17 September, 2014

मेरा जिद्दी, बिगड़ैल, पागल हीरो

वो कॉपी के पन्नों में नहीं रहना चाहता. जिद्दी होता जा रहा है मेरी तरह. कहता है रोज रोज अलग अलग रंग की सियाही से लिखती हो...कभी गुलाबी, कभी फिरोजी, कभी पीला...मुझे हैलूसिनेशन होने लगे हैं. कमसे कम लिखते हुए तो एक जैसे मूड में लिखा करो. ये कागज़ के पन्ने हैं, तुम्हारे शहर का आसमान नहीं कि हर शाम बदल जाएँ. मैंने यूँ ही सर चढ़ा रखा है उसे. कहता है भले ही आते वक़्त सिर्फ मुस्कुराओ मुझे देख कर, लेकिन अगर आखिरी हर्फ़ के बाद वाले सिग्नेचर के पहले मुझे हग नहीं किया तो रूठ जाऊँगा...फिर हफ्ते भर तक दूसरे किरदारों के बारे में लिखते रहना...और सारी गलती तुम्हारी ही होगी.

बाबा रे उसके चोंचले दिन भर बढ़ते जा रहे हैं. कल कहने लगा कि मुझे सिगरेट नहीं सिगार चाहिए. विस्की फ्लेवर्ड. दिल तो किया चूल्हे में झोंक दूं उसे...कमबख्त. बड़ा आया सिगार पीने वाला. जब रचना शुरू किया था उसे तो कैसी मासूमियत से टुकुर टुकुर देखता था. जो बोलती थी सुनता था, जो पीने को देती थी पीता था...मगर जाने कब उसमें जान आने लगी और अब तो एकदम बिगडैल बच्चा हो गया है. तुनकमिजाज. सरफिरा. बाइक पंचर थी और कार में पेट्रोल कम तो सोचा पैदल ही ले आती हूँ, बगल में ही खोमचा है तो जनाब की फरमाइश कि वो भी जायेंगे खुद से ब्रांड पसंद करने वरना मैं सबसे सस्ता और घटिया सिगार ला दूँगी. एक वक़्त था कि बीड़ी पी के भी खुश रहता था और आज ये मिज़ाज कि ब्रैंड के बारे में फिनिकी हो रहे हैं जनाब.

तुम्हारा ऐसा टेस्ट कहाँ से डेवलप हुआ रे...तुमरे जान पहचान में तो कोई नहीं जानता कि सिगार नाम की कोई चीज़ भी होती है. सब दोस्त लोग तो छोटे शहर से आये हैं, उन्हें क्या मालूम कि सिगार क्या होता है, उसमें फ्लेवर्स कौन से होते हैं. तुमको मालूम भी है, एक सिगार १८० रुपये का आता है. इतने में अच्छी वाली सिगरेट का एक पूरा पैकेट आ जाता है, २० सिगरेट होती हैं उसमें. ऐसे ही सिगार पी पी के कड़वे हो जायेंगे होठ, फिर कौन लड़की किस करेगी तुमको. फिर तुम कहोगे कि तुम्हारे जैसी कोई लड़की रचें हम कि जिसको सिगार पीने का शौक़ हो. बाइक्स का शौक़ कम नहीं था कि ये नए फितूर पालने लगे हो. मेरे बॉयफ्रेंड से दूर रहो तुम. उसके सारे रईसों वाले शौक़ हैं. खुद तो साहबजादे लाटसाहब हैं, बड़ी ऐड एजेंसी में काम करते हैं, उनको पैसों की कोई दिक्कत नहीं है. मुझे हिंदी के गरीब लेखक के किरदार ऐसे शौक़ पालने लगे तब तो निकला मेरा खर्चा पानी. 

एक तो आजकल तुम्हारा दिमाग जाने कहाँ बौराया रहता है. मालूम कल रात को ब्रश करने के बाद नल बंद करना भूल गए थे तुम. बूंद बूँद पानी सपने में मेरे सर पर टपकता रहा. एक तो नींद गीली रही, ख्वाब गीले रहे, उसपर उनींदे लिखी कहानी गीले कागज़ से धुल गयी. तुमको जब मालूम है कि हम इंक पेन से लिखते हैं और अक्सर आधी नींद में लिखते हैं तो कमसे कम ढंग से नल बंद नहीं कर सकते थे तुम. मेरी ही गलती थी कि कागज़ से निकाल कर घर में धर दिया तुमको. ये सब करने के पहले शऊर सिखाना था तुम्हें. जाहिल ही रहोगे. घर को कबाड़खाना बना रखा है. न कलमें मिलती हैं न टिशु पेपर. कल तुम्हारी ही हिरोइन को रच रही थी कि लिपस्टिक जरा सा लाइन से बाहर हो गयी. अब मैं कितना भी खोज लूं, तुम्हारा धरा हुआ सामान कभी मेरे हाथ आया है जो कल आता. लाख मन करो कि मेरे सामान को हाथ मत लगाओ, तुमको समझ में ही नहीं आता है. लड़की का निचला होठ जरा ज्यादा पतला रह गया है और बायीं ओर को झुका हुआ. मानसिक रोगी लगती है एकदम. कितनी तो खूबसूरत मुस्कान सोची थी मैंने. एकदम स्माइल स्पेशियलिस्ट जैसे. दोनों गालों में गहरे डिम्पल. मगर तुम्हारी मनहूस किस्मत में यही बंदरिया लिखी थी तो मैं क्या करूँ. कहा है कि मेरे स्टडी से कमसे कम अलग रहा करो. इतना बड़ा घर है, कुछ काम धंधा ही सीख लो. कब से पेन्टिन्ग सिखाने की कोशिश कर रही हूँ तुम्हें लेकिन तुम हो कि ब्रश देखते खुराफात सूझती है. घर की सारी दीवारों में चीस चुके हो लेकिन एक काम की लकीर नहीं खींची है. बुरी आदत दुनिया भर की अपना लोगे, ढंग की चीज़ सीखने में तुम्हारा जान जाता है. 

चुप चाप से कोना पकड़ के बैठो और वो किताब रखी है मुराकामी की, काफ्का ऑन द शोर, उसको पढ़ो. अगले चैप्टर में तुम्हें मुराकामी को कोट करना है. बिना पढ़े लिखते खाली एक लाइन बोलोगे तो ऑथेंटिक नहीं लगेगा. खुद से पढ़ के देखो और सोचो कि कौन सी लाइन उस माहौल पर नैचुरली सूट करती है. बोलते वक़्त हड़बड़ाना नहीं, लड़की कहीं भाग के नहीं जा रही और बहुत इंटेलेक्चुअल भी है. कॉन्टेक्स्ट समझेगी. वैसे भी खूबसूरती नहीं है तो कमसेकम ऐसी चीज़ें तो होनी चाहिए कि तुम्हारे साथ अगले दस चैप्टर कुछ नया कर सके. बस इत्तनी मिन्नत है मेरे लाल, अपने साथ फुसला के उसे भी कागज़ से बाहर मत निकाल लाना. एक तुम्हारे होने से घर कम पागलखाना नहीं है जो तुम्हारी प्रेमिका के नखरे भी उठाऊं मैं. उसके आने का सिर्फ इतना मकसद है कि तुम्हारे थके हुए दिमाग और आँखों को कोई बदलाव मिले और तुम घड़ी घड़ी आइना में अपना चेहरा देखने से फुर्सत पाओ. यूँ भी इश्क एक काफी लम्बा चैप्टर है. तुम्हें किसी मुसीबत में फेंकने से पहले मैं तुम दोनों के नाम फूलों की वादी में एक डेट फिक्स कर देती हूँ. उससे तमीजदार लड़के की तरह पेश आना, समझे?  

