा था उसपर। पर्फ़ेक्ट फ़ोटो थी। लेकिन whatsapp जैसे मीडीयम पर किसी की तारीफ़ में इतना क्या ही भाषण लिखेंगे। तो लगा कोई अच्छा गाना हो तो एक लाइन गुनगुना दें और क़िस्सा तमाम हो जाए। कुछ देर सोचने के बाद भी जब कोई गाने की लाइन नहीं याद आयी तो तस्वीर को दुबारा देखा…कि बौरा तो नहीं गए हैं कि कुछ सूझ ही नहीं रहा। दुबारा देखने पर ऐसा कुछ नहीं लगा, हम ईमानदारी से किसी की ख़ूबसूरती को देख कर एक अच्छा सा गाना गा देना चाहते थे। बस। थोड़ा शो-ऑफ़ भी करने को, कि देखो हम कितना अच्छा गाते हैं टाइप। बस इतना। हमारे इरादे एकदम नेक थे। ऐसी ख़ुशकिस्मती मेरी कई बार रही है कि ज़रा सा भी अच्छे तैयार होने पर कॉम्प्लिमेंट में कोई ना कोई गाना मिला ही है।

लेकिन कोई गाना याद नहीं आया। गूगल पर सर्च किए, ‘बेस्ट फ़ीमेल हिंदी सोंग्स औफ़ ऑल टाइम’। इसमें बहुत से नए गाने थे, और कोई भी अच्छे नहीं थे। अपनी याद के हिसाब से आशा भोंसले के गाए हुए गीतों को दिमाग़ में छान मारा। फिर गूगल पर देखा। अब तक दिमाग़ ख़राब हो चुका था कि फ़ीमेल सोलो आख़िर किन विषयों पर गए जाते हैं। फिर दूसरा ख़याल ये भी आया कि बॉलीवुड में गीतकार सारे पुरुष रहे हैं। कोई एक नाम भी नहीं है कि किसी स्त्री ने बहुत से अच्छे गाने लिखे हों। फिर लगा कि शायद मेरी जानकारी सही नहीं हो, मुझे वैसे भी बहुत ज़्यादा नाम याद नहीं रहते। गूगल ने लेकिन मेरे शक की पुष्टि की। फ़ीमेल आवाज़ में गाए गए कुछ बहुत अच्छे गाने तो हमेशा से याद भी थे कि बचपन से ख़ूब गाया है उन्हें। याद करके गानों की लिस्ट निकाली तो देखा कि ना केवल पुरुष औरतों की ख़ूबसूरती के बारे में गाना गाते हैं, बल्कि औरतें भी औरतों की ख़ूबसूरती के बारे में ही गा रही हैं। उदाहरण स्वरूप - ‘इन आँखों की मस्ती के परवाने हज़ारों हैं’, ‘बिजली गिराने मैं हूँ आयी, कहते हैं मुझको, हवा हवाई’, ‘मेरा नाम चिन चिन चू’। इसके अलावा जो दूसरा भाव फ़ीमेल वोकल में सुनने को मिलता है वो औरत के ख़यालों या अरमानों के बारे में होता है। एक स्टेटमेण्ट जैसे कि, 'ऐ ज़िंदगी गले लगा ले’, ‘आजकल पाँव ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे’, ‘कई बार यूँ भी देखा है’, ‘चली रे, चली रे, जुनूँ को जिए’, ‘लव यू ज़िंदगी’, ‘धुनकी लागे' इत्यादि। ऐसा इसलिए कि ये सारे गाने पुरुषों ने लिखे हैं, उन्हें लगता है कि औरत या तो अपनी ख़ूबसूरती के बारे में सोच रही है, ‘सजना है मुझे, सजना के लिए’ जैसे गीतों में या कि ज़िंदगी के बारे में और अपनी भावनाओं के बारे में सोच रही है। उन्हें ये शायद समझ नहीं आता है कि कोई लड़की लड़के के बारे में भी सोचती है। जितने गीत मैंने अपनी याद में खंगाले और फिर जितने इंटर्नेट पर देखे, इस तरह किसी लड़की का लड़के के बारे में सोचना और लिखना/गाना सबसे ख़ूबसूरती से गुरुदत्त की फ़िल्म, साहब बीबी और ग़ुलाम के गाने, ‘भँवरा बड़ा नादान है’ में दिखाया गया है। मगर ऐसी सिचुएशन फ़िल्मों में बहुत कम दिखायी गयी हैं। जहाँ एक ओर लड़की बालकनी में खड़े हो कर बाल भी कंघी कर रही है, ‘घर से निकलते ही, कुछ दूर चलते ही’ गुनगुना सकता है लड़का, लड़कियों के पास ऐसी कोई वोकैब्युलेरी ही नहीं है। 

चूँकि समाज में अच्छी, पढ़ी लिखी, ख़ूबसूरत और इंटेलिजेंट लड़कियों की बेहद कमी है क्यूँकि अभी भी बहुत लड़कियों को वो माहौल नहीं मिला है जिसमें वे अपने बारे में सोच सकें, अपने फ़ैसले ख़ुद ले सकें, सपने देख सकें। स्कूल, कॉलेज, कोचिंग… कहीं भी जाइए लड़के ज़्यादा होंगे, लड़कियाँ कम। मैं अब बहुत ज़्यादा सामान्यीकरण कर रही हूँ, लेकिन अधिकतर ऐसा होता है कि लड़कियों को लड़कों से बात करने में कोई ज़्यादा मेहनत नहीं करनी होती है। तो जिसको एकदम साधारण तरीक़े से कहें तो लड़की को लड़के को पटाने के लिए कुछ नहीं करना होता है। उसका थोड़ा सा ख़ूबसूरत होना और ज़रा सा हँस के बात करना काफ़ी होता है। लेकिन अगर कोई लड़की इससे ज़्यादा कुछ करना चाहे तो? मान लीजिए कि लड़की किसी दिन बहुत सुंदर सी साड़ी में आयी हो और लड़के ने उसे देख कर गाना गाया हो, ‘चाँद सी महबूबा हो मेरी…’, लड़की शर्माए और खिल खिल जाए। ज़िंदगी की ख़ूबसूरत यादों में एक ऐसी शाम जमा हो जाए। अब इसी सीन को उलट दीजिए, लड़के ने एकदम ही क़ातिल क़िस्म की ब्लैक शर्ट और जीन्स पहनी है, बाल बेपरवाही से बिखरे हैं, चेहरे पर हद दर्जे की मासूमियत है। लड़की भी चाहती है कि उसे कहे ये सब, लेकिन हर लड़की मेरी तरह लेखक तो होती नहीं है कि सधे, सुंदर शब्दों में लिख सके इतना। वो भी तो चाहेगी कि कोई गीत हो जो गुनगुना सके एक पंक्ति अपने महबूब को देख कर। लेकिन हिंदी फ़िल्मों ने हमारे देश की आधी से ज़्यादा आबादी को वो शब्दकोश, वो वोकैब्युलेरी दी ही नहीं है। वो कहता है, लड़की हो, तुम्हें शब्दों से माथा पच्ची करने की ज़रूरत नहीं। तुम बस ख़ूबसूरत दिखो, उतना ही काफ़ी है तुम्हारे लिए। कोई ज़रूरत नहीं रिश्ते में अपनी ओर से दिमाग़ लगने की, ये सब लड़कों का काम है, वे गाएँगे तुम्हारे लिए गीत, तुम उनपर फ़िदा होना, बस। इससे ज़्यादा करना है तो उनके लिए खाने का कुछ बना के ले जाओ, उनके लिए रूमाल काढ़ दो। बस। 

अलिशा चिनॉय की मेड इन इंडिया से मुझे कुछ उम्मीद थी, लेकिन गीत सुना तो देखा उन्हें भी बस ‘दिल चाहिए मेड इन इंडिया’, बदन कहीं का भी हो। ये और बात है कि मिलिंद सोमन को देख कर थोड़ी देर तक लिरिक्स की सारी शिकायतें रफ़ा दफ़ा हो जाती हैं। लेकिन आप ही कहिए, ये ट्रैजडी नहीं है कि मिलिंद के लिए गीत लिखा जाए और उसमें उसके मेड इन इंडिया दिल की बात हो बस? ये उसके हॉट्नेस की तौहीन है। 

