घर में सिगरेट ख़त्म हो गयी थी. मुझे तुम्हारी तलब लगी थी. शहर का मौसम इस कदर शांत था कि तुम्हारा नाम लेती तो ये कांच की दुनिया छन्न्न्न से टूट कर गिर जाती. आसमान में काले बादल थे. मगर चुप. पंछी भटक गए थे रास्ता. जबकि मैंने उनके पैरों में तुम तक पहुँचने वाले ख़त नहीं बांधे थे. किसी चौराहे पर पूछते वे किसी पेड़ से तुम्हारे दिल का पता मगर जाने किसने तो निषिद्ध कर रखा था तुम्हारा नाम.
पौधों को भी समझ आती है तुम्हारे नाम की लय. वे खिलते हैं अमलतास की तरह. के पूरा शहर पागल हो जाता है उनके खुमार में. मैं नींद में बुदबुदाती हूँ तुम्हारा नाम.
मुझे लिखना है तुम्हारा नाम...जैसे कोई करता है इबादत. मगर तुम्हारी आँखों का रंग है सियाह. तुम्हारे पीछे चलता है काली रौशनी का चक्र. उसमें देखने वाले भूल जाते हैं खुद को. अपनी जिंदगी के किसी भी मकसद को. काले कागज़ पर चमकता है रक्त. तुम्हारे नाम को लिखती हूँ तो कांपती है धरती. आते हैं भूकंप. किसी दूसरी दुनिया में मर जाते हैं बहुत सारे लोग. ज़मींदोज़ हो जाता है तुम्हारी प्रेमिकाओं का शहर. मेरी हंसी से बनती जाती है जहन्नुम तक इक वर्टिकल टनेल. जैसे तुम्हारे सीने की टूटी हुयी दरार में हूक कोई. मैं लिखती जाती हूँ तुम्हारा नाम.
कागज़ को रोल करती हूँ. होठों से लगाती हूँ तुम्हारा सुलगता हुआ नाम. उन्माद है कोई. होठों पर सिसकियाँ लिए आता है. दांतों तले भींचती हूँ होठ. बंद करती हूँ आँखें. लेती हूँ बहुत गहरी सांस. तुम बेचैन हो उठते हो. बारिशों में घुल जाता है तुम्हारे शहर का ऑक्सीजन. नमकीन बारिशें.
तुम अंधेरों की नाजायज़ औलाद हो कि अँधेरे तुम्हारी?
पन्ने पलटते हुए आता है कहानी का स्वाद. उँगलियों की पोर में तुम्हारा स्वाद. इसलिए मैं नहीं पढ़ती बहुत सी किताबें. तुम्हें किताबों से डर लगता है? मेरे सिरहाने रखे थे धर्मग्रन्थ. मगर फिर मेरा विश्वास टूट गया इश्वर में. तकिये के नीचे रखा है इक तेज़ धार वाला चाकू. इससे बुरे सपने नहीं आते. मैं इसलिए अपने तकिये पर नहीं सोती. मुझे बुरे सपनों से परहेज़ नहीं है. जिन लोगों को लगता है अपनी मृत्यु वाले सपने बुरे हैं उन्होंने नहीं चखी है तुम्हारी आवाज़ की धार. तुम्हें छूना आत्महंता होने की दिशा में पहला कदम था.
हो सके तो मेरे अनगढ़पने को माफ़ कर देना.
मुझे लिखना नहीं आता. प्रेम करना भी.
पौधों को भी समझ आती है तुम्हारे नाम की लय. वे खिलते हैं अमलतास की तरह. के पूरा शहर पागल हो जाता है उनके खुमार में. मैं नींद में बुदबुदाती हूँ तुम्हारा नाम.
मुझे लिखना है तुम्हारा नाम...जैसे कोई करता है इबादत. मगर तुम्हारी आँखों का रंग है सियाह. तुम्हारे पीछे चलता है काली रौशनी का चक्र. उसमें देखने वाले भूल जाते हैं खुद को. अपनी जिंदगी के किसी भी मकसद को. काले कागज़ पर चमकता है रक्त. तुम्हारे नाम को लिखती हूँ तो कांपती है धरती. आते हैं भूकंप. किसी दूसरी दुनिया में मर जाते हैं बहुत सारे लोग. ज़मींदोज़ हो जाता है तुम्हारी प्रेमिकाओं का शहर. मेरी हंसी से बनती जाती है जहन्नुम तक इक वर्टिकल टनेल. जैसे तुम्हारे सीने की टूटी हुयी दरार में हूक कोई. मैं लिखती जाती हूँ तुम्हारा नाम.