15 September, 2014

चार दिन की जिन्दगी है, तीन रोज़ इश्क़



कॉफ़ी का एक ही दस्तूर हो...उसका रंग मेरी रूह से ज्यादा सियाह हो. लड़की पागल थी. शब्दों पर यकीन नहीं करती थी. उसे जाते हुए उसकी आँखों में रौशनी का कोई रंग दिख जाता था...उसकी मुस्कराहट में कोई कोमलता दिख जाती थी और वो उसकी कही सारी बातों को झुठला देती थी. यूँ भी हमारा मन बस वही तो मानना चाहता है जो हम पहले से मान चुके होते हैं. किसी के शब्दों का क्या असर होना होता है फिर. तुम्हारे भी शब्दों का. तुम क्या खुदा हो.
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दोनों सखियाँ रोज शाम को मिलती थीं. उनके अपने दस्तूर थे. रात को थपकियाँ देती लड़की सोचती थी कि अगली सुबह किसी दूर के द्वीप का टिकट कटा लेगी और चली जायेगी इतनी दूर कि चाह कर भी इस जिंदगी में लौटना न हो सके. उसका एक ही सवाल होता था हमेशा...वो चाहती थी कि कोई हो जो सच को झुठला दे...बार बार उससे एक ही सवाल पूछती थी...
'प्लीज टेल मी आई डोंट लव हिम...प्लीज'
वो इस तकलीफ के साथ जी ही नहीं पाती थी...मगर कोई भी नहीं था जिसमें साहस का वो टुकड़ा बचा हो जो उसकी सियाह आँखों में देख कर सफ़ेद झूठ कह सके...यू डोंट लव हिम एनीमोर...

तब तक की यातना थी. शाम का बारिश के बाद का फीका पड़ा हुआ रंग था. घर भर में बिना तह किये कपड़े थे. वेस्ट बास्केट में फिंके हुए उसके पुराने शर्ट्स थे जो जाने कितने सालों से अपने धुलने का इंतज़ार करते करते नयेपन की खुशबू खो चुके थे. सबसे ऊपर बिलकुल नयी शर्ट थी, एक बार पहनी हुयी...जिसकी क्रीज में उसका पहला हग रखा हुआ था. उसी रात लड़के ने पहली बार चाँद आसमान से तोड़ कर शर्ट की पॉकेट में रख लिया था. तब से लड़की सोच रही है कि चाँद को कमसे कम धो कर, सुखा कर और आयरन कर वापस आसमान में भेज दे...मगर नहीं...इससे क्रीजेस टूट जाएँगी और उसके स्पर्श का सारा जादू बिसर जाएगा. दुनिया में लोग रोजे करते करते मर जाएँ इससे उसे क्या. वो भी तो मर रही है लड़के के बिना. किसी ने कहा जा के उससे कि वो प्यार करती है उससे. फिर. फिर क्या पूरी दुनिया के ईद का जिम्मा उसका थोड़े है. और चाँद कोई इतना जरूरी होता तो अब तक खोजी एजेंसियों ने तलाश लिया होता उसे. मगर लड़की ड्राईक्लीनर्स को थोड़े न उसकी शर्ट दे देगी. पहली. आखिरी. 

फूलदान में पुराने फूल पड़े हुए थे. कितने सालों से घर में ताज़े फूलों की खुशबू नहीं बिखरी थी. लड़की ने तो फूल खरीदने उसी दिन बंद कर दिए थे जिस दिन लड़के ने जाते हुए उसके लिए पीले गुलाबों का गुलदस्ता ख़रीदा था. हम उम्र भर दोस्त रहेंगे. वो उसे कैसे बताती, कि जिस्म में इश्क का जहर दौड़ रहा है...जब तक कलाई में ब्लेड मार कर सारा खून बहाया नहीं जाएगा ये दोस्ती का नया जुमला जिंदगी में कुछ खुशनुमा नहीं ला सकता...मगर इतना करने की हिम्मत किसे होती भला...उसकी कलाइयाँ बेहद खूबसूरत थीं...नीलगिरी के पेड़ों जैसी...सफ़ेद. उनसे खुशबू भी वैसी ही भीनी सी उठती थी. नीलगिरी के पत्तों को मसलने पर उँगलियों में जरा जरा सा तेल जैसा कुछ रह जाता था...उसे छूने पर रह जाती थी वो जरा जरा सी...फिर कागजों में, कविताओं में, सब जगह बस जाती थी उसकी देहगंध.

लड़की को अपनी बात पर कभी यकीन नहीं होता था. वो तो लड़के के बारे में कभी सोचती भी नहीं थी. मगर उसे यकीन ही नहीं होता था कि वो उसे भूल चुकी है. उसे अभी भी कई चौराहों पर लड़के की आँखों के निशान मिल जाते थे...लड़का अब भी उसे ऐसे देखता था जैसे कोई रिश्ता है...गहरा...नील नदी से गहरा...वो क्यूँ मिलता था उससे इतने इसरार से...काँधे पर हल्के से हाथ भी रखता था तो लड़की अगले कई सालों तक अपनी खुशबू में भी बहक बहक जाती थी. मगर इससे ये कहाँ साबित होता था कि वो लड़के से प्यार करती है. वो रोज खुद को तसल्ली देती, मौसमी बुखार है. उतर जाएगा. जुबां के नीचे दालचीनी का टुकड़ा रखती...कि ऐसा ही था न उसके होठों का स्वाद...मगर याद में कहाँ आता था टहलता हुआ लड़का कभी. याद में कहाँ आती थी साझी शामें जब कि साथ चलते हुए गलती से हाथ छू जाएँ...किसी दूकान के शेड के नीचे बारिशों वाले दिन सिगरेट पीने वाले दिन कहाँ आते थे अब...वो कहाँ आता था...अपनी बांहों में भरता हुआ...कहता हुआ कि आई डोंट लव यू...यू नो दैट...मगर फिर भी तुम हो इतना काफी है मेरे लिए. उसे 'काफी होना' नहीं चाहिए था. उसे सब कुछ चाहिए था. मर जाने वाला इश्क. उससे कम में जीना कहाँ आया था जिद्दी लड़की को. किसी दूसरे शहर का टिकट भी तो इसलिए कटाया था न कि उसकी यादों से न सही, उससे तो दूर रह लेगी कुछ रोज़...

अपनी सखी से मिलती थी हर रोज़...सुनाती थी लड़के के किस्से...सुनाती थी और बहुत से देशों की कहानियां...और जैसे कोई ड्रग एडिक्ट पूछता है डॉक्टर से कि मर्ज एकदम लाइलाज है कि कोई उपाय है...पूछती थी उससे...

'प्लीज टेल मी आई डोंट लव हिम, प्लीज'.

02 September, 2014

चेन्नई डायरीज: पन्नों में घुलता सीला सीला शहर

वो शहर से ऐसे गुजरती जैसे उसे मालूम हो कि उसकी आँखों से शहर को और कोई नहीं देख सकता. रातें, कितनी अलग होती हैं दिनों से...जैसे रातरानी की गंध बिखेरतीं...सम्मोहक रातें...पीले लैम्पोस्ट्स में घुलते शहर को चुप देखतीं...गज़ब घुन्नी होती हैं रातें.

अजीब शहरों से प्यार हुआ करता लड़की को. देर रात बस के सफ़र के बाद किसी ऑटो में बैठ कर अपने फाइव स्टार होटल जाते हुए लड़की बाहर देखती रहती थी जब सीला सीला शाहर उसके अन्दर बहने लगता था. वो सोचती, चेन्नई में ह्यूमिडिटी बहुत है. सुनसान पड़ी छोटी गलियों के शॉर्टकट से ले जाता था ऑटो. लड़की महसूसती, इस शहर से प्यार किया जा सकता है. शहर न जाने कैसे तो उसे अपने काँधे पर सर टिका कर ऊंघने देता. वहां के पुलिसवाले, ऑटोवाले, बिना हेलमेट के बाइक चलने वाले छोकरे...सब उसे अपनी ओर खींचते. लड़की अपने अन्दर जरा जरा सी जगह खाली करती और चेन्नई वहां आराम से पसरने लगता.

