क्यों चलना यदि पथ है केवल
मेरे अन्धकार से
सब के अन्धकार तक?
- अज्ञेय
पानी की थरथराती हुयी बूँदें खिड़की पर गिर रही हैं. उसे उन बूंदों का थरथराना महसूस होता है. उसे लगता है वो खिड़की हो गयी है और घर को सूखा रखना उसका कर्त्तव्य है. उसने खुद को मजबूत कर लिया है, भिंचे हुए होठों में रक्तिम बूँदें उभरती हैं और पानी में घुलती चली जाती हैं.
रात बहुत काली और गहरी है. ऐसी गहरी रातें अक्सर सन्नाटे का दामन थामे आती हैं. उसे दूर की आवाजें भी सुनाई पड़ने लगी हैं. आँखें ना हों तो कान बहुत सुनने लगते हैं, स्पर्श बहुत कहने लगता है, गंध बहुत तीखी हो जाती है. जरूरत ना होने पर भी उसने आँखें मींच रखी हैं. रौशनी ना होने पर भी रौशनी का छलावा दिल को तसल्ली देता है, आँखें खोल कर सच को देखना बहुत मुश्किल हो जाता है.
प्रलय के इस सागर में एक छोटे से द्वीप पर एक विशाल हवेली है, अनगिनत कमरों वाली...किसी खुली पीली धूप वाले दिन भी वो इन कमरों में भटक जाती है, तब गिने चुने लोग होते हैं जो उसे ढूंढते पहुँच जाते हैं...वर्ना तो वो बाग़ में हरसिंगार के फूलों की माला ही गूंथती रह जाए. घर में अकेले जाने में जब उसे डर लगता है वो हमेशा हरसिंगार के नीचे आके बैठती है, हरसिंगार को पारिजात भी कहते हैं...कहते तो ये भी हैं कि इस पेड़ को स्वर्ग के आंगन से चुरा कर लाया गया था.
तूफ़ान रूकने का नाम ही नहीं लेता तो धीरे धीरे खिड़की से वो दीवार होने लगती है. पुरानी पेंट हुयी दीवारों में से एक, किले की दीवारों की तरह पत्थर और मजबूत...ऐसी किसी दीवार में अनारकली को जिन्दा चिनवा दिया गया था. उसकी सांसें रुकने लगती हैं, जैसे डूबते जाती है सागर की लहरों में. सागर उसे गहरे खींचता है, उद्दाम, उन्मत्त और उद्दंड, पर उसकी भी जिद्द है कि वो सागर पर बाँध बना के ही मानेगी. जिद्दी है बहुत. सागर की विशालता, कभी ना ख़त्म होने वाली सीमाएं उसे जितना डराती हैं उतना ही अपनी ओर खींचती भी हैं. कुछ कुछ मौत के सम्मोहन जैसे.
वो अपनी आँखें खोल कर रख देती है और हाथों से देखने लगती है, हाथों को मसहूस होता है कि सांसें बहुत तेज चल रही हैं. कहीं भी जाने और ना खोने के लिए उसके पास आवाज की एक डोर है. उसे जब भी लौट आने की इच्छा होती है वो इस आवाज को पकड़ कर चलने लगती है. इस आवाज में रौशनी भी है, उसे रास्ता साफ़ दिखने भी लगता है. आवाज उसे दिलासा देती है, कहती है ये प्रलय नहीं है, बाढ़ का पानी है...उतर जाएगा. ये तुम्हारी पूरी जिंदगी नहीं 'एक फेज़ है, गुजर जाएगा'.
लहरें उसे तराशती रहती हैं, और हर बार उसका कुछ बहा ले जाती हैं. बहुत कुछ बीतता है पर वक़्त एक लकीर ना होकर पन्ना हो जाता है और उसे खुद को बचाने भर को हाशिया मिलता है. इस हाशिये में वो अपना दिल रख देती है, उस आवाज के इंतज़ार में उसी पॉज़ से धड़कने के लिए.
'और उस वक़्त से लहरें शोर नहीं करती...गीत गाती हैं'.
एकदम अलग टेस्ट
ReplyDeleteखास कर यह पैरा...
"रात बहुत काली और गहरी है. ऐसी गहरी रातें अक्सर सन्नाटे का दामन थामे आती हैं. उसे दूर की आवाजें भी सुनाई पड़ने लगी हैं. आँखें ना हों तो कान बहुत सुनने लगते हैं, स्पर्श बहुत कहने लगता है, गंध बहुत तीखी हो जाती है. जरूरत ना होने पर भी उसने आँखें मींच रखी हैं. रौशनी ना होने पर भी रौशनी का छलावा दिल को तसल्ली देता है, आँखें खोल कर सच को देखना बहुत मुश्किल हो जाता है"
अज्ञेय की कविता हमेशा नयी दृष्टि देती है... जब भी पढो लगता है एक नए जीवन से गुज़रना है.... अभी कुछ दिन पहले मैंने भी उनको पढ़ा है... पर उनकी हर लाइन पर कुछ रुक कर सोचना पड़ता है.
आहां बड नीक लिखलिये हे दाय ! (मैथिली, नहीं समझी तो गौतम जी से पूछना)
पारिजात नाम बहुत- बहुत दिनों बाद सुना
एक फेज़ है, गुजर जाएगा - इसका प्रयोग बहुत खूबसूरती से किया ...
और हाँ लहरों का गीत मधुर है. सचमुच सुमधुर
एक चीज़ और
ReplyDeleteअंतिम लाइन में गीत गाती हैं की जगह "हीर गाती हैं" कर लो तो लाइन और सुन्दर हो जाएगी.
गज़ब की उलझन है और उसे सतत व्यक्त करती तुम्हारी अपराजित क्षमता । उपदेशात्मक या संवेदनात्मक मत समझना पर अनुभव के किन रास्तों से होकर गुज़री है तुम्हारी विचार-लड़ियाँ ? पानी बरसने में खिड़कियों की जीवटता देख लेती हो, लहरों की ऊर्जा से अभिभूत हो, स्याह अंधेरों में भी हरसिंगार का ख्याल आ जाता है । प्रलय, हाशिया, भटकन,छलावा, काली रात आदि से अटे पड़े हैं मन के आँगन फिर भी अभिव्यक्ति का उत्साह उद्दत है व्यक्त होने को ।
ReplyDeleteजो लोग तुम्हारे परिचित होंगे, तुम्हे संभवतः पहेली ही समझते होंगे ।
पूजा निस्तब्ध कर दिया आपने ...हाँ! हीर गीत गाती है .........वो खिड़की भी होती हैं और सांकल भी ....कभी हिरनी सी चौकड़ी भरती तो कभी ..... तो कभी धरती सी धैर्यवान ......स्त्री हठ ब्रह्म को विवश कर दे तो सागर क्या ?मथ डाला आपने ...हमारी टिपण्णी को मंथन के बाद का रत्न मानिए :-)
ReplyDeleteजीत ही उनको मिली जो हार से जमकर लड़े हैं,
ReplyDeleteहार के भय से डिगे जो, वे घराशायी पड़े हैं।
गजब ही लिखा है आपने !!
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.
ReplyDeleteढेर सारी शुभकामनायें.
मैं एक अलग पुजा से मिला हु इस बार..
ReplyDeleteआवाज़ का एक पुर्जा गिर पड़ा था रास्ते में .....पीछा करते हुए कुछ खटकता है ...रुकी रुकी सी मालूमात होती है .जैसे ढूंढ रही हो उस पुर्जे को .
ReplyDeleteकितनी लहरें है तुममें ? बेबसी और उन्मुक्तता का मिश्रण भी.
ReplyDelete