जब इश्क़ बराबरी से होता है तो फिर गानों पर लड़कों का ऐसा एकाधिकार क्यूँ? लड़कियों के पास होने चाहिए उनके क़िस्म के गीत। लड़कों को भी तो मालूम होना चाहिए किसी लय में डूबा हुआ स्त्री कंठ जब गुनगुनाता है प्रेम में होते हुए तो कैसे आत्मा तक पहुँचता है सुकून। या कि दिल टूटे में कोई औरत कैसे फुफकारती है तो दुनिया को जहन्नुम में झोंक देना चाहती है। कोई लड़की क्यूँ नहीं गाए कि जब लड़का उसको इम्प्रेस करने के लिए तेज़ मोटरसाइकिल चलाते आ रहा था और मोड़ पर गिरा था तो उसे तकलीफ़ हुयी थी, लेकिन वो हँसी थी ठठा कर उसके भोलेपन और बेवक़ूफ़ी पर। या कि लड़के की ब्लैक शर्ट कैसे उसे काला जादू लगती है। कि लड़के का डिम्पल ऐसा है कि उसे हँसते देख इश्क़ में गिर जाते हैं सब। या कि चूमना चाहती है उसे। या कि बारिश में भीगना चाहती है उसके साथ। या कि किसी रोड ट्रिप पर भाग जाना चाहती है दुनिया छोड़ कर उसके साथ। ये सब कुछ गुनगुना कर कहना चाहती है लड़की लेकिन वो गीत किसी ने लिखे नहीं हैं। अब जैसे देखिए, ‘जब हैरी मेट सेजल’ का गाना है, ‘ख़ाली है जो तेरे बिना, मैं वो घर हूँ तेरा’। यहाँ पर बिछोह में भी लड़की गा रही है लेकिन ये सोचते हुए कि लड़के को घर ख़ाली लग रहा है…और मैं वो घर हूँ। लेकिन इसी फ़िल्म का दूसरा गाना है, ‘यादों में’ कि जो लड़की की आवाज़ से शुरू होता है और लड़के की आवाज़ में दूसरा हिस्सा है…वहाँ वो गा रहा है कि उसे उसकी याद कैसे आ रही है। लेकिन लड़की क्यूँ नहीं गाती है कि उसकी याद में हैं कौन से शहर। कौन सी सड़कें। कौन से समंदर हैं जो उसकी साझा याददाश्त में हैं। वो क्या है जिसे वो भूलने से डरती है। अलविदा कहना कितना दुखता है।

नयी शुरुआतें हो रही हैं लेकिन अभी और भी लड़कियों को आगे आना पड़ेगा। लिरिक्स लिखने पड़ेंगे ताकि कई और लड़कियों को आवाज़ मिले। जब स्नेहा खानवलकर जैसी म्यूज़िक डिरेक्टर वोमनिया लिखती है और धुन में रचती है तो अनायास ही कई लड़कियों को एक आवाज़ मिलती है। एक उलाहना देने का तरीक़ा मिलता है। ‘माँगे मुझौंसा जब हाथ सेकनिया’, जैसी चीज़ महसूसने के बावजूद ऐसा तीखा मीठा उलाहना रचना हर औरत को नहीं आएगा। पीयूष मिश्रा का लिखा हुआ ‘तार बिजली से पतले हमारे पिया’, भी एक तरह से लड़कों/आदमियों के लिए लिखा हुआ गीत ही है।

लड़कियों को वो गीत चाहिए जो उनके माडर्न महबूब के जैसा हो। जो उनका ख्याल रखे। जो उनका संबल बने। जो उनके गुनाहों का बराबर का पार्ट्नर हो। जो फ़ेस्बुक पर कभी कभी प्यार का इज़हार कर सके। बॉलीवुड। प्लीज़। कुछ बेहद अच्छे गाने दो ना हमें, अपने बेहद ख़ूबसूरत महबूबों के इश्क़ में डूब कर गाने के लिए। उड़े जब जब ज़ुल्फ़े तेरी अब बहुत ओल्ड फ़ैशंड हो गया है। बहुत घिस भी गया है। कब तक हम मजबूरी में अंग्रेज़ी वाला लाना डेल रे का ब्लू जीन्स वाइट शर्ट गाते रहेंगे। हमें ज़रा ब्लू जीन्स और झक सफ़ेद कुर्ता वाला कोई गाना रच दो। तब तक हम ख़ुद को मधुबाला समझ के ज़रा उसके लिए 1958 में बनी फ़िल्म, हावड़ा ब्रिज का गाना गा देते हैं, ‘ये क्या कर डाला तूने, दिल तेरा हो गया, हँसी हँसी में ज़ालिम, दिल मेरा खो गया’।


13 November, 2017

दो दुनियाओं के बीच

जो लोग तुम्हें ज्ञान देते हैं कि दुःख इमैजिनेरी होता है उन्हें तुम खींच के थप्पड़ दिया करो। नहीं सच में। ये ऐसी चीज़ है कि ख़ुद समझ में आती है नहीं और चल देते हैं दुनिया का ज्ञान देने। वे गाल सहलाते भौंचक सामने खड़े हों, तब उनसे पूछो...लहरता हुआ गाल इमैजिनेरी है?

दुनिया के दो हिस्से होते हैं। एक सच की दुनिया और एक ख़यालों की दुनिया। अधिकतर लोगों के लिए सच की दुनिया काफ़ी होती है। वे उसमें जीते मरते, इश्क़ करते, परेशान होते जीते रहते हैं। वे कभी कभी ख़यालों की दुनिया में थोड़ी डुबकी लगाते हैं...कि जैसे ऐश्वर्या मेरे साथ डेट पर चल ले या कि कर्ट कोबेन ज़िंदा होता या कि निर्मल वर्मा को कोई चिट्ठी लिख रहे होते...इतना भर। कभी कभी। वे अपनी ज़िंदगी में व्यस्त रहते हैं...ख़ुश या दुखी, जो भी हों, इसी दुनिया के अंदर रहते हैं। 

एक दुनिया होती है ख़यालों की। बड़ी सम्मोहक, बड़ी तिलिस्मी, बहुत ख़ूबसूरत। ये दुनिया सबको अच्छी नहीं लगती कि ये दुनिया ख़ुद ही बनानी पड़ती है। तो ये दुनिया वैसी ही होगी जैसी आप इसे बना पाएँगे। इस दुनिया के शहर, इस दुनिया की सड़कें, इस दुनिया के रंग...सब ख़ुद से रचने होते हैं। एक बुनियादी ढाँचा बनाना होता है, फिर सब कुछ आसान होता है। 

ये दुनिया अक्सर पनाह होती है लेकिन कभी कभी क़त्लगाह भी होती है। मक़तल, you know. जहाँ क़त्ल किए जाते हैं। इस दुनिया के रंग तब दिखते नहीं कि सब स्याह होता है। रोशनी नहीं होती। धूप नहीं होती। 

कुछ लोगों के लिए ये दुनिया भी उतनी ही सच होती है जितना तुम्हारे गाल पर लहरता हुआ थप्पड़। इसमें जाना आना अपने बस में नहीं रहता। सुबह उठ कर कौन से ख़याल अपनी गिरफ़्त में ले लेंगे, ये पहले से तय करना मुश्किल होता है। हम कभी नहीं जानते कि सुबह सुबह सूयसाइडल क्यूँ होते हैं। रात और भोर के बीच, सपनों के उस आयाम से होकर आने के दर्मयान क्या बदल जाता है।

ज़िंदगी में सब कुछ ख़ूबसूरत होगा या कि वैसा ही होगा जैसा एक दिन पहले था। एक लम्हा पहले था लेकिन ख़याल ने अगर धावा बोल दिया तो फिर इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता कि सच की दुनिया कैसी है। कि कितना प्यार है दिल में। कि कितने लोग हैं जो आपकी जान की सलामती की दुआ माँगते हैं। हम किसी इमैजिनेरी दुःख में डूबते जाते हैं। हमें वहाँ से कोई बचा कर नहीं ला सकता। वो दुःख भी अपने सीने पर ही झेलना होता है। आत्मा में चुभता दुःख कोई। टीसता ज़ख़्म कोई। किसी किरदार के हिस्से का दुःख लिखने के पहले उसे जीना होता है हर साँस में। 

