25 January, 2019

इकरार ए मुहब्बत। इक़बाल ए जुर्म।

टेक्नॉलजी ने अभी तक दो चीज़ों को रेप्लिकेट करना नहीं सीखा है। स्पर्श और ख़ुशबू।

जानां, तुमसे दूर होकर तुम्हारी ख़ुशबू तलाशती रहती हूँ। जाने किस चीज़ में मिले ज़रा सी तुम्हारी देहगंध।

मैं खुली हथेलियाँ लिए जाती हूँ बारिश, कोहरा, मौसम, गुलाब, जंगल, ब्रिज, मिट्टी... सब तक। कि ज़रा महसूस हो सके तुम्हारे हाथों की नर्माहट। 

मैं छूना चाहती हूँ तुम्हें। तुम्हारा हाथ पकड़ कर चलना चाहती हूँ इस बावले शहर में। तुम्हें ले जाना चाहती हूँ अपने फ़ेवरिट कैफ़े। कि देखो, ये कश्मीरी कहवा है और जो लड़की तुम्हारे सामने बैठी है, तुम्हारे प्यार में पागल है। मेरे हाथों को प्यास लगती है। तुम्हारी छुअन की।

उसी प्रेम में दुबारा गिरने पर क्या हाल होता है जिससे पहली बार में भी ठीक ठीक उबर न पाए हों?

तुम ज़रा कम ख़ूबसूरत होते तो भी बात आसान तो नहीं होती, थोड़ी कम मुश्किल होती। बचपन में कुछ नक्काशीदार मंदिर देखे थे। पहली बार संगमरमर पर की बारीक नक़्क़ाशी देखी थी। पुरातत्ववेत्ताओं के नियमानुसार उन्हें छूना मना था। लेकिन मैं उन्हें छूना चाहती थी। देखना चाहती थी कि संगमरमर का तापमान क्या है, वे मूर्तियाँ ठंडी हैं या गर्म। मैं कभी कभी सोचती हूँ तुम्हारी आत्मा के बारे में... फिर तुम्हारी आत्मा के पैरहन के बारे में भी।

तुम जब तक काग़ज़ पर थे, तब तक ठीक था। अब तुम सामने दिखते हो। धूप में, रोशनी में, चाँदनी में... मैं जाने क्या करना चाहती हूँ तुम्हारा। कि मुझे क़ायदे से लिखने में डर लगना चाहिए, लेकिन लगता नहीं, जाने क्यूँ।

तुम्हारी आवाज़ इतनी अपनी लगती है। जैसे मेरे बदन से आ रही हो। जैसे तुमसे फ़ोन पर बात नहीं होती, तुम कहीं मेरे भीतर रहते हो। कि सात तालों वाला तिलिस्म तोड़ दिया है दिल ने और बाग़ी हो गया है। यूँ भी, सरकार, तो हम किसी और को नहीं कहते। तो ज़रा तुम्हारी हुकूमत ही सही। 

कई बार लोगों को कहा है। कि मैं अब लिखना नहीं चाहती कि मुझे ये बातें समझ नहीं आती कि कोई लड़की इस पागल की तरह क्यूँ खोजेगी उस एक शख़्स को... कि जिसके काँधे से जाने कैसी ख़ुशबू आती थी। आँसुओं की, रतजगों की, सिलसिलों की, दूरियों की... प्यास की, आस की...

तुम जब प्यार कहते हो ना जानां, तो लगता है... अबकि बार तुम्हारे काँधे से अलविदा की ख़ुशबू नहीं आती... वहाँ एक उम्मीद का नन्हा बिरवा लहलहाता है। कि वहाँ से अब, 'फिर मिलेंगे' की ख़ुशबू आती है। 

कि हम कई कहानियों में मिलेंगे। कई शहरों में। कई रीऐलिटीज़ में। हम मिलते रहेंगे कि जब तक पूरे पूरे छीज न जाएँ। वक़्त हमारे लिए थोड़ा थोड़ा ठहरेगा। ज़िंदगी होगी ज़रा ज़रा मेहरबान। हम जिएँगे। सिर्फ़ तुम्हारे इंतज़ार में जानां...

कि अब तुम्हारे काँधे से इंतज़ार की ख़ुशबू आती है...

इकरार ए मुहब्बत। इक़बाल ए जुर्म।
लव यू।

1 comment:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन पूर्वाग्रह से ग्रसित लोग : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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