रातें खुली किताबों जैसी होतीं हैं. उसे रातें नहीं पसंद. उसे खुली किताबें भी नहीं पसंद. न वे लोग जो किताबों को बेतरतीबी से बरतते हैं. उसे पास भतेरे बुकमार्क्स होते. वो जगह जगह से बुक मार्क इकठ्ठा करते चलती. कभी कोई न भेजा हुआ पोस्टकार्ड. स्टैम्प्स के निकल जाने के बाद के खाली स्टीकर वाले खाके. कभी फूल तो कभी कोई तिनका ही कोई. कहीं से मैग्नेटिक बुकमार्क तो कहीं मेटल वाले. किसी बुकमार्क में बत्ती जलती. तो कोई रेशम के रिबन से बना होता. कुछ भी बुकमार्क हो सकता था. ट्रेन की टिकट्स. पसंदीदा कैफे का बिल. उसके क्रश के सिग्नेचर वाला कोई पेपर नैपकिन. सिगरेट की खाली डिब्बी. कुछ भी.
जिस दुनिया में इतना सारा कुछ हो सकता है बुकमार्क्स के लिए, वहाँ खुली किताबें क्यूँ होतीं? उसे लोग कहते कि उनका जीवन खुली किताब है. वो उनसे कहना चाहती, किताब बंद कर के रख दीजिये...कोई कॉफ़ी गिरा देगा...उड़ती चिड़िया बीट कर देगी...कोई पन्नों पर किसी भी ऐरे गैरे का फोन नंबर लिख मारेगा. जिंदगी इतनी फालतू नहीं और किताबें तो खैर और भी नहीं. क्यूँ होना खुली किताब. कि जैसे रात के पहर. सब मालूम चलता था. वो कितनी रात जगी थी. व्हाट्सएप्प पर लास्ट लॉग इन कितने बजे था. उसने रात को सोने के पहले कॉफ़ी पी या ग्रीन टी, ओल्ड मौंक या नीट विस्की...सिगरेट या बीड़ी...किसी को याद किया या नहीं...कोई गाना सुना या नहीं...ग़ालिब को पढ़ रही थी या फैज़ को...सब कुछ. खुली किताब सा था. ये खुली किताब उसे बिलकुल पसंद नहीं आती थी.
रांची से उसके गाँव के रस्ते में बस यही एक ट्रेन का रूट पड़ता था. वो रांची स्टेशन पर चढ़ती बाकी लड़कियों को देखती. अपने जींस टी शर्ट और उसके ऊपर पहने ढीले ढाले जैकेट में वो अलग ही नज़र आतीं. सब्भ्रांत. लड़के उन्हें नज़र बचा बचा कर देखते. उसकी तरह पूरे बदन का एक्स रे नहीं करते. लड़की उनके हाथों में कई बार 'कॉस्मोपॉलिटन' जैसी अंग्रेजी मैगजीन देखती और गहरी सांस भरती. एक बार उसने बुक स्टाल पर मैगजीन उठा कर देखी भी थी मगर सौ रुपये की किताब और उसपर के गहरे मेकउप और कम कपड़ों वाली कवर फोटो की लड़की को देख कर ही उसे यकीन हो गया कि ये किताब वो हरगिज़ अपने स्लीपर कम्पार्टमेंट की किसी भी बर्थ पर नहीं पढ़ सकती है. ऐसी किताबों को पढ़ने के लिए तो कमसे कम एसी थ्री टायर का टिकट कटाना ही होता. सलवार कुर्ता पहने, दुपट्टे से बदन पूरा लपेटे, एक काँधे में कैरी बैग टाँगे धक्का मुक्की में कम्पार्टमेंट में चढ़ना अपने आप में आफत थी. एक तरफ उनके हाथ में महंगे बैग्स हुआ करते थे. पहिये वाले इन बैग्स को खींचने में कहाँ की मेहनत. आराम से एक हाथ में मैगजीन, एक हाथ में बक्से का हैंडिल. कानों में हेडफोन्स लगे हुए. ट्रेन आई नहीं कि अपना बैग सरकाती आयीं और आराम से चढ़ गयीं. लड़की कल्पना करती कि कभी उसकी दिल्ली जैसे किसी शहर में नौकरी लगेगी. फिर वो अपने पैसे से एसी टू टायर का टिकेट कटाएगी और पूरे रास्ते खिड़की वाली बर्थ पर बैठे हुए कभी बाहर के नज़ारे देखेगी तो कभी कॉस्मोपॉलिटन पढ़ेगी. अगर साथ की बर्थ के लोग अच्छे हुए...या कोई खूबसूरत लड़का हुआ तो पर्दा नहीं लगाएगी वरना अपना पर्दा खींच कर चुपचाप अपने छोटे से एकांत सुख में डोलती जायेगी. बंद किताब जैसी.