ये दोनों दुनियाएँ अलग अलग दिशा में हैं और कभी कभी ये दुविधा में डाल देती हैं। एक चुनने को विवश करती हैं। एक प्रेम से दूसरे प्रेम तक जाने के रास्ते में एक लम्हा ऐसा होता है जब आप दो व्यक्तियों से प्रेम में होते हैं। एकदम बराबर के प्रेम में। यहाँ से चुनाव हो जाता है। आप या तो पहले प्रेम तक लौट आते हैं या कि दूसरे प्रेम तक चले जाते हैं। मगर वो एक बिंदु कि जब आप दो व्यक्तियों के प्रति बराबर प्रेम में होते हैं, वो लम्हा घातक होता है। वहाँ से आपका वजूद दो बराबर के टुकड़ों में बंट जाता है और आप कितना भी कोशिश कर लें, जो छूट गया है उसके दुःख से ख़ुद को उबारना नामुमकिन होता है। फिर वक़्त का मरहम होता है और धीरे धीरे जो छूट गया है उस दुःख के तीखे किनारे घिसता रहता है कि आप उसके साथ जीने की आदत डाल लें। दुःख कहीं जाता नहीं। हम उसके साथ जीना सीख लेते हैं। सच और कल्पना में ऐसी ही जंग छिड़ती है, कि आप दोनों के साथ नहीं रह सकते हो। एक चुनना ही होगा। हम जो भी चुनते हैं, दूसरी दुनिया दुखती है। 

हम नहीं जानते कि किसी दिन सुबह उठते ही पहला ख़याल ख़ुदकुशी का क्यूँ आता है। ख़यालों की दुनिया में किस पुराने दुःख ने धावा बोला है। मैं कभी कभी वाइटल बीइंज़ के बारे में भी पढ़ती और समझने की कोशिश करती हूँ। सोते हुए हमारा मन कई आयामों में घूमता है। जाने कहाँ से कोई नेगेटिव सोच अपने साथ बाँध लाता है। ऐसे में कई बार हमारे वातावरण पर निर्भर करता है कि हम उस ख़याल से लड़ सकते हैं या समर्पण कर देते हैं। जिन दिनों धूप निकलती है और आसपास कुछ दोस्त होते हैं, ऐसे किसी ख़याल से लड़ना आसान रहता है। लेकिन जिस दिन धूप नहीं रहती और दोस्तों से बात किए हुए बहुत वक़्त हुआ रहता है...वैसे में ऐसा ख़याल एकदम पूरी तरह से अपनी गिरफ़्त में ले लेता है। 

मुझे दवाइयों और डाक्टर्ज़ पर भरोसा नहीं है। सर्दी, खाँसी बुखार तक में अधिकतर मुझे दवा खाना पसंद नहीं है...तो ऐसे में मन की परेशानी के लिए कौन सा डॉक्टर खोजने जाएँ, कहाँ? पागलखाने वाले डॉक्टर मुझे समझ नहीं आते। कि मुझे लगता है सायकाइयट्री पूरी की पूरी दूसरे लोगों को स्टडी करके डिवेलप हुयी है लेकिन लोगों को किसी जेनरल खाँचे में बाँटा ही नहीं जा सकता। हर इंसान की सोच, दूसरे इंसान से इतनी अलग होती है...हर स्टिम्युलुस के प्रति उसका रीऐक्शन एकदम अलग। तो जो बात दुनिया के हज़ार और लोगों के लिए सही हुयी हो, हो सकता है मैं अपवाद हूँ...मुझपर वो चीज़ लागू ना हो। ऐसे में मुझे स्पेसिफ़िक, एक केस की तरह तो पढ़ा नहीं जाएगा। मैं कितना ही बताऊँ किसी को अपनी ज़िंदगी के बारे में। पिछली बार जिस सायकाययट्रस्ट के पास गयी थी, उसकी उल्टी-पुल्टी सलाह के कारण उसी शाम जान ही दे देती, लेकिन दोस्तों ने बचा लिया। 

तो इस इमैजिनेरी दुनिया के बेहद रियल दुखों का इलाज किसके पास है? ज़ाहिर है। दोस्तों के पास। लेकिन सवाल ये है, कि दोस्तों के पास वक़्त है?

12 November, 2017

रंग मेरी हँसी पहचानते हैं



सपने के ऊपर सच होने की ज़िम्मेदारी नहीं होती। वो कुछ भी हो सकता है।

क़ायदे से पहला महबूब वही था। पहला प्यार कि जो ख़यालों में नहीं। हक़ीक़त में था। रोज़ का मिलना था जिससे। और कि जिसके रूम को पहली बार घर कहा था। जहाँ किचन में मेरे हिसाब से चीज़ें हुआ करती थीं। एक छोटा सा कमरा था। लेकिन बहुत ही सुंदर सी गृहस्थी थी। बहुत ही सुंदर। अपनी पसंद की चादरें। गुलदान। और दो रजनीगंधा और एक गुलाब का फूल। इतने में ही मेरा घर बस गया था। उससे दुबारा मिले ग्यारह साल होने को आए।
सपने में मैं दिल्ली में हूँ, इवेंट ऑर्गनाइज करने। अपने ऑफ़िस के लोगों के साथ। मेरा बॉस है। मुझसे रिपोर्ट ले रहा है कि सब ठीक से हुआ है या नहीं। यूनिवर्सिटी में शायद कोई बुक लौंच है, या ऐसा ही कुछ। उसने मुझे emceee स्क्रिप्ट का प्रिंट दिया है। कि एक बार इसे देख लो। हम जहाँ हैं वहाँ सीढ़ियाँ हैं। कुछ कुछ किसी छोटे से ओपन एयर थीयटर जैसीं।
मेरे हाथ में पन्ने हैं लेकिन मेरा ध्यान ज़रा भी शब्दों पर जा नहीं रहा है। हल्की बारिश हो रही है। अगस्त का महीना है। वहाँ सारे हास्टल्ज़ एक ही जैसे लग रहे हैं अब इतने साल बाद। मैं तलाशने की कोशिश कर रही हूँ कि मेरा वाला कमरा कौन सा था। मुझे बिल्डिंग्स दिख रही हैं और ये याद आ रहा है कि किसी बिल्डिंग के आख़िरी कोने वाला कमरा था। इमारतों का रंग गहरा सलेटी है और कई सालों की बारिश और बिना पुताई के वे सीली हुयी और काई लगी दिख रही हैं थोड़ी दूर से। उनपर काले चकत्ते हैं। सारी इमारतें ही सलेटी हैं। मैं पगडंडियों के बीच टहलती हुयी तलाश रही हूँ कि इनमें मेरा वो कमरा है कहाँ। 

तभी उसी पगडंडी पर वो दिखा है। इतने सालों बाद भी उसमें कोई अन्तर नहीं आया है। कोई सा भी नहीं। उसने कुर्ता और जींस पहना है। उसकी आँखों में वही उदासी है जो बिछड़ते हुए मैंने देखी थी। मैं पूछती हूँ उससे, 'वो हमारा वाला रूम कहाँ था, हमको दिखा दो ना, तब से खोज रहे हैं, नहीं मिल रहा है'। वो देखता है हमको। हाथ आगे बढ़ाता है और मेरी हथेली को अपनी दो हथेलियों के बीच रखता है। सहलाता है कि जैसे किसी ज़ख़्म पर फूँक मारती थी माँ। 

