01 September, 2016

थेथरोलोजी वाया भितरिया बदमास



नोट: ये अलाय बलाय वाली पोस्ट है। आप कुछ मीनिंगफुल पढ़ना चाहते हैं तो कृपया इस पोस्ट पर अपना समय बर्बाद ना करें। धन्यवाद।
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दोस्त। आज ऊँगली जल गयी बीड़ी जलाते हुए तो तुम याद आए। नहीं। तुम नहीं। हम याद आए। तुम्हें याद है हम कैसे हुआ करते थे?
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ये वो दिन हैं जब मैं भूल गयी हूँ कि मेरे हिस्से में कितनी मुहब्बत लिखी गयी है। कितनी यारियाँ। कितने दिलकश लोग। कितने दिल तोड़ने वाले लोग। इन्हीं दिनों में मैं वो कहकहा भी भूल गयी हूँ जो हमारी बातों के दर्मयान चला आता था हमारे बीच। बदलते मौसम में आसमान के बादलों जैसा। तुम आज याद कर रहे हो ना मुझे? कर रहे हो ना?
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हम। मैं और तुम मिल कर जो बनते थे...वो बिहार वाला हम नहीं...बहुवचन हम...लेकिन हमारा हम तो एकवचन हो जाता था ना? नहीं। मैं और तुम। एक जैसे। जाने क्या। क्यूँ। कैसे। कब तक?

हम। जिन दिनों हम हुआ करते थे। मैं और तुम।
तुम्हारे घर के आगे रेलगाड़ी गुज़रती थी और मैं यहाँ मन में ठीक ठीक डिब्बे गिन लेती थी। याद है? पटना के प्लैट्फ़ॉर्म पर हम कभी नहीं मिले लेकिन अलग अलग गुज़रे हैं वहाँ से अपने होने के हिस्से पीछे छोड़ते हुए कि दूसरा जब वहाँ आए तो उसे तलाशने में मुश्किल ना हो।

हम एक ऐसे शहर में रहते थे जहाँ घड़ी ठीक रात के आठ बजे ठहर जाती थी। तब तक जब तक कि जी भर बतिया कर हमारा मन ना भर जाए। गंगा में आयी बाढ़ जैसी बातें हुआ करती थीं। पूरे पूरे गाँव बहते थे हमारे अंदर। पूरे पूरे गाँव रहते थे हमारे अंदर। नहीं? इन गाँवों के लोग कितना दोस्ताना रखते थे एक दूसरे से। दिन में दस बार तो आना जाना लगा हुआ रहता था। कभी धनिया पत्ता माँगने तो कभी खेत से मूली उखाड़ने। झालमूढ़ि में जब तक कच्चा मिर्चा और मूली ना मिले, मज़ा नहीं आता। झाँस वाला सरसों का तेल। थोड़ा सा चना। सीसी करते हुए खाते जाना। तित्ता तित्ता।

लॉजिक कहता है तुम वर्चुअल हो। आभासी। आभासी मतलब तो वो होता है ना जिसके होने का पहले से पता चल जाए ना? उस हिसाब से इस शब्द का दोनों ट्रान्सलेशन काम करता है। याद क्यूँ आती है किसी की? इस बेतरह। क्या इसलिए कि कई दिनों से बात बंद है? तुमसे बात करना ख़ुद से बात करने को एक दरवाज़ा खोले रखना होता था। तुमसे बात करते हुए मैं गुम नहीं होती थी। तुम ज़िद्दी जो थे। अन्धार घर में भुतलाया हुआ माचिस खोजना तुमरे बस का बात था बस। हम जब कहीं बौरा कर भाग जाने का बात उत करने लगते थे तुम हमको लौटा लाते थे। मेरे मर जाने के मूड को टालना भी तुमको आता था। बस तुमको। सिर्फ़ एक तुमको।

सुगवा रे, मोर पाहुना रे, ललका गोटी हमार, तुम रे हमरे पोखर के चंदा...तुम हमरे चोट्टाकुमार। जानते हो ना सबसे सुंदर क्या है इस कबीता में? इस कबीता में तुम हमरे हो...हमार। उतना सा हमरे जितना हमारे चाहने भर को काफ़ी हो। कैसे हो तुम इन दिनों? हमारे वो गाँव कैसे उजड़ गए हैं ना। बह गए सारे लोग। सारे लोग रे। आज तुम्हारा नाम लेने का मन किया है। देर तक तुमसे बात करने का मन किया है। इन सारे बहे हुए लोगों और गाँवों को गंगा से छांक कर किसी पहाड़ पर बसा देने का मन किया है। लेकिन गाँव के लोग पहाड़ों पर रहना नहीं जानते ना। तुम मेरे बिना रहना जानते हो? हमको लगता था तुम कहीं चले गए हो रूस के। घर का सब दरवाज़ा खुला छोड़ के। लेकिन तुम तो वहीं कोने में थे घुसियाए हुए। बीड़ी का धुइयाँ लगा तो खाँसते हुए बाहर आए। आज झगड़ लें तुमसे मन भर के? ऐसे ही। कोई कारण से नहीं। ख़ाली इसलिए कि तुमको गरिया के कलेजा जरा ठंढा पढ़ जाएगा। बस इसलिए। बोलो ना रे। कब तक ऐसे बैठोगे चुपचाप। चलो यही बोल दो कि हम कितना ख़राब लिखे हैं। नहीं? कहो ना। कहो कि बोलती हो तो लगता है कि ज़िंदा हो।

मालूम है। इन दिनों मैंने कुछ लिखा नहीं है। वो जो लिखने में सुख मिलता था, वो ख़त्म हो गया है। कि मैंने बात करनी ही बंद कर दी है। काहे कि हमेशा ये सोचने लगी हूँ कि ये भी कोई लिखने की बात है। वो जो पहले की तरह होता था कि साला जो मेरा मन करेगा लिखेंगे, जिसको पढ़ना है पढ़े वरना गो टू द (ब्लडी) भाड़। इन दिनों लगता है कि बकवास लिखनी नहीं चाहिए, बकवास करनी भी नहीं चाहिए। लेकिन वो मैं नहीं हूँ ना। मैं तो इतना ही बोलती हूँ। तो ख़ैर। जिसको कहते हैं ना, टेक चार्ज। सो। फिर से। लिखना इसलिए नहीं है कि उसका कोई मक़सद है। लिखना इसलिए है कि लिखने में मज़ा आता था। कि जैसे बाइक चलाने में। तुम्हें फ़ोन करके घंटों गपियाने में। तेज़ बाइक चलाते हुए हैंडिल छोड़ कर दोनों हाथ शाहरुख़ खान पोज में फैला लेने में। नहीं। तो हम फिर से लिख रहे हैं। अपनी ख़ुशी के लिए। जो मन सो।

हम न आजकल बतियाना बंद कर दिए हैं। लिखना भी। जाने क्या क्या सोचते रहते हैं दिन भर। पढ़ते हैं तो माथा में कुछ घुसता ही नहीं है। चलो आज तुमको एक कहानी सुनाते हैं। तुम तो नहींये जानते होगे। ई सब पढ़ सुन कर तुमरे ज्ञान में इज़ाफ़ा होगा। ट्रान्सलेशन तो हम बहुत्ते रद्दी करते हैं, लेकिन तुम फ़ीलिंग समझना, ओके? तुम तो जानते हो कि हारूकी मुराकामी मेरे सबसे फ़ेवरिट राईटर हैं इन दिनों। तो मुराकामी का जो नॉवल पढ़ रहे हैं इन दिनों उसके प्रस्तावना में लिखते हैं वो कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी में कई काम उलटे क्रम से किए हैं। उन्होंने पहले शादी की, फिर नौकरी, और आख़िर में पढ़ाई ख़त्म की। अपने जीवन के 20s में उन्होंने Kokubunji में एक छोटा सा कैफ़े खोला जहाँ जैज़ सुना जा सकता था। वो लिखते हैं कि 29 साल की उम्र में एक बार वे एक खेल देखने गए थे। वो साल १९७८ का अप्रील महीना था और जिंग़ु स्टेडीयम में बेसबाल का गेम था। सीज़न का पहला गेम Yakult Swallows against the Hiroshima Carp। वे उन दिनों याकुल्ट स्वालोज के फ़ैन थे और कभी कभी उनका गेम देखने चले जाते थे। वैसे स्वॉलोज़ माने अबाबील होता है। अबाबील बूझे तुम? गूगल कर लेना। तो ख़ैर। मुराकामी गेम देखने के लिए घास पर बैठे हुए थे। आसमान चमकीला नीला था, बीयर उतनी ठंढी थी जितनी कि हो सकती थी, फ़ील्ड के हरे के सामने बॉल आश्चर्यजनक तरीक़े से सफ़ेद थी...मुराकामी ने बहुत दिन बाद इतना हरा देखा था। स्वालोज का पहला बैटर डेव हिल्टन था। पहली इनिंग के ख़त्म होते हिल्टन ने बॉल को हिट किया तो वो क्रैक पूरे स्टेडियम में सुनायी पड़ा। मुराकामी के आसपास तालियों की छिटपुट गड़गड़ाहट गूँजी। ठीक उसी लम्हे, बिना किसी ख़ास वजह के और बिना किसी आधार के मुराकामी के अंदर ख़याल जागा: 'मेरे ख़याल से मैं एक नॉवल लिख सकता हूँ'।

अंग्रेज़ी में ये शब्द, 'epiphany' है। मुझे अभी इसका ठीक ठीक हिंदी शब्द याद नहीं आ रहा।

मुराकामी को थी ठीक वो अहसास याद है। जैसे आसमान से उड़ती हुयी कोई चीज़ आयी और उन्होंने अपनी हथेलियों में उसे थाम लिया। उन्हें मालूम नहीं था कि ये चीज़ उनके हाथों में क्यूँ आयी। उन्हें ये बात तब भी नहीं समझ आयी थी, अब भी नहीं आती। जो भी वजह रही हो, ये घटना घट चुकी थी। और ठीक उस लम्हे से उनकी ज़िंदगी हमेशा के लिए बदल गयी थी।

खेल ख़त्म होने के बाद मुराकामी ने शिनजकु की ट्रेन ली और वहाँ से एक जिस्ता काग़ज़ और एक फ़ाउंटेन पेन ख़रीदा। उस दिन उन्होंने पहली बार काग़ज़ पर कलम से अपना नॉवल लिखना शुरू किया। उस दिन के बाद से हर रोज़ अपना काम ख़त्म कर के सुबह के पहले वाले पहर में वे काग़ज़ पर लिखते रहते क्यूँकि सिर्फ़ इसी वक़्त उन्हें फ़ुर्सत मिलती। इस तरह उन्होंने अपना पहला छोटा नॉवल, Hear the Wind Sing लिखा।

कितना सुंदर है ऐसा कुछ पढ़ना ना? मुझे अब तो वे दिन भी ठीक से याद नहीं। मगर ऐसा ही होता था ना लिखना। अचानक से मूड हुआ और आधा घंटा बैठे कम्प्यूटर पर और लिख लिए। ना किसी चीज़ की चिंता, ना किसी के पढ़ने का टेंशन। हम किस तरह से थे ना एक दूसरे के लिए। पाठक भी, लेखक भी, द्रष्टा भी, क्रिटिक भी। लिखना कितने मज़े की चीज़ हुआ करती थी उन दिनों। कितने ऐश की। फिर हम कैसे बदल गए? कहाँ चला गया वो साधारण सा सुख? सिम्पल। साधारण। सादगी से लिखना। ख़ुश होना। मुराकामी उसी में लिखते हैं कि वो ऐसे इंसान हैं जिनको रात ३ बजे भूख लगती तो फ्रिज खंगालते हैं...ज़ाहिर तौर से उनका लिखना भी वैसा ही कुछ होगा। तो बेसिकली, हम जैसे इंसान होते हैं वैसा ही लिखते हैं।

बदल जाना वक़्त का दस्तूर होता है। बदलाव अच्छा भी होता है। हम ऐसे ही सीखते हैं। बेहतर होते हैं। मगर कुछ चीज़ें सिर्फ़ अपने सुख के लिए भी रखनी चाहिए ना? ये ब्लॉग वैसा ही तो था। हम सोच रहे हैं कि फिर से लिखें। कुछ भी वाली चीज़ें। मुराकामी। मेरी नयी मोटरसाइकिल, रॉयल एंफ़ील्ड, शाम का मौसम, बीड़ी, मेरी फ़ीरोज़ी स्याही। जानते हो। हमारे अंदर एक भीतरिया बदमास रहता है। थेथरोलौजी एक्सपर्ट। किसी भी चीज़ पर घंटों बोल सकने वाला। जिसको मतलब की बात नहीं बुझाती। होशियार होना अच्छा है लेकिन ख़ुद के प्रति ईमानदार होना जीने के लिए ज़रूरी है। हर कुछ दिन में इस बदमास को ज़रा दाना पानी देना चाहिए ना?

और तुम। सुनो। बहुत साल हो गए। कोई आसपास है तुम्हारे? लतख़ोर, उसको कहो मेरी तरफ़ से तुम्हें एक bpl दे...यू नो, bum पे लात :)

कहा नहीं है इन दिनों ना तुमसे।
लव यू। बहुत सा। डू यू मिस मी? क्यूँकि, मैं मिस करती हूँ। तुम्हें, हमें। सुनो। लिखा करो। 

21 June, 2016

लड़की धुएँ से टांक देती उसकी सफ़ेद शर्ट्स में अपना नाम



जिन दिनों तुम नहीं होते हो जानां। तलाशनी होती है अपने अंदर ही कोई अजस्र नदी। जिसका पानी हो प्यास से ज़्यादा मीठा। जिससे आँखें धो कर आए गाढ़ी नींद और पक्के रंग वाले सपने। जिस नदी के पानी में डूब मर कर की जा सके एक और जन्म की कामना।
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लड़की धुएँ से टांक देती उसकी सफ़ेद शर्ट्स में अपना नाम। लड़के की जेब से मिलती माचिस। उसके बैग में पड़े रहते लड़की की सिगरेट के ख़ाली डिब्बे। लड़की चेन स्मोकिंग करती और लड़के की दुनिया धुआँ धुआँ हो उठती। वो चाहता चखना उसके होंठ लेकिन नहीं छूना चाहता सिगरेट का एक कश भी। लड़के की उँगलियों में सिर्फ़ बुझी हुयी माचिस की तीलियाँ रहतीं। लड़की को लाइटर से सिगरेट जलाना पसंद नहीं था। लड़के को धुएँ की गंध पसंद नहीं थी। धुएँ के पीछे गुम होती लड़की की आँखें भी नहीं। लड़की के बालों से धुएँ की गंध आती। लड़का उसके बालों में उँगलियाँ फिराता तो उसकी उँगलियों से भी सिगरेट की गंध आने लगती। लड़के की मर्ज़ी से बादल नहीं चलते वरना वो उन्हें हुक्म देता कि तब तक बरसते रहें जब तक लड़की की सारी सिगरेटें गीली ना हो जाएँ। इत्ती बारिश कि धुल जाए लड़की के बदन से धुएँ की गंध का हर क़तरा। वो चाहता था कि जान सके जिन दिनों लड़की सिगरेट नहीं पीती, उन दिनों उससे कैसी गंध आती है। सिगरेट उसे रक़ीब लगता। लड़की धुएँ की गंध वाले घर में रहती। लड़का जानता कि इस घर का रास्ता मौत ने देख रखा है और वो किसी भी दिन कैंसर का हाथ पकड़ टहलती हुयी मेहमान की तरह चली आएगी और लड़की को उससे छीन कर ले जाएगी। वो लड़की से मुहब्बत करता तो उसका हक़ होता कि लड़की से ज़िद करके छुड़वा भी दे लेकिन उसे सिर्फ़ उसकी फ़िक्र थी…किसी को भी हो जाती। लड़की इतनी बेपरवाह थी कि उसके इर्द गिर्द होने पर सिर्फ़ उसे ज़िंदा रखने भर की दुआएँ माँगने को जी चाहता था।