दिन की धूप में सड़क पर निकल पड़ती...बैंगलोर के ठंढे मौसम के बाद उसे किसी शहर की गर्मी बहुत राहत देती. किसी पुराने पुल के साइड साइड चलती, एग्मोर नाम के किसी मोहल्ले में. हवा में समंदर की आस बुलाती. आँखों से करती बातें. वो क्या तलाशने निकलती और क्या क्या खरीद कर जेबों में भरती रहती. व्रैप अराउंड स्कर्ट, पर्पल कलर की कंघी...डबल चोकलेट आइसक्रीम. जाने क्या क्या. नैशनल म्यूजियम जैसी किसी इमारत के सामने खड़ी होकर गिनती फ्लाइट छूटने के वक़्त को. वक्त हमेशा कम पड़ जाता. लौटते हुए जरा जरा उम्मीदों में इकठ्ठा करती कुछ गलियों में रहती दुकानों को...एक एम्बेसेडर के खाली हुए फ्रेम को, बिना पहिये, बिना सीट...एक पुराने से घर के आगे क्यूँ रखा था फ्रेम? वो क्या स्लो मोशन में चलती थी? फिर क्यूँ सारी चीज़ें दिखती थीं उसे जो इस शहर में गुमनाम घूंघट ओढ़े रहती थीं, जैसे कि उनका होना सिर्फ इसलिए है कि चेन्नई की यादों के ये पिन ऐसे ही याद आयें उसे. एक घर के सामने से गुज़रते हुए वहां के दरबान की जरा सी मुस्कराहट...वो वापस जा के पूछना चाहती थी कि आपकी इतनी मीठी मुस्कराहट के पीछे कौन सी ख़ुशी है. एक अनजान लड़की की यादों के एल्बम में ऐसे चमकीली चीज़ का तोहफा क्यूँ? आप किसी और जन्म से जानते हैं क्या उसको?

सड़क पर सफ़ेद वेश्ती पहने लोग दिखते...एक तरह की धोती...उसे याद आते गाँव में बाबा...उनकी याद आये कितने दिन हो गए. सड़क पर गुजरती औरत के बालों में लगे बेली के फूलों की महक, बगल के रेस्टोरेंट से उठती डोसा की महक...क्या क्या घुलता जाता...सुबह लम्बी कतार में लगे हुए किसी अजनबी से कोई घंटा भर बतियाना और आखिर में पूछना उसका नाम...चंद्रा...उसके कानों के पास के बाल जरा जरा सफ़ेद हो गए थे...बहुत रूड होता न पूछना कि आपकी उम्र क्या है? कितना सॉफ्ट स्पोकन होता है कोई. उससे मिल कर किसी और की बेहद याद आना. उसका कहना कि तुम्हें बे एरिया अच्छा लगेगा. विदेश. योरोप जैसा बिलकुल नहीं. मगर लड़की को शहर लोगों की तरह लगते हैं, हर एक की अपनी अदा होती है. वो सोचती उन सारे लोगों के बारे में जो अपना अपना टिकट लिए किसी दूर देश जाना चाहते हैं. मैं नहीं जाना चाहती...मुझे घबराहट होती है. मैं अपने देश में ही ठीक हूँ. वहां मेरी किताब कौन पढ़ेगा. एक तो ऐसे ही बैंगलोर में मुझे हिंदी बोलने वाले लोग मिलते नहीं. खुद में बातें करती.

लौट आती होटल के कमरे में. स्विमिंग पूल में करती फ्लोट करने की कोशिश. पहली बार ताज़े पानी में तैर लेती. आँख भींचे रहती पहले, जरा जरा पैर मारती. स्विमिंग पूल में अकेली लड़की. साढ़े चार फीट पानी डूबने के लिए बहुत होता है. वो लेकिन सीख लेती घबराहट से ऊपर उठना. क्लोरिन चुभता आँखों को. जैसे याद की टीस कोई. वो लेती गहरी सांस...और तैर कर जाती स्विमिंग पूल के एक छोर से दूसरे छोर तक. फ्लोट करते हुए चेहरे पर पड़ती धूप. बंद हो जाता सारा का सारा शोर. दिल की धड़कनों में चुप इको होता...इश्शश्श्श...क...

16 August, 2014

समंदर के सीने में एक रेगिस्तान रहता था

तुम्हें लगता है न कि समंदर का जी नहीं होता...कि उसके दिल नहीं होता...धड़कन नहीं होती...सांसें नहीं होतीं...कि समंदर सदियों से यूँ ही बेजान लहर लहर किनारे पर सर पटक रहा है...

कभी कभी समंदर की हूक किसी गीत में घुल जाती है...उसके सीने में उगते विशाल रेगिस्तान का गीत हो जाता है कोई संगीत का टुकडा...उसे सुनते हुए बदन का रेशा रेशा धूल की तरह उड़ता जाता है...बिखरता जाता है...नमक पानी की तलाश में बाँहें खोलता है कि कभी कभी रेत को भी अपने मिट्टी होने का गुमान हो जाता है...तब उसे लगता है कि खारे पानी से कोई गूंथ दे जिस्म के सारे पोरों को और गीली मिट्टी से कोई मूरत बनाये...ऐसी मूरत जिसकी आँखें हमेशा अब-डब रहे.

समंदर चीखता है उसका नाम तो दूर चाँद पर सोयी हुयी लड़की को आते हैं बुरे सपने...ज्वार भाटा उसकी नींदों में रिसने लगता है...डूबती हुई लड़की उबरने की कोशिश करती है तो उसके हाथों में आ जाती है किसी दूर की गैलेक्सी के कॉमेट की भागती रौशनी...वो उभरने की कोशिश करती है मगर ख्वाबों की ज़मीं दलदली है, उसे तेजी से गहरे खींचती है.

उसके पांवों में उलझ जाती हैं सदियों पुरानी लहरें...हर लहर में लिखा होता है उसके रकीबों का नाम...समंदर की अनगिन प्रेमिकाओं ने बोतल में भर के फेंके थे ख़त ऊंचे पानियों में...रेतीले किनारे पर बिखरे हुए टूटे हुए कांच के टुकड़े भी. लड़की के पैरों से रिसता है खून...गहरे लाल रंग से शाम का सूरज खींचता है उर्जा...ओढ़ लेता है उसके बदन का एक हिस्सा...

लड़की मगर ले नहीं सकती है समंदर का नाम कि पानी के अन्दर गहरे उसके पास बची है सिर्फ एक ही साँस...पूरी जिंदगी गुज़रती है आँखों के सामने से. दूर चाँद पर घुलती जाती है वो नमक पानी में रेशा रेशा...धरती पर समंदर का पानी जहरीला होता जाता है....जैसे जैसे उसकी सांस खींचता है समंदर वैसे वैसे उसको आने लगती है हिचकियाँ...वैसे वैसे थकने लगता है समंदर...लहरें धीमी होती जाती है...कई बार तो किनारे तक जाती ही नहीं, समंदर के सीने में ही ज़ज्ब होने लगती हैं. लड़की का श्राप लगा है समंदर को. ठहर जाने का.

एक रोज़ लड़की की आखिरी सांस अंतरिक्ष में बिखर गयी...उस रोज़ समंदर ऐसा बिखरा कि बिलकुल ही ठहर गया. सारी की सारी लहरें चुप हो गयीं. धरती पर के सारे शहर उल्काओं की पीठ चढ़ कर दूर मंगल गृह पर पलायन कर गए. समंदर की ठहरी हुयी उदासी पूरी धरती को जमाती जा रही थी. समंदर बिलकुल बंद पड़ गया था. सूरज की रौशनी वापस कर देता. किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि लहरों को गुदगुदी करे कि समंदर को फिर से कुछ महसूस होना शुरू करे. समंदर धीरे धीरे बहुत खूंखार होता जा रहा था. वो जितना ही रोता, उसके पानी में नमक उतना ही बढ़ता...इस सान्द्र नमक से सारी मछलियों को भी तकलीफ होने लगी...उन्होंने भी आसमान में उड़ना सीख लिया...एक रोज़ उधर से गुजरती एक उल्का से उन्होंने भी लिफ्ट मांगी और दूर ठंढे गृह युरेनस पे जाने की राह निर्धारित कर ली. समंदर ने उनको रोका नहीं.

समंदर के ह्रदय में एक विशाल तूफ़ान उगने लगा...अब कोई था भी नहीं जिससे बात की जा सके...अपनी चुप्पी, अपने ठहराव से समंदर में ठंढापन आने लगा था. सूरज की किरनें आतीं तो थीं मगर समंदर उन्हें बेरंग लौटा देता था. कहीं कोई रौशनी नहीं. कोई आहट नहीं. लड़की की यादों में घुलता. मिटता. समंदर अब सिर्फ एक गहरा ताबूत हो गया था. जिसमें से किसी जीवन की आशंका बेमानी थी. एक रोज़ सूरज की किरणों ने भी अपना रास्ता बदल लिया. गहरे सियाह समंदर ने विदा कहने को अपने अन्दर का सारा प्रेम समेटा...पृथ्वी से उसकी बूँद बूँद उड़ी और सारे ग्रहों पर जरा जरा मीठे पानी की बारिश हुयी...अनगिन ग्रहों पर जीवन का अंकुर फूटा...

