04 September, 2015

राइटर्स डायरी: मिडनाइट मैडनेस

जिन्हें आता है लिखना. और जो जानते हैं मेरा पता. जिन्होंने कभी मेरे शब्दों को पढ़ कर सोचा कि मैंने उनके मन की बात लिखी है. जिनके पास है कलमें. सस्तीं. महँगी. टूटी हुयी या कि साबुत. जिन्हें बचपन में माँ ने ऊँगली पकड़ के लिखना सिखाया हिंदी का ककहरा और जिन्होंने स्कूल में सीखी होगी अंग्रेजी. जो कि बात कर सकते हैं दो भाषाओं में या कि किसी एक में भी.

जिनका इतना बनता है हक कि मुझसे पूछ सकें...अपना पता दो, तुम्हें ख़त लिखना है. जिन्होंने कभी नहीं किया मुझसे प्यार. वे कि जो मेरे साथ घूम कर आये हैं दुनिया के बहुत से उदास शहर. जो कि मेरी सिसकी सुनते हैं जब मैं पोलैंड के यातना शिविर से लिखती हूँ शब्दों को अनवरत. 

जो कि रहते हैं मेरे शहर में. सांस लेते हैं इसी मौसम में कि जो सर्द हो कर भरता जाता है मेरे लंग्स में उदासियाँ. वो भी जिन्होंने चखी है ब्लैक कॉफ़ी शौक़ में मेरे साथ...और इस वाहियात आदत को भूल आये हैं किसी बिसरी हुयी गली.

जिनके पास जिद की है कभी कि लिखो कि तुम्हारे लिखने से ज़िंदा हो उठती हूँ मैं...तुम्हारे शब्दों से आती है संजीवनी की गंध. जिन्होंने भेजी है मेरे नाम किताबें बगैर चिट्ठियों के.

जो कि मुस्कुराते हैं जब मेरी उंगलियों से झरते हैं ठहाके और मेरी किताब में मिलते हैं उन्हें छुपाये हुए मोरपंख...चौक का चूरा और आधी खायी हुयी पेंसिलें. वे जिन्हें मालूम है मेरी पसंद की फिल्में...मेरे पसंद का संगीत...और मेरे पसंद के लोग. कि जो जानते हैं कि डाइनिंग टेबल पर रखे पौधे का इक नाम है. और कि बोगनविला में पानी देते हुए मैं कौन सा गीत गुनगुनाती हूँ. 

मेरी आँखों का रंग. मेरी आवाज़ का डेसीबेल. मेरी चुप्पी की चाबी. मेरी पसंदीदा कलर की शर्ट और मेरे फेवरिट झुमके. 

अगर कभी मैंने वाकई जान दे दी तो तुम क्या कह कर खुद को समझाओगे?
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सोचती है लड़की और फिर मुल्तवी करती है डायरी लिखना. पूछती है खुद से कि इतनी तकलीफ क्यों होती है उसे छोटी छोटी बातों पर. दोस्तों से बात करना पसंद क्यों नहीं है उसे. और ये भी पूछना चाहती है खुद से कि उसने हरी स्याही से लिखना क्यूँ शुरू किया है. उसे मालूम है इस रंग का जहर जिंदगी को सियाह करता जाता है.

उसकी पसंद के सारे आर्टिस्ट्स जल्द रुखसत हो गए हैं दुनिया से. उसे उनसे मिलने का मन करता है. दोस्तियाँ. विस्कियाँ. सिगरेटें. सारी बुरी आदतें छोड़ देना चाहती है वो. पढ़ती है नीत्ज़े को. "Be careful, lest in casting out your demon you exorcise the best thing in you." इक अँधेरी कालकोठरी में धकेल देती है पिंजरा. उसकी परछाई कैद थी उसमें. मोहल्ले की आंटियों का दिया हुआ 'बुरी लड़की' का तमगा. कॉलेज में साथियों के लिखे नोट्स...'यू आर वेरी डोमिनेटिंग', सर के साथ की गयी जिद...मुझे नहीं करना किसी के साथ कोई ग्रुप प्रोजेक्ट. मैं अकेले कर लूंगी. पिछले कई सालों के मेंटल सुसाइड लेटर्स. सोचना कि किसी का नाम भी लिखना है आखिरी ख़त में या नहीं.

फेसबुक आप्शन देता है कि आप किसी को नोमिनेट कर दें कि आपकी मृत्यु के बाद वो आपके अकाउंट को हैंडल कर सके. फेसबुक की पहुँच को देखते हुए लगता है कि वो मीडियम्स से जल्दी ही कोई कॉन्ट्रैक्ट कर लेंगे. मरने के बाद भी आप इन सर्टिफाइड मीडियम्स के थ्रू अपने फेसबुक फ्रेंड्स से कांटेक्ट में रहेंगे. जहन्नुम या स्वर्ग, जहाँ भी आप गए वहाँ से पोस्ट्स भेज सकेंगे. मैं बस यही सोच कर परेशान होती हूँ कि स्वर्ग में हमेशा अप्सराएं नाच रही होती हैं...मेरे देखने को वहाँ क्या है? जिंदगी तो जिंदगी, मरने के बाद भी भेदभाव होगा...आपने कभी किसी पुरुष अप्सरा के बारे में सुना है? हाँ एक आध गन्धर्व होंगे, मगर कोई रम्भा, मेनका, उर्वशी टाइप फेमस हो, ऐसा भी नहीं है. क्या मुसीबत है. इससे अच्छा तो जी ही लें. या फिर जो सबसे खूबसूरत और सही ऑप्शन है...जहन्नुम के दरवाजे खुले ही हैं हमारे लिए. यूँ भी इतने काण्ड मचा डाले हैं...बहुत हुआ तो एक आध पैरवी लगेगी और क्या. 

मेरे पागलपन का लिखने के अलावा कोई इलाज़ भी नहीं है. ब्लॉग पर पिछले दस साल से लिखते हुए ऐसी आदत लग गयी है कि कहीं और लिखने का मन भी नहीं करता. कुछ दिन ऐसे ही मौसम चलेंगे इधर. मूड के हिसाब से. आपको अच्छी चीज़ें पढ़ने का शौक़ है तो किताबें पढ़ा कीजिए. मैंने इधर हाल में हरुकी मुराकामी की नॉर्वेजियन वुड और काशी का अस्सी पढ़ी हैं. मुराकामी मेरे पसंदीदा लेखक हैं...ये किताब शायद बहुत दिनों तक मेरी फेवरिट रहेगी. काशी का अस्सी उतनी अच्छी नहीं लगी...बीच में बोरियत भी हुयी...पर कुछ टुकड़ों में अच्छी किताब है. मैंने फिल्म मोहल्ला अस्सी का ट्रेलर देखा था और सोच रही थी कि किताब ऐसी ही है या डायरेक्टर ने सिनेमेटिक लिबर्टीज ली हैं. फिल्म देखे बिना ठीक ठीक कहना मुश्किल है.

मेरा हाथ इक्कीस जुलाई को टूटा था. पिछले कुछ दिनों में बहुत सी फिल्में देखीं. किताबें पढ़ीं. सोचा बहुत कुछ. दिन दिन भर इंस्ट्रुमेंटल म्यूजिक सुना. कल से एक्सरसाइज करना है. धीरे धीरे हाथ में भी मूवमेंट आ जायेगी. बाइक चलाने में जाने कितने दिन लगेंगे. कार एक्सीडेंट के बाद टोटल लॉस डिक्लेयर कर दी गयी है. लौट कर घर नहीं आएगी. अब कोई नयी कार खरीदनी होगी. उदास हूँ. बहुत ज्यादा. पापा कहते हैं चीज़ों से इतना जुड़ाव नहीं होना चाहिए. मैं सोचती हूँ. लोगों से जुड़ाव कोई कम तकलीफ देता हो ऐसा भी तो नहीं है.

अब कुछ दिन एकतरफा बातें होंगी. बातों का मीडियम तलाश रही हूँ. ब्लॉग. पोडकास्ट. डायरी. कुछ ऐसा ही. पिछले दस सालों में जिन लोगों के साथ ब्लॉग्गिंग शुरू की थी, उनमें से बहुत कम लोग आज भी लिखते हैं. रेगुलर तो कोई भी नहीं लिखता. पहले ब्लॉग और उसपर कमेंट्स की कड़ी हुआ करती थी. वो दिन लौट कर तो क्या ही आयेंगे अब. स्पैम के कमेंट्स के कारण मैंने मोडरेशन लगा दिया है ब्लॉग पर. फिर भी कभी कभी दिल करता है कि कुछ न सुनूं...जैसे कि आज. अभी.

बहरहाल...
थे बहुत बेदर्द लम्हें ख़त्म-ए-दर्द-ए-इश्क़ के
थीं बहुत बेमहर सुबहें मेहरबाँ रातों के बाद

उन से जो कहने गये थे "फ़ैज़" जाँ सदक़ा किये
अनकही ही रह गई वो बत सब बातों के बाद

03 September, 2015

इकतरफे ख़त और इकतरफे इश्क़ में कितना अंतर होता है?

भरी दोपहर का दुःख, दुःख नहीं अवसाद की गीली परछाई है. सूरज को रोके गए बादल से लड़ झगड़ कर आती कुचली हुयी धूप है...पड़ोसी की घर की छत पर भटकता कोई बौराया बच्चा है...भरी दोपहर का दुःख बचपन में काटी पतंग है...बिजली के तारों में उलझी हुयी.

भरी दोपहर का दुःख दिल में उगता शीशम का पेड़ नहीं, दीवारों पर लगी गहरी हरी काई है. पसंदीदा कलम से लिखते हुए देखना है कि स्याही का रंग फिरोजी से बदल कर गहरा हरा हुआ जा रहा है. किसी की सफ़ेद उँगलियों में पहनी हुयी फिरोज़े की अंगूठी है. परायेपन को बसने देना है अपने दिल के भीतर...गहरी काई लगी दीवारों के सींखचों में फिसलते हुए तोड़ लेना है हाथ की हड्डी और देखना है खरोंचों को अपनी बाइक की बॉडी पर. 

टचस्क्रीन फोन बन जाता है इक ग्लास की पेट्रिडिश जिसमें सतह तक कंसन्ट्रेटेड सल्फ्युरिक एसिड भरा हुआ है. मैं कैसे डायल करूँ कोई सा भी नंबर. तुम्हारी आवाज़ से रिश्ता बुनने के पहले बनाना होगा अपनी उँगलियों को कांच का...खुली खिड़की से दिखता है आसमान...रिफ्लेक्ट होता है तो हार्मलेस दिखता है, तुम्हारी तरह...तुम्हें मालूम है कंसन्ट्रेटेड सल्फ्युरिक एसिड कितना गाढ़ा होता है? मैंने छुआ है स्क्रीन को...धीमे धीमे मैं पूरी घुल गयी हूँ...सिर्फ प्लेटिनम की अंगूठी रह गयी है...प्लैटिनम इज रेसिस्टेंट टू एसिड. इतना तो तुमने पढ़ा होगा. हाँ याद तुम्हें है या नहीं मालूम नहीं. प्लैटिनम. या कि मैं ही.

खानाबदोशी चुनने वाले भी उदास हो सकते हैं. उनके पास कोई पता नहीं होता जहाँ लिखे जा सकें ख़त और उन्हें बुला लिया जा सके वापस...किसी ऐसी ज़मीन पर जिस पर घर बनाया जा सकता हो. जिन्हें लौट कर कहीं जाना नहीं होता है वे ही किसी गुफा में गहरे उतरते जा सकते हैं...किसी दूसरे मुहाने की खोज में...उन्हें डर नहीं होता कि अगर दूसरा मुहाना न हुआ तो? मगर क्या वाकई? Aren't we all waiting to be rescued? कोई हमें यहाँ से लौटा ले जाए...जबरन...फिर हम ज़िन्दगी भर खुद को बचा लिए जाने का मातम मनाते रहें. 

नहीं लिखना जिद है. खुद को मार डालने की साजिश है. धीमा जहर है. नहीं लिखना डिनायल का आखिरी छोर है. दुनिया को नकार देने का पहला पॉइंट है. क्यूंकि लिखना हमें बचा ले जाता है...मौत से एक सांस की दूरी से भी.

मैं कब्रिस्तान गयी थी. अकेले. बस बताना चाहती थी तुम्हें. 

मुझे खतों के जवाब लिखने नहीं आते. क्यूंकि कभी किसी ने मुझे ख़त लिखे ही नहीं. कभी भी नहीं. मुझे याद नहीं कि मैंने कभी भी भूरे लिफ़ाफ़े में ख़त भेजें हों. तुम्हें याद हो तो बताना. इकतरफे ख़त और इकतरफे इश्क़ में कितना अंतर होता है? 