वो खुले आसमान के नीचे सिगरेट पीती। उसके गहरे गुलाबी होठों को छू कर धुआँ इतराता हुआ चलता कि जैसे जिसे छू देगा वो मुहब्बत में डूब जाएगा। मौसम धुएँ के इशारों पर डोलते। जिस रोज़ लड़की उदास होती, बहुत ज़्यादा सिगरेट पीती…आँसू उसकी आँखों से वाष्पित हो जाते और शहर में ह्यूमिडिटी बढ़ जाती। सब कुछ सघन होने लगता। कोहरीले शहर में घुमावदार रास्ते गुम हो जाते। यूँ ये लड़की का जाना पहचाना शहर था लेकिन था तो तिलिस्म ही। कभी पहाड़ की जगह घाटियाँ उग आतीं तो कभी सड़क की जगह नदी बहने लगती। लड़की गुम होते शहर की रेलिंग पकड़ के चलती या कि लड़के की बाँह। लड़का कभी कभी काली शर्ट पहनता। उन दिनों वो अंधेरे का हिस्सा होता। सिर्फ़ माचिस जलाने के बाद वाले लम्हे में उसकी आँखें दिखतीं। शहद से मीठीं। शहद रंग की भीं। उससे मिल कर लड़की का दुखांत कहानियाँ लिखने का मन नहीं करता। ये बेइमानी होती क्यूँकि पहाड़ के क़िस्सों में हमेशा महबूब को किसी घाटी से कूद कर मरना होता था। लड़की को सुख की कल्पना नहीं आती थी ठीक से। प्रेम के लौट आने की कल्पना भी नहीं। यूँ भी पहाड़ों में शाम बहुत जल्दी उतर आती है। लड़की उससे कहती कि शाम के पहले आ जाया करे। वो जानती थी कि जब वो लड़के की शर्ट की बाँह पकड़ कर चलती है तो उसकी सिगरेट वाली गंध उसकी काली शर्ट में जज़्ब हो जाती है। फिर बेचारा लड़का रात को ही ठंढे पानी में पटक पटक कर सर्फ़ में शर्ट धोता था ताकि धुएँ की गंध उसके सीने से होते हुए उसके दिल में जज़्ब ना हो जाए। धुएँ की कोई शक्ल नहीं होती, जहाँ रहता है उसी की शक्ल अख़्तियार कर लेता है। अक्सर लड़की से मिल कर लौटते हुए लड़का देखता कि घरों की चिमनी से उठता धुआँ भी लड़की की शक्ल ले ले रहा है।

लड़की सिगरेट पीने जाती तो आँख के आगे बादल आते और धुआँ। वो चाहती कि बालों का जूड़ा बना ले। या कि गूँथ ले दो चोटियाँ कि जहाँ धुएँ की घुसपैठ ना हो सके। मगर उसकी ज़िद्दी उँगलियाँ खोल देतीं जो कुछ भी उसके बालों में लगा हुआ होता, क्लचर, रबर बैंड, जूड़ा पिन। खुले बालों में धुआँ जा जा के झूले झूलता। लड़के को समझ नहीं आता, क़त्ल का इतना सामान होते हुए भी लड़की ने सिगरेट को क्यूँ चुना है अपना क़ातिल। उससे कह देती। वो अपने सपनों में चाकू की धार तेज़ करता रहता। लड़की की सफ़ेद त्वचा के नीची दौड़ती नीली नसों में रक्त धड़कता रहता। लड़का उसके ज़रा पीछे चलता तो देखता उसके बाल कमर से नीचे आ गए हैं। उसकी कमर की लोच पर ज़रा ज़रा थिरकते। लड़की अक्सर किसी संगीत की धुन पर थिरकती चलती। उसके पीछे चलता हुआ वो हल्के से उसके बाल छूता…उसकी हथेली में गुदगुदी होती।

उन्हें आदत लग रही थी एक दूसरे की…लड़के को पासिव स्मोकिंग की…लड़की को रास्ता भटक जाने की। या कि उसके बैग में सिगरेट, माचिस वग़ैरह रख देने की। लड़की देखती धुआँ लड़के को चुभता। इक रोज़ जिस जगह लैम्पपोस्ट हुआ करता था वहाँ बड़े बड़े काँटों वाली कोई झाड़ी उग आयी। लड़के ने सिगरेट जलाने के लिए अंधेरे में माचिस तलाशी तो उसकी ऊँगली में काँटा चुभ गया। अगली सुबह लड़की की नींद खुली तो उसने देखा ऊँगली पर ज़ख़्म उभर आया है, ठीक उसी जगह जहाँ लड़के को काँटा चुभा था। ये शुरुआत थी। कई सारी चीज़ें जो लड़के को चुभती थीं, लड़की को चुभने लगीं। जैसे कि एक दूसरे से अलग होने का लम्हा। वे दिन जब उन्हें मिलना नहीं होता था। वे दिन जब लड़का शहर से बाहर गया होता था। कोई हफ़्ता भर हुआ था और लड़की बहुत ज़्यादा सिगरेट पीने लगी थी। ऐसे ही किसी दीवाने दिन लड़की जा के अपने बाल कटा आयी। एकदम छोटे छोटे। कान तक। उस दिन के बाद से शहर का मौसम बदलने लगा। तीखी धूप में लड़के की आँखें झुलसने लगी थीं। गरमी में वो काले कपड़े नहीं पहन सकता। जिन रातों में उसका होना अदृश्य हुआ करता था उन रातों में अब उसके सफ़ेद शर्ट से दिन की थकान उतरती। वो नहीं चाहता कि लड़की उसकी शर्ट की स्लीव पकड़ कर चले। यूँ भी गरमियों के दिन थे। वो अक्सर हाफ़ शर्ट या टी शर्ट पहन लिया करता। लड़की को उसका हाथ पकड़ कर चलने में झिझक होती। इसलिए बस साथ में चलती। सिगरेट पर सिगरेट पीती हुयी। अब ना बादल आते थे ना उसके बाल इतने घने और लम्बे थे कि धुआँ वहाँ छुप कर बादलों को बुलाने की साज़िश रचता। लड़का उसकी कोरी गर्दन के नीचे धड़कती उसकी नस देखता तो उसके सपने और डरावने हो जाते। लड़की के गले से गिरती ख़ून की धार में सिगरेटें गीली होती जातीं। लड़का सुबकता। लड़की के सर में दर्द होने लगता।

उनके बीच से धुआँ ग़ायब रहने लगा था। धुएँ के बग़ैर चीज़ें ज़्यादा साफ़ दिखने लगी थीं। जैसे लड़की को दिखने लगा कि लड़के की कनपटी के बाल सफ़ेद हो गए हैं। लड़के ने नोटिस किया कि लड़की के हाथों पर झुर्रियाँ पड़ी हुयी हैं। कई सारी छोटी छोटी चीज़ें उनके बीच कभी नहीं आती थीं क्यूँकि उनके बीच धुआँ होता था। लड़की ने सिगरेट पीनी कम करके वैसी होने की कोशिश की जैसी उसके ख़याल से लड़के को पसंद होनी चाहिए। चाहना का लेकिन कोई ओर छोर नहीं होता। लड़की ने सिगरेट पीनी लगभग बंद ही कर दी थी। लेकिन किसी किसी दिन उसका बहुत दिन करता। ख़ास तौर से उन दिनों जब धूप भी होती और बारिश भी। ऐसे में अगर वो सिगरेट पी लेती तो लड़का उससे बेतरह झगड़ता। सिगरेट को दोषी क़रार देता कि उन दोनों के बीच हमेशा किसी सिगरेट की मौजूदगी रहती है। लड़की कितना भी कम सिगरेट पीने की कोशिश करती, कई शामों को उसका अकेलापन उसे इस बेतरह घेरता कि वो फिर से धुएँ वाले घर में चली जाती। वहाँ से उसके लौटने पर लड़का बेवफ़ाई के ताने मारता। इन दिनों लड़के के बैग में ना माचिस होती थी, ना सिगरेट के ख़ाली डिब्बे। इन दिनों लड़की का दिल भी ख़ाली ख़ाली रहता। और मौसम भी।

वो एक बेहद अच्छी लड़की हो गयी थी इन दिनों…और इन्ही दिनों लड़के को लगता था, उसे किसी बुरी लड़की से इश्क़ हुआ था…किसी बुरी लड़की से इश्क़ हो जाना चाहिए। 

11 May, 2016

तुम्हें ख़तों में आग लगाना आना चाहिए



उन दिनों मैं एक जंगल थी। दालचीनी के पेड़ों की। जिसमें आग लगी थी। 

और ये भी कि मैं किसी जंगल से गुज़र रही थी। कि जिसमें दालचीनी के पेड़ धू धू करके जल रहे थे। मेरे पीछे दमकल का क़ाफ़िला था। आँखों को आँच लग रही थी। आँखों से आँच आ रही थी। चेहरा दहक रहा था। कोई दुःख का दावनल था। आँसू आँखों से गिरा और होठों तक आने के पहले ही भाप हो गया। उसने सिगरेट अपने होठों में फँसायी और इतना क़रीब आया कि सांसें उलझने लगीं। उसकी साँसों में मेरी मुहब्बत वाले शहर के कोहरे की ठंढ और सुकून था। हमारे होठों के बीच सिगरेट भर की दूरी थी। सिगरेट का दूसरा सिरा उसने मेरे होठों से रगड़ा और चिंगरियाँ थरथरा उठी हम दोनों की आँखों में। मैंने उसकी आँखों में देखा। वहाँ दालचीनी की गंध थी। उसने पहला कश गहरा लिया। मुझे तीखी प्यास लगी। 

वो हँसा। इतना डर लगता है तो पत्थर होना था। काग़ज़ नहीं। 

कार के अंदर सिगरेट का धुआँ था। कार के बाहर जंगल के जलने की गंध। लम्हे में छुअन नहीं थी। गंध से संतृप्त लम्हा था। मैंने फिर से उसकी आँखें देखीं। अंधेरी। अतल। दालचीनी की गंध खो गयी थी। ये कोई और गंध थी। शाश्वत। मृत्यु की तरह। या शायद प्रेम की तरह। आधी रात की ख़ुशबू और तिलिस्म में गमकती आँखें। गहरी। बहुत गहरी। दिल्ली की बावलियाँ याद आयीं जिनमें सीढ़ियाँ होती थीं। अपने अंधेरे में डूब कर मरने को न्योततीं।

वो आग का सिर्फ़ एक रंग जानता था। सिगरेट के दूसरे छोर पर जलता लाल। उसने कभी ख़त तक नहीं जलाए थे। उसे आग की तासीर पता नहीं थी। सिगरेट का फ़िल्टर हमेशा आग को उसके होठों से एक इंच दूर रोक देता था। इश्क़ की फ़ितरत पता होगी उसे? या कि इश्क़ एक सिगरेट थी बस। वो भी फ़िल्टर वाली। दिल से एक इंच दूर ही रुक जाती थी सारी आग। मुझे याद आए उसकी टेबल पर की ऐश ट्रे में बचे हुए फिल्टर्स की। कमरे में क़रीने से रखे प्रेमपत्रों की भी। लिफ़ाफ़े शायद आग बचा जाते हों। किसी सुलगते ख़त को चूमा होगा उसने कभी? कभी होंठ जले उसके? कभी तो जलने चाहिए ना। मेरा दिल किया शर्ट के बटन खोल उसके सीने पर अपनी जलती उँगलियों से अपना नाम लिख दूँ। तरतीब जाए जहन्नुम में।

कारवाँ रुका। दमकल से लोग उतरे। बड़ी होज़ पाइप्स से पानी का छिड़काव करने लगे। पानी के हेलिकॉप्टर भी आ गए तब तक। मुझे हल्की सी नींद आ गयी थी। एक छोटी झपकी बस। जितनी जल्दी नहीं बुझनी चाहिए थी आग, उतनी जल्दी बुझ गयी। मुझे यक़ीन था ऐसा सिर्फ़ इसलिए था कि वो साथ आया था। समंदर। मैंने सपने में देखा कि इक तूफ़ानी रात समंदर पर जाते जहाज़ों के ज़ख़ीरे पर बिजली गिरी है। मूसलाधार बारिश के बावजूद आग की लपटें आसमान तक ऊँची उठ रही थीं। होठों पर नमक का स्वाद था। कोई आँसू था या सपने के समंदर का नमक था ये?

क्या समंदर किनारे दालचीनी का जंगल उग सकता है? अधजले जंगल की कालिख से आसमान ज़मीन सब सियाह हो गयी थी। सब कुछ भीगा हुआ था। इतनी बारिश हुयी थी कि सड़क किनारे गरम पानी की धारा बहने लगी। कुछ नहीं बुझा तो उसकी सिगरेट का छोर। मैंने उसे चेन स्मोकिंग करते आज के पहले नहीं देखा था कभी। लेकिन इस सिगरेट की आग को उसने बुझने नहीं दिया था। सिगरेट के आख़िरी कश से दूसरी सिगरेट सुलगा लेता। 

मैंने सिगरेट का एक कश माँगने को हाथ बढ़ाया तो हँस दिया। तुम तो दोनों तरफ़ से जला के सिगरेट पीती होगी। छोटे छोटे कश मार के। बिना फ़िल्टर वाली, है ना? मैं नहीं दे रहा तुम्हें अपनी सिगरेट। 

बारिश में भीगने को मैं कार के बाहर उतरी थी। सिल्क की हल्की गुलाबी साड़ी पर पानी में घुला धुआँ छन रहा था। मैं देर तक भीगती रही। इन दिनों के लिए प्रकृति को माँ कहा जाता है। सिहरन महसूस हुयी तो आँखें खोली। दमकल जा चुका था। हमें भी वापस लौटना था अब। उसके गुनगुनाने की गंध आ रही थी मेरी थरथराती उँगलियों में लिपटती साड़ी के आँचल में उलझी उलझी। जूड़ा खोला और कंधे पर बाल छितराए तो महसूस हुआ कि दालचीनी की आख़िरी गंध बची रह गयी थी जूड़े में बंध कर  लेकिन अब हवा ने उसपर अपना हक़ जता दिया था। उसने मुट्ठी बांधी जैसे रख ही लेगा थोड़ी सी गंध उँगलियों में जज़्ब कर के। 
सब कुछ जल जाने के बाद नया रचना पड़ता है। शब्दबीज रोपने होते हैं काग़ज़ में।

मैंने उसे देखा। 
‘प्रेम’

उसने सिर्फ़ मेरा नाम लिया।
‘पूजा’ 

08 May, 2016

शीर्षक कहानी में दफ़्न है


आप ऐसे लोगों को जानते हैं जो क़ब्र के पत्थर उखाड़ के अपना घर बनवा सकते हैं? मैं जानती हूँ। क्यूँ जानती हूँ ये मत पूछिए साहब। ये भी मत पूछिए कि मेरा इन लोगों से रिश्ता क्या है। शायद हिसाब का रिश्ता है। शायद सौदेबाज़ी का हिसाब हो। इंसानियत का रिश्ता भी हो सकता है। यक़ीन कीजिए आप जानना नहीं चाहते हैं। किसी कमज़ोर लम्हे में मैंने क़ब्रिस्तान के दरबान की इस नौकरी के लिए मंज़ूरी दे दी थी। रूहें तो नहीं लेकिन ये मंज़ूरी ज़िंदगी के हर मोड़ पर पीछा करती है। 

मैं यहाँ से किसी और जगह जाना चाहती हूँ। मैं इस नौकरी से थक गयी हूँ। लेकिन क़ब्रिस्तान को बिना रखवाले के नहीं छोड़ा जा सकता है। ये ऐसी नौकरी है कि मुफ़लिसी के दौर में भी लोग मेरे कंधों से इस बोझ को उतारने के लिए तैय्यार नहीं। इस दुनिया में कौन समझेगा कि आख़िर मैं एक औरत हूँ। मानती हूँ मेरे सब्र की मिसाल समंदर से दी जाती है। लेकिन साहब इन दिनों मेरा सब्र रिस रहा है इस मिट्टी में और सब्र का पौधा उग रहा है वहाँ। उस पर मेरे पहले प्रेम के नाम के फूल खिलते हैं। क़ब्रिस्तान के खिले फूल इतने मनहूस होते हैं कि मय्यत में भी इन्हें कोई रखने को तैय्यार नहीं होता। 