जहाँ खुदा का दरबार लगा था वहाँ अपराधी समंदर सर झुकाए खड़ा था...उसे प्रेम करने के जुर्म में सारे ग्रहों से निष्काषित कर दिया...मगर उसकी निर्दोष आँखें देख कर लड़की का दिल पिघल गया था. उसने दुपट्टे की एक नन्ही गाँठ खोली और समंदर की रूह को आँख की एक गीली कोर में सलामत रख लिया.

11 August, 2014

जिंदगी बीत जाती है मगर कितनी बाकी रह जाती है न?


कतरा कतरा दुस्वप्नों के तिलिस्म में फंसती, बड़ी ही खूंख्वार रात थी वो...बिस्तर की सलवटों में अजगर रेंगते...बुखार की हरारत सा बदन छटपटाता...मैं तुम्हारे नाम के मनके गिनती तो हमेशा कम पड़ जाते...ऐसे कैसे कटेगी रात...कि तुम्हारे आने में जाने कितने पहर बाकी हैं. प्यास हलक से उतरती तो पानी की हर बूँद जलाती...घबरा कर विस्की की बोतल उठाती तो याद आता कि फ्रीज़र में आइस ख़त्म है...नीट पी नहीं सकती, पानी की फितरत समझ नहीं आ रही...तो क्या अपना खून मिला कर विस्की पियूँ?

आजकल तो हिचकियों ने भी ख़त पहुँचाने बंद कर दिए हैं. तुम्हें मालूम भी होता कि तुमसे इतनी दूर इस शहर में याद कर रही हूँ तुमको? तुम्हारे आने का वादा तो कब का डिबरी की बत्ती में राख हुआ. लम्हे भर को आग चमकी थी...जैसे हुआ था इश्क तुमको. कभी सोचती हूँ तुमसे कह ही दूं वो सारी बातें जो मुझे जीने नहीं देती हैं. लम्हे भर को इश्क होता भी है क्या?

भोर उठी हूँ तो जाने किससे तो बातें करने का मन है. बहुत सारी बातें. या कि फिर एक लम्बी ड्राइव पर जाना और कुछ भी नहीं कहना. कुछ भी नहीं. जैसे एकदम चुप हो जाऊं. क्या फर्क पड़ता है कुछ भी कहने से. ऐसे कहने से न कहना बेहतर. तुम हो कहाँ मेरी जान? तुम्हारे शहर में भी बारिशें हुयीं क्या सारी रात? यहाँ तो ऐसा दर्दभरा मौसम है कि गर्म चाय से भी पिघलना मंजूर नहीं करता. तुलसी की पत्तियां तोड़ कर उबालने को रक्खी हैं...थोड़ी काली मिर्च, थोड़ी अदरक...काढ़ा पीने से शायद गले की खराश को थोड़ा आराम मिले...मेरे ख्याल से सपनों में देर तक आवाज़ देती रही हूँ तुम्हें...

तुम्हें मालूम है न मैं तुम्हें याद करती हूँ? जैसे दिल्ली के मौसम को याद करती हूँ...जैसे बर्न के अपनेपन को याद करती हूँ...जैसे अनजान देशों की गलियों में भटकते हुए कई रेस्टोरेंट्स के मेनू देखे और वहां लिखी हुयी ड्रिंक्स के नशे के बारे में सोचा. ख्यालों में अक्सर आती है कई दुपहरें जो तुमसे गप्पें मरते हुए काटी थीं...तुम्हारे ऑफिस के सीलिंग फैन की यादें भी हैं. तुम हँस रहे हो ये पढ़ कर जानती हूँ. सोचती ये भी हूँ कि तुम्हारे लायक कॉपी अब इस शहर में क्यूँ नहीं मिलती...सोचती ये भी हूँ कि तुम्हें ख़त लिखे बहुत बरस हो गए. अब भी कुछ अच्छा पढ़ती हूँ तो तुम्हें भेज देने का मन करता है. या कि कोई अच्छी फिल्म देखी तो लगता है तुम्हें देखने को कहती. जिंदगी के छोटे बड़े उत्सव तुम्हारे साथ बाँटने की ख्वाहिश अब भी बाकी है. तुम्हारे शहर के उस किले की खतरनाक मुंडेर पर पाँव झुलाते मंटो को गरियाने की ख्वाहिश भी मेरे दोस्त बाकी है. जिंदगी बीत जाती है मगर कितनी बाकी रह जाती है न?

कभी कभी सोचती हूँ तो लगता है हम एक जिगसा पजल हैं. मुझमें कितना कुछ बाकियों से आया है...जितनी बार प्यार हुआ, एक नए तरह का संगीत उसकी पहचान बनता गया...डूबते हुए हर बार किसी नए राग में सुकून तलाशा...किसी नए देश का संगीत सुना कि याद के ज़ख्म थोड़े कम टीसते थे कि संगीत में अनेस्थेटिक गुण होते हैं. वैसा ही कुछ लेखकों के साथ भी हुआ न. अगर मुझे जरा कम इश्क हुआ होता...या जरा कम दर्द हुआ होता तो मैं ऐसी नहीं होती.

वो कहता है मुझे अब बदलना चाहिए...जरा हम्बल होना चाहिए, जरा डिप्लोमेटिक. मगर मुझसे नहीं होगा. मैं ऐसी ही रही हूँ...अक्खड़, जिद्दी और इम्पल्सिव...बिना सोचे समझे कुछ भी करने वाली...बिना सोचे समझे कुछ भी बोल देने वाली. डिप्लोमेटिक होना न आया है न आएगा. जिद्दी भी बहुत हूँ. सुबह उठ कर जाने क्या क्या सोच रही हूँ. तुम होते तो इस परेशानी में कोई चिल्लर सा जोक मारते...या फिर अपनी घटिया आवाज में कोई सलमान खान का पुराना वाला गाना गा के सुनाते हमको...हम हँसते हँसते लोटपोट हो जाते और फिर अपनी किताब पर काम शुरू कर देते. जल्दी ही कहानियां फाइनल करनी हैं. कुछ नया नहीं लिख पाए हैं. अफ़सोस होता है...मगर फिर खुद को समझाते हैं. जिंदगी बहुत लम्बी है और ये मेरी आखिरी किताब नहीं होगी. अगर हुयी भी तो चैन से मर सकेंगे कि बकेट लिस्ट में बस एक ही किताब का नाम लिखे थे. बाकी तो बोनस है. कभी कभी अपने आप को जैसे हैं वैसा क़ुबूल लेना मुश्किल है...मुहब्बत तो दूर की बात है. फिर भी सुकून इतना ही है बस कि कोशिश में कमी नहीं की मैंने. अपना लिखा कभी परफेक्ट लगा ही नहीं है...न कभी लगेगा. आखिर डेडलाइन भी कोई चीज़ होती है. हाँ, जब फिल्में बनाउंगी तो वोंग कार वाई की तरह आखिरी लम्हे तक एडिट चालू रहेगा. शायद. बहुत कन्फ्यूजन है रे बाबा!

01 August, 2014

पगला गए होंगे जो ऐसा हरपट्टी किरदार सब लिखे हैं

मेरी बनायी दुनिया में आजकल हड़ताल चल रही है. मेरे सारे किरदार कहीं और चले गए हैं. कभी किसी फिल्म को देखते हुए मिलते हैं...कभी किसी किताब को पढ़ते हुए कविता की दो पंक्तियों के पीछे लुका छिपी खेलते हुए. कसम से, मैंने ऐसे गैर जिम्मेदार किरदार कहीं और नहीं देखे. जब मुझे उनकी जरूरत है तभी उनके नखरे चालू हुए बैठे हैं. बाकी किरदारों का तो चलो फिर भी समझ आता है...कौन नहीं चाहता कि उनका रोल थोड़ा लम्बा लिखा जाए मगर ऐसी टुच्ची हरकत जब कहानी के मुख्य किरदार करते हैं तो थप्पड़ मारने का मन करता है उनको...मैं आजकल बहुत वायलेंट हो गयी हूँ. किसी दिन एक ऐसी कहानी लिखनी है जिसमें सारे बस एक दूसरे की पिटाई ही करते रहें सारे वक़्त...इसका कोई ख़ास कारण न हो, बस उनका मूड खराब हो तो चालू हो जाएँ...मूड अच्छा हो तो कुटम्मस कर दें. इसी काबिल हैं ये कमबख्त. मैं खामखा इनके किरदार पर इतनी मेहनत कर रही हूँ...किसी काबिल ही नहीं हैं.