काँधे पर हाथ रखता है और हम ऐसे साथ चलते हैं जैसे बीच के साल कभी आए ही नहीं थे। दूर से दिखाता है कमरा। मैं कमरे की दीवारों का रंग याद करने की कोशिश करती हूँ। उनपर पेंसिल से लिखी वो आख़िरी तारीख़ भी। जब मुझे लगा था कि हम हमेशा इश्क़ में रहेंगे। वैसे लिखा हुआ झूठ नहीं था। कि मैं प्यार उससे अब भी करती हूँ। बहुत बहुत बहुत।
वो कहता है। ये कुछ नहीं है। चलो तुमको कुछ और दिखाता हूँ। हम साथ में वहाँ के फ़ोटो स्टूडीओ जाते हैं। यूनिवर्सिटी कैंपस के छोटे से मार्केट में कुछ छोटी सी दुकानें हैं। एकदम पुराने ज़माने की हीं। एक बड़ा सा फ़ोटोस्टैट है जिसमें से घिर्र घिर्र की आवाज़ आ रही है। कोई तो पैंफलेट की कॉपीज़ बना रहा है। स्टूडीओ में एक छोटी सी डेस्क है जो अंदर और बाहर को अलग करती है। वहीं पर डिवेलपिंग रूम भी है। कोई भी नहीं है वहाँ। हमारे बायीं ओर दीवार पर किसी स्लाइड शो प्रोजेक्टर से तस्वीरें प्रोजेक्ट की जा रही हैं। पुरानी सी दीवार है। हल्का सा अँधेरा है स्टूडीओ। उसने मुझे दीवार की ओर देखने को कहा। दीवार पर उस वक़्त एक मॉडल की तस्वीर थी। तस्वीर पर पड़ने वाली रौशनी दिख रही थी प्रोजेक्टर से आती हुयी। हम दोनों दीवार की ओर देख रहे थे, जहाँ तस्वीर बनती। स्लाइड बदली और वहाँ दीवार पर एक हँसती हुयी दुल्हन की तस्वीर थी, मेरी। मैंने गहरे लाल रंग की चूनर ले रखी थी माथे पर जिसके गोटे में सुनहले छोटे छोटे लटकन लगे हुए थे। मेरी आँखों में बहुत सी ख़ुशी थी। मेरा पूरा शृंगार दुल्हन का था। हाथों में भर भर चूड़ियाँ। आँखों में काजल, बड़ी सी लाल बिंदी, लाल ही लिप्स्टिक। दुल्हन के शृंगार में इतनी ख़ुश तो मैं कभी नहीं थी। बहुत ही भौंचक होकर मैंने पूछा उससे, 'ये कब की फ़ोटो है? ये मैंने कब खिंचवायी?'। मुझे कुछ भी याद नहीं था। कि तभी तस्वीर फिर बदली। इस बार मैं गहरे लाल सलवार सूट में थी और वही लाल दुपट्टा लिया हुआ था...मैं एक झूले पर झूलती हुयी थी...आधी पींग बीच...सारे बाल खुले नीचे की ओर झूलते हुए थे और मैं हँस रही थी इसमें। कैमरा के लिए वाली हँसी नहीं...ख़ुशी वाली हँसी। बहुत प्रेम में डूब कर लड़की जो हँसती है, अपने महबूब को देख कर...वो हँसी। वो निश्चिंतता कि हम कभी बिछड़ने वाले नहीं हैं। उसकी आँखें भर आयी थीं। उसने कुछ नहीं कहा लेकिन मुझे याद आ गया था। ये करवाचौथ की तस्वीर थी। मैंने यूँ ही में उसके लिए व्रत रख लिया था और शाम को उसके आने का इंतज़ार किया था अपना लाल रंग का सलवार कुर्ता पहन कर। चाँद को देख कर उसे देखा था तो उसने अठन्नी दी थी। फिर हम घूमने गए थे। वहीं पेड़ पर झूला लगा हुआ था कैंपस में ही कि जहाँ उसने कैमरा से वो फ़ोटो खींची थी झूले वाली। पहली वाली फ़ोटो में चिढ़ाया भी था, दुल्हन कहीं इतने ज़ोर से हँसती है, मुस्कुरा के फ़ोटो खिंचानी चाहिए थी ना। क़िस्मत का फेर भी ऐसा लगा कि शादी के दिन इतनी तकलीफ़ थी...इतना दुःख था कि हँसती हुयी तो दूर की बात है, मुस्कुराती हुयी फ़ोटो भी नहीं है। ये हँसती हुयी दुल्हन वाक़ई किसी बहुत पुरानी याद में ही हो सकती थी। उसने मेरा हाथ पकड़ा। मैं उसकी आँखें नहीं देख सकती थी उस अंधेरे में, लेकिन मुझे मालूम था वे भीगी होंगी। उसने बहुत धीमी आवाज़ में मुझसे कहा, या शायद ख़ुद से ही। 'मैं यहाँ कभी कभी मरने आता हूँ'।

हम अंधेरे के झुटपुटे में बाहर निकले। ये कैंपस था। कोई भागदौड़ वाला शहर नहीं कि यहाँ रोने को जगह ना मिले। जंगल से गुज़रती पगडंडी थी। पगडंडी के बीच पुलिया थी। हम पुलिया पे देर तक एक दूसरे को पकड़ के बैठे रहे। पसीजी हथेलियाँ लिए। दुखता रहा वो एक ख़ुशी का दिन। वो एक दुल्हन का लाल जोड़ा। वो हँसी। वो मुट्ठी में रखी अठन्नी। वो झूले की पींग। हवा में लहराते, खुले बालों की महक। इश्क़ का गहरा लाल रंग। और उसका ख़त्म हो जाना भी। हम उस समय में लौट जाना चाहते थे। उस प्यार में। उस कमरे में। 

मैं सपने से एक तीखे सर दर्द में उठी हूँ। वो हँसती आँखें मुझे नहीं भूलतीं। वो दुल्हन का जोड़ा। वो झूले की ऊँची पींग। और उसका होना। उसका होना पहले प्यार की तरह। उसका बसना अपने इर्द गिर्द। मेरे पास ऐसी कोई भी तस्वीर नहीं है जिसमें वैसी एक हँसी हो। वैसा इश्क़ हो। वैसा खेल खेल में जान दे देने की निडरता हो। 

कई सालों से उससे बात नहीं की है। मैं उसका नाम लेकर उसको बुलाना चाहती हूँ। ये नाम नहीं ले पाना। सीने में चुभता है। आँखों में। मन। प्राण में कहीं। और बहुत पुरानी कविता याद आती है।

करवाचौथ

याद है वो एक रात
जब चाँद को दुपट्टे से देखा था मैंने
और तुमने तोहफे में एक अठन्नी दी थी
मैंने दुपट्टे के छोर में बाँध लिया था उसे

कल यूँ ही कपड़े समेटते हुए मिला था दुपट्टा
गांठ खोली तो देखा
चाँद बेहोश पड़ा था मेरी अठन्नी की जगह...
जाने तुम कहाँ होगे
और कहाँ होगी मेरी अठन्नी...

11 November, 2017

कैरेक्टर स्केच : लड़के

कुछ लड़के ऐसे होते हैं, बिखरे से बालों वाले। कि हमेशा कोई आवारा लट माथे पे झूलती रहेगी। जब भी उनसे मिलें, दिल करता है उसे लट को ज़रा सा उँगलियाँ फिरा के उनकी सही जगह टिका दें। लेकिन उन्हें किसी ने लड़कियों की तरह तमीज़ से रहना तो सिखाया नहीं है...हँसेंगे बेलौस और लट झूल जाएगी फिर फिर। साथ में आपका मन भी ऐसे ही ऊँचे झूले पर पींग बढ़ाता जाएगा।

जैसे कुछ लड़कियों के बारे में कहते हैं ना, कि उनका मन कँवारा ही रहता है, वे औरतपने की परछाईं से भी दूर रहती हैं...वैसे ही ये कुछ लड़के भी होते हैं…कि जो गृहस्थ नहीं बने होते। उनका घर होता है, बीवी होती है, बच्चे होते हैं लेकिन वे मन से आवारा होते हैं, मुक्त। ये वो लड़के हैं जिनके लड़कपन में भाभियाँ छेड़ते हुए कहती हैं, ऐसे ही जानवर की तरह बौराते रहोगे या आदमी भी बनोगे? हमारा समाज समझता है किसी औरत के पल्ले में गांठ की तरह बंध कर इन लड़कों में ठहराव आ जाएगा। 

ये लड़के कि जिनका बचपना बाक़ी रहता है पूरा का पूरा। पितृसत्ता ने इन्हें स्त्री को अपने से कमतर समझने का ज्ञान सिखलाया नहीं होता है। पौरुष की अकड़ इन्हें हर स्त्री में भोग्या नहीं दिखाती। अक्सर ये परिवारों में बहुत सी लड़कियों के साथ पले बढ़े होते हैं। दीदियाँ, छोटी बहनें, दोस्त भी सारे दीदी के दोस्त ही। ये लड़के बड़े मासूम और दिलकश होते हैं। कि जिनसे इश्क़ करने को जी चाहता है। जिनका दिल तोड़ देने को जी चाहता है कि वे थोड़ा दुनियावी हो जाएँ। कि कविताओं से दुनिया थोड़े चलती है। लेनदेन का हिसाब। थोड़ी सौदागरी सीख लें इसी बहाने। दिल को बेच सकें सबसे ऊँची बोली लगाने वाले के चिड़ियाघर में। 

वे लड़के कि जिन्हें किसी सुघड़ औरत के हाथों ने कभी छुआ नहीं हो। वे लड़के कि जिनके सीने से लग कर कोई नदी जैसी लड़की बही नहीं हो। ऐसी लड़की जिसके लिए वे बाँहों का मज़बूत बाँध बनाना चाहें। कि जिसके लिए वे पत्थर होना चाहें...उसके इर्द गिर्द रचना चाहें सात अभेद्य दीवारों वाला किला। 