मुझे इन दिनों बुरे ख़्वाबों ने सताया हुआ है। मैं सोने से डरती हूँ। बिस्तर की सलवटें चुभती हैं। यहाँ एक आधी बार कोई आधी खुदी हुयी क़ब्र होती है, मैं उसी नरम मिट्टी में सो जाना पसंद करती हूँ। ज़मीन से कोई दो फ़ीट मिट्टी तरतीब से निकली हुयी। मैं दुआ करती हूँ कि नींद में किसी रोज़ कोई साँप या ज़हरीला बिच्छू मुझे काट ले और मैं मर जाऊँ। यूँ भी इस पूरी दुनिया में मेरा कोई है नहीं। जनाज़े की ज़रूरत भी नहीं पड़ेगी। मिट्टी में मुझे दफ़ना दिया जाएगा। इस दुनिया को जाते हुए जितना कम कष्ट दे सकूँ उतना बेहतर है। 

मुझे इस नौकरी के लिए हाँ बोलनी ही नहीं चाहिए थी। लेकिन साहिब, औरत हूँ ना। मेरा दिल पसीज गया। एक लड़का था जिसपर मैं मरती थी। इसी क़ब्रिस्तान से ला कर मेरे बालों में फूल गूँथा करता था। दरबान की इस नौकरी के सिवा उसके पास कुछ ना था। उसने मुझसे वादा किया कि दूसरे शहर में अच्छी नौकरी मिलते ही आ कर मुझे ले जाएगा। और साहब, बात का पक्का निकला वो। ठीक मोहलत पर आया भी, अपना वादा निभाने। लेकिन मेरी जगह लेने को इस छोटे से क़स्बे में कोई तैय्यार नहीं हुआ। अब मुर्दों को तन्हा छोड़ कर तो नहीं जा सकती थी। आप ताज्जुब ना करें। दुनिया में ज़िंदा लोगों की परवाह को कोई नहीं मिलता साहब। मुर्दों का ख़याल कौन रखेगा।

कच्ची आँखों ने सपने देख लिए थे साहब। कच्चे सपने। कच्चे सपनों की कच्ची किरचें हैं। अब भी चुभती हैं। बात को दस साल हो गए। शायद उम्र भर चुभेगा साहब। ऐसा लगता है कि इन चुभती किरिचों का एक सिरा उसके सीने में भी चुभता होगा। मैंने उसके जैसी सच्ची आँखें किसी की नहीं देखीं इतने सालों में। बचपन से मुर्दों की रखवाली करने से ऐसा हो जाता होगा। मुर्दे झूठ नहीं बोलते। मैं भी कहाँ झूठ कह पाती हूँ किसी से इन दिनों। मालूम नहीं कैसा दिखता होगा। मेरे कुछ बाल सफ़ेद हो रहे हैं। शायद उसके भी कुछ बाल सफ़ेद हुए हों। कनपटी पर के शायद। उसके चेहरे की बनावट ऐसी थी कि लड़कपन में उसपर पूरे शहर की लड़कियाँ मर मिटती थीं। इतनी मासूमियत कि उसके हिस्से का हर ग़म ख़रीद लेने को जी चाहे। बढ़ती उम्र के साथ उसके चेहरे पर ज़िंदगी की कहानी लिखी गयी होगी। मैं दुआ करती हूँ कि उसकी आँखों के इर्द गिर्द मुस्कुराने से धुँधली रेखाएँ पड़ने लगी हों। उसने शायद शादी कर ली होगी। बच्चे कितने होंगे उसके? कैसे दिखते होंगे। क्या उसके बेटे की आँखें उसपर गयी होंगी? मुझे पूरा यक़ीन है कि उसके एक बेटा तो होगा ही। हमने अपने सपनों में अलग अलग बच्चों के नाम सोचे थे। उसे सिर्फ़ मेरे जैसी एक बेटी चाहिए थी। मेरे जैसी क्यूँ…मुझमें कुछ ख़ूबसूरत नहीं था लेकिन उसे मेरा साँवला रंग भी बहुत भाता था। मेरी ठुड्डी छू कर कहता। एक बेटी दे दो बस, एकदम तुम्हारे जैसी। एकदम तुम्हारे जैसी। मैं लजाकर लाल पड़ जाती थी। शायद मैंने किसी और से शादी कर ली होती तो अपनी बेटी का नाम वही रखती जो उसने चुना था। ‘लिली’। अब तो उसके शहर का नाम भी नहीं मालूम है। कुछ साल तक उसे चिट्ठियाँ लिखती रही थी मैं। फिर जाने क्यूँ लगने लगा कि मेरे ख़तों से ज़िंदगी की नहीं मौत की गंध आती होगी। मैं जिन फूलों की गंध के बारे में लिखती वे फूल क़ब्र पर के होते थे। गुलाबों में भी उदासियाँ होती थीं। मैं बारिश के बारे में लिखती तो क़ब्र के धुले संगमरमरी पत्थर दिखते। मैं क़ब्रिस्तान के बाहर भीतर होते होते ख़ुद क़ब्रिस्तान होने लगी थी। 

दुनिया बहुत तन्हा जगह है साहब। इस तन्हाई को समझना है तो मरे हुए लोगों को सुनना कभी। मरे हुए लोग कभी कभी ज़िंदा लोगों से ज़्यादा ज़िंदा होते हैं। हर लाश का बदन ठंढा नहीं होता। कभी कभी उनकी मुट्ठियाँ बंद भी होती हैं। आदमी तन्हाई की इतनी शिकायत दीवारों से करता है। इनमें से कुछ लोग भी क़ब्रिस्तान आ जाया करें तो कमसे कम लोगों को मर जाने का अफ़सोस नहीं होगा। मुझे भी पहले मुर्दों से बात करने का जी नहीं करता था। लेकिन फिर जैसे जैसे लोग मुझसे कटते गए मुझे महसूस होने लगा कि मुर्दों से बात करना मुनासिब होगा। यूँ भी सब कितनी बातें लिए ही दफ़्न हो जाते हैं। कितनी मुहब्बत। कितनी मुहब्बत है दुनिया में इस बात पर ऐतबार करना है तो किसी क़ब्रिस्तान में टहल कर देखना साहिब। मर जाने के सदियों बाद भी मुर्दे अपने प्रेम का नाम चीख़ते रहते हैं।

मैं भी बहुत सारा कुछ अपने अंदर जीते जीते थक गयी थी। सहेजते। मिटाते। दफ़नाते। भुलाते। झाड़ते पोछते। मेरे अंदर सिर्फ़ मरी हुयी चीज़ें रह गयी हैं। कि मेरा दिल भी एक क़ब्रिस्तान है हुज़ूर। मौत है कि नहीं आती। शायद मुझे उन सारे मुर्दों की उम्र लग गयी है जिनकी बातें मैं दिन दिन भर सुना करती हूँ। रात भर जिन्हें राहत की दुआएँ सुनाती हूँ। हम जैसा सोचते हैं ज़िंदगी वैसी नहीं होती है ना साहेब। मुझे लगा था मुर्दों से बातचीत होगी तो शायद मर जाने की तारीख़ पास आएगी। शायद वे मुझे अपनी दुनिया में बुलाना चाहेंगे जल्दी। लेकिन ऊपरवाले के पास मेरी अर्ज़ी पहुँचने कोई नहीं जाता। सब मुझे इसी दुनिया में रखना चाहते हैं। झूठे दिलासे देते हैं। मेरे अनगिनत ख़तों की स्याही बह बह कर क़ब्रों पर इकट्ठी होती रहती है। वे स्याही की गंध में डूब कर अलग अलग फूलों में खिलते हैं। क़ब्रिस्तान में खिलते फूलों से लोगों को कोफ़्त होने लगी है। मगर फूल तो जंगली हैं। अचानक से खिले हुए। बिना माँगे। मौत जैसे। इन दिनों जब ट्रैफ़िक सिग्नल पर गाड़ियाँ रुकी रहती हैं तो वे अपनी नाक बंद करना चाहते हैं लेकिन लिली की तीखी गंध उनका गिरेबान पकड़ कर पहुँच ही जाती है उनकी आँखें चूमने। 

आप इस शहर में नए आए हैं साहब? आपका स्वागत है। जल्दी ही आइएगा। कहाँ खुदवा दूँ आपकी क़ब्र? चिंता ना करें। मुझे बिना जवाबों के ख़त लिखने की आदत है। जी नहीं। घबराइए नहीं। मेरे कहने से थोड़े ना आप जल्द चले आइएगा। इंतज़ार की आदत है मुझे। उम्र भर कर सकती हूँ। आपका। आपके ख़त का। या कि अपनी मौत का भी। अगर खुदा ना ख़स्ता आपके ख़त के आने के पहले मौत आ गयी तो आपके नाम का ख़त मेज़ की दराज़ में लिखा मिलेगा। लाल मुहर से बंद किया हुआ। जी नहीं। नाम नहीं लिखा होगा आपका। कोई भी ख़त पढ़ लीजिएगा साहब। सारे ख़तों में एक ही तो बात लिखी हुयी है। खुदा। मेरे नाम की क़ब्र का इंतज़ाम जल्दी कर। 

04 May, 2016

चाँद मुहब्बत। इश्क़ गुनाह।


'तुम वापस कब आ रही हो?'
'जब दुखना बंद हो जाएगा तब।'
'तुम्हें यक़ीन है कि दुखना बंद हो जाएगा?'
'हाँ'
'कब?'
'जब प्रेम की जगह विरक्ति आ जाएगी तब।'
'इस सबका हासिल क्या है?'
'हासिल?'
'हाँ'
'जीवन का हासिल क्या होता है?'
'Why are you asking me, you are the one here with all the answers. What’s the whole fu*king point of all this.'
'Please don’t curse. I’m very sensitive these days.'
'ठीक है। तो बस इतना बता दो। इस सबका हासिल है क्या?'
'मुझसे कुछ मत पूछो। मैं प्रेम में हूँ। उसका नाम पूछो।'
'क्या नाम है उसका?'
'पूजा।'
'This is narcissism.'
'नहीं। ये रास्ता निर्वाण तक जाता है। मुझे मेरा बोधि वृक्ष मिल गया है।'
'अच्छा। कहाँ है वह?'
'नहीं। वो किसी जगह पर नहीं है। वो एक भाव में है।'
'प्रेम?'
'हाँ, प्रेम।'
'तो फिर? गौतम से सिद्धार्थ बनोगी अब? राजपाट में लौटोगी? निर्वाण से प्रेम तक?
'नहीं। ये कर्ट कोबेन वाला निर्वाण है।'
'मज़ाक़ मत करो। कहाँ हो तुम?''
'I am travelling from emptiness to nothingness.'
'समझ नहीं आया।'
'ख़ालीपन से निर्वात की ओर।
'ट्रान्स्लेट करने नहीं समझाने बोले थे हम।'
'मुझे दूर एक ब्लैक होल दिख रहा है। मैं उसमें गुम होने वाली हूँ।'
'वापस आओगी?'
'तुम इंतज़ार करोगे?'
'मेरे जवाब से फ़र्क़ पड़ता है?'
'शायद।'
'Tell me why I’m in love with you.'
'Because you hurt. All over.'
'Do you need a hug?'
'You are touch phobic. Write a letter to me instead.' 
'Will you please not come back. Die in the fu*king black hole. I can't see you hurting like this.'
'Are you sure?'
'You are sure you don't love me?'
'Yes.'
'मर जाओ'
---
उसकी हँसी। अचानक कंठ से फूटती। किसी देश के एयरपोर्ट पर अचानक से किसी दोस्त का मिल जाना जैसे। 

याद में सुनहले से काले होते रंग की आँखें हैं…बीच के कई सारे शेड्स के साथ। 
उसकी हँसी के साउंड्ट्रैक वाला एक मोंटाज है जिसमें क्रॉसफ़ेड होती हैं सारी की सारी। सुनहली। गहरी भूरी। कत्थई। कि जैसे वसंत के आने की धमक होती है। कि जैसे मौसमों के हिसाब से लगाए गए फूलों वाले शहर में सारे चेरी के पेड़ों पर एक साथ खिल जाएँ हल्के गुलाबी फूल। जैसे प्रेम हो और मन में किसी और भाव के लिए कोई जगह बाक़ी ना रहे। जैसे उसके होने से आसमान में खिलते जाएँ सफ़ेद बादलों के फूल। जैसे उसकी आँखों में उभर आए मेरे शहर का नक़्शा। जैसे उसकी उँगलियों को आदत हो मेरा नम्बर  डायल करने की कुछ इस तरह कि अचानक ही कॉल आ जाए उसका।  

उसी दुनिया में सब कुछ इतनी तेज़ी से घटता था जितनी तेज़ी से वो टाइप करती थी। सब कुछ ही उसकी स्पीड के हिसाब से चलता था। माय डार्लिंग, उसे तुम्हारे प्रेम रास नहीं आते। इसलिए उनका ड्यूरेशन इतनी तेज़ गति से लिखा जाता कि जैसे आसमान में टूटता हुआ तारा। शाम को टहलने जाते हुए दौड़ लगा ले पार्क के चारों ओर चार बार। टहलना भूल जाए कोई। उँगलियाँ भूल जाती थीं काग़ज़ क़लम से लिखना जब बात तुम्हारी प्रेमिकाओं की आती थी। 

जैसे तेज़ होती जाए साँस लेने की आवाज़। तेज़ तेज़ तेज़। 

कैसे हुआ है प्रेम तुमसे?

जैसे काफ़ी ना हो मेरे नाम का मेरा नाम होना। जैसे डर मिट गया हो। जैसे अचानक ही आ गया हो तैरना। जैसे मिल जाए बाज़ार में यूँ ही बेवजह भटकते हुए इंद्रधनुष  के रंगों वाला दुपट्टा कोई। कुछ भी ना हो तुम्हारा होना। 

बिना परिभाषाओं में बंधे प्रेम करने की बातें सुनी थीं पर ऐसा प्रेम कभी ज़िंदगी में बिना दस्तक के प्रवेश कर जाएगा ऐसा कब सोचा था। यूँ सोचो ना। क्या है। सिवा इसके कि तुम्हें मेरा नाम लेना पसंद है, कि जैसे झील में पत्थर फेंकना और फिर इंतज़ार करना कि लहरें तुम्हें छू जाएँगी…भिगा जाएँगी मन का वो कोरा कोना कि जिसे तुमने हर बारिश में छुपा कर रखा है। ठीक वहाँ फूटेगी ओरिएंटल लिली की पहली कोपल और ठीक वहीं खिलेगा गहरे गुलाबी रंग की ओरिएंटल लिली का पहला फूल। कि जैसे प्रेम का रंग होगा…और तुमसे बिछोह का। गहरा गुलाबी। चोट का रंग। गहरा गुलाबी। और हमारे प्रेम का भी। 

प्रेम कि जो अपनी अनुपस्थिति में अपने होने की बयानी लिखता है। तुम चलने लगो गीली मिट्टी में नंगे पाँव तो ज़मीन अपने गीत तुम्हारी साँस में रोप दे। तुम गहरा आलाप लो तो पूरे शहर में गहरे गुलाबी ओरिएंटल लिली की ख़ुशबू गुमस जाए जैसे भारी बारिश के बाद की ह्यूमिडिटी। तुम कोहरे में भी ना सुलगाना चाहो सिगरेट कोई। तुम्हारे होठों से नाम की गंध आए। तुम्हारी उँगलियों से भी। 

और सोचो जानां, कोई कहे तुमसे, कि बदल गयी है दुनिया ज़रा ज़रा सी, ऑन अकाउंट औफ आवर लव। कि अब तुम्हारा नाम P से शुरू होगा। तुम्हारा रोल नम्बर बदल गया है क्लास में। और अब तुम क्लास में एग्जाम टाइम में ठीक मेरे पीछे बैठोगे। तुम्हारे ग्रेड्स सुधर जाएँगे इस ज़रा सी फेर बदल से[चीटर कहीं के]। और जो आधे नम्बर से तुम उस पेरिस वाले प्रोग्राम के लिए क्वालिफ़ाई नहीं कर पाए थे। वो नहीं होगा। तुम जाओगे पेरिस। तुम्हारे साथ चले जाएगा उस शहर में मेरी आँखों का गुलमोहर भी। पेरिस के अर्किटेक्ट लोग कि जिन पर उसके इमॉर्टल लुक को क़ायम रखने की ज़िम्मेदारी है, वे परेशान हो जायेंगे कि पेरिस में इतने सारे गुलमोहर के पेड़ थे कहाँ। और अगर थे भी तो कभी खिले क्यूँ नहीं थे। तुम्हारा नाम P से होने पर बहुत सी और चीज़ें बदलेंगी कि जैसे तुम अचानक से नोटिस करोगे की मेरे दाएँ कंधे पर एक बर्थमार्क है जो मेरे नाम का नहीं, तुम्हारे नाम का है। 