सोचो, अभी जब मुझे तुम्हारी जरूरत है तुम कहाँ फिरंट हो जी? ये कोई छुट्टी मनाने का टाइम है? मैंने कहा था न कि अगस्त तक सारी छुट्टियाँ कैंसिल...फिर ये क्या नया ड्रामा शुरू हुआ है. अरे गंगा में बाढ़ आएगी तो क्या उसमें डूब मरोगे? मैं अपनी हिरोइन के लिए फिर इतनी मेहनत करके तुम्हारा क्लोन बनाऊं...और कोई काम धंधा नहीं है मुझे...हैं...बताओ. चल देते हो टप्पर पारने. अपनाप को बड़का होशियार समझते हो. चुप चाप से सामने बैठो और हम जो डायलाग दे रहे हैं, भले आदमी की तरह बको...अगले चैप्टर में टांग तोड़ देंगे नहीं तो तुम्हारा फिर आधी किताब में पलस्तर लिए घूमते रहना, बहुत शौक़ पाले हो मैराथन दौड़ने का. मत भूलो, तुम्हारी जिंदगी में मेरे सिवा कोई और ईश्वर नहीं है...नहीं...जिस लड़की से तुम प्यार करते हो वो भी नहीं. वो भी मेरा रचा हुआ किरदार है...मेरा दिल करेगा मैं उसके प्रेम से बड़ी उसकी महत्वाकांक्षाएं रख दूँगी और वो तुम्हारी अंगूठी उतार कर पेरिस के किसी चिल्लर डिस्ट्रिक्ट में आर्ट की जरूरत समझने के लिए बैग पैक करके निकल जायेगी. तुम अपनी रेगुलर नौकरी से रिजाइन करने का सपना ही देखते रह जाना. वैसे भी तुम्हारी प्रेमिका एक जेब में रेजिग्नेशन लेटर लिए घूमती है. प्रेमपत्र बाद में लिखना सीखा उसने, रेजिग्नेशन लेटर लिखना पहले.

कौन सी किताब में पढ़ के आये हो कि मैंने तुम्हें लिखा है तो मुझे तुमसे प्यार नहीं हो सकता? पहले उस किताब में आग लगाते हैं. तुमको क्या लगता है, हीरो तुम ऐसे ही बन गए हो. अरे जिंदगी में आये बेहतरीन लोगों की विलक्षणता जरा जरा सी डाली है तुममें...तुम बस एक जिगसा पजल हो जब तक मैं तुममें प्राण नहीं फूँक देती...एक चिल्लर कोलाज. तुम्हें क्या लगता है ये जो परफ्यूम तुम लगाते हो, इस मेकर को मैंने खुद पैदा किया है? नहीं...ये उस लड़के की देहगंध से उभरा है जिसकी सूक्ष्म प्लानिंग की मैं कायल हूँ. शहर की लोड शेडिंग का सारा रूटीन उसके दिमाग में छपा रहता था...एक रोज पार्टी में कितने सारे लोग थे...सब अपनी अपनी गॉसिप में व्यस्त...इन सबके बीच ठीक दो मिनट के लिए जब लाईट गयी और जेनरेटर चालू नहीं हुआ था...उस आपाधापी और अँधेरे में उसने मुझे उतने लोगों के बावजूद बांहों में भर कर चूम लिया था...मुझे सिर्फ उसकी गंध याद रही थी...इर्द गिर्द के शोर में भोज के हर पकवान की गंध मिलीजुली थी मगर उस एक लम्हे उसके आफ्टरशेव की गंध...और उसके जाने के बाद उँगलियों में नीम्बू की गीली सी महक रह गयी थी, जैसे चाय बनाते हुए पत्तियां मसल दी हों चुटकियों में लेकर...कई बार मुझे लगता रहा था कि मुझे धोखा हुआ है...कि सरे महफ़िल मुझे चक्कर आया होगा...कि कोई इतना धीठ और इतना बहादुर नहीं हो सकता...मगर फिर मैंने उसकी ओर देखा था तो उसकी आँखों में जरा सी मेरी खुशबू बाकी दिखी थी. मुझे महसूस हुआ था कि सब कुछ सच था. मेरी कहानियों में लिखे किरदार से भी ज्यादा सच.

गुंडागर्दी कम करो, समझे...हम मूड में आ गए तो तीया पांचा कर देंगे तुम्हारा. अच्छे खासे हीरो से साइडकिक बना देंगे तुमको उठा के. सब काम तुम ही करोगे तो विलेन क्या अचार डालेगा?अपने औकात में रहो. ख़तम कैरेक्टर है जी तुमरा...लेकिन दोष किसको दें, सब तो अपने किया धरा है. सब बोल रहा था कि तुमको बेसी माथा पर नहीं चढ़ाएं लेकिन हमको तो भूत सवार था...सब कुछ तुम्हारी मर्जी का...अरे जिंदगी ऐसी नहीं होती तो कहानी ऐसे कैसे होगी. कल से अगस्त शुरू हो रहा है, समझे...चुपचाप से इमानदार हीरो की तरह साढ़े नौ बजे कागज़ पर रिपोर्ट करना. मूड अच्छा रहा तो हैप्पी एंडिंग वाली कहानी लिख देंगे. ठीक है. चलो चलो बेसी मस्का मत मारो. टेक केयर. बाय. यस आई नो यू लव मी...गुडनाईट फिर. कल मिलते हैं. लेट मत करना.

30 July, 2014

Je t'aime जानेमन


लड़की ने आजकल चश्मे के बिना दुनिया देखनी शुरू कर दी है जरा जरा सी. यूँ पहले पॉवर बहुत कम होने के कारण उसे चश्मा लगाने की आदत नहीं थी मगर जब से दिल्ली में गलत पॉवर लगी और माइनस टू पर पॉवर टिकी है उसका बिना चश्मे के काम नहीं चलता. यूँ भी चश्मा पहनना एक आदत ही है. जानते हुए भी कि हमें सब कुछ नहीं दिख सकता. मायोपिक लोगों को तो और भी ज्यादा मुश्किल है...आधे वक़्त पूछते रहेंगे किसी से...वो जो सामने लाइटहाउस जैसा कुछ है, तुम्हें साफ़ दिख रहा है क्या...अच्छा, क्या नहीं दिख रहा...ओह...मुझे लगा मेरी पॉवर फिर बढ़ गयी है या ऐसा ही कुछ. 

लड़की आजकल अपने को थर्ड परसन में ही लिखती और सोचती भी है. उसका दोष नहीं है, कुछ नयी भाषाएँ कभी कभार सोचने समझने के ढंग पर असर डाल सकती हैं. जैसे उसने हाल में फ्रेंच सीखना शुरू किया है...उसमें ये नहीं कहते कि मेरा नाम तृषा है, फ्रेंच में ऐसे कहते हैं je m'appele trisha...यानि कि मैं अपने आप को तृषा बुलाती हूँ...वैसे ही सोचना हुआ न...कि मेरे कई नाम है, वो मुझे हनी बुलाता है, घर वाले टिन्नी, दोस्त अक्सर रेडियो कहते हैं मगर अगर मुझसे पूछोगे तो मैं खुद को तृषा कहलाना पसंद करुँगी. हमें कभी कभी हर चीज़ के आप्शन मिलते हैं...जैसे आजकल उसने चश्मा पहनना लगभग छोड़ दिया है. इसलिए नहीं कि उसे स्पाइडरमैन की तरह सब साफ़ दिखने लगा है...बल्कि इसलिए कि अब उसे लगता है कि जब दुनिया एकदम साफ़ साफ़ नहीं दिखती, बेहतर होती है. जॉगिंग
 करने के लिए वैसे भी चश्मा उतारना जरूरी था. एक तो पसीने के कारण नाक पर रैशेज पड़ जाते थे उसपर दौड़ते हुए बार बार चश्मा ठीक करना बेहद मुश्किल का काम था...उससे रिदम में बाधा आ जाती थी. मगर इन बहानों के पीछे वो सही कारण खुद से भी कह नहीं पा रही है... जॉगिंग करते हुए आसपास के सारे लोग घूरते हैं...चाहे वो सब्जी बेचने वाले लोग हों...पार्क के सामने ऑटो वालों का हुजूम. सब्जी खरीदने आये अंकल टाइप के लोग या बगल के घर में काम करते हुए मजदूर. सड़क पर जॉगिंग करती लड़की जैसे खुला आमंत्रण है कि मुझे देखो. चश्मा नहीं पहनने के कारण उसे उनके चेहरे नहीं दिखते, उनकी आँखें नहीं दिखतीं...चाहने पर भी नहीं. बिना चश्मे के उसके सामने बस आगे की डेढ़ फुट जमीन होती है. उससे ज्यादा कुछ नहीं दिखता. ऐसे में वो बेफिक्री से दौड़ सकती है. उसके हैडफ़ोन भी दुनिया को यही छलावा देने के लिए हैं कि वो कुछ सुन नहीं रही...जबकि असलियत में वो कोई गीत नहीं बजा रही होती है.