हम दोनों के बीच इक इंस्ट्रुमेंटल पीस था. रात के क़त्ल की तैय्यारी में वायलिन की स्ट्रिंग्स कसता हुआ. मैं इक मासूम सी शाम इस टुकड़े को सुन रही थी...बेख्याली में. ड्रम बीट्स का प्रील्यूड 'इन द मूड फॉर लव' का था...दो बीट्स सुन कर ही आँखों में वो अँधेरी सुरंग जैसी सीढ़ियाँ कौंध गयी थीं...लैम्प की रोशनी पर सिगरेट के धुएं के घने बादल और तुम्हारी उँगलियों की याद एक साथ आई थी...बीट्स के ठीक बाद वायलिन शुरू होता था...इस टुकड़े में भी हुआ...मगर ये वो धुन नहीं थी जिसने कई रातों में मेरा क़त्ल किया था...ये कोई दूसरी धुन थी...वायलिन था...मगर धुन दूसरी थी. इसे सुनना इक लॉन्ग शॉट में महबूब को देखना था...और क्लोज अप आते ही वो मेरे पास आने की जगह दायीं ओर मुड़ गया. ये टुकड़ा बेवफाई के स्वाद जैसा था. ड्रम बीट्स सेम मगर वायलिन ठीक वहीं से कोई और राह चली जाती थी. ये चोट बहुत गहरी थी. तीखी. और बेरहम. पहली धुन के क़त्ल का अंदाज़ बहुत नरमाहट लिए हुए था. नींद की गोलियां खा के मरने जैसा. यह दुनाली की गोली की तरह थी...सीने में धांय. बहुत बहुत तेज़ आवाज़. क्या तुम महसूस पा रहे हो कि मुझे कैसा लगा था?

मेरी कहानियों के शहर में सितम के मौसम आये हैं...सितम-बर...तुम्हारी ही तरह हैं कुछ कुछ. लिली की पहली पंखुड़ी चिटक रही है. जल्द ही खुशबुओं से सारा शहर भर जाएगा. मैं चाहे जिस भी स्याही से लिखूँ मुझे धूप बुनना नहीं आता. भरी दोपहर का दुःख इक सिगरेट की तलब है जिसके तीन कश मार कर मैं तुम्हारी ओर बढ़ा सकूं. तुम्हारी उँगलियों में उलझ जाए मेरी कलम. कोई बादल हटे और मैं देखूँ फिरोजी धूप में तुम्हारी आँखों का रंग. हिज्र. कुफ्र. मौत. 

Abel Korzeniowski- Satin Birds- 01:48

01 September, 2015

द ड्रीम व्हिस्परर


वो सपनों में भी चैन से नहीं रहने देता मुझे. ये पूरी दुनिया इक बड़ा सा डाकखाना हो जाती और मुझे हर ओर से उसके ख़त मिलते. शाम के रंग में. सुबह की धूप में. किसी अजनबी की आँखों के रंग में. सब फुसफुसाते मेरे कानों में...हौले से...उसे तुम्हारी याद आ रही है. 

याद का तिलिस्म उसकी स्पेशियलिटी था. उसे वर्तमान में होना नहीं आता था. मगर चंद लम्हों से वो कमाल का याद का तिलिस्म बुनता था. उस तिलिस्म में सब कुछ मायावी होता था. मैंने उसे कभी छुआ नहीं था मगर याद के तिलिस्म में उसकी उँगलियों की महक वाले फूल खिला करते थे...उसकी छुअन वाली तितलियाँ होती थीं...मैं जब कहानियां लिखती तो वे तितलियाँ मेरी कलम पर हौले से बैठ जातीं...उनके पैरों से पराग गिरता और मेरी कहानी में गहरे नीले रंग की रेत भर जाती. कोई बंजारन गाती उसकी लिखी कवितायें और मेरी कहानी के किरदार किसी रेत के धोरे पर बैठ कर चाँद के स्वाद वाली विस्की पिया करते...बर्फ की जगह हर्फ़ होते...उसकी अनदेखी नज़र से ठंढे...उसके बिछोह से उदास.

उससे मिलने वाली शामों में सूरज नारंगी रंग का हुआ करता था. शहर के बीचो बीच इक गोल्ड स्पॉट का ठेला था. हिचकियों में नारंगी रंग घुलता था. याद में नारंगी का खटमिट्ठा स्वाद. लड़की कभी नागपुर नहीं गयी थी लेकिन उसे नागपुर की सड़कों के नाम पता थे. उसे ये भी पता था कि गोल्डस्पॉट की फैक्ट्री के सामने वाली चाय की दूकान पर शर्ट के हत्थे मोड़े जो शख्स चाय में बिस्कुट डुबा कर खा रहा है उसका खानाबदोश काफिले से कोई रिश्ता नहीं है. वो तो ये भी नहीं जानती थी कि जब गोल्डस्पॉट में सब कुछ आर्टिफिसियल होता है तो उसकी फैक्ट्री नागपुर में क्यों है. किसी ड्रिंक में ओरेंज का स्वाद उसे अलविदा की याद दिलाता था. जबकि वो उससे कभी मिली नहीं थी. याद का तिलिस्म ऐसा ही था. उसमें कुछ सच नहीं होता. मगर सब यूँ उलझता जाता कि लड़की को समझ नहीं आता कि उसके कस्बे की सीमारेखा कहाँ है. लड़की सिर्फ इतना चाहती कि कभी उस ठेले पर लड़के के साथ जाए. दोनों पैसे जोड़ कर इक बोतल गोल्ड स्पॉट की खरीदें...लड़का पहले आधी बोतल पिए और लड़की जिद करके सिर्फ एक घूँट पर अपना हक मांगे. आखिरी सिप मेरे लिए रहने देना. बस. मगर फिर लड़की को ओरेंज कलर की लिपस्टिक पसंद आने लगती हमेशा. उसके गोरे चेहरे पर नारंगी होठ चमकते. शोहदों का उसे चूम लेने को जी चाहता. मगर उसके होठ जहरीले थे. जिसने भी उसके होठों को ऊँगली से भी छुआ, उन उँगलियों में फिर कभी शब्द नहीं उगे. जिन्होंने उसके होठ चूमे वे ताउम्र गूंगे हो गए. कोई नहीं जानता उस लड़की के होठों का स्वाद कैसा था.

याद के तिलिस्म में इक भूलने की नदी थी...जिसने भी इस नदी का पानी पिया था उसे ताउम्र इश्क़ से इम्युनिटी मिल जाती थी. उसका दिल फिर कभी किसी के बिछोह में दुखता नहीं था. ये मौसमी बरसाती नदी थी. अक्सर सूखी रहती. लड़की की आँखों की तरह. चारों तरफ रेत ही रेत होती. नीली रेत. इस नदी की तलाश में कोई तब ही जाता जब कि इश्क़ में दिल यूँ टूट चुका होता कि जिंदगी के पाँव में कदम कदम पर चुभता. बारिश इस तिलिस्म में साल में इक बार ही होती. कि जब लड़की दिल्ली जाती. उन दिनों में नदी में ठाठें मारता पानी हुआ करता. मगर जब लड़की दिल्ली में होती तो कोई भी इस नदी का पानी पीना नहीं चाहता. सब लड़की के इर्द गिर्द रहना चाहते. वो गुनगुनाती जाती और नदी में पानी भरता जाता...उस वक़्त याद के तिलिस्म की जरूरत नहीं होती. लड़की खुद तिलिस्म होती.

मगर न दिल्ली हमेशा के लिए होता न नदी का पानी...और न लड़की ही. दिल्ली से लौटने के बाद लड़की की उँगलियाँ दुखतीं और वो हज़ारों शहर भटकती मगर याद का तिलिस्म उसका पीछा नहीं छोड़ता. उसे दूर देशों में भी चिट्ठियां मिल जातीं. अजनबी लोग कि जिन्हें हिंदी समझ में नहीं आती थी उसकी किताब लिए घूमते और लड़की से इसरार करते के उसे एक कविता का मतलब समझा दे कम से कम. किताब का रंग लड़की की आँखों जैसा होता. किताब से लड़की के गीले बालों की महक आती...शैम्पू...बोगनविला...बारिश...और तूफानों की मिलीजुली. लड़की किसी स्क्वायर में लोगों को सुनाती कहानियां और वे सब याद के तिलिस्म में रास्ता भूल जाते. उस शहर के आशिकों की कब्रगाह में मीठे पानी का झरना होता. लड़की उस झरने के किनारे बैठ कर दोस्तों को पोस्टकार्ड लिखती. उसे लगता अगर दोस्तों तक ख़त सही सलामत पहुँच गए तो वे उसे तलाशने पहुँच जायेंगे और इस शहर से वापस ले जायेंगे. 

लड़की नहीं जानती थी कि याद के तिलिस्म से दोस्तों को भी डर लगता है. वे उसके पोस्टकार्ड किसी जंग लगे पोस्टबॉक्स में छोड़ देते के जिसकी चाभी कहीं गुम हुयी होती. कुछ भी हमेशा के लिए नहीं रहता. लड़की की कलम में ख़त्म हो जाती फिरोजी स्याही तो वो बंद देती लिखना पोस्टकार्ड. एक एक करके सारे भटके हुए लोगों को उस तिलिस्म के दरवाज़े तक पहुंचा आती. फिर हौले से बंद करती तिलिस्म का दरवाज़ा. 

उसके जवाबी ख़त उसे मिलते...एक एक करके. कब्र के पत्थरों पर लिखी इबारतों में. साइक्लोन की प्रेडिक्शन में. अचानक आ जाते भूकंप में. अचानक से छोटी हो गयी हार्ट लाइन में. आखिर में लड़की अपनी जिद छोड़ कर मैथ के इक्वेशन लिखना शुरू करती. दुनिया में होती हर चीज़ इक ख़त हुआ करती. महबूब का. आख़िरकार उसकी चिट्ठियों के जवाब आये थे. याद का तिलिस्म इक वन वे टिकट था. जहन्नुम एक्सप्रेस में एक ही सीट बची थी. लड़की ने ठीक से गिनीं नींद की गोलियां. नारंगी रंग की गोल्ड स्पॉट में उन्हें घोल रही थी तो उसने देखा कमरा तितलियों से भर गया है. देर हो रही थी. तितिलियाँ उसे उठा कर उड़ चलीं. खिड़की से पीछे छूटते नज़ारे हज़ार रंग के थे. दोस्तों की आँखों का रंग धुंधला रहा था. टीटी ने टिकट मांगी...लड़की ने अपनी उलझी हुयी हार्ट लाइन दिखाई. टीटी ने उसका ख़त रखा हाथ पर. कागज़ के पुर्जे पर गहरी हरी स्याही में लिखा था...'जानां, वेलकम होम'.

20 August, 2015

उसकी आँखों की पगडंडियाँ दिल में नहीं जहन्नुम में खुलती थीं

'तुम्हें जिरहबख्तर उतारना आता है?' लड़की ने पूछा था. 
लड़का हँसा था, 'सिल्क, सैटिन और लेस के ज़माने में जिरहबख्तर कौन पहनता है?'.
उसकी हँसी पर तीखा घाव लगा था...लड़की के ऑफ शोल्डर ड्रेस की महीन किनारी में तलवार की धार सा तेज स्टील का धागा बुना हुआ था. उसका जिस्म महीन, धारदार जालियों में बंधा हुआ था. उसकी कमर पर हाथ रखते हुए हथेलियों में बारीक धारियां बनती गयीं थीं...उसकी उम्र की रेखा को कई जगह से काटती हुयीं. 

शायद अँधेरा था. लड़के ने गौर से नहीं देखा होगा. लड़की की आँखों में कंटीले तारों की सीमारेखा बंधी हुयी थी. जिसके पार नो-मैन्स-लैंड था. उसने सिर्फ उस ज़मीन पर खिलते हुए गुलाबी फूल देखे थे...घास के कालीन की हरी मुलायमत देखी थी. बारूद के बिखरे रूपहले कणों पर उसका ध्यान नहीं गया था. ये विवादित क्षेत्र था. मौत अपने शिकार की तलाश में तितलियों की शक्ल में भटका करती थी. किसी की गंध तलाशती हुयी.

उसकी आँखों की पगडंडियाँ दिल में नहीं जहन्नुम में खुलती थीं...
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अँधेरा एक खूबसूरत चित्रकार है. रात घिरते कई तसवीरें बनाया करता. लड़की जिसकी आँखों में देख लेती, उसकी रूह कैद कर लेती. शाम घिरते वो बालकनी में बुलबुले उड़ाया करती. उसकी पलकें झपकतीं तो रूहें उन काले रंग के बुलबुलों में कैद हो जाया करतीं. लम्हा लम्हा बुलबुले फूट जाते और रात की काली नदी में शहर डूब जाता. रूहें कई बार रास्ता भटक जातीं और सियाही की बोतल में रहने लगतीं. लड़का ऐसी ही किसी सियाही से लिख रहा था...लिखते लिखते उसके हाथों से उस लड़की की तस्वीर बन गयी. वो देर रात तक पियानो बजाती रही थी. जब तक कि सारे काले कीय्स उसकी उँगलियों में न चुभ गए. तस्वीर में गिरने लगे पियानो के काले बटन...ग्लास में रखी काली ऐब्सिंथ...और लड़के के गहरे राज़. 

