अपने शहर से बहुत दूर एक शहर होता है...जिसकी पेंच भरी गलियां हमारी आँखों ही नहीं पैरों को भी याद होती हैं...नक्शा कितना भी पुराना हो जाए एक कमरा होता है, जो गायब नहीं होता...भूलता नहीं...बूढ़ा नहीं होता...हम सबके अन्दर एक कमरा चिरयुवा रहता है.
इस कमरे की खिड़कियों में अमलतास दिखता है...अमलतास, लॉन्ग डिस्टेंस रिलेशनशिप का प्रतीक...आँखों से साल भर सिंचता है, और सिर्फ जब उसकी आमद होती है तो वासंती रंग जाता है. पोर पोर नाच उठता है जैसे पीली पंखुड़ियाँ हवा में उड़ी जाती हैं कमरे के अन्दर तक और फर्श पर कालीन बिछ जाता है. जैसे मन पर तुम्हारी याद का मौसम आता है, फाग गाता हुआ...सुना है पिछले बरस तुम्हारी शादी हो गयी है...कोहबर में वो दूसरा नाम किसका था, वो तो बताना...मुझे उसके नाम की दुआएं भी तो मजार पर बाँधनी हैं.
जिस दौर में रजनीगंधा सात रुपये में और एक गुलाब का फूल पांच रुपये में मिलता था...उस दौर में इस कमरे में हमेशा ये फूल साथ दिखते थे...एक खुशबू के लिए और एक इश्क के लिए. जब तक रजनीगंधा की आखिरी कली ना खिल जाए गुलाब भी अपनी पंखुड़ियों में मासूमियत बरक़रार रखता था. बारह रुपये में उस कमरे में रौनक आ जाया करती थी. इतने दिन हो गए, वो फूल मुरझाते नहीं हैं, जाने कौन से अमृत घाट से पानी आता है. इश्क की तरह वो दो फूल भी हैं...पुनर्नवा.
किसी त्यौहार, शायर दीवाली पर...जब इश्वर निरिक्षण करने उतरे थे...तो मेरा घरकुंडा उन्हें बहुत पसंद आया था, अल्पना में मैंने कोई नाम कहाँ लिखा था...उसी वक़्त इश्वर ने कमरे को वरदान दिया 'पुनः पुनर्नवा भवति' बस, कमरा तबसे हमेशा नया ही रहता है. कहीं से भी उग आता है...दीवारों से, आँखों से, पैरों में...सड़कों पर...बादलों में....कहीं भी.
सच और वर्चुअल आजकल बहुत से चौराहों पर मिल रहे हैं...तो सोच रही हूँ...कमरे को गूगल मैप पर डाल दूं कि ढूँढने से किसी को भी मिल जाए. इस कमरे में बहुत सी धूप खिलती है और याद के टेसू लहकते हैं...कुछ जवाबी पोस्टकार्ड रहते हैं जिनपर बहुत सी गलियों का पता लिखा रहता है...काफी दिनों तक मैंने कमरे पर ख़त भेजे थे, हमेशा जवाबी पोस्टकार्ड पर ही...वो खुले हुए ख़त मेरी पूरी जिंदगी की कहानी हैं. पर मेरे पोस्टकार्ड किसी भी पते पर वापस नहीं आये...जाने कौन उन खाली पीले पन्नों पर अपनी कहानियां लिख के भेजेगा.
उस कमरे की असली चाबी कई दिनों पहले खो गयी थी...डुप्लीकेट चाबी है मेरे पास, तुम्हारे पास कोई चाबी है या बस खिड़की से कमरा देख कर वापस आते हो?
इस कमरे की खिड़कियों में अमलतास दिखता है...अमलतास, लॉन्ग डिस्टेंस रिलेशनशिप का प्रतीक...आँखों से साल भर सिंचता है, और सिर्फ जब उसकी आमद होती है तो वासंती रंग जाता है. पोर पोर नाच उठता है जैसे पीली पंखुड़ियाँ हवा में उड़ी जाती हैं कमरे के अन्दर तक और फर्श पर कालीन बिछ जाता है. जैसे मन पर तुम्हारी याद का मौसम आता है, फाग गाता हुआ...सुना है पिछले बरस तुम्हारी शादी हो गयी है...कोहबर में वो दूसरा नाम किसका था, वो तो बताना...मुझे उसके नाम की दुआएं भी तो मजार पर बाँधनी हैं.