वो सारे लव लेटर जो तुमने अपनी प्रेमिकाओं को लिखे हैं सिर्फ़ अपने नाम का पहला अक्षर इस्तेमाल करते हुए वे सारे बेमानी हो जाएँगे। मेरे कुछ किए बिना, तुम्हारे प्रेम पर मेरा एकाधिकार हो जाएगा। यूँ भी ब्रेक अप के बाद तुम्हें कौन तलाशने आता। टूटने की भी एक हद होती है। तुम्हारे प्रेम से गुज़रने के बाद, कॉन्सेंट्रेशन कैम्प के क़ैदी की तरह उनकी पहचान सिर्फ़ एक संख्या ही तो रह जाती है। सोलहवें नम्बर की प्रेमिका, अठारवें नम्बर का प्रेमी। परित्यक्ता। भारत के वृंदावन की उन विधवाओं की तरह जिनका कान्हा के सिवा कोई नहीं होता। किसी दूसरे शहर में भी नहीं। किसी दूसरी यमुना के किनारे भी नहीं। 

पागलों की दुनिया का खुदा एक ही है। चाँद। तो तुम्हारा नाम चाँद के सिवा कुछ कैसे हो सकता था। मेरे क़रीब आते हो तो पागल लहरें उठती हैं। साँस के भीतर कहीं। तुम्हें बताया किसी ने, तुम्हारा नया नाम? सोच रही हूँ तुम नाराज़ होगे क्या इस बात को जान कर। मेरी दुनिया में सब तुम्हें चाँद ही कहते हैं। कोई पागल नहीं रहता मेरी दुनिया में। एक मेरे सिवा। तुम मेरे खुदा हो। सिर्फ़ मेरे। मुझे प्रेम की परवाह नहीं है तो मुझे तुम्हारी नाराज़गी की परवाह क्यूंकर हो। बाग़ी हुए जा रही हूँ इश्क़ में। रगों में इंक़लाब दौड़ता है। कहता है कि चाँद को उसकी ही हुकूमत से निष्कासित कर कर ही थमेंगे। उसकी ख़्वाबगाह से भी। और मेरी क़ब्रगाह से तो शर्तिया। 

मैंने तुम्हें देखने के पहले तुम्हारा प्रतिबिम्ब देखा था…आसमान के दर्पण में। बादलों के तीखे किनारों को बिजली से चमकाया गया था। उनके किनारे रूपहले थे। 

मैं इस दुनिया से जा चुकी हूँ कि जहाँ सब कुछ नाम से ही जुड़ता था। इस रिश्ते का नाम नहीं था। मेरे लिए भी नाम ज़रूरी नहीं था। मेरे लिए मेरा नाम ही प्रेम है। उसकी आवाज़ ही हूँ मैं। और जानेमन, आवाज़ों का क्या रह जाता है।

वो तलाशे अगर तो कहना, ‘मैं उसकी प्रतिध्वनि थी’। 

01 May, 2016

Chasm

मुझे तुम्हारी कुछ याद नहीं है। रंग। गंध। स्पर्श। कुछ नहीं।
मुझे नहीं याद है कि तुम हँसते हुए कैसी लगती थी। एक्ज़ाम के लिए जाते हुए जब तुम्हारा पैर छूते थे तो उँगलियों की पोर में जो धूल लगती थी ज़रा सी वो याद है...कि उस वक़्त तुम अक्सर झाड़ू दे रही होती थी लेकिन तुम्हारी त्वचा का स्पर्श मुझे याद नहीं है। मुझे ये भी याद नहीं है कि तुम कैसे ख़ुश या उदास होती थी। तुम्हारी पसंद के गाने याद नहीं मुझे। सिवाए एक धुँधली सी स्मृति कि तुमको जौय मुखर्जी और बिस्वजीत पसंद था। एक गाना जो हम गाते थे और तुमको बहुत पसंद था, हम पिछले आठ सालों में नहीं सुने हैं। ना गाए हैं कभी।

मुझे नहीं याद है कि तुम्हारे हाथ के खाने का स्वाद कैसा था। हमको दीदिमा के हाथ का आलू और बंधागोभी का सब्ज़ी याद है लेकिन तुम्हारा कुछ याद नहीं है। जब लोग कहते हैं कि उनको घर का खाना पसंद है तो वो अक्सर अपनी माँ, चाची या ऐसी किसी की बात कर रहे होते हैं...कभी कभी बीवियों की भी। मुझे बाहर का खाना पसंद है। मुझे इंडियन कुजीन नहीं पसंद है। बाहर जाते हैं तो मेक्सिकन, इटलियन...जाने क्या क्या खा आते हैं। पसंद से। लेकिन इंडियन कुछ नहीं पसंद आया। मेरे लिए तो घर का खाना तुम्हारे साथ ही चला गया माँ। अपने हाथ के खाने में तुम्हारा स्वाद नहीं आता कभी। हमको तो मालूम भी नहीं है कि तुम कौन ब्राण्ड का मसाला यूज़ करती थी। यहाँ साउथ में मोस्ट्ली MTR मिलता है। यूँ तो बाक़ी सब भी मिलता है लेकिन सामने जो दिखता है वही ले आते हैं। हमको खाना बनाना अच्छा नहीं लगता। लेकिन जो भी मेरे हाथ का खाना खाया है वो सब बोला है कि हम बहुत अच्छा खाना बनाते हैं। हमको किसी को खाना खिलाने का शौक़ नहीं लगता है एकदम। कभी भी नहीं। हम किसी को बता नहीं सकते कि तुम कितना शौक़ से सबको खिलाया करती थी। मुझे याद नहीं है लेकिन एक फ़ोटो है जिसमें मेरे कॉलेज की दोस्त लोग आयी हुयी है और हम डाइनिंग टेबल पर खा रहे हैं। एक और दोस्त कहती है कि वो तुम्हारे जैसा ब्रेड पोहा बनाती है। हमको उसकी रेसिपी याद नहीं। उससे अपने माँ की ब्रेड पोहा की रेसिपी माँगना ख़राब लगेगा ना। देवघर में अभी भी तुम्हारी खाने की रेसिपी वाली ब्राउन डायरी है। लेकिन वो कौन से कोड में लिखी है कि तुम्हारे बिना खोल नहीं सकते उसको।

बैंगलोर में ठंढ नहीं पड़ती इसलिए स्वेटर की ज़रूरत नहीं पड़ी पिछले कई सालों से। पिछले साल डैलस जाना था तो तुम्हारे बने हुए स्वेटर वाला बक्सा खोला। बहुत देर तक सारे स्वेटर देखती रही। कुछ को तो छू छू कर देखा। सोचा कि कितना कितना अरसा लगा होगा इसमें से एक एक को बनाने में। मगर तुम मुझे स्वेटर बुनती हुयी याद में भी नहीं दिखी मम्मी।

तुम्हारे बिना जीने का कोई उपाय नहीं था इसके सिवा कि उन सारे सालों को विस्मृत कर दिया जाए। मेरी याद में ज़िंदगी के चौबीस साल नहीं हैं। मेरे बचपन की कोई कहानी नहीं है। मुझे याद नहीं मैंने आख़िरी बार तुम्हारी फ़ोटो कब देखी थी। कश्मीर के ऐल्बम रखे हुए हैं लेकिन पलटाती नहीं। जब तक दीदिमा थी तब तक फिर भी तुम्हारे होने की एक छहक थी उसमें। एक बार मिलने गए थे तो खाना खा रही थी...बोली एक कौर खिला देते हैं तुमको...मेरे साथ खा लो। हम पिछले आठ साल में शायद वो एक कौर ही खाए होंगे किसी और के हाथ से। दीदिमा तो तुमको भी खिला देती थी ना हमेशा। मामाजी को। हम बच्चा लोग को भी।

ये टूटन हमको कहाँ तक ले जाएगी मालूम नहीं। ख़ुद को कितना भी बाँध के रखते हैं कभी ना कभी कोई ना कोई फ़ॉल्ट लाइन दिख ही जाती है। कोई ना कोई भूचाल करवट बदलने लगता है। पिछले दो साल से मर जाने का मन नहीं किया था। लगा कि शायद हम उबर गए हैं। शायद वाक़ई हमको अब जीना आ ही जाएगा तुम्हारे बिना। लेकिन रिलैप्स होता है। परसों छत पर सनसेट देखने गए थे। ग़लती मेरी ही थी। अंतिम एप्रिल के महीने में हमको मालूम होना चाहिए था कि हम अभी कमज़ोर हैं। लेकिन हादसे बहुत दिन से नहीं होते हैं तो हम भूल जाते हैं कि उनके वापस लौट आने में लम्हा लगता है बस। छः माला की छत थी। सूरज डूब चुका था। मेरा दिल भी। हम जानते हैं कि दुनिया में किसी चीज़ से अटैचमेंट नहीं है मेरा। हमको सावधान रहना चाहिए। किसी को फ़ोन करने का मन नहीं किया। इक गर्म शाम सूरज के छोड़े गए लाल रंगों में बस डूब जाने का मन था। मालूम नहीं क्या बात करनी थी। कुछ दोस्तों को फ़ोन किया मजबूरी में। मुझे कोई आवाज़ चाहिए थी उस वक़्त। कुछ मज़ाक़। किसी की हँसी। किसी की भी। लगभग दो या तीन साल हो गए होंगे कि जब मर जाने को ऐसा बेसाख़्ता दिल चाहे। शायद मैं कभी नहीं जान पाऊँगी कि जीने की इच्छा से पूरा पूरा भरा भरा होना क्या होता है।

हमको मालूम नहीं है हम तुमको कहाँ कहाँ ढूँढते फिरते हैं। इस चीज़ से हमको डर लगता है बस। एक दिन किसी को कहने का मन किया कि अगली बार अगर हम साथ में खाना खाएँगे तो हमको एक कौर अपने हाथ से खिला देना। हमको ज़ब्त आता है तो उसको कहे नहीं ये बात लेकिन मम्मी, तुम ही सोचो। ऐसा चाहना ग़लत है ना। बता देते तो क्या सोचता वो भी। ऐसे कमज़ोर लम्हे हमको बहुत डराते हैं।

टूटा हुआ बहुत कुछ है। हम अपने आप को कहते चलते हैं कि हम बहुत मज़बूत हैं। बार बार बार बार। कि बार बार ख़ुद को कहते हुए इस बात पर यक़ीन आने भी लगता है कि शायद हम जी ही जाएँगे अपने हिस्से की उम्र। शायद कोई सुख होगा ज़िंदगी में कि जिसके लिए इतनी क़वायद है।

I'm incapable of love. Or of being loved. 

I miss you ma. You were the last love of my life. The unrequited one. The unconfessed one. The one who never knew. How much I loved you. 

I don't know what to do. I don't know how to live. I still don't know how to move on. I'm afraid beyond words. Beyond understanding. Beyond hurt and pain. 

Nothing heals. But that's because you were not a wound. Your departure too is not. It's a soul ache. I miss the part of my soul that died with you. 

I hope to see you soon. 

Happy Birthday my love. My ma. My only one. 
I shall always love you. always. 

27 April, 2016

द राइटर्स डायरी: आपने किसी को आखिरी बार खुश कब देखा था?


आपने आखिरी बार किसी के चेहरे पर हज़ार वाट की मुस्कान कब देखी थी? थकी हारी, दबी कुचली नहीं. असली वाली मुस्कान. कि जिसे देख कर ही जिन्दगी जीने को जी करे. जिसे दैख कर उर्जा महसूस हो. किसी अजनबी को यूं ही मुस्कुराते या गुनगुनाते कब देखा था? राह चलते लोगों के चेहरों पर एक अजीब सा विरक्त भाव क्यूँ रहता है...किसी की आँखों में आँखें डाल कर क्यूँ नहीं देखते लोग? ये कौन सा डर है? ये कौन सा दुःख है कि साए की तरह पीछे लगा हुआ है. 

खुल कर मुस्कुराना...गुनगुनाते हुए चलना कि कदम थिरक रहे हों...जरा सा झूमते हुए से...ओब्सीन लगता है...गलीज...कि जैसे हम कोई गुनाह कर रहे हों. कि जैसे दुनिया कोई मातम मना रही हो सफ़ेद लिबास में और हम होलिया रहे हैं. बैंगलोर में ही ऐसा होता है कि पटना में भी होने लगा है हमको मालूम नहीं. सब कहाँ भागते रहते हैं. दौड़ते रहते हैं. हम जब सुबह का नाश्ता साथ कर रहे होते हैं मुझे देर हो जाती है रोज़...मैं धीरे खाती हूँ और खाने के बीच बीच में भी बात करती जाती हूँ. मेरे दोस्त जानते हैं. मैं उसकी हड़बड़ी देखती हूँ. उसे ऑफिस को देर हो रही होती है. ये पांच मिनट बचा कर हम क्या करेंगे. जो लोग सिग्नल तोड़ते हैं या फिर खतरनाक तेज़ी से बाइक चलाते हैं उन्हें कहाँ जाना होता है इतनी हड़बड़ी में. 

आजकल तो फिर भी मुस्कान थोड़ी मद्धम पड़ गयी है वरना एक वक़्त था कि मेरी आँखें हमेशा चमकती रहती थीं. मुझे ख़ुशी के लिए किसी कारण की दरकार नहीं होती थी. ख़ुशी मेरे अन्दर से फूटती थी. बिला वजह. सुबह की धूप अच्छी है. होस्टल में पसंद का कोई खाना बन गया. खिड़की से बाहर देखते हुए कोई बच्चा दिख गया तो उसे मुंह चिढ़ाती रही. ऑफिस में भी हाई एनर्जी बैटरी की तरह नाचती रहती दिन भर. कॉलेज में तो ये हाल था कि किसी प्रोजेक्ट के लिए काम कर रहे हैं तो तीन दिन लगातार काम कर लिए. बिना आधा घंटा भी सोये हुए. लोग तरसते थे कि मैं एक बार कहूँ, मैं थक गयी हूँ. अजस्र ऊर्जा थी मेरे अन्दर. जिंदगी की. मुहब्बत की. मुझे इस जिंदगी से बेइंतेहा मुहब्बत थी. 

हम सब लोग उदास हो गए हैं. हम हमेशा थके हुए रहते हैं. चिड़चिड़े. हँसते हुए लोग कहाँ हैं? मुस्कुराना लोगों को उलझन में डालता है कि मैं कोई तो खुराफात प्लान कर रही हूँ मन ही मन. ये गलत भी नहीं होता है हमेशा. कि खुराफात तो मेरे दिमाग में हमेशा ही चलती रहती है. अचानक से सब डरे हुए लोग हो गए हैं. हम डरते हैं कि कोई हमारी ख़ुशी पर डाका डाल देगा. कि हमारी ख़ुशी को किसी की नज़र लग जायेगी. ख़ुशी कि जो रोज धांगी जाने वाली जींस हुआ करती थी...सालों भर पहनी जाने वाली, अब तमीज, तबियत और माहौल के हिसाब से पहनी जाने वाली सिल्क की साड़ी हो गयी है कि जो माहौल खोजती है. आप कहीं भी खड़े खड़े मुस्कुरा नहीं सकते. लोग आपको घूरेंगे. मेरा कभी कभी मन करता है कि राह चलते किसी को रोक के पूछूं, 'तुमने किसी को आखिरी बार हँसते कब देखा था?'.