लड़के ने अपनी कलाई काट कर जान देने की कोशिश की. उसकी कलाई से इतना कोलतार बहा कि उसके घर से महबूबा के घर तक की कच्ची पगडंडी रात भर में पक्की सड़क में तब्दील हो गयी. सुबह उसे कब्रगाह ले जाने वालों का काफ़िला अचानक लड़की के घर की तरफ मुड़ गया वर्ना उसे बहुत दिनों तक मालूम नहीं चलता कि उसकी खिड़की पर काले गुलाब रखने किसने बंद कर दिए हैं.
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उसने आखिरी सिगरेट बचा बचा कर पी. तीन कश मार कर बुझा देती. सोचती कि इसी तरह कुछ देर रोक लेगी अलविदा का ये बिटर हैंगोवर. हर बार जब उसने अपने बदन पर रगड़ कर सिगरेट बुझाई तो बैंगलोर की सारी बारिशें उस जगह की जलन को कम करने को दौड़ पड़ीं. 
लड़की को दर्द की आदत लग चुकी थी. इश्क़ से भी बुरी आदत.
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जाते हुए उसने मेरी खारी आँखें चूमीं.
'तुम्हें ब्लैक कॉफ़ी पीने की आदत छोड़नी नहीं चाहिए थी, तुम में मुझे सिर्फ वही एक चीज़ अच्छी लगती थी'.
'मेरा ब्लैक कॉफ़ी पीना?'
'नहीं. आफ्टरटेस्ट'
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घर में न सिगरेट है, न विस्की है, न तुम हो. हम तलब से मर क्यूं नहीं जाते? 

15 August, 2015

इश्क़ की दस्तक में बारूद की गंध घुली थी. बारूद का ख़तरा भी.

लड़का चाँद की रौशनी वाली टॉर्च बनाना चाहता. लड़की उसकी आँखों की रंग वाली कैंडिल. 
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वे बंद पड़े पोस्ट ऑफिसों में सेंधमारी कर कर पढ़ते खुशबूदार लिफाफों वाली चिट्ठियां. वे इत्रदानों में घोलते सियाही और लड़का दवातों में टपका देने को ही होता बारिश की गंध का इत्र कि जो लड़की ख़ास कन्नौज से लायी होती...तभी लड़की उसकी कलाइयाँ पकड़ लेती हंसती हुयी...के उसके साथ होती तो लड़की को हँसने में डर नहीं लगता...वो मूसलाधार बारिशों सी भिगोने वाली हँसी हँसती थी. कलमें ठीक से नहीं चलेंगी...तुम्हें मालूम है न इत्र की कैफियत पानी से अलग होती है...अक्षर ठीक नहीं लिखे जायेंगे...मान लो उसे ख़त लिखने चली और नाम के बाकी अक्षर गायब हो गए तो. खुशबू ज्यादा जरूरी या के ख़त. लड़के कहता एकदम घिसा पिटा डायलौग, मुहब्बत और जंग में सब जायज़ है.
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इश्क़ की दस्तक में बारूद की गंध घुली थी. बारूद का ख़तरा भी.
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फिरोजी रंग की आँखें तलाशते लड़के को लेकिन सिर्फ सुबह का इंतज़ार है. लड़की की आँखें रात रंग की थी. लड़के की हँसी कोहरे की पदचाप जैसी. लड़की उसकी उँगलियों को याद किताबों के पेज नंबर मिटा कर अपना फोन नंबर लिखना चाहती. रबड़ से जरा सा भी रगड़ने की कोशिश करने पर लड़के की रेशमी उँगलियाँ उसके हाथों से फिसल जातीं. लड़के की त्वचा को बारीक मलमल तैयार करने वाले किसी बुनकर ने बुना था. उसके हाथों में यूँ तो कोई भी चीज़ खूबसूरत लगती मगर जो सबसे खूबसूरत होता वो उस लड़की का हाथ होता. लड़की कभी उसका हाथ नहीं पकड़ सकती क्यूंकि उसके हाथ हमेशा फिसल जाते. लड़का ही इसलिए लड़की का हाथ अपने हाथ में लिए चलता. लड़के की उँगलियों को दुनिया की सारी लाइब्रेजीज में रखी सारी किताबों के पेज नंबर याद थे. लड़के के लिए अलग अलग शहरों से बुलावा आता. कभी कभी कोई पुरानी पाण्डुलिपि खो गयी होती तो लड़के की उँगलियों से उसका पता तलाश लिया जाता. लड़की को इस सब से बहुत कोफ़्त होने लगी थी. उसे लगता था कि वे हाथ सिर्फ उसके लिए बने हैं. वह उसकी उँगलियों पर अपने नाम का गोदना गुदवा देना चाहती.
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वे सुकून बेचने आये गाँव के भोले भाले किसान से मोलभाव करते और आखिर आधे रूमाल भर सुकून खरीद पाते. उस आधे रूमाल का आधा आधा टुकड़ा दोनों बाँटना चाहते लेकिन रुमाल के बराबर हिस्से नहीं हो पाते. लड़का सुकून का बड़ा हिस्सा लड़की को देना चाहता लेकिन लड़की सुकून का छोटा हिस्सा लेना चाहती. दोनों बहुत देर तक भी एकमत नहीं हो पाते तो फिर झख मार कर सुकून बेचने वाले के पास फिर जाते. वो इनकी झिकझिक से इतना घबराया हुआ होता कि इन्हें देखते ही अपना माल असबाब लेकर कहीं भाग जाना चाहता. जब तक दोनों उसके पास पहुँचते, दोनों की साँस फूली हुयी होती. लड़की अपना पसंदीदा कंगन उसे देती और लड़का अपनी पसंदीदा घड़ी. इतने में एक चादर सुकून की आ जाती. दोस्त बाद में उनपर हँसते कि गाँव वाले ने अपना बदला ले लिया है. ये सुकून की चादर नहीं. कफ़न है. इसे ओढ़ कर सुकून सिर्फ मरने के बाद ही आएगा. लड़की मगर उस चादर पर काढ़ देती अपने पुराने प्रेमियों के नाम और लड़का उसपर परमानेंट मार्कर से लिख आता उन सारे शहरों का नाम जिनमें उसे इश्क़ हुआ था. दोनों एक दूसरे से वायदा करते कि वे एक साथ ही मरेंगे ताकि बिना किसी बेईमानी के...इसी सुकून के कफ़न में दोनों को एक साथ जलाया जा सके.
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लड़की उसके लिए कोई नया मौसम तलाशना चाहती और मौसम को पुकारती 'गुदगुदी'. वो जब भी उसके साथ होती तो इसी मौसम की सिफारिश करती. वे अपने साथ नन्ही शीशियाँ लिए घूमते थे. इन शीशियों में मौसमों का इत्र होता था.
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उसे इबारतों में यकीन नहीं था. इशारों में था. चुप्पियों में था.

यूँ भी वो सिर्फ चुप्पियों वाले जवाब मांगती थी. जब आँखों से पूछती थी लड़के से कि शाम का रंग कैसा है तो लड़का कुछ नहीं कहता. धूप से भीगे भीगे कमरे में फिरोजी आँखों वाली लड़की की पेंटिंग बनाता रहता.
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लड़की अपनी स्किन को रफ कॉपी की तरह इस्तेमाल करती. किसी का नाम. कोई भूली ग़ज़ल का मिसरा. पसंदीदा फिल्मों के कोट्स...सब लिखती रहती. इक दिन ऐसी ही बेख्याली में लिख दिया...Love is all a matter of time...इश्क़ को सिर्फ मोहलत चाहिए होती है...बहुत बाद में उसका ध्यान गया कि ये गलत लिख दिया है उसने...मगर फिर शायद जिंदगी के इस मोड़ पर उसे इसी फलसफे को सुनने की जरूरत थी. यूँ भी जिंदगी में अकस्मात् तो कुछ नहीं होता. इक वक़्त के बाद सब कुछ इश्क़ ही हो जाता है. महबूब भी. रकीब भी.
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अपनी कल्पनाओं के अँधेरे में लड़की उसकी गंध में भीगती. रूह तक. घर के सबसे ऊंचे ताखे पर रखती शिकायतों की गुल्लक, उससे मांगी गयी पेंसिलें और फिरोजी रंग के कॉन्टैक्ट लेन्सेस.
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मगर सच सिर्फ ये होता कि ये दुनिया अगर इश्वर की जगह उस लड़की ने बनायी होती तो भी सब कुछ ऐसा ही होता जैसा कि अभी है.
अबोला. अनछुआ. अनजिया.

19 July, 2015

जिंदगी ख़त्म हो जाती है. पूरी नहीं होती. अधूरी ही रहती है हमेशा.

लड़की बैठी है भगवान के पास. सर झुकाए. 'यू नो, यू आर सो ब्लडी यूजलेस, आई डोंट लाइक यू एनीमोर, तुम मेरी जिंदगी से चले क्यूँ नहीं जाते?' भगवान ही शायद इक ऐसा है जो लड़की से ज्यादा जिद्दी है.

तुम उसका नाम भूल गयी हो न. बस इक रंग रह गया है वो तुम्हारी आँखों में. हरा. दुनिया के सारे हरे रंग के शेड्स हैं उसके. सारे. सब समंदर. सारे पौधे. सब. आसमान भी कभी कभी ले आता है कोई रंग का हरा.

सुनो. मेरा क़त्ल कर सकोगे? बहुत हिम्मत की बात करते हो. मेरे दोस्तों में ऐसा कोई नहीं है जिसके हाथ न कांपें. मगर मुझे तुमसे बहुत उम्मीद है. तुम क्या सोचते हो यूथेनेसिया के बारे में? किसी की तकलीफ से किसी को मुक्त कर देना तो सही है न? फिर कहाँ है पैमाना कि शारीरिक दर्द बर्दाश्त न करने पर ऐसा करना चाहिए. ये जो मेंटल पेन है. व्हाट मेक्स इट लेस रियल? मेरी तकलीफ का कोई इलाज भी नहीं है. हाँ मुझे खुद में सुधार करने चाहिए. मुझे योग करना चाहिए. मुझे खुद को काम में बहुत व्यस्त रखना चाहिए. मगर नहीं होता दोस्त. एकदम नहीं होता. तकलीफ इतनी है कि कोई ट्रांक्विलाईजर काम नहीं करता. सुनो. तुम्हें रिवोल्वर चलाना आता है? अच्छा देसी कट्टा? हाँ. मैं इंतज़ाम कर दूँगी. तुम चिंता न करो. मेरे बहुत कॉन्टेक्ट्स हैं. तुम बस वादा करो कि तुम्हारे हाथ नहीं काँपेंगे. बस. 

मालूम. तुमसे बहुत सी बातें करनी थीं. मौत की. जिंदगी की. पहाड़ों की. जिस दिन मेरा व्हीली सीखने का मन किया तुमसे उस दिन बात करने का मन था. बताने का मन था. के तुम समझते. मेरे इस पागलपन को शायद. जानते हो दोस्त. मुझे पूरा पूरा कोई समझ नहीं पाता इसलिए अपने पागलपन के छोटे छोटे हिस्से करके लोगों से बांटते चलती हूँ. जरा जरा हिस्सों में समझते हैं सब मुझे. पूरा पूरा कोई समझ नहीं सकता. समझना भी नहीं चाहिए. शायद इश्वर नाराज़ हो जायेगा. उसकी फेवरिट में हूँ तब तो इतना सारा दुःख लिखा हुआ है किस्मत में. भड़क गया तो जाने क्या करेगा. शायद सारे रकीबों को मेरे शहर में ट्रांसफर दे देगा. 

मगर जान, तुम समझते हो न. मेरी मुसीबत इश्क़ नहीं है. मेरी मुसीबत मैं हूँ. ये जो मन है. जिस पर किसी का बस नहीं चलता. वो मन है. कोई कब तक अपनेआप से लड़ाइयाँ लड़े. थकान हो जाती है. पोर पोर दुखता है. फिजिकली यु नो. तुमने कितना पेन बर्दाश्त किया होगा? थक जाने की हद तक थक जाने के बाद भी शायद चलने का हौसला है तुम में. डिसिप्लिन भी. और तुम तो अच्छे भी हो कितने न. तुम्हारी आत्मा एकदम साफ़ है. सोचती हूँ कैसा होता होगा. हैविंग अन unbroken soul. unblemished. एकदम पाकरूह होना. जिसपर किसी के खून के छींटे न हों. किसी की तकलीफ के आँसू न हों. जिसने कभी किसी का बुरा न चाहा हो. किसी गिल्ट का खंजर जिसके जिस्म में न चुभा हो.