जॉगिंग के वक़्त दिमाग में कुछ ही वाक्य आ सकते हैं...तुम कर सकती हो...बस ये राउंड भर...अगला कदम रखना है बस...अपनी रिदम को सुनो...एक निरंतर धम धम सी आवाज होती है लय में गिरते क़दमों की...तुम फ्लूइड हो...बिलकुल पानी...तुम हवा को काट सकती हो. सोचो मत. सोचो मत. लोग कहते हैं कि जॉगिंग करने से उनके दिमाग में लगे जाले साफ़ हो जाते हैं. उस एक वक़्त उनके दिमाग में बस एक ही ख्याल आता है कि अगला स्टेप कैसे रखा जाए. लड़की ने हालाँकि खुद की सारी इन्द्रियों को बंद कर दिया है मगर उसका दिमाग सोचना बंद ही नहीं करता. उसने अपने कोच से बात की तो कोच ने कहा तुम कम दौड़ रही हो...तुम्हें खुद को ज्यादा थकाने की जरूरत है. तब से लड़की इतनी तेज़ भागती है जितनी कि भाग सकती है...लोगों के बीच से वाकई हवा की तरह से गुजरती है मगर दिमाग है कि खाली नहीं होता. उसे अभी भी किसी की आँखें याद रह गयी हैं...अलविदा कहते हुए किसी का भींच कर गले लगाना...बारिशों के मौसम में किसी को देख कर चेहरे पर सूरज उग आना...कितनी सारी तस्वीरें दिमाग में घूमती रहती हैं. उसे अपनी सोच को बांधना शायद कभी नहीं आएगा.

फ्रेंच की कुछ चीज़ें बेहद खूबसूरत लगी उसे...कहते हैं...tu me manque...you are missing from my life...मैं तुम्हें मिस कर रही हूँ जैसी कोई चीज़ नहीं है वहां...इस का अर्थ है कि मेरी जिंदगी में तुम्हारी कमी है...जैसे कि मेरी जिंदगी में आजकल यकीन की कमी है...उम्मीद की कमी है...सुकून की कमी है...और हाँ...तुम्हारी कमी है. इतना सारा फ्रेंच में कहना सीख नहीं पायी लड़की. उसके लिए कुछ और फैसले ज्यादा जरूरी थे. देर रात पैरों में बहुत दर्द होता है. नए इश्क में जैसा मीठा दर्द होता है कुछ वैसा ही. मगर जिद्दी लड़की है...कल फिर सुबह उठ कर जॉगिंग जायेगी ही...याद और भी बहुत कुछ आता है न...चुंगकिंग एक्सप्रेस का वो लड़का...जो कहता है कि दिल टूटने पर वो दौड़ने चला जाता है...जब बहुत पसीना निकलता है तो शरीर में आंसुओं के उत्पादन के लिए पानी नहीं रहता. लड़की की हमेशा भाग जाने की इच्छा थोड़ी राहत पाती है इस रोज रोज के नियमपूर्वक भागने से. बिना चश्मे के दौड़ते हुए टनल विजन होता है. आगे जैसे रौशनी की एक कतार सी दिखती है...और वहां अंत में हमेशा कोई होता है. पागल सा कोई...शाहरुख़ खान की तरह बाँहें खोले बुलाता है, सरसों के खेत में...वो भागती रहती है मगर रौशनी के उस छोर तक कभी पहुँच नहीं पाती. कभी कभी लगता है कि किसी दिन थक कर गिरने वाली होगी तो शायद वो दौड़ कर बांहों में थाम लेगा.

भाषाएँ खो गयी हैं और शब्द भी. अब उसे सिर्फ आँखों की मुस्कराहट समझ आती है...सीने पर हाथ रख दिल का धड़कना समझ आता है या फिर बीपी मशीन की पिकपिक जो उससे बार बार कहती है कि दिल को आहिस्ता धड़कने के लिए कहना जरूरी है...इतना सारा खून पम्प करेगा तो जल्दी थक जाएगा...फिर किसी से प्यार होगा तो हाथ खड़े कर देगा कि मुझसे नहीं हो पायेगा...फिर उसे देख कर भी दिल हौले हौले ही धड़केगा...लड़की दौड़ती हुयी उसकी बांहों में नहीं जा सकेगी दुनिया का सारा दस्तूर पीछे छोड़ते हुए....लेकिन रुको...एक मिनट...उसने चश्मा नहीं पहना है...लड़की को मालूम भी नहीं चलेगा कि वो इधर से गुजर गया है...ऐसे में अगर लड़के को वाकई उससे इश्क है तो उसका हाथ पकड़ेगा और सीने से लगा कर कहेगा...आई मिस यू जान...Tu me manques. मेरी जिंदगी में तुम मिसिंग हो. हालाँकि लड़की की डेस्टिनी लिखने वाला खुदा थोड़ा सनकी है मगर कभी कभी उसके हिस्से ऐसी कोई शाम लिख देगा. मैं इसलिए तो लड़की को समझा रही हूँ...इट्स आलराईट...उसे जोर से हग करना और कहना उससे...आई मिस्ड यू टू. बाकी की कहानी के बारे में मैं खुदा से लड़ झगड़ लूंगी...फिलहाल...लिव इन द मोमेंट. कि ऐसे लम्हे सदियों में एक बार आते हैं.
*photo credit: George

24 July, 2014

लूसिफर. तुकबन्दियाँ और ब्लैक कॉफ़ी.

जरा जरा खुमार है. रात के जाने कितने बज रहे हैं. अब सिर्फ कहीं भाग जाना बचा है. मैं हसरतों से पोंडिचेरी नाम के छोटे से शहर को देखती हूँ. इस शहर में कुछ सफ़ेद इमारतें हैं छोटी छोटी, ऐसा मुझे लगता है कि फ़्रांस होता होगा कुछ ऐसा ही...यहाँ का आर्किटेक्चर फ्रेंच है. मैंने फ़्रांस को देखा नहीं है...सिवाए सपनों के. दुनिया में इकलौता ये शहर भी है जहाँ औरबिन्दो आश्रम में एक दुपहर श्री माँ के पदचिन्हों के पास खड़े होकर महसूस किया था कि माँ कहीं गयी नहीं है. मेरे साथ है. तब से बाएँ हाथ में एक चांदी की अंगूठी पहनती हूँ...उनके होने का सबूत. खुद को यकीन दिलाने का सबूत कि मैं अकेली नहीं हूँ.

सब होने पर भी प्यार कम पड़ जाता है मेरे लिए. हर किसी को जीने के लिए अलग अलग चीज़ों की जरूरत होती है. मुझे लोग चाहिए होते हैं. कभी कभी धूप, सफ़र और मुस्कुराहटें चाहिए होती हैं तो कभी सिर्फ हग्स चाहिए होते हैं. जीने के लिए छोटे छोटे बहानों की तलाश जारी रहती है. आज दो लोगों से मिली. जाने कैसे लोग थे कि उनसे कभी पहले बात की ही नहीं थी...साथ एक ऑफिस में काम करने के बावजूद. नॉर्मली मुझे कॉफ़ी पी कर नशा नहीं होता है मगर कुछ दिनों की बात कुछ और होती है. मैंने कहा कि मैं तुम्हें हमेशा लूसिफ़ेर के नाम से सोचती हूँ...उसने पूछा 'डू यू नो हू लूसिफ़ेर इज?' मैंने कहा कि शैतान का नाम है...फिर मैंने कहा कि कभी उसके नाम का कोई किरदार रखूंगी तो उसका नाम लूसिफ़ेर ही लिखूंगी. उसने मुझे बताया कि लूसिफ़ेर शैतान का बेटा है. मैंने कहा कि जब सच में कहानी लिखूंगी तो रिसर्च करके लिखूंगी. चिंता न करे. उसने बताया कि लूसिफ़ेर शैतान का बेटा है. मुझे कुछ तो ध्यान है कहानी के बारे में...पर ठीक ठीक मालूम नहीं है. मुझे वो अच्छा लगता है. जैसे कि मुझे शैतान अच्छा लगता है. शैतान के पास अच्छा होने की और दुनिया के हिसाब से चलने की मजबूरी नहीं होती है.