रही सही कसर मोबाइल ने पूरी कर दी है. अजीब लगेगा सुनने में मगर कई बार मेरे घर में ऐसा हुआ है कि चार लोग बैठे हैं हॉल में और सब अपने अपने फोन पर व्हाट्सएप्प पर एक दूसरे से ही किसी ग्रुप के भीतर बात कर रहे हैं. मुझे अक्सर क्लास मॉनिटर की तरह चिल्लाना पड़ता है कि फ़ोन नीचे रखो और एक दूसरे से बात करो. कभी कभी सोचती हूँ वायफाय बंद कर दिया करूँ. मैं पिछले साल अपने एक एक्स-कलीग से मिलने गयी थी स्टारबक्स. राहिल. मैंने उससे ज्यादा बिजी इंसान जिंदगी में नहीं देखा है. क्लाइंट्स हमेशा उसके खून के प्यासे ही रहते हैं. उन्हें हमेशा उससे कौन सी बात करनी होती है मालूम नहीं. वे भूल जाते हैं कि वो इंसान है. कि उसका पर्सनल टाइम भी है. इन फैक्ट हमने अपने क्लाइंट्स को बहुत सर चढ़ा भी रखा है. राहिल जब मिलने आया तो उसने अपने दोनों फोन साइलेंट पर किये और दोनों को फेस डाउन करके टेबल पर रख दिया. कि मेसेज आये या कॉल आये तो डिस्टर्ब न हो. कोई आपको अपना वक़्त इस तरह से देता है माने आपने इज्जत कमाई है. उसके ऐसा करने से मेरे मन में उसके प्रति सम्मान बहुत बढ़ गया. रेस्पेक्ट जिसको कहते हैं. म्यूच्यूअल रेस्पेक्ट. वो उम्र में कमसे कम पांच साल छोटा है मुझसे जबकि. मैं किसी से मिलती हूँ तो मोबाइल साइलेंट पर रखती हूँ. अधिकतर फोन कॉल्स उठाती नहीं हूँ. मुझे फोन से कोफ़्त होती है इन दिनों. मैं वाकई किसी बिना नेटवर्क वाली जगह पर छुट्टियाँ मनाने जाना चाहती हूँ. 

और चाहने की जहाँ तक बात आती है. मैं कुछ ज्यादा नहीं. बस चिट्ठियां लिखना चाहती हूँ. ये जानते हुए भी कि ऐसा सोचना खुद को दुःख के लिए तैयार करना है. मैं जवाब चाहती हूँ. मैं नहीं चाहती कि कोई मुझे चिट्ठियां लिखे. मगर इतना जरूर कि मेरी लिखी चिट्ठियों का जवाब आये. 

आज ऐसा इत्तिफाक हुआ कि फोन पर बात करते हुए कुछ कमबख्त दोस्त लोग सिगरेट पीते रहे. हम इधर कुढ़ते भुनते रहे कि इन दिनों एकदम सिगरेट को हाथ नहीं लगायेंगे. मैं सिगरेट बिलकुल नहीं पीती. बेहद शौकिया. कभी छः महीने में एक बार एक सिगरेट पी ली तो पी ली. हाँ इजाजत की माया की तरह मुझे भी अपने बैग में सिगरेट का पैकेट रखने का शौक़ है. मेरे पास अक्सर सिगरेट रहती है. लाइटर भी. RHTDM का वो सीन याद आ रहा है जिसमें लाइट कटती है और मैडी कहता है, 'अच्छा है...मेरे पास माचिस है'. दिया मिर्जा कहती है, 'तुम सिगरेट पीते हो?'. मैडी कहता है, 'अरे मेरे पास माचिस है तो मैं सिगरेट पीता हूँ, मेरे पास कैंची है तो मैं नाई हो गया...व्हाट सॉर्ट ऑफ़ अ लॉजिक इस दैट'. मेरे बैग से लाइटर निकलता है तो मैं भी यही कहती हूँ. हालाँकि बात ये है कि लाइटर कैंडिल जलाने के लिए रखे जाते हैं.

ख़ुशी गुम होती जा रही है. आप कुछ कीजिये अपनी ख़ुशी के लिए. अपने बॉस, अपने जीवनसाथी, अपने माता-पिता, अपने दोस्तों, अपने बच्चों की ख़ुशी के अलावा...कुछ ऐसा कीजिये जिसमें आपको ख़ुशी मिलती हो. इस बारे में सोचिये कि आपको क्या करने से ख़ुशी मिलती है. दौड़ने, बागवानी करने, अपनी पसंद का खाना बनाने में, दारू पीने में, सुट्टा मारने में, डांस करने में, गाने में...किस चीज़ में? उस चीज़ के लिए वक़्त निकालिए. जिंदगी बहुत छोटी है. अचानक से ख़त्म हो जाती है. 

दूसरी बात. आपको किनसे प्यार है. दोस्त हैं. महबूब हैं. परिवार के लोग हैं. पुराने ऑफिस के लोग. उनसे मिलने का वक़्त निकालिए. यकीन कीजिये अच्छा लगेगा. आपको भी. उनको भी. जिंदगी किसी मंजिल पर पहुँचने का नाम नहीं है. ये हर लम्हा बीत रही है. इसे हर लम्हे जीना चाहिए. जिंदगी से फालतू लोग निकाल फेंकिये. जिनके पास आपके लिए फुर्सत नहीं है उनके लिए आपके पास वक़्त क्यूँ हो. उन लोगों के साथ वक़्त बिताइए जिन्हें आपकी कद्र हो. जिन्हें आप अच्छे लगते हों. और सुनने में ये भी अजीब लगेगा, लेकिन लोगों को हग किया कीजीये, जी हाँ, वही जादू की झप्पी. सच में काम करती है. मेरी बात मान कर ट्राय करके देखिये. शुरू में थोड़ा अजीब, चेप टाइप भले लगे, लेकिन बाद में अच्छा लगने लगेगा. सुख जैसा. सुकून जैसा. बचपन के भोलेपन जैसा. 

और सबसे जरूरी. खुद से प्यार करना. कोई भी परफेक्ट नहीं होता है. आपसे गलितियाँ होंगी. पहले भी हुयी होंगी. पिछली गलतियों को माफ़ नहीं करेंगे तो आगे गलितियाँ करने में कितना डर लगेगा. इसलिए खुद को हर कुछ दिन में क्लीन स्लेट देते रहिये. हम एक नए दौर में जी रहे हैं जिसमें कुछ भी ज्यादा दिनों नहीं चलता. उदासियाँ ओढ़ने का क्या फायदा. मूव ऑन.

यही सब बातें मैं खुद को भी कहती हूँ. इस दुनिया को जरा सी और खुशी की जरूरत है. जरा मुस्कुराईये. मुहब्बत से. 

26 April, 2016

मेरे ह्रदय में प्रेम है. मेरी आत्मा में संगीत.

प्रेम हर बार सम् से शुरू होता है. मैं विलंबित ख्याल में आलाप लेती हूँ. मेरी आवाज़ तुम्हें तलाशती है. ठीक सम् पर मिलती हैं आँखें तुमसे...ठहर कर फिर से शुरू होता है गीत का बोल कोई...सांवरे...

प्रेम को हर बार चाहिए होती है नयी भाषा. नए प्रतीक. नए शहर. नए बिम्ब. प्रेम आपको पूरी तरह से नया कर देता है. हम सीखते हैं फिर से ककहरा कि जो उसके नाम से शुरू होता है. वक़्त की गिनती इंतज़ार के लम्हों में होती है.

प्रेम आपको आप तक ले कर आता है. मैंने बचपन में हिन्दुस्तानी शाश्त्रीय संगीत छः साल तक सीखा है. संगीत विशारद की डिग्री भी है. गुरु भी अद्भुत मिले थे. मैंने अपनी जिंदगी में किसी को उस तरह गाते हुए नहीं सुना है. फिर जिंदगी की कवायद में कहीं खो गया संगीत.

मैंने हारमोनियम ग्यारह साल बाद छुआ है. मगर ठीक ठीक संगीत छूट गया था देवघर छूटने के साथ ही १९९९ में. बात को सत्रह साल हो गए. देवघर में हमारा अपना घर था. पटना में किराए का अपार्टमेंट था. गाने में शर्म भी आती थी कि लोग परेशान होंगे. शाश्त्रीय संगीत को शोर ही समझा जाता रहा है. फिर घर छूटा. दिल्ली. बैंगलोर. 

संगीत तक लौटी हूँ. पहली शाम हमोनियम पर आलाप शुरू किया तो पाया कि सारे स्वर इस कदर भटके हुए हैं कि एकबारगी लगा कि हारमोनियम ठीक से ट्यून नहीं है. मगर फिर समझ आया कि मुझे वाकई रियाज किये बहुत बहुत साल हो गए हैं. आखिरी बार जब रियाज किया था तो एक्जाम था. उन दिनों सारे राग अच्छे से गाया करती थी. छोटा ख्याल, विलंबित ख्याल. तान. आलाप. पकड़. छः साल लगातार संगीत सीखते हुए ये भी महसूसा था कि आवाज़ वाकई नाभि से आती महसूस होती है. पूरा बदन एक साउंडबॉक्स हो जाता है. संगीत अन्दर से फूटता है. उन दिनों लेकिन मन से तार नहीं जुड़ता था. टेक्निक थी लेकिन आत्मा नहीं. वरना शायद संगीत को कभी नहीं छोड़ती.

इन दिनों बहुत मन अशांत था. मैं ध्यान के लिये योग नहीं कर सकती. मन को शांत करने के लिए सिर्फ संगीत का रास्ता था. सरगम का आलाप लेते हुए वैसी ही गहरी साँस आती है. मन के समंदर का ज्वारभाटा शांत होने लगता है. हारमोनियम ला कर पहला सुर लगाया, 'सा' तो आवाज़ कंठ में ही अटक रही थी. गला सूख रहा था. ठहर भी नहीं पा रही थी. सुरों को साधने में बहुत वक़्त लगेगा. हफ्ते भर के रियाज में इतना हुआ है कि सुर वापस ह्रदय से निकलते हैं. मन से. सारे स्वर सही लगने लगे हैं. अभी सिर्फ शुद्ध स्वरों पर हूँ. कोमल स्वरों की बारी इनके बाद आएगी.

प्रेम. संगीत के सात शुद्ध स्वर. 

मेरे अंतस से निकलते. मैं होती जा रही हूँ संगीत. इसी सिलसिले में सुबह से पुरानी ठुमरियों को सुन रही थी. ये सब बहुत पहले सुना था. उन दिनों समझ नहीं थी. उन दिनों क्लासिकल सुनना अच्छा नहीं लगता था. न हिन्दुस्तानी न वेस्टर्न. शायद वाकई क्लासिक समझने के लिए सही उम्र तक आना पड़ता है. जैज़ भी पिछले एक साल से पसंद आ रहा है. संगीत के साथ अच्छी बात ये है कि आप उससे प्रेम करते हैं. उसे समझने की कोशिश नहीं करते. मुझे सुनते हुए राग फिलहाल पकड़ नहीं आयेंगे. शायद किसी दिन. मगर मेरा वो करने का मन नहीं है. मैं अपने सुख भर का गा लूं. अपने को सहेजने जितना सुन लूं...बस उतना काफी है.

इस वीडियो में तस्वीर देखी. आँख भर प्रेम देखा. उजास भरी आँखें. श्वेत बाल. बड़ी सी काली बिंदी. वीडियो प्ले हुआ और मुझे मेरा सम् मिल गया. मैं सुबह से एक इसी को सुन रही हूँ. मेरे ह्रदय में प्रेम है. मेरी आत्मा में संगीत.
'जमुना किनारे मोरा गाँव
साँवरे अइ जइयो साँवरे'

18 February, 2016

डैलस डायरी: God is a postman.

परसों डैलस आई हूँ. ये डैलस में मेरा तीसरा ट्रिप है. डैलस न्यूयॉर्क की तरह नहीं है कि जिसमें रोज़ रोज़ कुछ नया होता रहे ऐसा कहते हैं लोग. कुछ को आश्चर्य भी होता है कि मैं बोर कैसे नहीं होती. मैं करती क्या हूँ दिन दिन भर. ये रोजनामचा उनके लिए लिख रही हूँ, और खुद के लिए भी. इसमें बहुत कुछ सच होगा और उससे ज्यादा झूठ. ये दिनों का सिलसिलेवार ब्यौरा नहीं है ये मेरे मन में खुलती एक खिड़की है...कि मैं अपने जिस घर में तकरीबन पिछले आठ सालों से रह रही हूँ उसको जाता हुआ एक स्ट्रीट लैम्प है...मैं कई बार उसके नीचे खड़ी होकर उस स्ट्रीट लैम्प को ऐसे देखती हूँ जैसे पहली बार देख रही हूँ. एक ही रास्ते पर कई बार गुज़रते हुए भी रास्ता वही नहीं होता. हम वो देखते हैं जैसी हमारी मनः स्थिति रहती है. कि मुझे चीज़ों को देख नहीं सकती...मैं अक्सर उनसे गुज़रती रहती हूँ. 

बैंगलोर से डैलास लगभग चौबीस घंटे का सफ़र हो जाता है. जेट लैग के कारण पहला दिन तो पूरा ही सोते हुए बीतता है. हम डैलस के टाइम के हिसाब से कोई २ बजे दोपहर को होटल में आये. खाना मंगवाया. वेज फ्राइड राइस में अंडा डाल दिए थे लोग. हर जगह वेज का अलग अलग डेफिनेशन होता है. थक गए थे. खाना नहीं खाए. सो गए. दोपहर के 3 बजे के सोये हुए पूरी शाम सोते रहे और अगली भोर 4 बजे भूख से नींद खुली. दो वक़्त का खाना मिस हो गया था. कुछ बिस्किट वगैरह खा के घर वालों के पास रोना रो रहे थे कि इस होटल के पास खाने वाने को कुछ नहीं है. भूख से मर रहे हैं वगैरह. उसपर पानी भी खरीद के नहीं लाये थे और कल यहाँ इन लोगों ने हॉट वाटर सिस्टम की सफाई वगैरह की थी...तो नल से काला पानी आ रहा था. तो प्यासे भी मर रहे थे.  
फिर कमरे की खिड़की से पर्दा हटा के झांके तो देखते है कि भगवान् ने पूरा पूरा पेंट का डिब्बा ही उलट दिया है आसमान पर. बाहर मौसम में ठंढक होगी लेकिन हम दीवानों की तरह बाहर भागे. मोबाइल फोन और कमरे की चाभी के साथ. उफ़. क्या ही सुबह ही. गहरे गुलाबी और फिरोजी रंग की. ठंढ थोड़ी से ज्यादा. मैं बाँहें फैलाए नाच रही थी गोल गोल गोल. कितना सुन्दर...ओह कितना सुन्दर...पूरा पूरा आसमान... ठंढी हवा अच्छी लग रही थी. ताजगी भरी. ओसभीगी. 

साढ़े छः बजे नाश्ता और पानी दोनों मिला. खाने का असल स्वाद भूख से आता है. थोड़े से फल. पैनकेक. एक स्लाइस ब्रेड और दो कप अच्छी कॉफ़ी. बगल वाली टेबल पर हिन्दुस्तानी लड़के हिंदी में बतिया रहे थे. 'गर्म कपड़े पहन लेना आज, मेरी कल लंका लग गयी थी'. मैं बैंगलोर में हिंदी के लिए तरसती रहती हूँ और हिंदी मुझे मिलती है यहाँ डैलस में आ के. मन किया उनसे बात करने का. मगर फिर लगा पता नहीं क्या सोचेंगे. तो रहने दिया. 

कुछ दोस्तों को फोन किया. पर मन किसी में लग नहीं रहा था. गुलाबी सुबह का जादू मन पर चढ़ रहा था. नोटबुक में कुछ कहानियां लिखी हुयी थीं. खुले आसमान के नीचे रेत पर बाल खोये सोयी हुयी एक लड़की. किसी के साथ सिर्फ तारे देखना चाहती थी. पूरी रात. बिना एक शब्द कुछ भी कहे हुए. उससे पूछा. ऐसी भी होती है क्या मुहब्बत? रूह का होना महसूस कैसे होता है. कभी हुआ है कि तुम्हारी आँखों का देखा हुआ कुछ किसी के शब्दों को छू जाए. क्लॉउडे मोने और कर्ट कोबेन और कभी कभी संगीत का कोई टुकड़ा ऐसा ही होता है. रूह की भाषा में बोलता हुआ. कुछ तो है बाबू. कौन कहता है? सिगरेट. धुआं भरता जाता है मेरे कमरे में कहीं. धूप जैसा. मैं सुनना चाहती हूँ. कहना चाहती हूँ. मैं होना चाहती हूँ एक मुकम्मल लम्हा. 