स्लीपर में तो वो खाना खुद लेकर चढ़ती. माँ की सख्त हिदायत रहती कि रास्ते का कुछ भी लेकर खाना पीना नहीं है. कभी कभी उसे चाय की बड़ी तलब लगती. मगर फिर उसे वो सारे अख़बार के कॉलम्स याद आ जाते जिनमें नशीली चाय पिला कर न केवल लोगों के सामान की लूट-पाट हुयी, बल्कि कई बार तो जान तक चली जाती रही है. उसके पड़ोस में रहने वाली सहेली की फुआ का जौध ऐसे ही कॉलेज ज्वायन करने जा रहा था. लुटेरों को शायद खबर होगी कि कॉलेज एडमिशन का टाइम है, इस वक़्त लड़के अक्सर फीस के पैसे साथ लेकर चलते हैं. उस घटना में उसी ट्रेन में साथ जाते हुए पांच लड़के एक साथ उनके चंगुल में फंसे थे. बिहिया स्टेशन से अधमरी हालत में रेलवे पुलिस बल उन्हें उठा कर लाया था. हफ़्तों इलाज चला था तब जा कर नार्मल हो पाए थे लड़के. लेकिन एसी टू टायर में तो रेलवे के आधिकारिक चाय वाले होते हैं. युनिफोर्म पहन कर चाय बेचते हैं. आज भले वो तीस रुपये की चार कप चाय पीने का सपना भी नहीं देख सकती लेकिन एक दिन तो ऐसा होगा कि पूरी ट्रेन जर्नी में वो किताब पढ़ती आएगी और जब उसका मन करेगा या जब चाय वाला गुज़रता रहेगा, एक कप चाय माँग लेगी. अगर किसी से बातचीत होने लगी तो दोनों के किये दो कप चाय बोल देगी और खुद ही बिना शिकन के पर्स से साठ रुपये निकाल कर दे भी देगी...हँस कर कहते हुए...कि अजी साठ रुपये होते भी क्या हैं...देखिये न डॉलर तक आजकल ७० रुपये होता जा रहा है. जैसे जैसे उसके फाइनल इयर के एक्जाम के दिन पास आ रहे थे उसकी कल्पनाएँ एसी टू टायर ही नहीं आगे अमरीका तक भाग रही थीं. अब जाहिर है, अमरीका तक भारतीय रेल की पटरियां तो नहीं बिछी थीं.
फिर तो बाकी शादी में क्या ही मन लगना था. बार बार सोचती रही कि इन सारे लड़कों में विस्लावा सिम्बोर्स्का से प्रेम करने वाला बंगाली विराग होगा कौन. हल्ले हंगामे में शादी कटी. अगले दिन दीदी की विदाई हो गयी. इसके तीन दिन बाद वहीं रिसेप्शन भी था. वो चूँकि दीदी की थोड़ी ज्यादा ही मुन्हलगी थी तो पूरे ससुराल वालों ने भी बड़े प्यार से उसे इनवाईट किया था. बड़े ऊंचे खानदान में बियाही थी दीदी. रिसेप्शन से पहले अपनी एक छुटकी ननद को भेज दिया था उसे पूरे घर को दिखाने के लिए. कमरे में किताब पर उसकी फिर से नज़र पड़ी. इस बार तो उसने तय कर लिया कि ये मिस्टर विराग जो भी हैं, फिर से किताब खरीद के पढ़ लेंगे मगर उसे अगर अभी ये किताब नहीं मिली तो शायद उसकी जान जरूर चली जायेगी. छुटकी को जरा सा भटका कर उसने किताब अपने पर्स में रख ली. रिसेप्शन में घड़ी घड़ी उसका मन उसे काट खाने को दौड़ता. कितनी सारी फिल्मों के सीन याद आते. किसी ने बैग खोल कर देख लिया तो. नतीजन उसने उस बड़े से बैग को पल भर भी खुद से अलग नहीं किया. फोटो खिंचाने तक में बैग टाँगे रही.