जिस दौर में रजनीगंधा सात रुपये में और एक गुलाब का फूल पांच रुपये में मिलता था...उस दौर में इस कमरे में हमेशा ये फूल साथ दिखते थे...एक खुशबू के लिए और एक इश्क के लिए. जब तक रजनीगंधा की आखिरी कली ना खिल जाए गुलाब भी अपनी पंखुड़ियों में मासूमियत बरक़रार रखता था. बारह रुपये में उस कमरे में रौनक आ जाया करती थी. इतने दिन हो गए, वो फूल मुरझाते नहीं हैं, जाने कौन से अमृत घाट से पानी आता है. इश्क की तरह वो दो फूल भी हैं...पुनर्नवा.
किसी त्यौहार, शायर दीवाली पर...जब इश्वर निरिक्षण करने उतरे थे...तो मेरा घरकुंडा उन्हें बहुत पसंद आया था, अल्पना में मैंने कोई नाम कहाँ लिखा था...उसी वक़्त इश्वर ने कमरे को वरदान दिया 'पुनः पुनर्नवा भवति' बस, कमरा तबसे हमेशा नया ही रहता है. कहीं से भी उग आता है...दीवारों से, आँखों से, पैरों में...सड़कों पर...बादलों में....कहीं भी.
सच और वर्चुअल आजकल बहुत से चौराहों पर मिल रहे हैं...तो सोच रही हूँ...कमरे को गूगल मैप पर डाल दूं कि ढूँढने से किसी को भी मिल जाए. इस कमरे में बहुत सी धूप खिलती है और याद के टेसू लहकते हैं...कुछ जवाबी पोस्टकार्ड रहते हैं जिनपर बहुत सी गलियों का पता लिखा रहता है...काफी दिनों तक मैंने कमरे पर ख़त भेजे थे, हमेशा जवाबी पोस्टकार्ड पर ही...वो खुले हुए ख़त मेरी पूरी जिंदगी की कहानी हैं. पर मेरे पोस्टकार्ड किसी भी पते पर वापस नहीं आये...जाने कौन उन खाली पीले पन्नों पर अपनी कहानियां लिख के भेजेगा.
उस कमरे की असली चाबी कई दिनों पहले खो गयी थी...डुप्लीकेट चाबी है मेरे पास, तुम्हारे पास कोई चाबी है या बस खिड़की से कमरा देख कर वापस आते हो?
पूजा जी हमारा संपर्क आपके तीस साल की मच्युर स्त्री और मेरी तीस साल की लड़की के बीच तुलनात्मक पोस्ट से हुआ था.. उसके बाद आप मेरे ब्लॉग पर आयी कि नहीं नहीं पता लेकिन मैं तो आपका पाठक और प्रशंशक बन ही गया हूँ... शहरीकरण और गाँव की छूटी यादों के बीच के द्वन्द को मुखरित करती हैं आपकी यह पोस्ट... शैली में प्रवाह प्रभावित करता है.. हिंदी ब्लॉग्गिंग की शोभा दे हैं आप....
ReplyDeleteउस कमरे में रहने के उत्साह का आनन्द मनाते मनाते हम कब बाहर निकल जाते हैं, पता ही नहीं चलता है। जीवन के घटनाक्रम में वापस जाकर देखें, याद आ जायेगा कि चाभी कहाँ छूट गयी थी।
ReplyDeleteकमरे को गूगल मैप पर डाल दूं कि ढूँढने से किसी को भी मिल जाए. इस कमरे में बहुत सी धूप खिलती है और याद के टेसू लहकते हैं...कुछ जवाबी पोस्टकार्ड रहते हैं जिनपर बहुत सी गलियों का पता लिखा रहता है...
ReplyDeleteहर पंक्ति खूबसूरत कविता का हिस्सा है. बहुत अच्छा.
इस रचना में आपकी मोहक शैली का ऐसा जबरदस्त आकर्षण है कि इसे पढ़ते वक्त रचनात्मक लेखन सा पाठ सुख मिला। कमरे में जीवन की सुगंध, रजनीगंधा और गुलाब के फूल के रूप में प्रकट हुए हैं, और ऐसा लग रहा है कि विचार इस रूप में हैं, जिनमें गुथी जीवन की कडि़यां कानों में स्वर लहरियों की तरह घुलने लगती है। जो चित्र हमारे सामने बना वह मन को गहरे तक भिंगो देने वाला था।
ReplyDelete... बस यूं ही ... एक शे’र याद आ गया ...