दोपहर को वालमार्ट जा के बहुत सा खाने और पीने का सामान लायी हूँ. कटे हुए आम की फांकें. खरबूजा. चेरी. स्ट्रॉबेरी. ब्लूबेरी. पीच(आडू). कुछ रेडी टू ईट जैसा भी कुछ. सलाद. चिप्स. बहुत सा कुछ. इस होटल में शटल सर्विस सिर्फ ग्यारह बजे तक है लेकिन जो मुझे ड्राप करने गया था, उसने कहा वो मुझे पिक भी कर लेगा. मैंने जब कॉल किया तो होटल में जिसने फोन उठाया वो बोली कि अभी पिक नहीं कर सकते, लेकिन पीछे से उसकी आवाज़ थी...उसे हाँ बोल दो...मुझे पिक करने जो लड़की आई उसका नाम शायला था. मैं उससे बातें करती आई पूरे रास्ते. मुझे अच्छा लगता है ऐसे गप्पें मारना. कमरे में आई तो धूप इतरा रही थी. कमरे पर कब्जा जमा के. मैंने अपने लिए माइक्रोवेव में पास्ता गर्म किया. मैं धूप के साथ कुछ भी खा सकती हूँ. फीका, बेस्वाद ब्रोकली वाला पास्ता भी.

डैलस में जहाँ रहती हूँ उसे रिचर्डसन कहते हैं. अमेरिका में डाउनटाउन का कांसेप्ट है. जैसे कि शहर है डैलस. उसके इर्द गिर्द बहुत सारे छोटे छोटे रिहाइशी इलाके बने हुए हैं जहाँ पर लोग रहते हैं जैसे रिचार्डसन, प्लानो. ऑफिस या बिजनेस के लिए लोग डाउनटाउन जाते हैं और फिर लौट के घर कि जो शहर के बाहर बसा होता है. मैं पिछले दो बार से जब भी आई थी हयात रीजेंसी में ठहरी थी जो कि एक होटल है. इस बार मैं एक स्टूडियो सेट-अप में ठहरी हूँ. यहाँ पर एक कमरा. एक छोटा सा लिविंग एरिया जिसमें टीवी, स्टडी टेबल और एक सोफा है. इसके अलावा एक छोटा सा किचेन है. 

होटल से पोस्ट ऑफिस सर्च किया तो देखा कि सबसे पास का पोस्ट ऑफिस लगभग ढाई किलोमीटर दूर था. यहाँ पर दूरी माइल में नापी जाती है. तो लगभग १.५ माइल. आना जाना मिला कर लगभग ५ किलोमीटर. रिसेप्शन पर बंदी थोड़ा चकित हुयी कि मैं इतनी दूर पैदल आना जाना चाहती हूँ. ये एरिया मेरे होटल से पीछे की तरफ से रास्ते में था. रिचार्डसन में भी इस इलाके में मैं कभी नहीं गयी थी. इस बार ख़ास मुश्किल ये थी कि आईफोन नहीं है तो विंडोज फोन का इस्तेमाल कर रही हूँ और मुझे गूगल मैप्स की आदत है. इस फोन में मैप्स हर बार स्क्रीन लॉक होते ही बंद हो जाता था और मुझे फिर से सर्च करना पड़ता था. 

यहाँ से रास्ता ढलवां था. मेरा अब तक डैलस का अनुमान था कि ये एकदम फ़्लैट सतह पर बना हुआ है और यहाँ बिलकुल ही चढ़ाई या उतार नहीं हैं. मगर यहाँ सामने पहाड़ी इलाका जैसा महसूस हो रहा था. दूर दूर तक पसरी हुयी ढलवां वादी...छोटे छोटे पहाड़ीनुमा टीले. सड़क पर तरतीब से कतार में बने हुए छोटे छोटे घर. घरों के सामने पुराने पेड़. कमोबेश हर पेड़ पर झूले. झूलों की संख्या से अंदाज़ा लग जाता था कि घर में कितने बच्चे हैं और किस ऊंचाई के हैं. हर घर के सामने बैठने का छोटा सा हिस्सा कि जिसमें कुर्सियां लगी हुयीं. अधिकतर घरों के आगे ज़मीन में खूबसूरत पौधे लगे थे. 

घरों के ख़त्म होने के बाद दोनों ओर पेड़ों का जंगल शुरू हो गया. पतझर के दिन हैं. कहीं एक भी हरा पत्ता भी नहीं दिख रहा था. सूखे पेड़ों के पीछे गहरा नीला आसमान दिखता था. एक पुल आया. पुल के नीचे एक छोटी सी पहाड़ी नदी बह रही थी. बिलकुल पतली सी धारा थी शांत पानी की मगर उसमें परिवर्तित होते पेड़ और गहरा नीला आसमान. सब इतना खूबसूरत था क्योंकि अप्रत्याशित था. मैंने सोचा भी नहीं था कि रास्ता ऐसा खूबसूरत पहाड़ी रास्ता होगा कि जिसमें शांत पेड़, चुप पानी और सांस की तरह साथ चलती हवा के झोंके होंगे. रेडियो पर जॉर्ज माइकल का केयरलेस व्हिस्पर बज रहा था. कुछ जैज़ भी बजता रहा था जो मैंने कभी सुना नहीं था. रेडियो जॉकी की खुशनुमा आवाज़ थी. धूप जैसी. मैं उस पुल पर खड़ी सोच रही थी कि जिंदगी कितनी खूबसूरत है. कि अनजाने रास्तों पर चलने में कितना सुकून है. 
पोस्ट ऑफिस पहुंची तो देखा कि वो सरकारी अमेरिकन पोस्ट ऑफिस नहीं है. उस इलाके की चिट्ठियां पहुँचाने के लिए एक प्राइवेट पोस्ट वाली सर्विस है. मगर वहां पर कुछ बेहतरीन कार्ड्स थे. चीनी मिट्टी की खूबसूरत कलाकृतियाँ थीं. कोई लोकल आर्टिस्ट थी जिसने बनाया था सब. फूलों वाले प्लेट. गोथिक स्टाइल की ऐशट्रे और ऐसी ही कुछ चीज़ें. वहाँ बहुत देर तक चीज़ों को देखती रही और सोचती रही कि मेरे दोस्तों में किसे कौन सी चीज़ पसंद आएगी. अगर मैं वाकई खरीद के ले जा सकती तो इनमें से कौन सी चीज़ें खरीदती. दोस्तों को हम वाकई अपने दिल में बसाए चलते हैं. चीज़ें इतनी दूर से लाने में टूट जातीं वरना कुछ तो इतनी खूबसूरत थीं कि छोड़ने का मन न करे. वहां हैण्डमेड साबुन थे. कमाल की खुशबू वाले. मैंने ऐसे साबुन कभी देखे ही नहीं थे. एक कार्ड ख़रीदा और एक साबुन कि जिससे लेमनग्रास जैसी कोई गंध आती थी. 

दुनिया जितनी बाहर है उतनी ही अन्दर भी है. एक अल्टरनेट दुनिया. वापसी में मैं उन चीज़ों के बारे में सोचती रही. गहरे हरे-नीले-भूरे रंग की ऐश ट्रे. सिगरेट की तलब उट्ठी बहुत जोर की और याद का एक खुशबूदार हवा का झोंका साथ साथ चलने लगा. बालों को उलझाते हुए. मैं उसकी उँगलियाँ तलाशने लगीं कि बालों को सुलझा दे, हौले से. इक नन्ही सी पीली गोली जुबान पर रक्खी. उससे जादू का इक स्वाद घुलने लगा और मैं इस दुनिया में होती हुयी भी ख्वाबों में जीने लगी. यहाँ सेटिंग तो सारी डैलस की थी मगर लोग मेरी पसंद के थे. उसने सिगरेट के तीन कश लेकर मेरी ओर बढ़ाई तो आँख भर आई. फिर देखा कि कोई धुंआ नहीं है. शायद आँखों में धूल पड़ गयी थी. सोचा कि उसे बताऊँ कि ये शहर चिट्ठियां लिखने के लिए बहुत मुफीद है. इन खूबसूरत पेड़ों के नीचे बैठ कर पानी की गंध छूते हुए ख़त लिखेंगे तो उनसे तिलिस्म का दरवाजा खुल जाएगा. 

सूखे हुए पेड़ों की टहनियां कुछ यूं फैली हुयी थीं कि जैसे किसी ने बाँहें फैलाई हों. टहनियों पर धूप पड़ रही थी और उनके सिरे एकदम सुनहले लग रहे थे. आसमान में चाँद का आधा टुकड़ा भी था. साथ साथ चलता. एक जगह बैगनी फूल खिले हुए दिखे. उन्हें देख कर याद का कोई रंग टहका सीने में कहीं. मैं पूरे रास्ते तसवीरें खींचती आई थी. कमरे पर आई तो भूख लग गयी. चेरी धो कर बाउल में रखी. खिड़की से धूप अन्दर आ रही थी. मैं धूप में अपने लिए एक छोटा सा कुशन रख कर दीवार से टिक कर बैठी थी. किताब, कागज़ और अपनी कलमों के साथ. डूबते सूरज और चेरी का मीठा कत्थई स्वाद जुबां पर. 

आसमान में फिर से गहरे गुलाबी और फिरोजी रंग के बादल थे. मैंने इतनी खूबसूरत शाम बहुत दिनों बाद देखी थी. यहाँ सब खुला खुला भी था. मैं गोल गोल घूम कर शाम के रंग देखती जाती. ऐसा महसूस होता कि खुदा एक कासिद है. मेरे सारे ख़त पहुँच जाते हैं तुम तक. और कि ये दुनिया जिसने इतनी सुन्दर बनायी. उसने तुम्हारा मन बनाया होगा. मन. खुद को देखती हूँ इन रंगों में डूबी हुयी. इतनी खूबसूरती में भीगती. सुकून से भरा भरा महसूसती हूँ को. मुहब्बत से भरा भरा भी. 

13 February, 2016

मेरा ये भरम रहने दो | कि तुम हो | मेरे जीने के लिए ये जरूरी है.


मुझे नहीं चाहिए 
तुम्हारा कांधा. तुम्हारा सीना. 
तुम्हारा रुमाल. या कि तुम्हारे शब्द ही. 

हो सके हो मेरे लिए हो जाना 
बहुत ऊंचे पहाड़ों में धीमे उगते किसी पेड़ की 
गहरी खोह

मैं शायद 
तुम तक कभी पहुँच नहीं पाऊँगी 
मगर मुझे चाहिए होगा 
तुम्हारे होने का यकीन 

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तुम मेरे मन में बहती चुप नदी हो 

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मुझे लगता नहीं था कि कभी 'हम' हो सकते हैं. 

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मन की दीवारें होती हैं 
जिनसे रिसता रहता है अवसाद 
धीरे धीरे सीख लेगी मेरी रूह
उन सीले शब्दों को सोखना 

मुझे तुम्हारी उँगलियों की फ़िक्र होती है 
तुमने मेरा मन छुआ था एक बार 

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मुझे वो हिस्सा नहीं चाहिए इस दुनिया का जो सच में घटता है. मैं बहुत थक गयी हूँ. 
मैं लौट कर किताबों तक जा रही हूँ. 

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मेरे पास कुछ भी नहीं है तुम्हें देने को 
मेरे टूटे दिल में जरा से दुःख हैं
जरा सी उदासी
तुम्हारे नाम करती हूँ 

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काश कि मुझे आता प्रेम करना
और प्रेम में बने रहना

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मेरा ये भरम रहने दो कि तुम हो
मेरे जीने के लिए ये जरूरी है. 
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09 February, 2016

जादूगर, जो खुदा है, रकीब़ भी और महबूब भी

वे तुम्हारे आने के दिन नहीं थे. मौसम उदास, फीका, बेरंग था. शाम को आसमान में बमुश्किल दो तीन रंग होते थे. हवा में वीतराग घुला था. चाय में चीनी कम होती थी. जिन्दगी में मिठास भी.

फिर एक शाम अचानक मौसम कातिल हो उठा. मीठी ठंढ और हवा में घुलती अफीम. सिहरन में जरा सा साड़ी का आँचल लहरा रहा था. कांधे पर बाल खोल दिये मैंने. सिगरेट निकाल कर लाइटर जलाया. उसकी लौ में तुम्हारी आँखें नजर आयीं. होठों पर जलते धुयें ने कहा कि तुमने भी अपनी सिगरेट इसी समय जलायी है. 

ये वैसी चीज थी जिसे किसी तर्क से समझाया नहीं जा सकता था. जिस दूसरी दुनिया के हम दोनों बाशिंदे हैं वहाँ से आया था कासिद. कान में फुसफुसा कर कह रहा था, जानेमन, तुम्हारे सरकार आने वाले हैं. 

'सरकार'. बस, दिल के खुश रखने को हुज़ूर, वरना तो हमारे दिल पर आपकी तानाशाही चलती है. 

खुदा की मेहर है सरकार, कि जो कासिद भेज देता है आपके आने की खबर ले कर. वरना तो क्या खुदा ना खास्ता किसी रोज़ अचानक आपको अपने शहर में देख लिया तो सदमे से मर ही जायेंगे हम. 

जब से आपके शहर ने समंदर किनारे डेरा डाला है मेरे शब्दों में नमक घुला रहता है. प्यास भी लगती है तीखी. याद भी नहीं आखिरी बार विस्की कब पी थी मैंने. आजकल सरकार, मुझे नमक पानी से नशा चढ़ रहा है. बालों से रेत गिरती है. नींद में गूंजता है शंखनाद. 

दूर जा रही हूँ. धरती के दूसरे छोर पर. वहाँ से याद भी करूंगी आपको तो मेरा जिद्दी और आलसी कासिद आप तक कोई खत ले कर नहीं जायेगा.

जाने कैसा है आपसे मिलना सरकार. हर अलविदा में आखिर अलविदा का स्वाद आता है. ये कैसा इंतज़ार है. कैसी टीस. गुरूर टूट गया है इस बार सारा का सारा. मिट्टी हुआ है पूरा वजूद. जरा सा कोई कुम्हार हाथ लगा दे. चाक पे धर दे कलेजा और आप के लिये इक प्याला बना दे. जला दे आग में. कि रूह को करार आये. 

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किसी अनजान भाषा का गीत
रूह की पोर पोर से फूटता
तुम्हारा प्रेम
नि:शब्द.

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वो
तुम्हारी आवाज़ में डुबोती अपनी रूह 
और पूरे शहर की सड़कों को रंगती रहती 
तुम्हारे नाम से
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तर्क से परे सिर्फ दो चीज़ें हैं. प्रेम और कला. 
जिस बिंदु पर ये मिलते हैं, वो वहाँ मिला था मुझे. 
मुझे मालूम नहीं कि. क्यों.

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उसने जाना कि प्रेम की गवाही सिर्फ़ हृदय देता है। वो भी प्रेमी का हृदय नहीं। उसका स्वयं का हृदय।
वह इसी दुःख से भरी भरी रहती थी।
इस बार उसने नहीं पूछा प्रेम के बारे में। क्यूंकि उसके अंदर एक बारामासी नदी जन्म ले चुकी थी। इस नदी का नाम प्रेम था। इसका उद्गम उसकी आत्मा थी।

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उसने कभी समंदर चखा नहीं था मगर जब भी उसकी भीगी, खारी आँखें चूमता उसके होठों पर बहुत सा नमक रह जाता और उसे लगता कि वो समंदर में डूब रहा है।

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तुम जानती हो, उसके बालों से नदी की ख़ुशबू आती थी। एक नदी जो भरे भरे काले बादलों के बीच बहती हो।

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तुम मेरी मुकम्मल प्यास हो.

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नमक की फितरत है कच्चे रंग को पक्का कर देता है. रंगरेज़ ने रंगी है चूनर...गहरे लाल रंग में...उसकी हौद में अभी पक्का हो रहा है मेरी चूनर का रंग...
और यूं ही आँखों के नमक में पक्का हो रहा है मेरा कच्चा इश्क़ रंग...
फिर न पूछना आँसुओं का सबब.