मैं जो लिखती हूँ और मैं जो होती हूँ उसमें बहुत अंतर नहीं होता है...होना चाहिए न? लिखना एक ऐसी दुनिया रचना है जो मैं जी नहीं सकती. एक तरह की अल्टरनेट रियलिटी जहाँ पर मैं खुदा हूँ और मेरे हिसाब से दुनिया चलती है.

बहरहाल बात कर रही थी इन दो लोगों की जिनसे मैं आज मिली. मैंने उनके साथ कभी काम नहीं किया था. उनके लिए मैंने एक गीत लिखा था. यूँ मैंने दुनिया में कुछ खास अच्छे काम नहीं किये हैं मगर ये छोटा सा गीत लिख कर अच्छा सा लगा. जैसे दुनिया जरा सी अच्छी हो गयी है...जरा सी बेहतर. मैं आजकल कवितायें भी नहीं लिखती हूँ. ऑफिस में कुछ कॉर्पोरेट गीत देखे तो वो इतने ख़राब थे कि देख कर सरदर्द होने लगा. और दुनिया में कुछ भी नापसंद होता है तो उसे बदलने की कोशिश करती हूँ...इसी सिलसिले में दो गीत लिखे थे...दोनों बाकी लोगों को बहुत पसंद आये...मेरे हिसाब से कुछ खास नहीं थे. मगर बाकियों को पसंद आये तो ठीक है. जैसे गीत हमें कोई बाहरी गीतकार ३० हज़ार रुपये में लिख कर दे रहा था उससे तो मेरे ये फ्री के गीत कहीं ज्यादा बेहतर थे. इतना तो सुकून था. तो थोड़ा सा इम्प्रैशन बन गया था कि मैं गीत अच्छा लिखती हूँ. गीत आज पढ़ कर सुनाया...ऐसा कभी कभार होता है कि अपना लिखा हुआ किसी को डाइरेक्ट सुनाने मिले...गीत सुनते हुए उनमें से एक की आँखों में चमक आ गयी...उसकी ख़ुशी उसके चेहरे पर दिख रही थी. उसे बहुत अच्छा लगा था. शब्दों से किसी के चेहरे पर एक मुस्कान आ जाए इतना काफी होता है...यहाँ तो आँखों तक मुस्कराहट पहुँच रही थी. इतना काफी था. मैंने उसके साथ कभी काम नहीं किया था...उसे अपनी लिखी एक कहानी भी सुनाई...और जाने क्या क्या गप्पें. जाते हुए उसने हाथ मिलाया और कहा 'इट वाज नाईस नोविंग यू'. बात छोटी सी थी...पर बेहद अच्छा सा लगा.

दोनों खुश थे. बहुत. उसका हग बहुत वार्म था...बहुत अपना सा. बहुत सच्चा सा. अच्छाई पर से टूटा हुआ विश्वास जुड़ने लगा है. शुक्रिया. मुझे अहसास दिलाने के लिए कि दुनिया बहुत खूबसूरत है...कि मुझमें कुछ अच्छा करने की काबिलियत है. नीम नींद और नशे में लिख रही हूँ. इस फितूर की गलतियां माफ़ की जाएं.

In healing others we heal ourselves.

17 May, 2014

इश्क रंग


इत्ती सी मुस्कुराहट
इजहार जैसा कुछ
कलाईयों पे इत्र तुम्हारा
मनुहार जैसा कुछ

ख्वाबों में तेरे रतजगे
विस्की में तेरा नाम
उनींदी आँखों में तुम
पुराने प्यार जैसा कुछ

तेरे सीने पे सर रख के
तेरी धड़कनों को सुनना
मन के आंगन में खिलता
कचनार जैसा कुछ

बाँहों में तोड़ डालो
तुमने कहा था जिस दिन
रंगरेज ने रंगा मन
खुमार जैसा कुछ

खटमिट्ठे से तेरे लब
चक्खे हैं जब से जानां
दिल तब से हो रहा है
दिलदार जैसा कुछ

कलमें लगा दीं तुमने
मेरी तुम्हारीं जब से
लगता है आसमां भी
गुलजार जैसा कुछ

03 May, 2014

ये मौसम का खुमार है या तुम हो?

याद रंग का आसमान था
ओस रंग की नाव
नीला रंग खिला था सूरज
नदी किनारे गाँव

तुम चलते पानी में छप छप
दिल मेरा धकधक करता
मन में रटती पूरा ककहरा
फिर भी ध्यान नहीं बँटता

जानम ये सब तेरी गलती
तुमने ही बादल बुलवाये
बारिश में मुझको अटकाया
खुद सरगत होके घर आये

दरवाजे से मेरे दिल तक
पूरे घर में कादो किच किच
चूमंू या चूल्हे में डालूं
तुम्हें देख के हर मन हिचकिच

उसपे तुम्हारी साँसें पागल
मेरा नाम लिये जायें
इनको जरा समझाओ ना तुम
कितना शोर किये जायें

जाहिल ही हो एकदम से तुम
ऐसे कसो न बाँहें उफ़
आग दौड़ने लगी नसों में
ऐसे भरो ना आँहें उफ़

कच्चे आँगन की मिट्टी में
फुसला कर के बातों में
प्यार टूट कर करना तुमसे
बेमौसम बरसातों में

कुछ बोसों सा भीगा भीगा
कुछ बेमौसम की बारिश सा
मुझ सा भोला, तुम सा शातिर
है ईश्क खुदा की साजिश सा 

06 April, 2014

समंदर की बाँहों में - डे २- पटाया

रात थी भी क्या? सुबह उठी तो लगा कि कोई सपना देखा है। सपने में बहुत सारा पानी था। समंदर था। डूबता सूरज था। फिर बालकनी में गयी तो दूर तक फैला नीला-हरा समंदर दिखा। ख्वाब नहीं था। नेहा उठ गयी थी। बगल वाले बालकनी से भी आवाज आ रही थी। नेहा ने तब तक मार्क को कौल कर लिया था। जौर्ज और मार्क का रूम हमारे रूम के नीचे वाले फ्लोर पर था। फोन किया तो मार्क  तैयार होकर नाश्ता कर चुका था और कमबख्त ने जौर्ज को उठाया तक नहीं था। हम दोनों पहले बौस को उठाने का शुभ काम निपटाये, कौफी पी थी या नहीं अब याद नहीं। मेरी आवाज अच्छी खासी लाउड है, उस पर नेहा साथ हो तो बस। पूरी बिल्डिंग न उठ गयी गनीमत है।

सब लोग फटाफट रेडी हो कर खाने पहुंच गये। शेरटन का ब्रेकफास्ट बढ़िया था एकदम। आज का प्लान था कोरल आईलैंड जाने का। बस टाईम पर आ गयी थी। लोगों ने शौर्टस वगैरह खरीदीं, कुछ ने टोपी भी लीं। फिर हम स्पीडबोट पर बैठ कर आइलैंड की तरफ चल दिए. समंदर में स्पीडबोट ऐसे चलती है जैसे बैंगलोर की सड़कों पर मेरी बाइक, कसम से क्या स्पीडब्रेकर थे समंदर में. लहर लहर पर उछलती स्पीडबोट। बहुत सारा पानी उड़ता हुआ. नमक का खारा पानी। दूर तक दिखता खूबसूरत समंदर। कैमरा वैगेरह मैंने बैग में ही डाल दिया था. कभी कभी जीना रिकॉर्ड करने से ज्यादा जरूरी और खूबसूरत होता है. बीच समंदर में कहीं एक बड़ी सी बोट पार्क थी. वहाँ पर लोग पैरासेलिंग कर रहे थे. टीम में सबने पैरासेलिंग की. नेहा। जॉर्ज। बग्स। अनिशा। मैंने नहीं की :( वो जो पैराशूट को पानी में डुबाते हैं वो देख कर मेरी जान सूखती है.