जिन्हें दुनिया की मायूसी तोड़ ना पायी हो। जिनका अच्छाई पर से भरोसा ना उठा हो। कि जो बिखरे बिखरे हों और कैसी तो उदासी बसाए चलते हों अपनी आँखों में। कि भरे पूरे घर की पूरी ज़िम्मेदारी उठाए ये लड़के जाने किस तलाश किस प्यास को ख़ुद में छुपाए रखते हैं।

वे लड़के कि जिनसे मिल कर हर औरत के अंदर की लड़की बाहर चली आए। अपने गुलाबी दुपट्टे से पोंछ देना चाहे उसके माथे का पसीना। कि जो क़रीने से रख देना चाहे उसकी कविताओं वाले पन्ने। जिसे ठीक मालूम हो उसके पसंद की कॉफ़ी और जो कहना नहीं चाहे उससे कुछ। बस। देर तक बैठी रहे उसके पास। उसके सीने पर सर रखे, उसकी धड़कन को सुनते हुए। 

लड़के जो ज़मीन, आसमान, किसी के ना हुए हों। जिनके दिल पर किसी का भी नाम ना लिखा हो। लड़के जो कोरी सलेट की तरह हों। बेपरवाह लड़के। जिन्हें ना इश्क़ से डर लगता हो ना दुनिया और समाज के किसी नियम से। जो हँस कर कह सकें उस लड़की से...तुम लिखो ना कविता…हम कभी तुमसे सवाल नहीं करेंगे। 

आज़ाद लड़के। कि जो किसी आज़ाद लड़की से मिलें तो दोनों साथ आवारा होना चाहें। जिन्हें लम्हे में जीना आता हो। जिन्हें हँसना आता हो। और जिनके दिल में हमेशा किसी टूटी फूटी सी लड़की के रहने के लिए ख़ूब ख़ूब सी जगह हो। लड़के कि जिन्हें बंद कमरों में नहीं...खुले आसमान के नीचे चूमने को जी चाहे। जिनके साथ बारिश में भीगने को जी चाहे। बिना किसी हमेशा के वादे के...प्यार करने को जी चाहे। प्यार करके भूल जाने को जी चाहे। 

बहुत रेयर होते हैं ऐसे लड़के। बहुत दुर्लभ। ध्यान रखो, अगर कहीं मिलें तो एकदम से खोने मत देना इन्हें। प्यार व्यार के झूठे फ़रेब में नहीं आना। ये लड़के दोस्ती करने के लिए बने होते हैं। उम्र भर के तुम्हारे पागलपन को निभाने के लिए। कि तुम जब रात के चार बजे किसी को तलाशना चाहोगी तुम्हारी पागल कहानियाँ सुनने के लिए, तो ये सुनेंगे। उनकी हँसी की जलतरंग में दुनिया के सबसे सुंदर गीत होंगे। 

उनसे मिलना कभी तो गले लगना। कि दुनिया का कोई अधूरापन नहीं जो उनसे मिल कर थोड़ा कम अधूरा ना लगता हो। और जो कहीं ग़लती से उन्हें प्यार हो भी जाए तुमसे…तो होने देना। प्यार कोई ऐटम बम नहीं है कि शहरों को नेस्तनाबूद कर दे। ये टेम्परेरी होगा। वापस वे लौट कर यारी में ही चले आएँगे। उन्हें जीने का स्पेस देना। हँसना। अपनी पूरी ख़ूबसूरती की धूप में उन्हें सूरजमुखी की तरह खिलने देना। उनके साथ शहरों की परिकल्पना करना। आर्किटेक्चर फ़ाइनल करना। लोगों के लिए जगह बनाना। उसके साथ होना कोई कविता। कोई नदी। 

लड़के। कन्फ़ेशन बॉक्स जैसे। उनके पास रखना अपने सारे गुनाहों का हिसाब। और रखना उनकी दोस्ती को अपने दिल में सबसे आसानी से मिल जाने वाले फ़ोल्डर में। उनके साथ बाइक ट्रिप प्लान करना। घूमना शहर। याद रखना ढाबे में खाए तवा पनीर की सब्ज़ी की रेसिपी। सफ़र के रास्ते में पड़ेगा उसका एक कमरे का घर। किसी बहुत छोटे से शहर में। किताबों और छोटे से किचन वाला घर। उसके साथ मिल कर बनाना कोई शाम तोरई की सब्ज़ी। दाल और चावल। बैठ के खाना लालटेन की रोशनी में। कोई मिसाल बनना। कोई ऐसा क़िस्सा कि जो किसी से कहा ना जाए। जिया जाए जिसे और बस कहानी में लिख कर भूल जाया जाए। 
ऐसे किसी लड़के के लिए ख़रीदना गहरे लाल रंग का बैंडाना। सिखाना उसे ठीक से बाँधना। उसके गोरे रंग पर कांट्रैस्ट करेगा टेसु का गहरा लाल रंग। बिना हेल्मेट के चलाना बाइक। देखना बालों को हल्के हल्के हवा में उड़ते हुए। देखना आँखों में भरोसा। किसी को ताउम्र ऐसे ही प्यार करने का भरोसा। किसी के साथ सफ़र में बिना प्लान के चले आने का वादा। 

मिलना उससे पलाश के खिलने के मौसम में। पूछना उससे। साल में एक बार मिलने की उम्मीद तो कर सकती हूँ तुमसे?

10 November, 2017

एक ख़ूबसूरत लड़की की ख़ातिर सिफ़ारिशी चिट्ठी

तुम्हें सौंदर्य इतना आक्रांत क्यूँ करता है? उसकी सुंदरता निष्पाप है। उसने कभी उसका कोई घातक इस्तेमाल नहीं किया। कभी किसी की जान लेना तो दूर की बात है, किसी का दिल भी नहीं तोड़ा। उसने हमेशा अपने सौंदर्य को एक बेपरवाही की म्यान में ढक कर रखा। तुम्हें ख़ुद से बचा कर रखा। तुम उसकी ख़ूबसूरती से इतना डरते क्यूँ हो कि जैसे वो कोई बनैला जानवर हो...भूखा...तुम्हारे समय और तुम्हारे प्रेम का भूखा?

उसकी ख़ूबसूरती को लेकर पैसिव नहीं हो सकते तुम? थोड़े सहनशील। ऐसा तो नहीं है कि दुखता है उसका ख़ूबसूरत होना। उसकी काली, चमकती आँखें तुम्हें देखती हैं तो तकलीफ़ होती है तुम्हें? सच बताओ? तुम्हारा डर एक भविष्य का डर है। प्रेम का डर है। आदत हो जाने का डर है। ऐसे कई लोगों के भीषण डर के कारण वो उम्र भर अपराधबोध से ग्रस्त रही। एक ऐसे अपराध की सज़ा पाती रही जो उसने किया ही नहीं था। ख़ुद को हर सम्भव साधारण दिखाने की पुरज़ोर कोशिश की। शृंगार से दूर रही, सुंदर रंगों से दूर रही...यहाँ तक कि आँखों में काजल भी नहीं लगाया कभी। अब उम्र के साथ उसके रूप की धार शायद थोड़ी कम गयी है, इसलिए उसने फिर से तुम्हें तलाशा।

तुम रखो ना अपने बदन पर अपना जिरहबख़्तर। तुम रखो अपनी आत्मा को उससे बहुत बहुत ही दूर। मत जुड़ने दो उससे अपना मन। लेकिन इतना तो कर सकते हो कि जैसे गंगा किनारे बैठ कर बात कर सकते हैं दो बहुत पुराने मित्र। एक दूसरे को नहीं देखते हुए, बल्कि सामने की धार को देखते हुए। ना जाओ तुम उसके साथ Bern, लेकिन बनारस तो चल सकते हो?