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प्यास की स्याही से लिखना
उदास मन के कोरे खत
और भेज देना 
उस एक जादूगर के पास
जिसके पास हुनर है उन्हें पढ़ने का
जो खुदा है, रकीब़ भी और महबूब भी

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वो मर कर मेरे अन्दर
अपनी आखिर नींद में सोया है
मैं अपने इश्वर की समाधि हूँ.

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मैं तुम्हारे नाम रातें लिख देना चाहती हूँ 
ठंडी और सीले एकांत की रातें 
नमक पानी की चिपचिपाहट लिए 
बदन को छूने की जुगुप्सा से भरी रातें 
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ये मेरे मर जाने के दिन हैं मेरे दोस्त 
मैं खोयी हूँ 'चीड़ों पर चाँदनी में' 
और तुम बने हुए हो साथ
--/
मैं तुम्हारे नाम ज़ख़्म लिख देना चाहती हूँ
मेरे मर जाने के बाद...
तुम इन वाहियात कविताओं पर 
अपना दावा कर देना
तुमसे कोई नहीं छीन सकेगा 
मेरी मृत्यु शैय्या पर पड़ी चादर 
तुम उसमें सिमटे हुए लिखना मुझे ख़त 
मेरी क़ब्र के पते पर
वहाँ कोई मनाहट नहीं होगी 
वहाँ सारे ख़तों पर रिसीव्ड की मुहर लगाने 
बैठा होगा एक रहमदिल शैतान 
---/
मुझे कुछ दिन की मुक्ति मिली है 
मुझे कुछ लम्हे को तुम मिले हो
उम्र भर का हासिल
बस इतना ही है.

08 February, 2016

फरिश्ते सुनते भी हैं

बच्चों के बारे में सुष्मिता ने पहली बार पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद सोचा था. उसका लिव-इन पार्टनर एक दूसरी जाति से था और उसे मालूम था कि घर वाले कभी उनकी शादी के लिए नहीं मानेंगे. उसने शुरू से ही खुद को समझा रखा था कि उम्र भर के किसी बंधन की कसमें नहीं खायेंगे. इक रोज़ वे दोनों फोटो-जर्नलिज्म के एक प्रोजेक्ट के लिए कैमरा ले कर गरीबों की झुग्गी झोपड़ी में घूम रहे थे. एक बेहद नीची छत वाला एक कमरा था. उसमें एक बेहद छोटा सा टीवी फिट था. दो बच्चे नीचे जमीन पर पसरे हुए थे. एक साड़ी का झूला बनाया हुआ था जिसमें एक दुधमुंहां बच्चा किहुंक किहुंक के रो रहा था. उसकी आवाज़ से सबको दिक्कत हो रही थी. आखिर उसकी माँ ने उसे झूले से निकाला और एक झापड़ और मार दिया, 'क्या करें दीदी दूध उतरता ही नहीं हैं, पेट भरेगा नहीं तो रोयेगा नहीं तो क्या करेगा'. फिर अपने में दुःख के अपार बोझ से टूटती बच्चे को दूध पिलाने लगी. सुष्मिता ने चाहा उस लम्हे को कैप्चर कर ले मगर उस दुःख को हमेशा के लिए ठहरा देना इतना अमानवीय लगा कि उसकी हिम्मत ही नहीं हुयी. बाहर आई तो नावक अचरज से उसे देख रहा था. 'अच्छी जर्नलिस्ट बनोगी तो कभी कभी जरा बुरा इंसान भी बनना पड़ता है. दुःख की दवा करने के लिए उसकी तसवीरें कैद करनी जरूरी हैं बाबू'. फाके के दिन थे. बीड़ी के लिए पैसे जुट पाते थे बस. चाय की तलब लगी थी और सर दर्द से फटा जा रहा था. वहाँ से चलते चलते कोई आधे घंटे पर एक चाय की टपरी आई. एक कटिंग चाय बोल कर दोनों वहीं पत्थरों पर निढाल हो गए. 

सुष्मिता इस पूरे महीने के पैसे की खिचखिच से थक गयी थी, दूर आसमान में देखती हुयी बोली, 'इस वक़्त अगर फ़रिश्ते यहाँ से गुज़र रहे हों तो कोई जान पहचान का यहाँ मिल जाए और एक सिगरेट पिला दे मुझे. बस इतना ही चाहिए'. नावक ने कुछ नहीं कहा बस मुस्कुरा कर दूर के उसी बस स्टॉप पर आँखें गड़ा दीं जहाँ सुष्मिता की नज़र अटकी हुयी थी. चाय बनने के दरम्यान वहाँ एक स्कूल बस रुकी और फुदकते हुए बच्चे उसमें से उतरे. अपनी लाल रंग की स्कर्ट और सफ़ेद शर्ट में एकदम डॉल जैसी लग रही थी बच्चियां. बस गुजरी तो उन्होंने देखा उनकी कॉलेज की एक प्रोफ़ेसर भी वहां से अपनी बेटी की ऊँगली थाम सड़क क्रॉस कर रही हैं. सड़क के इस पार आते हुए उन्होंने दोनों को देखा और चाय पीने रुक गयीं. अपने लिए एक डिब्बा सिगरेट भी ख़रीदा और सुष्मिता को ऑफर किया. उसने जरा झिझकते हुए दो सिगरेटें निकाल लीं. जैसे ही मैडम अपनी बेटी को लेकर वहां से गयीं सुष्मिता जैसे जन्मों के सुख में डूब उतराने लगी. सिगरेट का पहला गहरा कश था और उसकी आँखें किसी परमानंद में डूब गयीं. नावक लाड़ में बोला, 'सुम्मी...कुछ और ही माँग लिया होता...'. 'लालच नहीं करते नावक. इस जिंदगी में एक सिगरेट मिल जाए बहुत बड़ी बात होती है. तुम्हें माँगना होता तो क्या मांगते?'. नावक के चहरे पर एक बहुत कोमल मुस्कान उगने लगी थी. वो अभी तक मैडम के जाने की दिशा में देख रहा था. उनकी बेटी की पोनीटेल हिलती दिख रही थी. बच्ची काफी खुश थी और उसकी आवाज़ की किलकारी सुनाई पड़ रही थी. 'अगर वाकई फ़रिश्ते होंगे अभी तक अटके हुए...तो सुम्मी, मुझे तुम्हारे जैसी एक बेटी चाहिए. एकदम तुम्हारे जैसी. यही बदमाश आँखें. यही बिगड़ी हुयी लड़कियों वाले तेवर और अपने पापा की इतनी ही दुलारी'. सुम्मी ने पहली बार अपना औरत होना महसूस किया था. शादी की नहीं, बच्चों की ख्वाहिश मन में किसी बेल सी उगती महसूस की थी. फीकी हँसी में बोली, 'ज्यों नावक के तीर, देखन में छोटे लगे, घाव करें गंभीर'.

सिगरेट ख़त्म हो गयी थी. उन्होंने तय किया कि यहाँ से कमरे तक पैदल चला जाए और बचे हुए पैसों से आज रात चिकन बिरयानी खायी जाए. सुम्मी को ऐसी गरीबी बहुत चुभती थी. खास तौर से वे दिन जब कि सिगरेट के लिए पैसे नहीं बचते थे. उसे नावक का बीड़ी पीना एकदम पसंद नहीं था. कैसी तो गंध आती थी उससे उन दिनों. गंध तो फिर भी बर्दाश्त कर ली जाती मगर उस छोटे कमरे में बीड़ी की बची हुयी टोटियों को ढूंढते हुए नावक पर वहशत सवार हो जाती. सुम्मी को उन दिनों यकीन नहीं होता कि यही नावक अच्छे खाते पीते घराने का है और पटना के सबसे प्रतिष्ठित कॉलेज से समाजशास्त्र में पी एच डी कर रहा है. उन दिनों वह कोई गरीब रिक्शा चलाने वाले से भी बदतर हो जाता था और सुम्मी से ऐसे पेश आता जैसे नावक उसका रेगुलर ग्राहक हो और सुम्मी बदनाम गलियों की सबसे नामी वेश्या. नावक को उसके शरीर से कोई लगाव नहीं होता. गालियों से उसकी रूह छिल छिल जाती. कौन सोच सकता था कि नावक जैसा लड़का सिर्फ बीड़ी पीने के बाद 'रंडी, बिस्तर, ग्राहक, दल्ला' जैसे शब्द इस चिकनी अदा के साथ बोलेगा कि रंगमंच की रोशनियाँ शरमा जाएँ. सुम्मी को उन दिनों यकीन नहीं होता था कि ऐसी भाषा नावक ने थियेटर करते हुए सीखी है या वाकई गुमनाम रेड लाइट एरिया जाता रहा है. उन रातों में 'मेक लव' जैसा कुछ नहीं होता. वे जानवरों की तरह प्रेम करते. सुम्मी को डेल्टा ऑफ़ वीनस याद आता. अनाईस निन की कहानियों के पहले का हिस्सा जब कि रईस व्यक्ति कि जो हर कहानी के सौ डॉलर दे रहा है, फीडबैक में बस इतना ही कहता, 'cut the poetry'. निन ने उन दिनों के बहुत से कवियों को जुटाया कि पैसों की जरूरत सभी को थी...उन दिनों के बारे में वह लिखती है, 'we had violent explosions of poetry.' 'हममें कविता हिंसक तरीके से विस्फोटित होती थी.' मुझे रात की तीखी कटती हुयी परतों में किताब की सतरें याद आयीं. दुनिया में कुछ भी पहली बार घटित नहीं हो रहा है. हम वो पहले लोग नहीं होंगे जिन्होंने प्रेम के बिना यह हिंसा एक दूसरे के साथ की है. आज की शाम तो वैसे भी ख़ास थी. नावक की एक ईमानदार ख्वाहिश ने सुम्मी को अन्दर तक छील दिया था. उस रात मगर वही हुआ जो हर उस रात को होता था जब महीने के आखिरी दिन होते थे और बीड़ी, सिगरेट सब ख़त्म हुआ करती थी. इस हिंसा में शायद सुम्मी के मन में दुनिया की सबसे पुरातन इच्छा ने जन्म लिया. जन्म देने की इच्छा ने. 

अगले दिन किसी मैगजीन में छपे नावक के पेपर का मेहनताना आ गया तो सब कुछ नार्मल हो गया. सुम्मी भूल भी गयी कि उसने कोई दीवानी ख्वाहिश पाल रखी है मन में कहीं. ये सेमेस्टर कॉलेज में सबसे व्यस्त सेमेस्टर होता भी था. कुछ यूं हुआ कि डेट निकल गयी और सुम्मी को ध्यान भी नहीं रहा कि गिनी हुयी तारीखों में आने वाले पीरियड्स लेट कैसे हो गए. क्लास में जब उसकी बेस्ट फ्रेंड ने फुसफुसा के पूछा, 'सुम्मी, पैड है तेरे पास?' तो सुम्मी जैसे अचानक से आसमान से गिरी. उसके और शाइना के डेट्स हमेशा एक साथ आते थे. तारीख आज से चार दिन पहले की थी. कुछ देर तो उसका दिमाग ब्लैंक हो गया. क्लास का एक भी शब्द उसके पल्ले नहीं पड़ रहा था. जैसे ही क्लास ख़त्म हुयी भागती हुयी बाहर आई और बैग से सिगरेट का पैकेट निकाला. आज ही नावक के पैसों से नया डिब्बा खरीदा था. सिगरेट निकालने को ही हुयी कि उसपर लिखी वार्निंग पर नजर पड़ गयी. 'smoking when pregnant harms your baby' आज ही इस पैकेट पर ये वार्निंग लिखी होनी थी. सुम्मी ने खुद को थोड़ी देर समझाने की कोशिश की कि कौन सा इस बच्चे को जन्म दे पाएगी...क्या फर्क पड़ेगा अगर एक आध कश मार भी लेती है. मगर फिर ख्यालों ने उड़ान भरनी शुरू की तो सारा कुछ सोचती चली गयी. उसे सिर्फ एक अच्छी नौकरी का इन्तेजाम करना है. जो कि अगले एक महीने में उसे मिल जायेगी. अपनी सहेलियों के साथ दिल्ली में कमरा लेने का उसका प्रोग्राम पहले से सेट था. ये ऐसी सहेलियां थीं जिनसे किसी चीज़ के लिए कभी आग्रह नहीं करना पड़ा था. चारों मिल कर आपस में एक बच्चा तो पाल ही लेंगी तीनेक साल तक. उसके बाद तो स्कूल शुरू हो जाएगा. फिर तो किसी को दिक्कत नहीं होगी. सुम्मी को वैसे भी कॉलेज में ही लेक्चरर बनने का शौक़ था. उसका मन दो भागों में बंट गया था. सारे तर्क उसे कह रहे थे कि ऐसा कुछ नहीं हो सकता. हिंदुस्तान में आज भी बिन ब्याही माँ के बच्चे इतनी आराम से नहीं पल सकते जितना कि वह सोच रही है. उसे ये भी मालूम था कि घर में लड़का देखना शुरू कर चुके हैं लोग. मगर कुछ शहर ऐसे होते हैं जिनकी सीमा में घुसते ही पुरानी रूढ़ियाँ पीछे रह जाती हैं. पटना ऐसी ही असीमित संभावनाओं का शहर था उसके लिए. यहाँ कुछ भी मुमकिन था. दिलेर तो वह थी ही, वर्ना आज भी पटना में कितनी लड़कियां लिव-इन में रह रही थीं. कल्पना के पंखों पर उड़ती उड़ती वह बहुत दूर पहुँच गयी थी. बच्चों के नाम सोचने शुरू किये. लड़के के, लड़कियों के. दोनों. कमरे के परदे. प्रेगनेंसी के समय क्या पहनेगी वगैरह वगैरह. ख्याल में डूबे हुए कब केमिस्ट की दुकान तक पहुँच गयी उसे पता ही नहीं चला. टेस्ट किट मांगते हुए उसका चेहरा किसी नव विवाहिता सा खिला हुआ था. न तो उसके चेहरे पर, न तो उसकी आत्मा में कोई अपराध बोध जगा था. कमरे पर आई तो सीधे बाथरूम न जा कर किताब खोल ली. किताब भी कौन सी, मित्रो मरजानी. हाँ...बेटी हुयी तो नाम रखेगी मित्रो...और बेटा हुआ तो...बहुत सोच के ध्यान आया कि नावक से शादी थोड़े करनी है...तो बेटे का नाम नावक रख सकती है. 