तुमने हाथ देखे हैं मेरे. दीज आर ब्लड लाइंस. मैकबेथ में था 'Will all the water in the ocean wash this blood from my hands? No, instead my hands will stain the seas scarlet, turning the green waters red.' रंग. रंग रंग. गहरा लाल. सुनो. तुम्हारे हाथ कांपते तो नहीं न? क्यूंकि अगर आखिरी लम्हे में तुम घबरा गए तो मौत बहुत तकलीफदेह हो जायेगी. मुझे और तकलीफ नहीं चाहिए. मैं ख़त लिख जाउंगी तुम्हारे नाम. जिसमें लिखा होगा कि तुम्हारा इसमें कोई दोष नहीं था. मैंने तुम्हारा माइंडवाश कर दिया है. मैं उसमें टोना टोटका की बातें भी लिख जाउंगी. मुझे डायन ही करार देना. फिर कोई जानना नहीं चाहेगा मेरी आत्मा से रिसते इस काले. गहरे. गाढे. अपराधबोध के बारे में. क्रिस्चियन लोग कहते हैं कि वी आर आल सिनर्स. हम भी तो कहते हैं एक दूसरे को पापी. मगर ये कलयुग है. यहाँ तो ऐसा ही होगा न.

मुझे आजकल बारिशें दिखती हैं बेतहाशा. मेरी आँखों पर बादल छाए रहते हैं. सब कुछ उदास और परेशान कर देने वाला है. इसमें मेरे लिए इतना ख्याल काफी है कि एक दिन इस सबसे मुक्त हो जाना है. जिंदगी में आई डोंट हैव ऐनी अनफिनिश्ड बिजनेस. कुछ अधूरा नहीं रखा है मैंने. यूं एक तरह से तो जिंदगी ख़त्म हो जाती है पूरी नहीं होती. अधूरी ही रहती है हमेशा.

इश्वर तुम्हारे हाथों को महफूज़ रखे.
आमीन. 

Dark as my soul

कह कर जाना नहीं होता. कहने का अर्थ होता है रोक लिया जाना. बहला लिया जाना. समझा दिया जाना. सवालों में बाँध दिया जाना. कन्फर्म नहीं तो कन्फ्यूज कर दिया जाना. जब तक हो रही है बात कोई नहीं जाता है कहीं. यहाँ तक कि ये कहना कि 'मैं मर जाउंगी' इस बात का सूचक है कि कुछ है जो अभी भी उसे रोके रखता है. उसे उम्मीद है कि कोई रोक लेगा उसे. कोई फुसला देगा. कोई कह देगा कोई झूठ. कि रुक जाओ मेरे लिए.

जाना होता है चुपचाप. अपनी आहट तक समेटे हुए. किसी को चुप नींद में सोता छोड़ कर. जाना होता है समझना सिद्धार्थ के मन के कोलाहल को. जाना होता है खुद के अंधेरों में गहरे डूबते जाना और नहीं पाना रोशनी की लकीर को. मुझे आजकल क्यूँ समझ आने लगा है उसका का चुप्पे उठ कर जाना. वे कौन से अँधेरे थे गौतम. वह कौन सा दुःख था. मुझे क्यूँ समझ आने लगा है उसका यूँ चले जाना. मुझे रात का वो शांत पहर क्यूँ दिखता है जब पूरा महल शांत सोया हुआ था. रेशम की चादरें होंगी. दिये का मद्धम प्रकाश होगा. उसने जाते वक़्त यशोधरा को देखा होगा? सोती हुयी यशोधरा के चेहरे पर कैसा भाव होगा? क्या उसे जरा भी आहट नहीं महसूस हुयी होगी? वो कौन से अँधेरे थे. वो कौन से अँधेरे थे. मुझे बताओ.

क्यूँ याद आने लगे हैं थाईलैंड के सोये हुए बुद्ध. स्वर्ण प्रतिमाएं. साठ फीट लम्बी. पैरों के पास से देखो तो चेहरे की मुस्कान नहीं दिखती. इन फैक्ट लोगों को बुद्ध के चेहरे पर जो शांति दिखती है वो मुझे कभी नहीं दिखी. उन्हें उनके सवालों का जवाब मिल गया था. कोई मध्यमार्ग था. उन्होंने कभी अपने बेटे को गोद में लेकर चूमा होगा? किसी लम्हे उनमें पितृभाव जागा होगा? मध्य मार्ग. बुद्धं शरणम गच्छामि. धम्मम शरणम गच्छामि. वाकई. कोई मध्य मार्ग होता है. उसमें तकलीफ कम होती है? वहां रौशनी होती है? या कि हम सबको अपना बोधि वृक्ष स्वयं तलाशना होता है?

मैं आजकल वही ढूंढ रही हूँ. अपना बोधि वृक्ष. अपना धर्म. जिसमें मेरी आस्था हो. आस्था. मैं आजकल खुद से अजीब सवाल करने लगी हूँ. मैं अर्थ ढूँढने लगी हूँ. जीवन का क्या अर्थ है. कोई खूबसूरत चीज़ जब मन में ऐसे गहरे भाव उत्पन्न करती है कि मैं समझने और खुद को व्यक्त करने में अक्षम पाती हूँ तो सवाल वही होता है. इसका क्या अर्थ है. गहरे. और गहरे. चीज़ों को सिर्फ ऊपर ऊपर देख कर संतोष नहीं होता. मुझे जानना होता है कि इनके पीछे कोई गूढ़ मतलब होता है. कुछ ऐसा जो मेरी पकड़ में नहीं आ रहा. रोज की यही जिंदगी. लिखना. पढ़ना. बहस करना. इसके अलावा भी कुछ होना चाहिए जीवन का मकसद. सिर्फ आसमान और सूरज के बारे में लिख कर क्या हासिल होगा. हासिल. हासिल क्या है जिंदगी का. हम जो इतने लोगों से बात करते हैं. मिलते हैं. सब क्या कोई फिल्म है जिसके एंड में सब कुछ सॉर्टेड हो जाएगा. इक लोजिकल एंड होगा. सब चीज़ें अपनी अपनी जगह होंगी. वहां जहाँ उन्हें होना चाहिए. ये मेरा मन शांत क्यूँ नहीं होता.

मुझे समझ में आता है कि ऐसी किसी तलाश के लिए अकेले जाना होता है. मैं जो इतने शोर में चुप होती जा रही हूँ. ये दिखता नहीं है किसी को. मैं डिटैच होती जा रही हूँ. सबके बीच होते हुए भी कहीं और हूँ. ये कौन से पाप हैं. What sins. जिनका प्रायश्चित्त इस जन्म में नहीं हो सकता. कोई मन्त्र होता है? कोई नदी कि जिसका पानी इतना शुद्ध के मन के सारे विकार दूर कर सके. मैं शुद्ध होना चाहती हूँ. मन. प्राण. आत्मा से शुद्ध. मैं एक नया जीवन चाहती हूँ. stripped clean. absolved. forgiven. 

स्वयं से इतनी घृणा कर के जिंदगी जी नहीं जा सकती. ये इक झूठ कहते हैं हम खुद से कि हम बदल सकते हैं खुद को. कुछ नहीं बदलता. हमारा स्वाभाव. हमारे रिएक्शन्स. हमारा इंस्टिंक्ट. मगर फिर मैं ये भी तो सोचती हूँ कि गुलामी खुद की करनी कौन सी अच्छी बात है. और नामुमकिन पर तो मेरा विश्वास नहीं है. इन विरोधाभासों में कैसे जियेंगे जिंदगी. और लोग भी परेशान होते होंगे इतना सोच सोच कर? मुझे आजकल अपनी कोई बात पसंद नहीं आती. अपनी कोई आदत नहीं. इतना सारा अँधेरा है खुद के अन्दर कि मुझे समझ नहीं आता कहाँ से लाऊं चकमक पत्थर और चिंगारी तलाशूँ कोई. मुझे सब लोग खुद से अच्छे दिखते हैं. इक वक़्त आई वाज कम्फर्टेबल विथ नॉट बीईंग गुड. कि सब लोग दुनिया में अच्छे ही हो जायेंगे तो दुनिया कैसे चलेगी. मगर कभी कभी लगता है कि नहीं हो पायेगा. इक सीधी सिंपल जिंदगी क्या बुरी है. ये अँधेरे के दानव मैंने ही पाल रखे हैं अपने अन्दर. शायद इन्हें मुक्त करने का वक़्त आ गया है. 

It's difficult to live with a shattered soul. A bruised heart. A broken thought-process. Every thing is a dead end. After one point, there is no healing. I have bandaged myself so well. I'll slowly disintegrate.

मैं किसी अँधेरी गुफा के डेड एंड पर खड़ी हूँ. मुझे आगे का रास्ता समझ नहीं आता. पीछे लौटने का कोई रास्ता भी नहीं दिखता. मुझे आजकल बहुत से भयानक ख्याल आते हैं. नस काट के मर जाने वाले. कांच से उँगलियाँ काट कर खून रिसता देखने वाले. खून की गंध. मदोन्मत्त करने वाली. जैसे गांजे की गंध होती है. एक बार उस गंध को आप पहचान गए तो उसकी इक फीकी धुएं की लकीर भी आपको दिखने लगेगी. दुःख का ऐसा ही नशा होता है. मर जाने की ऐसी ही कुलबुलाहट. आकुलता. हड़बड़ी. धतूरा. आक के फूल. शिव. तांडव.

प्रेम. विश्वास. जीवन.
सब. टूट चुका है. मेरे ह्रदय की तरह.

17 July, 2015

वो चूम नहीं सकती थी बारिश को. इसलिए उसने इजाद किया इक प्रेमी.

घर में सिगरेट ख़त्म हो गयी थी. मुझे तुम्हारी तलब लगी थी. शहर का मौसम इस कदर शांत था कि तुम्हारा नाम लेती तो ये कांच की दुनिया छन्न्न्न से टूट कर गिर जाती. आसमान में काले बादल थे. मगर चुप. पंछी भटक गए थे रास्ता. जबकि मैंने उनके पैरों में तुम तक पहुँचने वाले ख़त नहीं बांधे थे. किसी चौराहे पर पूछते वे किसी पेड़ से तुम्हारे दिल का पता मगर जाने किसने तो निषिद्ध कर रखा था तुम्हारा नाम. 

पौधों को भी समझ आती है तुम्हारे नाम की लय. वे खिलते हैं अमलतास की तरह. के पूरा शहर पागल हो जाता है उनके खुमार में. मैं नींद में बुदबुदाती हूँ तुम्हारा नाम.

मुझे लिखना है तुम्हारा नाम...जैसे कोई करता है इबादत. मगर तुम्हारी आँखों का रंग है सियाह. तुम्हारे पीछे चलता है काली रौशनी का चक्र. उसमें देखने वाले भूल जाते हैं खुद को. अपनी जिंदगी के किसी भी मकसद को. काले कागज़ पर चमकता है रक्त. तुम्हारे नाम को लिखती हूँ तो कांपती है धरती. आते हैं भूकंप. किसी दूसरी दुनिया में मर जाते हैं बहुत सारे लोग. ज़मींदोज़ हो जाता है तुम्हारी प्रेमिकाओं का शहर. मेरी हंसी से बनती जाती है जहन्नुम तक इक वर्टिकल टनेल. जैसे तुम्हारे सीने की टूटी हुयी दरार में हूक कोई. मैं लिखती जाती हूँ तुम्हारा नाम. 

कागज़ को रोल करती हूँ. होठों से लगाती हूँ तुम्हारा सुलगता हुआ नाम. उन्माद है कोई. होठों पर सिसकियाँ लिए आता है. दांतों तले भींचती हूँ होठ. बंद करती हूँ आँखें. लेती हूँ बहुत गहरी सांस. तुम बेचैन हो उठते हो. बारिशों में घुल जाता है तुम्हारे शहर का ऑक्सीजन. नमकीन बारिशें. 

तुम अंधेरों की नाजायज़ औलाद हो कि अँधेरे तुम्हारी? 

पन्ने पलटते हुए आता है कहानी का स्वाद. उँगलियों की पोर में तुम्हारा स्वाद. इसलिए मैं नहीं पढ़ती बहुत सी किताबें. तुम्हें किताबों से डर लगता है? मेरे सिरहाने रखे थे धर्मग्रन्थ. मगर फिर मेरा विश्वास टूट गया इश्वर में. तकिये के नीचे रखा है इक तेज़ धार वाला चाकू. इससे बुरे सपने नहीं आते. मैं इसलिए अपने तकिये पर नहीं सोती. मुझे बुरे सपनों से परहेज़ नहीं है. जिन लोगों को लगता है अपनी मृत्यु वाले सपने बुरे हैं उन्होंने नहीं चखी है तुम्हारी आवाज़ की धार. तुम्हें छूना आत्महंता होने की दिशा में पहला कदम था. 