उसे तुम्हारी वाक़ई ज़रूरत है। ज़िंदगी के इस मोड़ पर। देखो, तुम नहीं रहोगे तो भी ज़िंदगी चलती रहेगी। उसे यूँ भी अपनी तन्हाई में रहने की आदत है। लेकिन वो सोचती है कभी कभी, तुम्हारा होना कैसा होगा। तुम्हारे होने से सफ़र के रंग सहेजना चाहेगी वो कि तुम्हारे लिए भेज सके काग़ज़ में गहरा लाल गुलाल...टेसू के फूलों से बना हुआ। तुम किसी सफ़र में जाओ तो सड़कों पर देख लो मील के पत्थर और उसे भेज दो whatsapp पर किसी एकदम ही अनजान गाँव का कोई gps लोकेशन। ज़िंदगी बाँटी जा सकती है कितने तरह से। थोड़ी सी जगह बनाओ ना उसके लिए अपनी इस ज़िंदगी में। बस थोड़ी सी ही। अनाधिकार तो कुछ भी माँगेगी नहीं वो। लेकिन कई बरस की दोस्ती पर इतना सा तो माँग ही सकती है तुमसे।

किसी नीले चाँद रात एक बाईक ट्रिप हो। सुनसान सड़कों पर रेसिंग हो। क़िस्से हों। कविताएँ। एक आध डूएट गीत। ग़ालिब और फ़ैज़ हों। मंटो और रेणु हों।

हम प्रेम की ज़रूरत को अति में देखते हैं। प्रेम की जीवन में अपनी जगह है। लेकिन उसके बाद जो बहुत सा विस्तार है। बहुत सा ख़ालीपन। उसमें दोस्त होते हैं। हाँ, डरते हुए दोस्त भी...कि तुमसे प्यार हो जाएगा, तुम्हारी लत लग जाएगी। ये सब ज़िंदगी का हिस्सा है। वो जानती है कि वो कभी भी love-proof नहीं होगी। उससे प्यार हो जाने का डर हमेशा रहेगा। लेकिन इस डर से कितने लोगों को खोती रहेगी वो ज़िंदगी में। और कब तक।

सुनो ना ज़िद ही मानो उसकी। समझो थोड़ा ना उस ज़िद्दी लड़की को जिसे तुम पंद्रह की उमर से जानते हो। She needs you. Really. कुछ वक़्त अपना लिख दो ना उसके नाम। थोड़ा दुःख तुम भी उठा लो। क्या ही होगा। कितना ही दुखेगा। पिलीज। देखो, हम सिफ़ारिश कर रहे हैं उसकी। अच्छी लड़की है। ख़तरनाक है थोड़ी। सूयसाइडल है। डिप्रेस्ड हो जाती है कई बार। लेकिन अधिकतर नोर्मल रहेगी तुम्हारे सामने। दोस्ती रखोगे ना उससे? प्रॉमिस?

09 November, 2017

पलाश में जो चिंगारी लहकती थी, उसका पता 'मोह' था

तुम्हें उसके बनाए शहर बहुत अच्छे लगते हैं। तुम कहते हो अक्सर। तुम्हारे शहरों में जा के रहने का मन करता है। वहाँ का आसमान कितने रंग से भरा होता है। वहाँ की बारिश में हमेशा उम्मीद रहती है कि इंद्रधनुष निकलेगा। कैसे तो दिलकश लोग रहते हैं तुम्हारे शहरों में। सड़कें थरथराती हैं। दिल धड़कता है थोड़ा सा तेज़। लड़कियाँ कैसी तो होती हैं, बहती हुयी नज़्म जैसीं। तुम ये जो शहर लिखती हो, उनमें मेरे नाम से एक फ़्लैट बुक कर दो ना? मैं भी छुट्टी में वहाँ जा कर कभी हफ़्ता दो हफ़्ता रहूँगा। अपनी तन्हाई में ख़ुश...इर्द गिर्द की ख़ूबसूरती में सुकून से जीता हुआ। बिना किसी घड़ी के वक़्त गुज़रता रहे। बस जब मियाद पूरी हो जाए तो नोटिस आ जाए, कि साहब कल आपको फ़्लैट ख़ाली करना है। मैं चैन से अपनी आधी पढ़ी हुयी किताबें...कुछ तुम्हारी पसंद के गीत और बहुत सी ख़ामोशी के साथ लौट आऊँ एक ठहरी हुयी ज़िंदगी में।

तुम्हें मैंने कभी बताया कि मैं ये शहर क्यूँ लिखती हूँ?

दुनिया के किसी भी शहर में तसल्ली से रोने को एक कोना नहीं मिलता, इसलिए।
दिल में, आत्मा में, प्राण में...दुःख बहुत है और वक़्त और भी ज़्यादा, इसलिए।
लेकिन सबसे मुश्किल ये, कि बातें बहुत हैं और लोग बिलकुल नहीं, इसलिए।

लेकिन तुम्हें क्या। तुम जाओ। मेरे बनाए शहरों में रहो। तुम्हें मुझसे क्या मतलब। कुछ ख़ास चाहिए शहर में तो वो भी कह दो। समंदर, नदी, झरने...मौसम... लोग। सब कुछ तुम्हारी मर्ज़ी का लिख दूँगी। इसके सिवा और कुछ तो कर नहीं सकती तुम्हारे लिए। तो इतना सही। जिसमें तुम्हारी ख़ुशी।

मास्टर चाभी चाहिए तुमको? नहीं मेरी जान, वो तो नहीं दे सकती। उसके लिए तुम्हें मेरा दिल तोड़ना पड़ेगा। सिर्फ़ उन लोगों को इन शहरों में कभी भी आने जाने की इजाज़त मिल जाती है। दिल तोड़ने की पहली शर्त क्या है, मालूम? 

तुम्हें मुझसे इश्क़ करना पड़ेगा। 

ये तुम अफ़ोर्ड नहीं कर पाओगे। सो, रहने दो। जब दिल करे, लौट आना वापस दुनिया में। मैंने तुम्हारे लिए ख़ास शहर लिख दिया है। "मोह"। नाम पसंद आया? शहर भी पसंद आएगा। पक्का। सिगरेट की डिब्बी से खुलता है रास्ता उसका। कोडवोर्ड सवाल जवाबों में है। वहाँ पूछेगा तुमसे, 'हम क्लोरमिंट क्यूँ खाते हैं?' तुम मुस्कुराना और दरबान की हथेली में माचिस की एक तीली रख देना। मुस्कुराना ज़रूर, बिना तुम्हारे डिम्पल देखे तुम्हें एंट्री नहीं मिलेगी। 

मोह कोई बहुत मुश्किल शहर नहीं है। दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत शहरों में से एक है। बहुत से लोग रहना चाहते हैं इस शहर में। मौक़ा मिले तो सारे लोग ही, भले कुछ कम वक़्त के लिए सही। लेकिन रहना ज़रूर चाहते हैं। शहर में जाओगे तो कई लोग मिलेंगे। दिलकश क़िस्म के। बिलकुल तुम्हारी पसंद वाले। हँसती लड़कियाँ कि जिन्हें दुनिया की फ़िक्र नहीं होती। बेहद ख़ूबसूरत सड़कें कि जिनके दोनों ओर पलाश के जंगल हैं...लहकते हुए, कि इन जंगलों में कभी पतझर नहीं आता। हमेशा मार्च ही रहता है मोह की सड़कों पर...लाल टहकते पलाश वाला मौसम। होली की फगुनाहट में बौराया मौसम। सजता संवरता मौसम। तुम्हारे गालों पर लाल अबीर रगड़ने को और बदमाशी से फिर भाग जाने को तैयार मौसम। 

नीली नदियाँ होंगी जिनका पानी मीठा होगा। नदी किनारे मयखाने होंगे जिनमें बड़े प्यारे कवि और किस्सागो मिलेंगे तुम्हें। सब तुम्हारी पसंद के लोग। वो कौन सब पसंद हैं तुम्हें - रेणु, मंटो, इस्मत...सब ही। मंटो तो ख़ास इसलिए होगा कि मुझे भी पसंद है बेहद। तुम उससे मेरे बारे में मत पूछना। तुम्हें जलन होगी। मंटो के हम ख़ास फ़ेवरिट हैं। उतना प्यार वो किसी और से नहीं करता। मंटो से लेकिन बात करोगे तो उसके साथ बैठ कर दारू पीनी पड़ेगी। उस पब में नॉन-अलकोहोलिक कुछ नहीं मिलता। पानी तक नीट नहीं मिलता वहाँ। शीशा ज़रूर ट्राई करना वहाँ, ख़ास तौर से ग्रीन ऐपल फ़्लेवर वाला। उफ़्फ़ो, हर चीज़ में सिंबोलिस्म मत खोजो। कुछ ख़ास नहीं, मुझे बहुत अच्छा लगता है वो फ़्लेवर इसलिए। वहाँ अगर अकेले बैठोगे तो शायद मेरी याद आए, ऐसा हुआ तो मेरे लिए एक पोस्टकार्ड ज़रूर लिखना। 