कागज़ को रोल करती हूँ. होठों से लगाती हूँ तुम्हारा सुलगता हुआ नाम. उन्माद है कोई. होठों पर सिसकियाँ लिए आता है. दांतों तले भींचती हूँ होठ. बंद करती हूँ आँखें. लेती हूँ बहुत गहरी सांस. तुम बेचैन हो उठते हो. बारिशों में घुल जाता है तुम्हारे शहर का ऑक्सीजन. नमकीन बारिशें.
तुम अंधेरों की नाजायज़ औलाद हो कि अँधेरे तुम्हारी?
कुछ चीज़ें मेरी जिंदगी में कभी नहीं हो सकतीं. जैसे मैं बेतरह पी कर भी आउट नहीं हो सकती. अगर मैं कहूं कि मैं मर जाउंगी तो भी तुम ब्लैक शर्ट पहनना बंद नहीं कर सकते. बारिश में सिगरेट नहीं पी जा सकती. बारिश को चूमा नहीं जा सकता इसलिए इजाद करना पड़ता है इक प्रेमी का. हम सिगरेट शेयर नहीं कर सकते इसलिए रकीब बाँट लेते हैं आपस में.
इक कप ग्रीन टी ख़त्म हो गयी है. उलझन में गर्म पानी उसी उदास टी बैग में डाल चुकी हूँ. यूं भी प्रेमिकाओं के हिस्से कम ही आता है प्यार. उदास. फीका. किसी के टुकड़े ही तलाशते हो न. आँखें. जिस्म का कटाव. हंसी की खनक. देखने का अंदाज़. कितना कुछ किसी और के हिस्से का होता है. फिर भी. कोई लड़की होती है. अधूरी. टूटी फूटी. बिलख बिलख के माँगती है मुझसे. तुम्हारा बासी प्यार. तुम्हारी महक. तुम्हारी कलम से लिखा तुम्हारी पहली प्रेमिका का नाम. तुम मेरे होते तो लौटा भी देती. शायद.
मेरी कलम से रिस रिस कर बहते हो तुम. किसी का गला रेत देने के बाद की खींची हुयी सांसें. जो खून और हवा में मिली जुली होती हैं. मैं सीखना चाहती हूँ पत्थरों की कारीगरी. किसी टूटे हुए महल के गिरे हुए पत्थरों पर चुप जा के तराश देना चाहती हूँ तुम्हारा नाम.
मेरी कलम से रिस रिस कर बहते हो तुम. किसी का गला रेत देने के बाद की खींची हुयी सांसें. जो खून और हवा में मिली जुली होती हैं. मैं सीखना चाहती हूँ पत्थरों की कारीगरी. किसी टूटे हुए महल के गिरे हुए पत्थरों पर चुप जा के तराश देना चाहती हूँ तुम्हारा नाम.
हो सके तो मेरे अनगढ़पने को माफ़ कर देना.
मुझे लिखना नहीं आता. प्रेम करना भी.
"तुम" की महिमा यूँ ही लिखवाती रहे कलम से ऐसा अनगढ़ा सा परफेक्शन...!!
ReplyDeleteआपके अनगढ़पने को सलाम।
ReplyDeleteकभी कभार हम भी अनगढ़पन में जी लेते हैं।
एक बार हमारी दुनिया में भी झाँक कर देखिये:
www.rajneeshvishwakarma.blospot.com
इस ब्लॉग को चोरी का मन हो रहा है. " तुम्हारे नाम को लिखती हूँ तो कांपती है धरती. आते हैं भूकंप. किसी दूसरी दुनिया में मर जाते हैं बहुत सारे लोग. ज़मींदोज़ हो जाता है तुम्हारी प्रेमिकाओं का शहर."
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