कुछ चीज़ें मेरी जिंदगी में कभी नहीं हो सकतीं. जैसे मैं बेतरह पी कर भी आउट नहीं हो सकती. अगर मैं कहूं कि मैं मर जाउंगी तो भी तुम ब्लैक शर्ट पहनना बंद नहीं कर सकते. बारिश में सिगरेट नहीं पी जा सकती. बारिश को चूमा नहीं जा सकता इसलिए इजाद करना पड़ता है इक प्रेमी का. हम सिगरेट शेयर नहीं कर सकते इसलिए रकीब बाँट लेते हैं आपस में.

इक कप ग्रीन टी ख़त्म हो गयी है. उलझन में गर्म पानी उसी उदास टी बैग में डाल चुकी हूँ. यूं भी प्रेमिकाओं के हिस्से कम ही आता है प्यार. उदास. फीका. किसी के टुकड़े ही तलाशते हो न. आँखें. जिस्म का कटाव. हंसी की खनक. देखने का अंदाज़. कितना कुछ किसी और के हिस्से का होता है. फिर भी. कोई लड़की होती है. अधूरी. टूटी फूटी. बिलख बिलख के माँगती है मुझसे. तुम्हारा बासी प्यार. तुम्हारी महक. तुम्हारी कलम से लिखा तुम्हारी पहली प्रेमिका का नाम. तुम मेरे होते तो लौटा भी देती. शायद.

मेरी कलम से रिस रिस कर बहते हो तुम. किसी का गला रेत देने के बाद की खींची हुयी सांसें. जो खून और हवा में मिली जुली होती हैं. मैं सीखना चाहती हूँ पत्थरों की कारीगरी. किसी टूटे हुए महल के गिरे हुए पत्थरों पर चुप जा के तराश देना चाहती हूँ तुम्हारा नाम. 

हो सके तो मेरे अनगढ़पने को माफ़ कर देना.
मुझे लिखना नहीं आता. प्रेम करना भी.

14 July, 2015

दफ़ा तीन सौ दो...सज़ा-ए-मौत


लेखक की हत्या करना बहुत मुश्किल कार्य है. खास तौर से उस लेखक की जो अपने ही मन के अन्दर रहता हो कहीं. ये बहुत जीवट प्राणी होता है. रक्तबीज की तरह. एक तरफ से मारो तो हज़ार तरफ से जिन्दा हो उठता है. कहानियों से ख़त्म करो तो कविता में उगने लगे...कविता से नामोनिशां मिटाओ तो उपन्यास का कोई किरदार बन कर दिन रात साथ रहने लगे...के लेखक के छुपने के कई ख़ुफ़िया ठिकाने हैं...दो धड़कन के बीच के अंतराल में...किसी मित्र के टूटे हुए दिल के सुबकते हुए किस्से में...बच्चों के खेल में...स्त्रियों की चुगली में...बूढों के अबोले इंतज़ार में. अन्दर का लेखक हुमक हुमक के दौड़ता है. कहता है. सुनता है. इक अदृश्य डायरी लिए चलता है लेखक. सब कुछ लिख जाने के लिए. उसकी अदृश्य कलम चलती है तो रंग. गंध. स्पर्श. सब रह जाता है.

पर किसी भी ऐसे कदम के पहले सवाल करना होगा कि 'आखिर क्यूँ किया जाए क़त्ल...' कोर्ट भी आखिर पहला सवाल यही करता है कि क़त्ल के पीछे मोटिव क्या है. अगर कोई स्ट्रोंग मोटिव न हो तो इतनी मुश्किल काम के लिए खुद को मोटिवेट करना बहुत मुश्किल हो जाता है. और जनाब, मोटिवेशन की जरूरत यहाँ चप्पे चप्पे पर पड़ती है. लेखक से रूबरू हुए बिना यहाँ सांस लेना मुहाल है. जिन लम्हों में आप किसी और के बारे में नहीं सोच सकते वहां भी लेखक अपनी मौजूदगी की दस्तक दिए रखता है.

उसे हज़ार तालों में बंद कर दें तो दस हज़ार चाबियाँ पैदा हो जाती हैं. डैन्डेलियन की तरह दूर दूर तक उड़ते रहते हैं फाहे. लेखक एक बहुत ही खुराफाती जीव होता है. और बहुत शक्तिशाली भी. उसकी ऊर्जा से इक और दुनिया बनने लगती है जो इस दुनिया के ठीक विपरीत होती है. सच की दुनिया और उस मायावी दुनिया के बीच रस्साकशी होने लगती है. इन दोनों दुनियाओं के ठीक बीच होता है वह व्यक्ति जिसके अन्दर लेखक पनाह पाता है. ये दोनों दुनियाएं उसे विपरीत दिशाओं में खींचती हैं. असल की दुनिया अगर वफ़ा का पाठ पढ़ाती है तो लेखक बेवफाई के कसीदे काढ़ता है. इस दुनिया को अगर प्रेम के अंत में दोनों प्रेमियों का एक साथ हो जाना पसंद है तो लेखक को विरह का अनंत दुःख पसंद आता है. दुनिया संस्कारों की दुहाई देती है, लेखक आज़ादी का परचम फहराता है कुछ इस तरह कि हर रिवाज़ को ठोकर मारता है और इन्कलाब की काली पट्टी बांधे घूमता है उम्र भर. इस दुनिया में मित्रों के लिए पैमाने होते हैं...कोई चीज़ कॉमन होनी चाहिए. शौक़. उम्र. मिजाज़. परिवेश. लेखक आपको एकदम रैंडम लोगों के बीच फेंकने के लिए कुल्बुलायेगा. आप अपने आप को अनजान देशों में अजनबियों की संगत में पायेंगे. इस दुनिया में व्यक्ति चैन चाहता है. शांति चाहता है. लेखक लेकिन बेचैनी चाहता है. अशांति मांगता है. उसकी दुआओं में दंगे होते हैं. बिगडैल बच्चे होते हैं. जिंदगी जहन्नम होती है.

लेखक को हर जगह ऐसी चीज़ें दिखती हैं जो आम लोगों ने इग्नोर कर रखी हैं कि वे एक नार्मल जिंदगी जी सकें. अब इश्क़ को ही ले लीजिये. आखिर क्या कारण है कि हिंदी वर्णमाला में ल के बाद व आता है. बचपन से ही हम यर लव पढ़ते हैं. अब यार ऐसे में लव होना चाहिए ये कहेगा लेखक. 

ऐसी तमाम और चीज़ें हैं जो जीना मुहाल किये रखती हैं. लेखक के लिए ये दुनिया काफी नहीं पड़ती. यहाँ चाँद कम है. धूप कम है. इश्क़ कम है. दर्द कम है. और ख़ुशी तो बस. छटांक भर मिलती है. लेखक दुनिया की हर चीज़ को अपने हिसाब से बढ़ा-घटा कर इक ऐसे अनुपात में ले आता है जहाँ दुनिया होती तो है लेकिन क्षणभंगुर. मगर चूँकि उस दुनिया का वजूद बहुत कम वक़्त के लिए होता है तो उसकी हर चीज़ में इक मायावी ऊर्जा होती है. उस दुनिया का आकर्षण जब खींचता है तो इस दुनिया का कोई भी नियम उसपर लागू नहीं होता. सिर्फ 'गॉड' पार्टिकल नहीं होता. पूरी दुनिया हो जाती है उस एक लम्हे में दर्ज. इस तरह की अनगिन दुनियाएं जो टूटती रहती हैं तो उनका चूरा इकठ्ठा होते जाता है. आँखों में. उँगलियों की पोरों में. कलम की निब में. ये कचरा जहरीला होता है...इसके रेडियेशन से प्राण जाने का खतरा नहीं होता लेकिन इस जरा जरा से चूरे के कारण व्यक्ति का खिंचाव दूसरी दुनिया की तरफ बढ़ता जाता है. इक रोज़ ऐसा भी आता है कि वे इस दुनिया को पूरी तरह त्याग कर दूसरी दुनिया में चले जाते हैं. ऐसे लोगों को इस दुनिया में 'पागल' कहा जाता है. उनका संक्रमण और लोगों तक न फैले इसलिए दुनिया उन्हें खास तौर से आइसोलेट करके बनाए घरों में रखती है जिन्हें यूँ तो पागलखाना कहा जाता है मगर ये जगह ऐसी मायावी होती है कि कई और नामों से जानी जा सकती है जैसे कि पार्लियामेंट, चकलाघर, कॉलेज, कॉफ़ीहाउस इत्यादि. जहाँ पागलों का जमघट लग गया वो जगह अघोषित पागलखाना हो जाती है. कई बार ऐसी जगहों ने आंदोलनों को जन्म दिया है जिनसे इस दुनिया के लोगों में विरक्ति उत्पन्न हो गयी है और वे लेमुरों की तरह मंत्रबद्ध किसी ऊंची खाड़ी से आत्महत्या की छलांग लगाने को तत्पर हो गए हैं. 

लेखक ने सच को ओब्सोलीट और आउटडेटेड करार दे दिया है. 

जिस चीज़ के बारे में ठीक ठीक जानकारी न हो ये खतरनाक होती है ऐसा इतिहास ने बार बार सिद्ध किया है. लेखकों के ऊपर कुछ प्रमाणिक दस्तावेज खुद उनकी कलम से मिले हैं. जैसे कि मंटो साहब कह गए हैं के उनके मन में ख्याल उठता रहा है कि 'वो ज्यादा बड़ा अफसानानिगार है या खुदा'. गौरतलब है कि ये बात स्वयं मंटो ने अपनी कब्र का पत्थर चुनते हुए कही थी. 

यूँ अधिकतर लेखक खुद ही आत्महत्या कर के जान दे देते हैं. मगर जब ऐसा नहीं होता है तो उनकी सुनियोजित तरीके से हत्या जरूरी है ताकि दुनिया वैसी ही रहे जैसी कि इसे होनी चाहिए. उनके जीने के लिए दुनिया कभी काफी नहीं पड़ती. न इश्क़. न दर्द. न सुख. वे हमेशा उस 'डेल्टा' एक्स्ट्रा के चक्कर में मौजूदा चीज़ों के स्टेटस-को को चैलेन्ज करने चल देंगे. अक्सर सोचे बिना कि इसका हासिल क्या होगा. उन्हें जरा सी और मुहब्बत चाहिए होती है. जरा सी और बेवफाई. जरा से और दुःख. जरा सा और सुख. जितना कि उनकी नियति में लिखा है. इस जरा से के लिए वे एक जेब में कलम तो दूसरी जेब में माचिस लिए घूमते हैं कि दुनिया को आग लगा देंगे. इन्हें समझाने के तरीके तो कारगर नहीं होते इनके इर्द गिर्द के लोगों का जीना जहन्नुम बना होता है. लेखक एक बेहद सेल्फिश जीव होता है. सिंगल फोकस वाला. उसके लिए सब कुछ क्षम्य है. दुनिया के घृणित से घृणित अपराध तक. उसके लिए दुनिया महज़ एक रफ नोटबुक है. जिंदगी एक एक्सपेरिमेंट.

जिंदगी की लाइव फीड में स्पेशल इफ़ेक्ट की चलती फिरती दुकान हैं. इनके लिए जिंदगी में कुछ भी बाहर से नहीं आता...भीतर से आता है. मन के गहराई भरी परतों से. उनके अन्दर इतने भाव भरे होते है कि वे किसी चीज़ को साधारण तरीके से देख नहीं सकते. उनके लिए जिंदगी के तमाम रंग ज्यादा चटख हैं...तमाम दुःख ज्यादा असहनीय और तमाम खुशियाँ इस बेतरह कि बस जान दे दी जाये. जान देने से कम किसी चीज़ पर इनका यकीन नहीं होता. 

इक वक़्त ऐसा आता है कि ये मन के अन्दर पैठा हुआ लेखक जिंदगी को बेहद दुरूह और मौत को बेहद आकर्षक बना देता है. इसके पहले कि व्यक्ति किसी हंगेरियन सुसाइड गीत को सुनते हुए मरने की प्लानिंग कर ले...अपने अन्दर के इस लेखक को दफना के देखना चाहिए कि जिंदगी जीने लायक है या नहीं.

जरा कम उदास. जरा कम खुश. जरा कम तकलीफ. जरा कम जिंदा. मगर जरा से बचे रहने की कवायद में मैं अपने अन्दर के इस लेखक के लिए सजाये मौत की सज़ा मुकरर्र करती हूँ. इसे इक ताबूत में बंद कर गंगा की दलदली मिट्टी में दफनाती हूँ के अगर सांसें बची रह गयी हों तो गंगा का रिस रिस पानी भरता जाए ताबूत में. इक इक सांस को तरस कर मरे...कि ट्रेजेडी के प्रति उसके असीम प्रेम को देखते हुए साधारण मौत कम लगती है. 