तुम्हारे लिए शहर में कई गलियाँ होंगी और किताबों की कई सारी दुकानें भी। तुम्हारी पसंद के फ़ूड स्टॉल्ज़ भी होंगे। माने, जितना मुझे मालूम है तुम्हारे बारे में, उस हिसाब से। बाक़ी पिछले कई सालों में तुम अगर बहुत बदल गए होगे तो हमको मालूम नहीं। तुम्हारे फ़्लैट में किचन भी होगा छोटा सा। मेरे शहर का खाना पसंद नहीं आए तुम्हें तो ख़ुद से खाना बना कर भी खा सकते हो। वैसे तो सारे फ़्लैट्स में कुक होती है लेकिन फिर भी, अपने हाथ के खाने का स्वाद ही और है। मेरी पसंद का खाना खाने का मन करे तो मेरे घर की ओर निकल आना। शहर के सबसे अच्छे फ़ूड स्टॉल्ज़ मेरे घर के इर्द गिर्द ही होते हैं। वहाँ कढ़ी चावल बहुत अच्छा मिलता है। इसके अलावा मीठे की हज़ार क़िस्में। रसगुल्ला, काला जामुन, पैनकेक...पान क़ुल्फ़ी...क्या क्या तो। इन फ़ैक्ट, Starbucks भी है वहाँ। पर तुम वहाँ जा के मेरी पसंद की आइस्ड अमेरिकानो मत पीना, वरना सोचोगे कि हम पागल हो गए हैं कि इतनी कड़वी कॉफ़ी पीते हैं। 

हाँ, फूल तुम्हें कौन से पसंद हैं? बोगनविला लगा दूँ तुम्हारे फ़्लैट के बाहर? या वही जंगली गुलाब जो तुम्हारे उस वाले घर में थे जहाँ से फूल तोड़ना मना था। क्या है ना कि बोगनविला ज़िद्दी पौधा है। मेरी तरह। ध्यान ना भी दोगे तो भी खिलता रहेगा हज़ार रंगों में। समय पर बता देना। वक़्त लगता है फूल आने में। वरना कहोगे क्या ही झाड़ झंखाड़ लगा दिए हैं तुम्हारे फ़्लैट पर। और कोई भी छोटी बड़ी डिटेल जो तुम्हारे रहने को ख़ुशनुमा कर सके, बता देना। ठीक?

ख़ास तुम्हारे लिए लिखा है शहर। पूरी तरह से जीना इसे। जब तक कि दिल ना भर जाए। बस एक ही हिदायत है। मुझे तलाशने की कोशिश मत करना। मैं कभी मिल भी गयी तो क़तरा के निकल जाना। कि जानते हो, एंट्री गेट पर वो माचिस की तीली ही क्यूँ माँगता है मेरे शहर का दरबान तुमसे? 

इसलिए कि अगर तुम्हें मुझसे प्यार हो गया तो हमारे उस शहर में रहते ही इस असल दुनिया को आग लगा दे...और हम कभी लौट नहीं पाएँ। 

तुम तोड़ोगे, पूजा के लिए फूल?

उसके बाल बहुत ख़ूबसूरत थे। हमेशा से। माँ से आए थे वैसे ख़ूबसूरत बाल। भर बचपन और दसवीं तक हमेशा माँ उसके बाल एकदम से छोटे छोटे काट के रखती। कानों तक। फिर जब वो बारहवीं तक आयी तो उसने ख़ुद से छोटी गूँथना सीखा और माँ से कहा कि अब वो अपने बालों का ख़याल ख़ुद से रख लेगी इसलिए अब बाल कटवाए ना जाएँ।  उन दिनों बालों में लगाने को ज़्यादा चीज़ें नहीं मिलती थीं। उसपर उतने घने बालों में कोई रबर बैंड, कोई क्लचर लगता ही नहीं था। वो कॉलेज के फ़ाइनल ईयर तक दो चोटी गूँथ के भली लड़कियों की तरह कॉलेज जाती रही। पटना का मौसम वैसे भी खुले बाल चलने वाला कभी नहीं था, ना पटना का माहौल कि जिसमें कोई ख़ूबसूरत लड़की सड़क पर बाल खोल के घूम सके। सिर्फ़ बृहस्पतवार का दिन होता था कि उसके बाल खुले रहते थे कि वो हफ़्ते में दो दिन बाल धोती थी तो एक तो इतवार ही रहता था। दिल्ली में एक ऐड्वर्टायज़िंग एजेन्सी में ट्रेनिंग के लिए join किया तो जूड़ा बनाना सीखा कि दो चोटियाँ लड़कियों जैसा लुक देती थीं, प्रोफ़ेशनल नहीं लगती उसमें। जूड़ा थोड़ा फ़ोर्मल लगता है। उन दिनों उसके बाल कमर तक लम्बे थे।

दिल्ली में ही IIMC में जब सिलेक्शन हुआ तो अगस्त के महीने में क्लास शुरू हुयी। ये दिल्ली का सबसे सुहाना सा मौसम हुआ करता था। लड़की उन दिनों कभी कभी बाल खोल के घूमा करती थी, ऐसा उसे याद है। ख़ास तौर से PSR पर। वहाँ जाने का मतलब ही होता था बाल खोलना। बहती हवा बालों में कितनी अच्छी लगती है, ये हर बार वो वहाँ जा के महसूसती थी। दिल्ली में नौकरी करते हुए, बसों में आते जाते हुए फिर तो बाल हमेशा जूड़े में ही बंधे रहते। असुरक्षित दिल्ली में उसके बालों की म्यान में तलवार जैसी छुपी हुआ करती थी कड़े प्लास्टिक या मेटल की तीखी नोक वाली पिन। फिर दिल्ली का मौसम। कभी बहुत ठंध कि जिसमें बिना टोपी मफ़लर के जान चली जाए तो कभी इतनी गरमी कि बाल कटवा देने को ही दिल चाहे। मगर फिर भी। कभी कभी जाड़े के दिनों में वो बाल खुले रखती थी। ऐसा उसे याद है।
बैंगलोर का मौसम भी सालों भर अच्छा रहता है और यहाँ के लोग भी बहुत बेहतर हैं नोर्थ इंडिया से। तो यहाँ वो कई बार बाल खोल के घूमा करती। अपनी flyte चलते हुए तो हमेशा ही बाल खोल के चलाती। उसे बालों से गुज़रती हवा बहुत बहुत अच्छी लगती। वो धीरे धीरे अपने खुले बालों के साथ कम्फ़्टर्बल होने लगी थी। यूँ यहाँ के पानी ने बहुत ख़ूबसूरती बहा दी लेकिन फिर भी उसके बाल ख़ूबसूरत हुआ करते थे। 

इस बीच एक चीज़ और हुयी कि लोगों ने उसके बालों से आती ख़ुशबू पर ग़ौर करना शुरू कर दिया था। उसके बाल धोने का रूटीन अब ऐसा था कि बुधवार को बाल धोती थी कि शादीशुदा औरतों का गुरुवार को बाल धोना मना है। होता कुछ यूँ था कि ऑफ़िस में उसकी सीट पर जाने के रास्ते में कूलर पड़ता था...सुबह सुबह जैसा कि होता है, बाल धो कर ऑफ़िस भागती थी तो बाल हल्के गीले ही रहते थे...उसे कानों के पीछे और गर्दन पर पर्फ़्यूम लगाना पसंद था। तेज़ी से भागती थी ऑफ़िस तो सीढ़ियों के पास बैठी लड़की बोलती थी, ज़रा इधर आओ तो...गले लगती थी और कहती थी...तुम्हारे बालों से ग़ज़ब की ख़ुशबू आती है...अपने फ़्लोर पर पहुँचती थी तो एंट्री पोईंट से उसकी सीट के रास्ते में कूलर था...कूलर से हवा का झोंका जो उठता था, उसके बालों की ख़ुशबू में भीग कर बौराता था और कमरे में घूम घूम जाता था। सब पूछते थे उससे। कौन सा शैंपू, कौन सा कंडीशनर, कि लड़की, ग़ज़ब अच्छी ख़ुशबू आती है तुम्हारे बालों से। लड़की कहती थी, मेरी ख़ुशबू है...इसका पर्फ़्यूम या शैम्पू से कोई सम्बंध नहीं है। 

लड़की को अपने बाल बहुत पसंद थे। उनका खुला होना भी उतना ही जितना कि चोटी में गुंथा होना या कि जूड़े में बंधा होना। बिना बालों में उँगलियाँ फिराए वो लिख नहीं सकती थी। इन दिनों अपने अटके हुए उपन्यास पर काम कर रही थी तो रोज़ रात को स्टारबक्स जाना और एक बजे, उसके बंद हो जाने तक वहीं लिखना जारी था। इन दिनों साड़ी पहनने का भी शौक़ था। कि बहुत सी साड़ियाँ थीं उसके पास, जो कि कब से बस फ़ोल्ड कर के रखी हुयी थीं। ऐसे ही किसी दिन उसने हल्के जामुनी रंग की साड़ी पहनी थी तो बालों में फूल लगाने का मन किया। घर के बाहर गमले में बोगनविला खिली हुयी थी। उसने बोगनविला के कुछ फूल तोड़े और अपने जूड़े में लगा लिए। ये भी लगा कि ये किसी गँवार जैसे लगेंगे...सन्थाल जैसे। कोई जंगल की बेटी हो जैसे। ज़िद्दी। बुद्धू। लेकिन फूल तो फूल होते हैं, उनकी ख़ूबसूरती पर शहराती होने का दबाव थोड़े होता है। वो वैसे भी अपने मन का ही करती आयी थी हमेशा। 

बस इतना सा हुआ और ख़यालों ने पूरा लाव लश्कर लेकर धावा बोल दिया...