कवितायें उसकी खासियत थीं. वो अपने सारे खाली वक़्त में अलग अलग भाषाएँ सीखती. किसी किताब के अनुवाद के पहले उस भाषा का कामचलाऊ ज्ञान हासिल करती. उसके अंग्रेजी अनुवाद को पढ़ती. उसके मूल भाषा में लिखे को पढ़ती. वहां के लोगों के जीवन के बारे में पढ़ती. वहां के लोगों से इन्टरनेट के माध्यम से जुड़ती और कविता के श्रोत को समझने की कोशिश करती. सारा लिखा आत्मसात करने के बाद जव वो अनुवाद करती तो कविता का नैसर्गिक सौंदर्य इस तरह उभरता कि समझना मुश्किल होता कि अनुवाद ज्यादा खूबसूरत है या असल कविता. उसकी मेहनत और अनुवाद के प्रति उसकी दीवानगी को देखते हुए कई सारे लेखकों और प्रकाशक उससे जुड़ते गए. जिस सफ़र की शुरुआत ही 'Map' से हो तो नक़्शे पर के शहर तो उसे देखने ही थे. देखते देखते उसने फुल टाइम कविता लिखने, उसपर बात करने और अनुवाद करने को दे दिया. पेरिस, प्राग, बर्लिन, क्राकोव...कई सारे शहर से उसके नाम आमंत्रण आते.एक दिन...क्रैकोव से उसके लिए न्योता आया. सिम्बोर्स्का के प्रकाशक ने उसे बुलाया था. एक बड़ा सेमीनार था जिसमें सिम्बोर्स्का के लेखन, उसकी शैली और उसके प्रभाव पर चर्चा थी. सारे प्रमुख अनुवादकों को बुलवाया गया था.
लड़की ने इतने सालों में कभी Map की खुद की प्रति नहीं खरीदी थी. फ्लाइट में बैठते हुए लड़की ने वही पुरानी किताब निकाली और पढ़ने लगी. याद में शादी की गंध, खुशबुयें और वो अनजान लड़का भी घूमता रहा. रास्ते में उसे हलकी सी झपकी आ गयी. नींद खुली तो देखा कि बगल वाली सीट पर का पुरुष किताब बड़े गौर से पढ़ रहा है. चौड़ा माथा. तीखी नाक. गोरा शफ्फाक रंग. खालिस पठान खूबसूरती. उसने गला खखारा लेकिन वो तो जैसे किताब में डूब ही गया था. आखिर उसने उसे काँधे पर हल्का का हाथ रख के एक्सक्यूज मी कहा. वो चौंका और एक शरारती मुस्कान के साथ उसकी ओर देखा.
'माफ़ कीजिये, मेरी किताब'
'जी'
'आप मेरी किताब पढ़ रहे हैं'
वो एक ढिठाई के साथ बोला, 'अच्छा, तो आपका नाम विराग भट्टाचार्य है, देखने से तो नहीं लगता'. किसी नार्मल केस में वो हँस देती और पूरी कहानी बयान कर देती, मगर यहाँ सेमीनार में जाने वाले कई ख्याल और शादी की मिलीजुली यादों में डूब उतरा के उसका मूड कुछ खराब सा था.
'मेरा नाम विराग भट्टाचार्य नहीं है, लेकिन ये किताब मेरी है'
'अरे, ऐसे कैसे मान लूं कि आपकी है...क्या सबूत है?'
'मेरी नहीं है तो क्या आपकी है...आपके पास क्या सबूत है कि ये आपकी किताब है?'
'क्यूंकि ये किताब मैंने खुद विराग से चुराई थी'
'जी...मतलब'...वो एकदम ही अचकचा गयी थी.