कब्र के पत्थर पर की कविता लिखे इश्क़ और इस लेखक की मौत में शामिल होने के अपराधबोध से ग्रस्त हो कर गंगा में कूद कर आत्महत्या कर ले.

[ ज़िन्दगी टेक वन.
एक्शन. ]

06 July, 2015

वसीयत





इक रोज़. मैं नहीं रहूंगी.
उस रोज़. इक सादे कागज़ पर. बस इतना लिख देना.
तुमने मुझे माफ़ कर दिया है.

 
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दुनिया का कोई कोरा कोना तलाश कर उसमें रख देना मेरे हिस्से के दुःख. मेरे न होने का खालीपन. उदास नदियों से माँग लाना पानी और धुल देना मेरे ख़त. उन खतों में लिखा होगा बहुत सा प्रेम. तुमने नहीं सुने होंगे मेरी पसंद के गीत. उस दिन खोलना मेरा लैपटॉप और प्लेलिस्ट में देखना मोस्ट प्लेड की लिस्ट. सुनना लगातार उन गीतों को जिन्होंने कई कई शामों तक मुझे बहलाए रखा था कि मैं जान न दे दूं. वे गीत तुम्हें पागलपन की कगार से बचा लायेंगे. मृत्यु की कगार से भी.

फोन में होगा स्टार्रेड कांटेक्ट लिस्ट. उन्हें करना फोन. वे अपने अपने हिस्से का मेरा हिस्सा सुनायेंगे तुम्हें. मेरे कॉलेज के टाइम की मुस्कान. मेरी स्कूल के दिनों की शैतानियाँ. मेरे अवसाद के दिनों के आत्मघाती तरीके. मेरे बाद मेरे सारे दोस्त हो जायेंगे तुम्हारे बेस्ट फ्रेंड. वे तुम्हारे नाम बांधेंगे अनजान मजारों पर मन्नतों का धागा. वे दुआओं में मांगेंगे तुम्हारे लिए कई जन्मों की खुशियाँ. वे करेंगे तुमसे वादा कि जहन्नुम में तुम्हें अपने गैंग का हिस्सा बनायेंगे. अपनी फेसबुक पोस्ट में वे तुम्हें टैग करेंगे जाने कितने सफ़र के दरम्यान. वे तुम्हें भेजेंगे अनजान देशों से पोस्टकार्ड...कई सारे स्टैम्प मिलेंगे तुम्हें. सब सहेजना एक एक कर के. दुनिया के सबसे पागल. खूबसूरत. दिलकश लोग हैं वे. जो कि मेरी लिस्ट में रहते हैं.

मेरे बैग में टंगा होगा कोई गहरे लाल रंग का स्टोल...उसे खोल देना. जाने कितने शहरों की खुशबू बसी होगी उसमें. कितना इतर. कितने मौसम बंधे होंगे रेशम के उस जरा से टुकड़े में. टेबल पर मेरी इंकपॉट्स भी तो होंगी. उन्हें इसी स्टोल में बांध देना. इस सियाही को बचा बचा कर इस्तेमाल करना. इनसे जो भी लिखोगे उसमें मेरी अदा घुलने लगेगी. मेरे किरदार. मेरी अधूरी कहानियां. वो नाम जो मैंने अपने बच्चों के लिए सोचे थे.

खोलना मेरी डायरी. आखिरी एंट्री में लिखा होगा तुम्हारा ही नाम. मैं हर दिन यूँ ही जीती हूँ कि जैसे आखिरी हो. मेरी हर सांस में तुम्हारा होना है. मेरी हर धड़कन अनियंत्रित होती है सिर्फ तुम्हारे नाम से. उस दिन पढ़ना मुझे. उस दिन जानना. उस दिन समझना. उस दिन यकीन कर लेना. इक पहली और आखिरी बार. तुम मेरे प्राण में बसे हो. हमेशा. हमेशा. 

विस्मृत कहानियों से माँग लाना मेरी पहचान. मेरी कविताओं में मिलेगा मेरी गुनगुनाहट का कतरा कोई. बेजान तस्वीरों के पीछे छुपी होगी मेरी आँखें. धुएं और धुंध में डूबी. जरा जरा इश्क़ में भी. 

सब कुछ तलाश लाओगे फिर भी कुछ अधूरा सा रहेगा. जान. उस दिन तलाशना अपनी रूह के अन्दर मेरे होने के निशां...किसी ज़ख्म में...किसी सिसकी में...तकलीफों के रूदन में बचा होगा जरा सा मेरा होना...सब इकठ्ठा करना जरा जरा. फिर भी नहीं पूरी हो पाऊँगी मैं...क्यूंकि तुम, मेरी जान...समझ नहीं पाओगे...मेरे होने का सबसे जरूरी हिस्सा...मेरा दिल...तुम्हारे दिल के किसी भीतरी कोने में रखा होगा. अपने अन्दर से तलाशना मुझे. फिर रख देना चिंदी चिंदी कर लायी गयी मेरी सारी निशानियों में.

मैं पूरी हो जाउंगी. उतनी कि जितनी अपने जीते जी नहीं थी कभी.

03 July, 2015

उन खतों का मुकम्मल पता रकीब की मज़ार है


क्या मिला उसका क़त्ल कर के? औरत रोती है और माथा पटकती है उस मज़ार पर. लोग कहते हैं पागल है. इश्क़ जैसी छोटी चीज़ कभी कभी पूरी जिंदगी पर भारी पड़ जाती है. अपने रकीब की मज़ार पर वह फूल रखती...उसकी पसंद की अगरबत्तियां जलाती...नीली सियाहियों की शीशियाँ लाती हर महीने में एक और आँसुओं से धुलता जाता कब्र का नीला पत्थर.
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शाम के रंग और विस्कियों के नशे वाले ख़त तुझे नहीं लिखे गए हैं लड़की. तुम किस दुनिया में रहती हो आजकल? उसकी दुनिया में हैं तितलियाँ और इन्द्रधनुष. उसकी दुनिया में हैं ज़मीन से आसमान तक फूलों के बाग़ कि जिनमें साल भर वसंत ही रहता है. वहां खिलते हैं नीले रंग के असंख्य फूल. उस लड़की की आँखों का रंग है आसमानी. तुम भूलो उस दुनिया को. गलती से भी नहीं पहुंचेगा तुम्हारे पास उसका भेजा ख़त कोई...कोई नहीं बुलाएगा तुम्हें रूहों के उस मेले में...तुम अब भी जिन्दा हो मेरी जान...इश्क़ में मिट जाना बाकी है अभी.
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हूक समझती हो? फणीश्वर नाथ रेणु की कहानियां पढ़ो. समझ आएगी हूक. उसके घर के पास वाले नीम की निम्बोलियां जुबां पर रखो. तीते के बाद मीठा लगेगा. वो इंतज़ार है. हूक. उसकी आवाज़ का एक टुकड़ा है हूक. हाराकीरी. उससे इश्क़. क्यूँ. सीखो कोई और भाषा. कि जिसमें इंतज़ार का शब्द इंतज़ार से गाढ़ा हो. ठीक ठीक बयान कर सके तुम्हारे दिल का हाल.
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क्यूँ बनाये हैं ऐसे दोस्त? मौत की हद से वापस खींच लायें तुम्हें. उन्हें समझना चाहिए तुम्हारे दिल का हाल. उन्हें ला के देना चाहिए तुम्हें ऐसा जहर जिससे मरने में आसानी हो. ऐसा कुछ बना है क्या कि जिससे जीने में आसानी हो? नहीं न? यूँ भी तो 'इश्क एक 'मीर' भारी पत्थर है, कब दिले नातवां से उठता है.'.
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तुम ऐसा करो इश्क़ का इक सिम्प्लीफाईड करिकुलम तैयार कर दो. कुछ ऐसा जो नौर्मल लोगों को समझ में आये. तुम्हारी जिंदगी का कुछ तो हासिल हो? तुम्हें नहीं बनवानी है अपनी कब्र. हाँ. तुम्हें जलाने के बाद बहा दिया जाएगा गंगा में तुम्हारी अस्थियों को. मर जाने से मुक्ति मिल जाती है क्या? तुम वाकई यकीन करती हो इस बात पर कि कोई दूसरी दुनिया नहीं होती? कोई दूसरा जन्म नहीं होता? फिर तुम अपने महबूब की इक ज़रा आवाज़ को सहेजने के लिए चली क्यूँ नहीं जाती पंद्रह समंदर, चौहत्तर पहाड़ ऊपर. तुम बाँध क्यों नहीं लेती उसकी आवाज़ का कतरा अपने गले में ताबीज़ की तरह...तुम क्यूँ नहीं गुनगुनाती उसका नाम कि जैसे इक जिंदगी की रामनामी यही है...तुम्हारी मुक्ति इसी में है मेरी जान.
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तुमने कैसे किया उसका क़त्ल? मुझे बताओ न? क्या तुमने उसे एक एक सांस के लिए तड़पा तड़पा के मारा? या कि कोई ज़हर खिला कर शांत मृत्यु? बताओ न?
प्रेम से?
तुमने उसका क़त्ल प्रेम से किया?
प्रेम से कैसे कर सकते हैं किसी का क़त्ल?
छोटी रेखा के सामने बड़ी रेखा खींच कर?
तुम्हें लगता है वो मान गयी कि तुम ज्यादा प्रेम कर सकती हो?
क्या होता है ज्यादा प्रेम?
कहाँ है पैरामीटर्स? कौन बताता है कि कितना गहरा, विशाल या कि गाढ़ा है प्रेम?
सुनो लड़की.
तुम्हें मर जाना चाहिए.
जल्द ही. 

02 June, 2015

Unkiss me...Untouch me... Untake this heart...

हमारे कमरों में एक सियाह उदासी थी. इक पेचीदा सियाह उदासी जिसकी गिरहें खोलना हमें नहीं आता था. हम देर तक बस ये महसूस करते कि हम दोनों हैं. साथ साथ. ये साथ होना हमें सुकून देता था कि हम अकेले नहीं हैं.

हमें एक दूसरे की शिनाख्त करनी चाहिए थी मगर हम सिर्फ गिरहों को छू कर देखते थे. फिर एक दिन हमें पता चला कि वे गिरहें हमें एक दूसरे से बांधे रखती हैं. फिर हमें छटपटाहट होने लगी कि हम इस गिरह से छूट भागना चाहते थे.

नींद और भोर के बीच रात थी. रात और सियाह के बीच एक बाईक के स्टार्ट होने की आवाज़. वो लड़का कहाँ जाता था इतनी देर रात को. किससे मिलने? और इतने खुलेआम किसी से मिलने क्यूँ जाता था कि पूरा महल्ला न केवल जानता बल्कि कोसने भी भेजता था उस लड़की को...रात के इतने बजे सिर्फ गुज़रती ट्रेन की आवाज़ सुनने तो नहीं जा सकता कोई. 

कौन था वो लड़का. उदासी पर बाईक की हेडलाईट चमकाता. मैं सोचती कि खोल लूं इक गिरह और जरा देर को मुस्कुराहटों का सूरज देख आऊँ. हमें उदासी और अंधेरों की आदत हो गयी थी. हम अपने कम्फर्ट ज़ोन से बाहर नहीं जाना चाहते थे. मैं बस थी. वो बस था. इसके आगे कुछ होना समझ नहीं आता था. 

बात इन दिनों की है जब मैं लिखना भूल चुकी हूँ. मैं बस जानना चाहती हूँ कि तुम्हें मेरे ख़त मिले या नहीं. वो मेरे आखिरी ख़त थे. उन्हें लिखने के बाद मेरे पास सियाही नहीं बची है. शब्द नहीं बचे हैं. कुछ कहने को बचा ही नहीं है. सच तो कुछ नहीं है न दोस्त...सच तो मेरा खोना भी है...मर जाना भी है... फिर सब कुछ कहानी ही है. 

तुम समझ नहीं रहे हो...

मुझे तुम्हें बताना नहीं चाहिए था कि तुम मेरे लिए जरूरी हो. ऐसा करना मुझे तकलीफ देता है. मैंने सिल रखी हैं अपनी उँगलियाँ कि वे तुम्हारा नंबर न डायल कर दें. मेरे लैपटॉप पर अब नहीं चमकती तुम्हारी तस्वीर. 

अगर मर जाने का कोई मौसम है तो ये है. 

फिर भी. फिर भी. तुम्हें मालूम नहीं होना चाहिए कि कोई अपनी जागती साँसों में तुम्हें बसाए रखता है. 