अब तो अक्सर नज़र आ जाता है दिल आंखों में
मैं न कहता था कि पानी है दबाए रखिए
कौन जाने कि वो कब राह इधर भूल पड़े
अपनी उम्मीद की शम्ओं को जलाए रखिए
बहुत ही सुंदर भावाभिव्यक्ति
ReplyDeleteकुछ यादे , कुछ स्थान हमेशा चिरयुवा रहते हैं …………शब्द संयोजन और भाव संयोजन दोनो ही गज़ब के हैं।
ReplyDeleteबस, कमरा तबसे हमेशा नया ही रहता है. कहीं से भी उग आता है...दीवारों से, आँखों से, पैरों में...सड़कों पर...बादलों में....कहीं भी....
ReplyDelete-shandaar!!!
sambhavta pahli bar aaya hun.....
ReplyDeleteoh lekin aapki abhivyakti, andaze byan ka usloob subhan allah!!
yahi dua hai zore qalam aur zyada!
सुन्दर ..अति सुन्दर.. शहर से दूर वो कमरा ...उसका बया मन को लुभा गया ... डाल जिए गूगल मेप .. हम आते जाते रहेंगे.. सादर .. :)
ReplyDeleteNice post.
ReplyDeleteअगर आप 'प्यारी माँ' ब्लाग में एक लेखिका के तौर पर जुड़ना चाहती हैं तो कृप्या अपनी email id रवाना करें
eshvani@gmail.com
पर ।
प्यारी माँ
खिड़की से अमलतास..बेहद रूमानी खयाल है..पता नही कुछ पेड़ों को किसी कमरे के अंदर आने की कभी इजाजत नही होती..उम्र के हर मौसम मे बाहर खड़े रहना धूप मे झुलसते हुए..परित्यक्त..तभी अमलतास के पत्ते एक आग दबाये रखते है अपने भीतर...कमरे के बारे मे पढ़्ते हुए एक बेहद खूबसूरत कोरियन फ़िल्म याद आयी जेहन मे..काफ़ी पहले देखी हुई सी..’इल मेयर’..दो लोग वक्त की रेलगाड़ी के अलग-अलग डिब्बों मे सवार..और नितांत अकेले..और सिर्फ़ एक चीज उनको जोड़े रखती है..उनका अपार्टमेंट..और उसका लेटर-बॉक्स..हालीवुड ने इसका मसाला रि-मेक बनाया था ’लेक हाउस’..ओरिजिनल चेक करना कभी..
ReplyDeleteलेक हॉउस तो बहुत ही पसंद आई थी मुझे...अब तुम कहते हो तो ओरिजिनल जरूर देखूंगी, जब कॉपी इतनी अच्छी थी तो असली तो लाजवाब ही होगी :)
ReplyDeleteकित्ते पोस्टकार्ड मुए पोस्ट नहीं हुए.....कित्ते सवाल मुए पूछे नहीं गये .....कित्ते इत्तेफाक जो होने थे...मुए नहीं हुए
ReplyDeleteकाफ़ी दिलचस्प लिखा है।
ReplyDeleteअपने शहर से बहुत दूर एक शहर होता है...जिसकी पेंच भरी गलियां हमारी आँखों ही नहीं पैरों को भी याद होती हैं...नक्शा कितना भी पुराना हो जाए एक कमरा होता है, जो गायब नहीं होता...भूलता नहीं...बूढ़ा नहीं होता...हम सबके अन्दर एक कमरा चिरयुवा रहता है.
ReplyDeleteयह मौसम है या ... पूरब कि हवा ? बार बार आती है और जोड़ों के दर्द उखाड़ जाती है. संयोग देखो कि सबको एक साथ डूबा रही है. हमने इत्ता ही निकाला अपने लिए और और इत्ते में ही डूब गए.
तो जो वुजू से ही नसीब हो जाए शाराब
कौन कमबख्त नमाज़ पढता है.
बहुत ज्यादा खूबसूरत लिखा है..
ReplyDeleteमुझे मालुम नहीं था की अमलतास लौंग डिस्टेंस रिलेशनशिप का प्रतीक है :)
बहुत अच्छा समय बीता आज आपके ब्लॉग पे...
:)
Bahut sundar
ReplyDeletebahut khub!!!!
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