***

तुम्हें कोई वैसे प्यार नहीं कर सकेगा जैसे तुम ख़ुद से करती हो। Muse तुम्हारे अंदर ही है, बस उसके नाम बदलते रहते हैं। उसकी आँखों का रंग। उसकी हँसी की ख़ुशबू। उसकी बाँहों का कसाव। तुम भी तो बदलती रहती हो वक़्त के साथ। 

कितनी बार, कितने फूलों के बाग़ से गुज़री हो...जंगलों से भी। कितनी बार प्रेम में हुयी हो। चली हो उसके साथ कितने रास्ते। कितने प्रेमी बदले तुमने इस जीवन में? बहुत बहुत बहुत।

लेकिन ऐसा कभी क्यूँ नहीं हुआ कि किसी ने कभी राह चलते तोड़ लिया हो फूल कोई और यूँ ही तुम्हारे जूड़े में खोंस दिया हो? बोगनविला के कितने रंग थे कॉलेज की उन सड़कों पर जहाँ चाँद और वो लड़का, दोनों तुम्हारे साथ चला करते थे। पीले, सफ़ेद, सुर्ख़ गुलाबी, लाल...या कि वे फूल जिनके नाम नहीं होते थे। या कि गमले में खिला गुलाब कोई। कभी क्यूँ नहीं दिल किया उसका कि बोगनविला के चार फूल तोड़ ले और हँसते हुए लगा दे तुम्हारे बालों में। 

कितनी बार कितनों ने कहा, तुम्हारे बाल कितने सुंदर हैं। उनसे कैसी तो ख़ुशबू आती है। कि टहलते हुए कभी खुल जाता था जूड़ा, कभी टूट जाता था क्लचर, कभी भूल जाती थी कमरे पर जूड़ा पिन। खुले बाल लहराते थे कमर के इर्द गिर्द। 

कि क्या हो गया है लड़कों को? वे क्यूँ नहीं ला कर देते फूल, कि लो अपने जूड़े में लगा लो इसे...कितना तो सुंदर लगता है चेहरे की साइड से झाँकता गुलाब, गहरा लाल। कि कभी किसी ने क्यूँ नहीं समझा इतना अधिकार कि बालों में लगा सके कोई फूल? कि ज़िंदगी की ये ख़ूबसूरती कहाँ गुम हो गयी? ये ख़ुशबू। हाथों की ये छुअन। यूँ महकी महकी फिरना?

बहुत अलंकार समझ आता है उसको। मगर फूल समझ में आते हैं? या कि लड़की ही। हँसते हुए पूछो ना उससे, यमक अलंकार है इस सवाल में, 'तुम तोड़ोगे पूजा के लिए फूल?'

शाम में पहनना वाइन रंग की सिल्क साड़ी और गमले में खिलखिलाते बोगनविला के फूल तोड़ लेना। लगा लेना जूड़े में। कि तुम ही जानती हो, कैसे करना है प्यार तुमसे। ख़ुश हो जाओगी किस बात से तुम। और कितना भी बेवक़ूफ़ी भरा लगे किसी को शायद जूड़े में बोगनविला लगाना। तुम्हारा मन किया तो लगाओगी ही तुम। 

फिर रख देना इन फूलों को उसकी पसंद की किताब के पन्नों के बीच और बहुत साल बाद कभी मिलो अगर उससे तो दे देना उसको, सूखे हुए बेरंग फूल। कि ये रहे वे फूल जो कई साल पहले तुम्हें मेरे बालों में लगाने थे। लेकिन उन दिनों तुम थे नहीं पास में, इसलिए मैंने ख़ुद ही लगा लिए थे। अब शुक्रिया कहो मेरा और चलो, मुझे फूल दिला दो...मैं ले चलती हूँ ड्राइव पर तुम्हें। ट्रेक करते हुए चलते हैं जंगल में कहीं। खिले होंगे पलाश...अमलतास...गुलमोहर...बोगनविला...जंगली गुलाब...कुछ भी तो।

ख़्वाहिश बस इतनी सी है कि तुम अपने हाथों से कोई फूल लगा दो मेरे बालों में...कभी। अब कहो तुम ही, इसको क्या प्यार कहते हैं?

***

तुम उसे समझना चाहते हो? समझने के पहले देखो उसे। मतलब वैसे नहीं जैसे बाक़ी देखते हैं। उसकी हँसती आँखों और उसकी कहानियों के किरदारों के थ्रू। उसे देखो जब कोई ना देखता हो।

उसके घर के आगे दो गमले हैं। जिनमें बोगनविला के तीन पौधे हैं। वो उनमें से एक पौधे को ज़्यादा प्यार करती है। सबसे ज़्यादा हँसते हुए फूल इसी पौधे पर आते हैं। ख़ुशनुमा। इस पौधे के फूलों के नाम बोसे होते हैं। गीत होते हैं। दुलार भरी छुअन होती है। इस पेड़ के काँटे उसे कभी खरोंचते भी नहीं।

दोनों बेतरतीब बढ़े हुए पौधे हैं। जंगली। घर घुसने के पहले लगता है किसी जंगल में जा रहे हों। लड़की सुबह उठी। सीने में दुःख था। प्यास थी कोई। कई दिनों से कोई ख़त नहीं आया। दुनिया के सारे लोग व्यस्त हैं बहुत।

सुख के झूले की पींग बहुत ऊँची गयी थी, आसमान तक। लेकिन लौट कर फिर ज़मीन के पास आना तो था ही। कब तक उस ऊँचे बिंदु से देख कर पूरी दुनिया की भर भर आँख ख़ूबसूरती ख़ुश होती रहती लड़की।

मुझे कोई चिट्ठियाँ नहीं लिखता।

दोनों गमलों में एक एक मग पानी डाला उसने। फिर उसे लगा पौधों को बारिश की याद आती हो शायद। लेकिन जो पौधे कभी बारिश में भीगे नहीं हों, उन्हें बारिश की याद कैसे आएगी? जिससे कभी मिले ना हों उसे मिस करते हैं जैसे, वैसे ही?

पौधों के पत्ते धुलने के लिए पानी स्प्रे करने की बॉटल है उसके पास। हल्की नीली और गुलाबी। उसने बोतल में पानी भरा और अपने प्यारे पौधे के ऊपर स्प्रे करने लगी। उसकी आँखें भरी हुयी थीं। अबडब आँसुओं से। इन आँसुओं को सिर्फ़ धूप देखती है या फिर आसमान। बहुत साल पहले लड़की आसमान की ओर चेहरा करके हँसा करती थी। लड़की याद करने की कोशिश करती है तो उसे ये भी याद नहीं आता कि हँसना कैसा होता है। वो देर तक आँसुओं में अबडब पौधे के ऊपर पानी स्प्रे करती रही। बोगनविला के हल्के नारंगी फूल भीग कर हँसने लगे। हल्की हवा में थिरकने लगे। कितने शेड होते हैं फूलों में। गुलाबी से सफ़ेद और नारंगी। पहले फूल भीगे। फिर पत्ते। फिर पौधों का तना एकदम भीग गया।




लड़की देखती रही बारिश में भीग कर गहरे रंग का हो जाना कैसा होता है। प्रेम में भीग कर ऐसे ही गहरे हो जाते हैं लोग। अपने लिखे में। अपनी चिट्ठियों में। अपनी उदासी में भी तो।

उसके सीने में बोगनविला का काँटा थोड़े चुभा था। शब्द चुभा था। अनकहा।
प्यार। ढेर सारा प्यार।

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...