'बात कोई दस साल पुरानी है...मेरा दोस्त शिकागो से बड़े शौक़ से Map लेकर आया था और हम दोनों को उसे पढ़ जाने का भूत सवार था. मुझे शादी में आना था, बस मैंने चुपचाप उसकी किताब उठा कर अपने बैग में रख ली...शादी में जूते चोरी होना तो सुना था, किताब चोरी करने वाली सालियाँ पहली बार देख रहा हूँ'
'जी!'
'जी'
'आप झूठ बोल रहे हैं' वो सिटपिटा गयी थी.
'ठीक है मैं झूठ बोल रहा हूँ तो क्या विराग भी झूठ बोल रहा है...विराग...बता जरा इनको'
और उसकी बगल वाली सीट पर मंद मंद मुस्कुराता उसका बंगाली विराग भट्टाचार्य था...जो कि शादी में आया ही नहीं था तो उसे दिखता कैसे.
'मैडम, ये मेरी ही किताब है...शायद आपको याद हो, इसमें एक एयर इण्डिया का टिकट भी था...मैं उसे बुकमार्क की तरह इस्तेमाल कर रहा था.'
इस हालात में हँसने के सिवा कोई चारा नहीं था. तीनो ठठा कर हँस पड़े. विराग और आहिल में शर्त लगी थी. विराग का कहना था कि किसी लड़के ने किताब उड़ाई होगी, आहिल का कहना था कि लड़की ने. फिर पूरा सफ़र बड़े मज़े में बात करते करते कटा. Map से शुरू हुआ सफ़र उन्हें अनजाने पास ले आया था. और वे मिले भी तो कहाँ, क्रैकोव जाने वाले प्लेन में! बातों बातों में कब प्लेन के लैंड करने का वक़्त आ गया मालूम भी नहीं चला. अब बात थी कि किताब किसके पास जाये. आहिल ने कहा कि टेक्निकली किताब कभी उसकी थी ही नहीं फिर भी जिस किताब से इतनी कहानियां बनी हैं उसपर उसका कोई हक नहीं है. वो अलबत्ता खुश बहुत था कि उसकी मारी हुयी किताब कितने दूर तक पहुंची. तीनों फिर सेमीनार में मिलने वाले ही थे. इन फैक्ट वे एक ही होटल में ठहरे थे. विराग ने किताब वापस करते हुए कहा कि बाकी सब तो ठीक है, हाँ बुकमार्क नहीं है...आप चाहें तो मेरा बोर्डिंग पास इस्तेमाल कर सकती हैं.
इस हालात में हँसने के सिवा कोई चारा नहीं था. तीनो ठठा कर हँस पड़े. विराग और आहिल में शर्त लगी थी. विराग का कहना था कि किसी लड़के ने किताब उड़ाई होगी, आहिल का कहना था कि लड़की ने. फिर पूरा सफ़र बड़े मज़े में बात करते करते कटा. Map से शुरू हुआ सफ़र उन्हें अनजाने पास ले आया था. और वे मिले भी तो कहाँ, क्रैकोव जाने वाले प्लेन में! बातों बातों में कब प्लेन के लैंड करने का वक़्त आ गया मालूम भी नहीं चला. अब बात थी कि किताब किसके पास जाये. आहिल ने कहा कि टेक्निकली किताब कभी उसकी थी ही नहीं फिर भी जिस किताब से इतनी कहानियां बनी हैं उसपर उसका कोई हक नहीं है. वो अलबत्ता खुश बहुत था कि उसकी मारी हुयी किताब कितने दूर तक पहुंची. तीनों फिर सेमीनार में मिलने वाले ही थे. इन फैक्ट वे एक ही होटल में ठहरे थे. विराग ने किताब वापस करते हुए कहा कि बाकी सब तो ठीक है, हाँ बुकमार्क नहीं है...आप चाहें तो मेरा बोर्डिंग पास इस्तेमाल कर सकती हैं.
लड़की खुश थी. गुज़रते सालों के दरमयान किताबों को ढाल बनने की जरूरत नहीं पड़ती थी. हाँ उनसे कहानियां जरूर निकलती थीं कई सारी. लेकिन Map के जिंदगी में आने और आज आखिरकार विराग और आहिल से मिलना कोई कहानी नहीं कविता जैसा खूबसूरत था...सिम्बोर्स्का की कविताओं जैसा. लड़की मुस्कुराते हुए उसके बोर्डिंग पास बुकमार्क को किताब में रख रही थी.