घर पर लोगों ने मुझे डांटा. मैं खुमार में बोलती चली गयी थी कि मैं मंदिर गयी हूँ और मैंने भगवान् से यही माँगा कि मुझे अब मर जाना है. कि मुझे अब बुला लो. मुझे अब कुछ और नहीं चाहिए. लोग मेरे बूढ़े होने की बात कर रहे थे...मैंने कहा उनसे...मैं इतनी लम्बी जिंदगी नहीं जियूंगी. मैं उन्हें समझा नहीं सकती कि मुझे क्यों नहीं जीना है बहुत सी जिंदगी. मैं भर गयी हूँ. पूरी पूरी. अब मैं रीत जाना चाहती हूँ. 

सुनो. मेरी कहानियों में तुम्हारा नाम मिले तो मुझे माफ़ कर देना. मैं आजकल अपना नाम भूल गयी हूँ और मुझे लगा कि तुमपर न सही तुम्हारे नाम पर मेरा अधिकार है इसलिए इस्तेमाल कर लिया. तुम्हारे होने के किसी पहलू को मैं जी नहीं सकती. 

मैं तुम्हें जीना चाहती हूँ. लम्स दर लम्स. जब मेरा मोह टूटता है ठीक उसी लम्हे मैं दो चीज़ें चाहती हूँ. मर जाना. जो कि सिम्पल सा है. दूसरा. तुम्हारे साथ एक पूरा दिन. एक पूरी रात. तुम्हारी खुलती आँखों की नींद में मुझे देखनी है चौंक....और फिर ख़ुशी. मैं तुम्हें बेतरह खुश देखना चाहती हूँ. मैं देखना चाहती हूँ कि तुम ठहाके लगाते हो क्या. तुम्हारी मुस्कान की पदचाप कोहरे की तरह भीनी है. ये लिखते हुए मेरे कानों में तुम्हारी आवाज़ गूँज रही है 'तुम्हें चूम लूं क्या' मैं सोचती हूँ कि लोगों को लिप रीड करना आता होगा तो क्या वे जान पायेंगे कि तुमने मुझे क्या कहा था. 

सब झूठ था क्या? वाकई. मेरी कहानियों जैसा? तुम जैसा. मुझ जैसा. मैं तुमसे कोई शिकायत नहीं करना चाहती हूँ. सुनो. तुम्हारी आवाज़ क्यूँ है ऐसी कि याद में भी खंज़र चुभाती जाए. इक बार मेरा नाम लो न. इक बार. तकलीफें छुट्टी पर नहीं जातीं. मुहब्बत ख़त्म नहीं होती. जानां...इक बार बताओ...इश्क़ है क्या मुझे तुमसे? और तुम्हें? नहीं न? हम दोनों को नहीं न...कहो न? मैं तुम्हारी बात मान लूंगी. 

अब. इसके पहले कि जिंदगी का कोई मकसद मुझे अपनी गिरफ्त में ले ले. मर जाना चाहती हूँ.

(पोस्ट का टाइटल फ्रैंक सर की वाल से...इस गीत से...)

19 May, 2015

इक रोज़ उसी बेपरवाही से क़त्ल किया जाएगा हमें | जिस बेपरवाही से हमने जिंदगी जी है


इस कविता को बहुत दिन पहले फेसबुक पर लिखा था. कल रात इसकी अचानक तलब लगी. कोई एक टुकड़ा था जो याद में चुभ गया था. यहाँ के बुरे इन्टरनेट कनेक्शन में इसे तलाशना भी मुश्किल था. फिर सोच रही थी कि हमें टूटी फूटी चीज़ें अक्सरहां ज्यादा पसंद आती हैं. के मुझे साबुत चीज़ों को तोड़ देने का और टूटी चीज़ों को जोड़ देने का शौक़ है. जाने क्या सोचते हुए परख रही थी उसका दिल. देख रही थी कि कितनी खरोंचें लगी हैं इस पर. फिर अपने दिल को देखा तो लगा कि है इसी काबिल के इसे तोड़ दिया जाए.
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इन्हीं आँखों से क़त्ल किया जाएगा हमें 
और भीगी रात के कफ़न में लपेट कर
दफना दिया जाएगा
किसी की न महसूस होती धड़कनों में

कोई चुप्पी बांधेगी हमारे हाथ
और विस्मृति की बेड़ियों में रहेंगे वो सारे नाम
जिनकी मुहब्बत
हमें लड़ने का हौसला दे सकती थी 

इन्साफ के तराजू में
हमारे गुनाहों का पलड़ा भारी पड़ेगा
सबकी दुआओं पर
और तुम्हारी माफ़ी पर भी 

हमारे लिए बंद किये जायेंगे दिल्ली के दरवाजे
देवघर के मंदिर का गर्भगृह
और सियाही की दुकानें

बहा दिया जाएगा जिस्म से
खून का हर कतरा
तुम्हारी तीखी कलम की निब से काट कर हमारी धमनी

हमें पूरी तरह से मिटाने को
बदल दिए जायेंगे तुम्हारी कहानियों के किरदारों के नाम
तुम्हारी कविताओं से हटा दी जाएँगी मात्रा की गलतियाँ
और तुम्हारे उच्चारण से 'ग' में लगता नुक्ता

इक रोज़
उसी बेपरवाही से क़त्ल किया जाएगा हमें
जिस बेपरवाही से हमने जिंदगी जी है

16 May, 2015

#सौतनचिठियाँ- Either both of us do not exist. Or both of us do.


***
उस इन्द्रधनुष के दो सिरे हैं. एक मैं. एक तुम.
Either both of us do not exist. Or both of us do.
***

मालूम. मैं किसी स्नाइपर की तरह ताक में बैठी रहती हूँ. तुम दुश्मन का खेमा हो. ऐसा दुश्मन जिससे इश्क है मुझे. इक तुम्हारे होने से वो उस बर्बाद इमारत को घर कहता है. मेरी बन्दूक के आगे इक छोटी सी दूरबीन है. मैं दिन भर इसमें एक आँख घुसाए तुम्हारी गतिविधियाँ निहारते रहती हूँ. तुम्हारी खिड़की पर टंगी हुयी है इक छोटी सी अनगढ़ घंटी. मैं उसे देखती हूँ तो मुझे उसकी आवाज़ सुनाई पड़ती है. जैसे मैं तुम्हें देखती हूँ तो तुम्हारी धड़कन मेरी उँगलियों में चुभती है. कुछ यूँ कि मैं ट्रिगर दबा नहीं पाती. के ये दिन भर तुम्हें देखने का काम तुम्हारा खून करने के लिए करना था. मगर मुझे इश्क़ है उसे छूने वाली हर इक शय से. तुमसे इश्क़ न हो. नामुमकिन था.

के तुम पढ़ती हो उसकी कवितायें उसकी आवाज़ में...तुमने सुना है उसे इतने करीब से जितना करीब होता है इश्वर सुबह की पहली प्रार्थना के समय...जब कि जुड़े हाथों में नहीं उगती है किसी के नाम की रेख. तुम जानती हो उसकी साँसों का उतार चढ़ाव...तुमने तेज़ी से चढ़ी है उसके साथ अनगिनत सीढियाँ. तुम उसके उठान का दर्प हो. उसकी तेज़ होती साँसों को तुमने एक घूँट पानी से दिया है ठहराव. तुमने अपने सतरंगी दुपट्टे से पोंछा है उसके माथे पर आया पसीना. मुझे याद आती है तुम्हारी जब भी होती हैं मेरे शहर में बारिशें और पीछे पहाड़ी पर निकलता है इक उदास इन्द्रधनुष.

मालूम. नदियाँ यूँ तो समंदर में मिलती हैं जा कर. मगर कभी कभी हाई टाइड के समय जब समंदर उफान पर होता है...कभी कभी कुछ नदियों की धार उलट जाती है. समंदर का पानी दौड़ कर पहुँच जाना चाहता है पहाड़ के उस मीठे लम्हे तक जहाँ पहली लहर का जन्म हुआ था. उसकी टाइमलाइन पर हर लम्हा तुम्हारा है. बस किसी एक लम्हे जैसे सब कुछ हो रहा था ठीक उलट. धरती अपने अक्षांश पर एक डिग्री एंटी क्लॉकवाइज घूम गयी. सूरज एक लम्हे को जरा सा पीछे हुआ था. उस एक लम्हे उसने देखा था मुझे...इक धीमे गुज़रते लम्हे...कि जब सब कुछ वैसा नहीं था जैसा होना चाहिए. उस लम्हे उसे तुमसे प्यार नहीं था. मुझसे प्यार था. बाद में मैंने जाना कि इसे anomaly कहते हैं. अनियमितता. इस दुनिया की हर तमीजदार चीज़ में जरा सी अनोमली रहती है. मैं बस इक टूटा सा लम्हा हूँ. उलटफेर. मगर मेरा होना भी उतना ही सच है जितना ये तथ्य कि वो ताउम्र. हर लम्हा तुम्हारा है.

यूँ तो मैं इक लम्हे के लिए ताउम्र जी सकती हूँ मगर इस तकलीफ का कोई हल मुझे नज़र नहीं आता. शायद मुझे ये ख़त नहीं लिखने चाहिए. मैं उम्मीद करती हूँ कि ये चिट्ठियां तुम तक कभी नहीं पहुंचेंगी. आज सुबह मैंने वो लम्बी नली वाली बन्दूक वापस कर दी और इक छोटी सी रिवोल्वर का कॉन्ट्रैक्ट ले लिया है. मैंने उन्हें बताया कि मैं तुम दोनों में से किसी को दूर से नहीं शूट कर सकती. वे समझते हैं मुझे. वे उदार लोग हैं. कल पूरी रात मैं बारिश में भीगती रही हूँ. आज सुबह विस्की के क्रिस्टल वाले ग्लास में मुझे तुम दोनों की हंसी नज़र आ रही थी. खुदा तुम्हारे इश्क़ को बुरी नज़र से बचाए. सामने आईने में मेरी आँखें अब भी दिखती हैं. नशा सर चढ़ रहा है.

मैंने कनपटी पर बन्दूक रखते हुए आखिरी आवाज़ उसकी ही सुनी है. 'आई टोल्ड यू. लव कुड किल. नाउ. शूट'. 

08 May, 2015

आमंत्रण: 9 मई को मेरी किताब तीन रोज़ इश्क़ का लोकार्पण IWPC, दिल्ली में.

किताब एक सपना है. एक भोला. मीठा सपना. बचपन के दिनों में खुली आँखों से देखा गया. ठीक उसी दिन दिन जिस पहली बार किसी किताब के जादू से रूबरू होते हैं उसी दिन सपने का बीज कहीं रोपा जाता है. किताब के पहले पन्ने पर अपना नाम लिखते हुए सोचना कि कभी, किसी दिन किसी किताब पर मेरा नाम यहाँ ऊपर टॉप राईट कार्नर पर नहीं, किताब के नाम के ठीक नीचे लिखा जाएगा.
बचपन के विकराल दिखने वाले दुखों में, एक सुख का लम्हा होता है जब किसी किताब में अपने किसी लम्हे का अक्स मिल जाता है. कि जैसे लेखक ने हमारे मन की बात कह दी है. हम वैसे लम्हों को टटोलते चलते हैं....वैसे लेखक, वैसी किताब और वैसे लोग बहुत पसंद आते है. फिर एक किसी दिन कक्षा सात में पढ़ते हुए हमारे हिंदी के सर बड़ी गंभीरता में हमें समझाते हैं कि डायरी लिखनी चाहिए. रोज डायरी लिखने से एक तो भाषा का अभ्यास बढ़ेगा और हम इससे जीवन को एक बेहतर और सुलझे हुए ढंग से जीने का तरीका भी सीखेंगे. बाकी क्लास का तो मालूम नहीं पर उसी दिन हम बहुत ख़ुशी ख़ुशी घर आये और डायरी लेखन का पहला पन्ना खोल के बैठ गए. अब पहली मुसीबत ये कि अगर सीधा सीधा कष्टों को लिख दिया जाए और घर में किसी ने, यानि मम्मी या भाई ने पढ़ ली तो या तो परेशान हो जायेंगे, या कुटाई हो जायेगी या के फिर भाई बहुत चिढ़ायेगा. तो उपाय ये कि अपने मन की बात लिखी जाए लेकिन कूट भाषा में. जैसे कि आज आसमान बहुत उदास था. आज सूरज को गुस्सा आया था. वगैरह वगैरह. लिखते हुए 'मैं' नहीं होता था, बस सारा कुछ और होता था. लिखने का पहला शुक्रिया इसलिए स्वर्गीय अमरनाथ सर को.