रात के आते आते सुम्मी ने अनगिन चाय के कप खाली कर के रख दिए थे. उसे अब भी समझ नहीं आ रहा था कि नावक को बताये या नहीं. आखिर दुआ तो उसकी क़ुबूल हुयी थी. बतानी तो चाहिए. उसने सोचा कि उसे आने देती है. उसके सामने ही टेस्ट करेगी और फिर दोनों एक ही साथ कन्फर्म करेंगी अपनी जिंदगी के सबसे खुशहाल दिन को. पर वो क्या कह के बताएगी...एक गुड न्यूज़ है या कि एक गड़बड़ हो गयी है. फिर अचानक से आये एक ख्याल से डर गयी. नावक को कृष्णा सोबती फूटी आँख नहीं सुहाती थी. वो उसे अपनी बेटी का नाम मित्रो तो हरगिज़ नहीं रखने देगा चाहे वो कितना भी लड़ झगड़ ले. उसके लौटने में अभी वक़्त था. सुम्मी ने कागज़ के टुकड़े फाड़े और उनपर नाम लिखने लगी. कोई पांच टुकड़े थे जिनपर एक ही नाम लिखा था 'मित्रो'. उसने कागज़ के टुकड़े फाड़े और उन्हें ठीक से मोड़ कर छोटी सी कटोरी में रख दिया. कि नावक जब आएगा तो उसे एक पुर्जा चुन लेने को कहूँगी. अपनी बेईमानी पर उसे जरा भी बुरा नहीं लगा. ये तो दुनिया की सबसे पुरानी टेक्नीक है. फिर कलयुग है भई. कोई रात के दस बजे नावक कमरे पर आया. कमरा इस वक़्त हमेशा धुएं की गंध से भरा हुआ होता था, ऐशट्रे में अम्बार लगा होता था और सुम्मी किसी कोने में पढ़ रही होती थी. मगर आज कुछ बात और थी. कमरे में चावल की हलकी गंध आ रही थी. तो क्या सुम्मी ने खाना बनाया है. लड़की पागल हो गयी है क्या. एक आध कैंडल्स भी जल रहे थे. कमाल रूमानी माहौल था. 'पैसे आ जाने से इतनी रौनक. भाई कमाल हो सुम्मी. पहले पता होता तो दो चार और पेपर्स भेज दिया करता वक़्त पर छपने के लिए'. सुम्मी बाहर आई तो लाज की हलकी लाली थी उसके चेहरे पर. उसने बिना कुछ कहे टेस्ट किट दिखाया और बाथरूम में घुस गयी. पांच मिनट. दस मिनट. आधा घंटा. जब कोई हरकत नहीं हुयी तो नावक ने दरवाज़ा खटखटाना शुरू किया. दस मिनट खटखटाने के बाद सुम्मी ने दरवाज़ा खोला. बाथरूम से उसकी परछाई बाहर निकली. नावक ने उसे उस तरह टूटा हुआ कभी नहीं देखा था. घबराये हुए उसके चेहरे को हाथों में भरा. सुम्मी ने टूटे शब्दों के बीच बताया कि उसे दिन भर धोखा हुआ कि वो प्रेग्नेंट है. पूरा पूरा दिन नावक. सच्ची. देखो. मुझे लगता रहा कि मेरे अन्दर कोई सांस ले रहा है. मैंने इसलिए सिगरेट भी नहीं पी. एक भी सिगरेट नहीं. ये सब मेरा भरम था. मगर कितना सच था. मुझे लगा फरिश्तों ने तुम्हारी बात भी सुन ली है. उस रात किसी ने खाना नहीं खाया. पूरी रात सिगरेट फूंकते बीती. सुम्मी और नावक के बीच कुछ उसी मासूम सी रात को टूट गया था. शहर छोड़ना तो बस एक फॉर्मेलिटी थी. नावक जानता था कि इस रिश्ते के लिए आगे लड़ने का हासिल कुछ नहीं है. दोनों बहुत प्रैक्टिकल लोग थे. अलविदा के नियम कायदे में बंधते हुए एक दूसरे को हँस कर विदा किया. 
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सुम्मी को अब सुम्मी कहने की हिम्मत किसी की नहीं होती. उम्र पैंतीस साल मगर आँखों में अब भी एक अल्हड़ लड़की सी चमक रहती है. वो मिसेज सुष्मिता सरकार हैं. शहर के डिप्टी मेयर की वाइफ और मुंगेर के जिला विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग की प्रमुख. उनसे छोटे उन्हें सम्मान से देखते और उनके साथ वाले इर्ष्या से. उनके ड्रेसिंग सेन्स से शहर को फैशन की समझ आती. चाहे सरस्वती शिशु मंदिर का वार्षिक समारोह हो या कि किसी गाँव में नयी लाइब्रेरी का उद्घाटन, उसकी शख्सियत उसे सबसे अलग करती थी. भीड़ में गुम हो जाने वाला न उसका चेहरा था न उसका व्यक्तित्व.  

शादी के दस साल होने को आये थे और उसकी उम्र जैसे ठहर गयी थी. 

सहेलियां चुहल करतीं कि तुझे किस चीज़ की कमी है. पति है, परिवार है, समाज में नाम है. चाहिए ही क्या. वाकई मिसेज सरकार के पास वो सब कुछ था जिसके सपने देखती लड़कियां बड़ी होती हैं. मगर मिसेज सरकार की आँखों के पीछे ही सुम्मी रहती थी. अपने भूले हुए नाम की आवाज़ में. 

उसकी कोख जनती है नाजायज चिट्ठियां और अनाथ किरदार. वो चाहती है कि एक जरा सा सौंप सके खुद के जने बच्चे को. आँख का नीला रंग. ठुड्डी के डिम्पल. अपना लम्बा ऊंचा कद. दिनकर के प्रति अपनी दीवानगी. या कि अपना ठहरा हुआ निश्चल स्वाभाव ही. 

अभी तक उसे लगता था कि उसके अन्दर का खालीपन रूह का खालीपन है...मन का टूटा हिस्सा होना है. वो इसे भरती रहती थी लोगों से. गीतों से, कविताओं से और रंगों से. वो इन्द्रधनुष से रंग मांगती और रेशमा से उसकी आवाज़ की हूक...रेगिस्तान से उसकी प्यास तो समंदर से उसकी बेचैनी. मगर उसके अन्दर का खालीपन भरता नहीं. उसका चीज़ों को हिसाब से रखने से दिल भर जाता. अपने करीने से सजाये घर में उसे घुटन होने लगती. वो चाहती कि कोई आये और पूरा घर बिखेर डाले. उसे शिकायतें करने का दिल करता था. दुखती देह और बिना नींद वाली रातों का. वो चीज़ों को बेतरतीबी से रखती. कपड़े. किताबें. जूते. या कि लोग ही. सब कुछ बिखरा बिखरा रहता लेकिन उसकी जिंदगी का एक कोरा कोना भी नहीं भरता इन चीज़ों से. 

उसने जाना कि वह डरने लगी है. नवजात शिशुओं से. गर्भवती महिलाओं से. उन रिश्तेदारों से जो हमेशा उसके बढ़े हुए पेट को देख कर पूछतीं कि कोई खुशखबरी है क्या. वो चाहती कि खूब सारा एक्सरसाइज करके एकदम साइज ज़ीरो हो जाए ताकि किसी को ग़लतफ़हमी न हो. उसे डर लगता था अपने जीवन में होने वाली किसी भी अच्छी घटना से...क्यूंकि किसी को भी बताओ कि कोई अच्छी खबर है तो उसे सीधे उसके प्रेग्नेंट होने से जोड़ लिया जाता था...और उस खुशखबरी के सामने दुनिया के सारे सुख छोटे पड़ते.

बचपन के रिपोर्ट कार्ड में कभी लाल निशान नहीं लगा. इसलिए उसे मालूम नहीं था कि पूरी तैय्यारी करने के बावजूद जिंदगी के रिपोर्ट कार्ड में कभी कभी लाल निशान लग जाते हैं. स्कूल और कॉलेज के एक्जाम साल में दो बार होते थे. मगर यहाँ हर महीने एक एक्जाम होता था और गहरे लाल निशान लगते थे. खून की नमक वाली गंध उसे पूरे हफ्ते अस्पतालों की याद दिलाती रहती. टीबी वार्ड हुआ करता था उन दिनों. वो किससे मिलने जाती थी जामताड़ा के उस अस्पताल में? कोई मेंटल असायलम था. उसकी दूर के रिश्ते की एक मामी वहां एडमिट थी. उन्हें खुद की नसें काटने से रोकने के लिए अक्सर बेड से बाँध कर रखा जाता था. बाथरूम तक जाने के लिए नर्स आ कर भले उनके बंधन खोल देती थी लेकिन उसके अलावा सारे वक़्त उनके हाथ पैर बिस्तर से बंधे रहते थे. उस बिस्तर पर एक बहुत पुरानी घिसी हुयी फीकी गुलाबी रंग की चादर थी जिसपर किसी जमाने में नीले रंग के फूल बने होंगे. चादर पर वो खून के धब्बे देखती थी. कभी ताजा तो कभी कुछ दिन के सूखे हुए. जिस दीदी के साथ वहाँ जाती वो अक्सर उन दागों को धोने की कोशिश करती. मगर कॉटन की चादर थी. ज्यादा रगड़ने से फट जाती. मामी के बाल महीने में बस एक ही दिन धुलाये जाते. उस दिन के पहले वो रटती रहतीं कि 'तुम अशुद्ध हो'. वर्तमान में खून की गंध के साथ हमेशा उस हस्पताल की गंध और कॉटन की पुरानी चादर का रूखापन साथ चला आता था. मामी के मरने पर वो अंतिम क्रिया के पहले पहुँच नहीं सकी थी. जिन लोगों को हम आखिरी बार नहीं मिल पाते, न उनका पार्थिव शरीर देखते हैं, उनके चले जाने का यकीन कचपक्का सा होता है. 

खून की पहली पहचान उसे मामी के बिस्तर से हुयी थी. बचपन में उसे किसी ने बताया नहीं कि मामी को ऐसा कोई ज़ख्म नहीं है. वो जब भी वो लाल कत्थई निशान देखती तो डॉक्टरों को ज्यादा खूंख्वार होके घूरती. उसे पूरा यकीन था कि डॉक्टर्स उनके ऐसे ज़ख्मों की दवा नहीं कर रहे जो उन्हें सामने नहीं दिखते. उसका डॉक्टर्स के प्रति हलकी घृणा भी उन दिनों की देन थी. उसे अंग्रेजी दवाइयों पर यकीन ही नहीं होता. न रिसर्च पर. और उसे पक्का यकीन भी था कि अगर दवाई में भरोसा नहीं है तो उसकी इच्छाशक्ति के बगैर कोई भी दवा उसे ठीक नहीं कर सकती है. बढ़ती उम्र के इस पड़ाव पर जबकि मेनोपौज कुछ ही दिन दूर था उसे हर गुज़रता महीना एक स्टॉपवॉच की तरह उलटी गिनती करता हुआ दिखता. इन दिनों वह एग्स फ्रीज करने के बारे में भी सोचने लगी थी. नींद में उसे बाबाओं के सपने आते. जाग में उसे इश्वर का ख्याल. मगर हर महीने एक कमबख्त तारीख होती. उसका खौफ इस कदर था कि कैलेण्डर की तारीख से उठ कर उसकी नफरत उस संख्या के प्रति आ गयी. जिस महीने उसके पीरियड्स ७ तारिख को आते, उस पूरे महीने उसके लिए ७ नंबर बेहद मनहूस रहता. इसी नंबर वाली सड़क पर उसका एक्सीडेंट होता. और उन्हीं दिनों जब कि उसे इश्वर की सबसे ज्यादा जरूरत होती थी उसका धर्म उससे सिर्फ उसके देवता ही नहीं उसका मंदिर भी उससे छीन लेता. वो शिवलिंग पर सर रख कर रोना चाहती मगर फिर बहुत साल पहले मामी का अस्पताल बेड पर का बड़बड़ाना याद आ जाता. अशुद्ध हो तुम. अशुद्ध. मुझे मत छुओ. घर जा कर नहा लेना. तीखी गंध उसकी उँगलियों के पोर पोर जलाती. 

उसकी याद में वो कॉलेज का एक दिन आता कि जब उसने महसूस किया था कि माँ बनना क्या होता है. भले ही वो छलावा था मगर कमसे कम जिंदगी में एक ऐसा दिन था तो सही. पिछले हफ्ते भर से ब्लीडिंग रुक ही नहीं रही थी. उसे ऐसा लग रहा था जैसे बदन का सारा खून निचुड़ कर बह जाएगा. डॉक्टर के यहाँ जाने लायक ताकत भी नहीं बची थी. डॉक्टर शर्मा को घर बुलाया गया. बड़ी खुशमिजाज महिला थीं. सुम्मी के खास दोस्तों में से एक. कुछ टेस्ट्स लिखाए और थोड़ी देर गप्पें मारती रहीं. इधर उधर की बातों में दिल लगाये रखा. इसके ठीक तीन दिन बाद उनका फिर आना हुआ, इस बार सारी टेस्ट रिपोर्ट्स साथ में थीं. उससे बात करने के पहले मिस्टर सरकार से आधे घंटे तक बातें कीं. सुम्मी के लिए वे उसकी पसंद का गाजर का हलवा लेकर आई थीं. आज फिर उन्होंने बीमारी की कोई बात नहीं की. उनके जाने के बाद अनंग कमरे में आये थे. उनके चेहरे पर खालीपन था. एक लम्बी लड़ाई के बाद का खालीपन. 'सुम्मी, यूट्रस में इन्फेक्शन है. ओपरेट करके निकालना पड़ेगा. कोई टेंशन की बात नहीं है. छोटा सा ओपरेशन होता है.' कहते कहते उनकी आँखें भर आयीं थीं. देर रात तक दोनों एक दूसरे से लिपट कर रोते रहे. सुबह कठिन फैसले लेकर आई थी. हॉस्पिटल की भागदौड़ शुरू हो गयी. इसके बाद का कुछ भी सुम्मी को ठीक से याद नहीं. रिश्तेदार. दोस्त. कलीग्स. सब मिलने आते रहे. देखते देखते महीना बीत गया और उसकी हालत में बहुत सुधार हो गया. इस ओपरेशन ने सुम्मी में बहुत कुछ बदल दिया. वो जिंदगी में पागलपन की हद तक चीज़ों को अपने कण्ट्रोल में रखती थी. घर के परदे. घर का डस्टर. गार्डन के फूल. सब कुछ उसकी मर्ज़ी से होता था. मगर अब सुम्मी ने खुद को अनंग के भरोसे छोड़ दिया था. जिसने जीवनभर साथ निभाने का वचन दिया है, कुछ उसका हक भी है और उसकी जिम्मेदारी भी. सुम्मी को आश्चर्य होता था कि उसके ठीक रहते अनंग ने कभी खुद से एक ग्लास पानी तक नहीं पिया मगर उसकी बीमारी में हर घड़ी यूं साथ रहे कि जैसे खुद के बच्चे भी शायद नहीं कर पाते. 

ऐसे ही किसी एक दिन अनंग उसके लिए एक गहरी नीले रंग की साड़ी लेकर आये कि तैयार हो जाओ, हमें बाहर जाना है. सुम्मी का मन नहीं था लेकिन उनकी ख़ुशी देखते हुए तैयार हो गयी. कोई सात आठ घंटे का सफ़र था. सुम्मी को नींद आ गयी. नींद खुली तो एक अनाथ आश्रम सामने था. अनंग ने कुछ नहीं कहा. वे अपने रिश्ते में ऐसी जगह पहुँच भी गए थे जब कहना सिर्फ शब्दों से नहीं होता. आश्रम में अन्दर घुसते ही एक छोटा सा तीर आ कर सुम्मी की साड़ी में उलझ गया. सामने एक तीन साल का बच्चा था. धनुष लिए दौड़ता आया. सुम्मी घुटनों के बल बैठ गयी, साड़ी के पल्लू से तीर निकालते हुए वो और अनंग साथ में बुदबुदाए, 'ज्यों नावक के तीर, दिखने में छोटे लगें, घाव करें गंभीर'. सारी फॉर्मेलिटी पूरी कर के वे बाहर आये. अनाथ आश्रम की हेड ने बच्चे का हाथ सुम्मी के हाथ में दिया और बच्चे से बोली, 'आज से ये आपकी मम्मी हैं'. सुम्मी का दिल भर आया था. आँखें भी. उसने उसका नन्हा ललाट चूमते हुए कहा, तुम्हारा एक ही नाम हो सकता है...नावक. 

घर लौटते हुए बहुत देर हो गयी थी. नावक सो गया था. सुम्मी आँगन में चाँद की रौशनी को देख रही थी कि अनंग पीछे से आये और उसे बाँहों में भर लिया. 'आँखें बंद करो और हथेली फैलाओ'. 'अनंग, आज मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए' मगर उसने आँखें बंद कर हथेली खोल दी. अब खोलो आँखें. चाँद रात में उसके चेहरे पर सुनहले धूप सा नूर फ़ैल गया. उसकी हथेली पर एक पैकेट सिगरेट और माचिस रखी थी. उसने सिगरेट का गहरा कश लिया और आसमान की ओर देखा. आह री लड़की. कुछ और ही माँग लिया होता और...मगर आज शायद अनंग की बारी थी मांगने की, 'तुम देखना...तुम्हारी बेटी होगी...बिलकुल तुम्हारे जैसी'.

और उस दिन फ़रिश्ते वाकई सुन रहे थे. डॉक्टर्स भी आश्चर्यचकित थे कि ऐसा कैसे हुआ. सुम्मी अनंग की गोद में अपनी बेटी को देख कर सुख में डूब रही थी कि अनंग ने कहा, इसका नाम मेरी पसंद से रखेंगे, 'मित्रो'. 

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