लिखने का सिलसिला स्कूल और कॉलेज के दिनों में जारी रहा. बहुत से अवार्ड्स वगैरह भी जीते. स्लोगन राइटिंग, डिबेट, एक्स्टेम्पोर...और इस सब के अलावा बतकही तो खैर चलती ही थी. उन दिनों कविता लिखते थे. जिंदगी का सबसे बड़ा शौक़ था कादम्बिनी के नए लेखक में छप जाना. इस हेतु लेकिन न तो कोई कविता भेजी कभी, न कभी तबियत से सोचा कि कैसी कविता हो जो यहाँ छप जाए. पढ़ने-सुनने वाले लोग बहुत ही दुर्लभ थे. दोस्तों को कुर्सी से बाँध कर कविता सुनाने लायक दिन भी आये. उन दिनों हम बहुत ही रद्दी लिखा करते थे. माँ अलग गुस्सा होती थी कि ये सब कॉपी के पीछे क्या सब कचरा लिखे रहता है तुम्हारा. उन दिनों भले घरों की लड़कियों की कॉपी के आखिरी पन्ने पर इश्क मुहब्बत शायरी जैसी ठंढी आहें भरना अच्छी बात तो थी नहीं. देवघर ने हमारी मासूमियत को बरकरार रखा तो पटना ने हमें आज़ाद ख्याल होना सिखाया. मेरी जिंदगी में जिन लोगों का सबसे ज्यादा असर पड़ता है, उसमें सबसे ऊपर हैं पटना वीमेंस कोलेज के कम्यूनिकेटिव इंग्लिश विद मीडिया स्टडीज(CEMS) के हमारे प्रोफेसर फ्रैंक कृष्णर. सर ने हमारी पूरी क्लास को सिखाया कि सोचते हुए बंधन नहीं बांधे जाने चाहिए...कि दुनिया में कुछ भी गलत सही नहीं होता...हमें चीज़ों के प्रति अपनी राय सारे पक्षों को सुन कर बनानी चाहिए. दूसरी चीज़ जो मैंने सर से सीखी...वो था गलतियां करने का साहस. टूटे फूटे होने का साहस. कि जिंदगी बचा कर, सहेज कर, सम्हाल कर रख ली जाने वाली चीज़ नहीं है...खुद को पूरी तरह जीने का मौका देना चाहिए. 

IIMC दिल्ली में चयन होना मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा मील का पत्थर था. इंस्टिट्यूट में पढ़ा लिखा उतना नहीं जितना आत्मविश्वास में बढ़ावा मिला कि देश के सबसे अच्छे मास कम्युनिकेशन के इंस्टिट्यूट में पढ़ रहे हैं. हममें कुछ बात तो होगी. ब्लॉग के बारे में पटना में पढ़ा था, लेकिन यहाँ और डिटेल में जाना. कि ब्लॉग वेब-लॉग का abbreviation है. दुनिया भर में लोग अपनी डायरी खुले इन्टरनेट पर लिख रहे थे. बस. वहीं कम्प्यूटर लैब में हमने अपना पहला ब्लॉग खोला. 'अहसास' नाम से. ये २००५ की बात है. ब्लॉग पर पहला कमेन्ट मनीष का आया था. मुझे हमेशा याद रहता. फिर ब्लॉग्गिंग के सफ़र में अनगिनत चेहरे साथ जुड़ते गए. उन दिनों मैं अधिकतर डायरीनुमा कुछ पोस्ट्स और कवितायें लिखती थी. हिंदी ब्लॉग्गिंग तब एक छोटी सी दुनिया थी जहाँ सब एक दूसरे को जानते थे. उन दिनों स्टार होना यानी अनूप शुक्ल की चिट्ठा चर्चा में छप जाना. अनूप जी के सेन्स ऑफ़ ह्यूमर से इंस्पायर होकर हमने कुछ पोस्ट्स लिखी थीं, जैसे किस्सा अमीबा का, वगैरह. ब्लॉग एग्रेगेटर चिट्ठाजगत में नए लिखे सारे पोस्ट्स की जानकारी मिल जाती थी. इस आभासी दुनिया में कुछ सच के दोस्त मिले. उनके मिलने से न सिर्फ लिखने का दायरा बढ़ा बल्कि बाकी चीज़ों की समझ भी बेहतर हुयी. फिल्में और संगीत इनमें से प्रमुख है. अपूर्व शुक्ल की टिप्पणियां हमेशा ब्लॉगपोस्ट से बेहतर हो जाती थीं. नयी खिड़कियाँ खुलती थीं. नयी बातें शुरू होती थीं. अपूर्व के कारण मैंने दुबारा वोंग कार वाई को देखा. और बस डूब गयी. बात फिल्मों की हो या संगीत की. यूँ ही प्रमोद सिंह का ब्लॉग रहा है. वहां के पॉडकास्ट न सिर्फ दूर बैंगलोर में घर की याद की टीस को कम करते थे बल्कि उसमें इस्तेमाल किये संगीत को तलाशना एक कहानी हुआ करती थी. इसके अलावा इक दौर गूगल बज़ का था. इक क्लोज सर्किल में वहां सिर्फ पढ़ने, लिखने, फिल्मों और संगीत की बात होती थी. मैंने इन्टरनेट पर बहुत कुछ सीखा.

तुम्हें एक किताब छपवानी चाहिए ये बात लोगों ने स्नेहवश कही होगी कभी. मगर ये किताब छपवाने का कीड़ा तो शायद हर किताब प्रेमी को होता है. मेरी बकेट लिस्ट में एक आइटम ये भी था कि ३० की उम्र के पहले किताब छपवानी है. तो जैसे ही हम २९ के हुए, हमने सोचा अब छपवा लेते हैं. बैंगलोर में कोई भी हिंदी पब्लिशर नहीं मिला और ऑनलाइन खोजने पर किसी का ढंग का ईमेल पता नहीं मिला. उन दिनों सेल्फ-पब्लिशिंग नयी नयी शुरू हुयी थी और बहुत दूर तक इसकी आवाज़ भी सुनाई पड़ रही थी. मेरा लेकिन इरादा क्लियर था. मुझे इसलिए छपना था कि पटना में मेरी किताब बिक सके...वहां तक पहुंचे जहाँ इन्टरनेट नहीं है. मुझे ऑनलाइन नहीं स्टोर में बिकने वाली किताब लिखनी थी. अभी भी लगता है कि जिस दिन किसी हिंदी किताब की पाइरेटेड कोपी देखती हूँ मार्किट में, उस दिन लगता है कि किताब वाकई बिक रही है. अब सवाल था कि किसी पब्लिशर तक जायें कैसे. IIMC जैसे किसी संस्थान से जुड़े होने का फायदा ये होता है कि हमें कुछ भी नामुमकिन नहीं लगता. उसी साल 'कैम्पस वाले राइटर्स' पर केन्द्रित हमारी alumni meet हुयी थी. गूगल पर अपने क्लोज्ड ग्रुप में मेसेज डाला कि एक किताब छपवानी है. मार्गदर्शन चाहिए. अगली मेल में पेंग्विन, यात्रा बुक्स और राजकमल के संपादकों के नाम और ईमेल पता थे. ये २१ अक्टूबर २०१३ की बात थी.  

मैंने पेंग्विन की रेणु आगाल को अपनी पांच छोटी कहानियां भेजीं. उन्होंने पढ़ीं और कहा कि कोई लम्बी कहानी है तो वो भी भेजो. हमने ब्लू डनहिल्स नाम से श्रृंखला लिखी थी. आधी कहानी इधर थी. बाकी को पूरी करके भेज दी. इस लम्बी कहानी का भार इतना था कि रेणु का हाथ टूट गया और पलस्तर लग गया. एक महीने के लिए. जनवरी २०१४ में कन्फर्मेशन आया कि मेरी किताब छपेगी और १० मार्च, जो कि कुणाल का बर्थडे है. उस दिन कॉन्ट्रैक्ट आया किताब का. तो हमारी लिस्ट पूरी हो गयी थी. ३० की उम्र में किताब छपवाने का. ऑफिस से रिजाइन मारे कि किताब लिखना है. अगस्त में मैनुस्क्रिप्ट देनी थी ५०,००० शब्दों की. तो बस. स्टारबक्स की ब्लैक कॉफ़ी और अपना मैक. काम चालू. 

तीन रोज़ इश्क - गुम होती कहानियां. मेरा पहला कहानी संग्रह है. इसमें कुल ४६ छोटी कहानियां हैं. आखिरी लम्बी कहानी, तीन रोज़ इश्क के सिवा सारी ब्लोग्स पर थीं. मगर अब आपको वही कहानियां पढ़ने के लिए किताब खरीदनी पड़ेगी. मुझे पहले इस बात का बहुत अपराधबोध था और इसलिए किताब के बारे में ब्लॉग पर कुछ खास लिखा नहीं था. लेकिन जिस दिन पहली बार पेंग्विन के ऑफिस में किताब हाथ में ली और अपना पहला ऑटोग्राफ दिया...समझ में आया कि ब्लॉग दूसरी चीज़ है...किताब में छपने की बात और होती है. वही कहानियां जिन्दा महसूस होती हैं. सांस लेती हुयी. इस डर से परे कि अब इनको कुछ हो जाएगा. कुछ कुछ वैसे ही जैसे कि अब मुझे मरने से डर नहीं लगता. कि अब मैं गुम नहीं होउंगी. अब मेरा वजूद है. कागज़ के पन्नों में सकेरा हुआ. 

इस शनिवार, 9 मई को मेरी किताब का लोकार्पण है. 4-7 बजे शाम को, दिल्ली के इन्डियन वुमेन्स प्रेस कोर(IWPC), 5 विंडसर प्लेस, अशोका रोड में. मेरे साथ होंगे निधीश त्यागी, अनु सिंह चौधरी और मनीषा पांडे. इन तीनों लोगों को ब्लॉग के मार्फ़त जाना है. फिर मुलाकातें अपना रंग लेती गयी हैं. अनु दी अपने बिहार से हैं और IIMC की सीनियर भी. जब बहुत उलझ जाती हूँ तो उनको फोनियाती हूँ...किसी परशानी के हल के लिए नहीं, उस परेशानी से लड़ने के ज़ज्बे और धैर्य के लिए. 'नीला स्कार्फ' और 'मम्मा की डायरी', दोनों किताबों को खूब खूब प्यार मिला है लोगों का.

निधीश जब आस्तीन के अजगर के उपनाम से लिखते थे तब ही उनसे पहली बार चैट हुयी थी. पिछले साल ३१ दिसंबर की इक भागती शाम पहली बार मिली...उनकी 'तमन्ना तुम अब कहाँ हो' हाल फिलहाल में पढ़ी सारी किताबों में सबसे पसंदीदा किताब है. निड से बात करना लम्हों में जिंदगी की खूबसूरती को कैप्चर करना है. 

मनीषा से मिली नहीं हूँ. गाहे बगाहे पढ़ती रही हूँ उसे. किताब के सिलसिले में ही पहली बार फोन पर बात हुयी. उसकी आवाज़ में कमाल का अपनापन और मिठास है. दो अनुवाद, 'डॉल्स हाउस' और 'स्त्री के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है' खाते में दर्ज है. इन्हें पढूंगी जरूर. तीन रोज़ इश्क के जरिये इक और खूबसूरत शख्स को करीब से देखने और जानने का मौका मिलेगा. 

ब्लॉग से किताब के इस सफ़र में आप लगातार मेरे साथ रहे हैं. उम्मीद है ये प्यार किताब को भी मिलेगा. अगर इस शनिवार 9th May आप फ्री हैं तो इवेंट पर आइये. मुझे बहुत अच्छा लगेगा. एंट्री फ्री है. आप अपने साथ अपने दोस्तों को भी ला सकते हैं. इवेंट के प्रचार के लिए, फेसबुक इवेंट पेज है. इसे अपना ही कार्यक्रम समझिये. फ्रेंड लिस्ट में लोगों को इनवाईट भेजिए...कुछ को साथ लिए आइये. तीन रोज़ इश्क़ आप इवेंट पर खरीद सकते हैं. साथ में मेरा ऑटोग्राफ भी मिल जायेगा :) फिरोजी सियाही से चमकते कुछ ऑटोग्राफ देने का मेरा भी मन है.

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किताब अब तक बुकस्टोर्स में आ गयी है. इसके अलावा, तीन रोज़ इश्क़ खरीदने के लिए इन लिंक्स को क्लिक कर सकते हैं.

बाकी सब तो जो है...पहली किताब का डर...इवेंट की घबराहट...लास्ट मोमेंट में मैचिंग साड़ी खरीद कर उसके झुमके वगैरह का आफत...फिरोजी स्याही की इंक बोतल लिए फिरना वगैरह...लेकिन बहुत सा उत्साह भी है. जिन्होंने सिर्फ ब्लॉग पढ़ा है या किताब पढ़ी है उनको पहली बार देखने का उत्साह. तो बस ख़त को तार समझना और फ़ौरन चले आना...न ना...फ़ौरन नहीं. 9 तारीख को. हम इंतज़ार करेंगे.

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