वहाँ से आइलैंड के पास एक और बोट पार्क थी. वहाँ आप मछलियों को देखने पानी के अंदर जा सकते थे. मुझे क्लौस्ट्रफ़ोबिया है. बंद जगहों से डर लगता है. उस पर पानी से तो और भी डर लगता है. यहाँ पर दोनों का कॉम्बिनेशन था. एकदम किलर। एक हेलमेट पहनना होता है, जैसे स्पेस ट्रैवेलर पहनते हैं न, वैसा और फिर आप पानी में नीचे चल सकते हैं. कुल मिला कर बीस मिनट का प्रोग्राम था. पहले तो मैंने सोचा नहीं जाउंगी पर देखा कि सब जा रहे हैं. तो बस ज्यादा सोचे बिना भाग के गयी कि मैं भी जाउंगी। इंस्ट्रक्टर ने बताया कि नीचे पानी के दबाव के कारण कान में दर्द हो सकता है, ऐसे में हेलमेट के नीचे से हाथ डाल कर नाक बंद करनी होती है और तेजी से सांस बाहर निकालनी होती है ताकि कान से हवा निकले। ऐसा करने के बाद दर्द बंद हो जाएगा। किसी भी हाल में घबराने की जरूरत नहीं है. लोग आसपास ही रहेंगे। अगर सब ठीक है तो ओके का साइन नहीं तो तर्जनी से ऊपर की ओर इशारा करने पर ऊपर ले कर आ जायेंगे। फिर सबने समझाया कि घबराना मत, सारे मेरे साथ हैं. मेरा सफ़ेद हुआ चेहरा शायद दिख रहा होगा सबको। पानी में पैर डालते ही मेरे होश फाख्ता होने लगे. मगर मैंने खुद को कहा कि मैं कर सकती हूँ. मुझे बस गहरी सांस लेनी है, बाहर छोड़नी है. बस. हेलमेट पहनाया गया तभी लगने लगा कि बड़ी आफत  मोल ली है, मुझसे नहीं होगा। पानी के अंदर बोट की सीढ़ियां उतर कर गहरे पानी में जाना था. कोई बहुत सी सीढ़ियों के बाद इंस्ट्रक्टर ने पैर पकड़ कर नीचे गहराई में खींच लिया। जाने कितने फीट नीचे थे हम पानी में. कानों में बहुत तेज़ दर्द हुआ और बहुत डर लगा. जैसे कि दम घुट रहा है और जान चली जायेगी। इंस्ट्रक्टर बार बार ओके का साइन बना के पूछ रहा था कि सब ठीक है और मुझे कुछ ठीक लग ही नहीं रहा था. जॉर्ज भी सामने, कितनी बार उसने भी ओके का साइन बना के पूछा। मगर मुझे इतनी घबराहट हो रही थी कि लगा जान चली जायेगी। मुझे आज तक उतना डर कभी नहीं लगा था. ऊपर जाने कितना गहरा पानी था. हम पानी में जाने कितनी दूर और कितनी देर तक चलने वाले थे. सब कुछ स्लो मोशन में था। मुझे लगा मुझसे नहीं होगा। मैंने ऊपर जाने का सिग्नल दिया। इंस्ट्रक्टर मुझे लेकर ऊपर आ आया.

जैसे ही पानी से बाहर आयी जान में जान आयी. फिर मालूम चला कि नहीं जाने पर भी जो ढाई हज़ार रुपये लगाए हैं वो वापस नहीं मिलेंगे। फिर ये भी लगा कि डर गयी तो हमेशा डर लगता रहेगा। अपनी बहादुरी का झंडा जहाँ तहां गाड़ते आये हैं यहाँ कैसे हार मान जाएँ। एक बार ये भी लगा कि सब चिढ़ाएगा बहुत। उस वक्त ऑफिस की टीम का कोई भी नहीं था बोट पर, सब लोग नीचे थे पानी में. एक थाई लड़की थी, उसने समझाया कि पांच मिनट में सब नॉर्मल हो जाएगा, बस गहरी सांस लेते रखना...याद रखना कि पानी में सांस लेना भी एक काम होता है. हिम्मत करके चली जाओ. उस वक्त लग रहा था कि इश्क़ के बारे में भी तो ऐसे ही कुछ नेक ख्याल हैं मेरे। फिर जब इतना खतरा वाला तूफानी काम करने में कभी डर नहीं लगा कि तो ये अंडरवाटर वॉक क्या है. मैं कर लूंगी। मैंने कहा कि मैं फिर से अंदर जाना चाहती हूँ. बोट पर जितने क्रू मेंबर थे सबसे खूब तालियां बजा कर मेरा उत्साह बढ़ाया। मैं फिर पानी में उतरी। वापस बहुत सी सीढ़ियां और नीचे। नीचे बग्स और जॉर्ज थे सामने। उनके चेहरे पर 'यु हैव डन इट गर्ल' वाला भाव था. मैंने गहरी गहरी सांसें लीं और जैसा कि इंस्ट्रक्टर ने कहा था चुविंगम चबाती रही. सारा ध्यान सांस लेने पर. थोड़ी देर में सब नॉर्मल लगने लगा. सारे लोग एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए थे. मेरे एक तरफ जॉर्ज और एक तरफ बग्स  था. एक आधी बार लगा कि कहीं बेचारों का हाथ फ्रैक्चर न हो जाए मैंने डर के मारे इतनी जोर से पकड़ रखा था. फिर सामने बहुत सारी मछलियां आयीं। ये किसी बड़े अक्वेरियम में होने जैसा था. सब कुछ एकदम साफ़ दिख रहा था. मछलियां जैसे स्लो मोशन में सामने तैरती थीं. चटक पीले रंग की मछलियां, गहरे नीले रंग की मछलियां, कोरल, सी स्पंज और बहुत सारा कुछ. इंस्ट्रक्टर हमें ब्रेड का एक टुकड़ा देता था हाथ में और मछलियां ठीक आँखों के सामने आकर उसे खाने लगती थीं. मुझे पिरान्हा याद आने लगी थी. हम जाने कितनी देर तक समंदर के अंदर चलते रहे. ये सब सपने जैसा था. सब कुछ एकदम ठहरा हुआ. कोई फ़ास्ट मोवमेंट नहीं। धीमे धीमे चलना। आसपास की खूबसूरती को देखना। महसूसना। जीना।

वक्त ख़त्म हुआ तो हम बोट पर वापस आ गए. सबने शब्बाशी दी कि मैंने डर पर काबू पा लिया। कि मैंने हिम्मत की. डर के आगे जीत है :) फिर हम स्पीडबोट से आइलैंड पर गए. बैग वैग धर कर सारे लोग समंदर की ओर दौड़े। मुझे तैरने का एक स्टेप आता है बस तो मैं बस पानी में चल रही थी. जॉर्ज और नेहा फ्लोट कर रहे थे. उन्हें देख कर मुझे बहुत रश्क हो रहा था कि काश और कुछ भी न आये स्विमिंग करने में बस फ्लोट करना आ जाए किसी तरह. जॉर्ज बहुत अच्छा टीचर है, सिखाने की बात पर एकदम एंथु में आ जाता है. उसने कहा खुद को पानी में छोड़ के देखो, नहीं डूबोगी और कमर भर पानी में कोई डूबता है भला और उसके भी आगे मैं हूँ बचने के लिए. मैंने एक आध बार कोशिश की और हर बार डूबने लगती थी. फिर मुझे लगा कि नहीं होगा मुझसे। सब लोग फिर पानी में नॉर्मल बदमाशी कर रहे थे. तैरना बहुत कम लोगों को आता था. मैं थोडा और गहरे पानी में गयी कि घुटने भर पानी में तो फ्लोट नहीं ही होगा। समंदर एकदम शांत है वहाँ। कोई लहरें नहीं। उसपर पानी गर्म। जैसे गीजर से आ रहा हो. चूँकि बहुत सारे लोग थे आसपास तो डूबने का डर नहीं लग रहा था।  मैंने गहरी सांस ली और रोक ली. खुद को पानी में छोड़ दिया। बाँहें खोल लीं और पैरों के बीच लगभग डेढ़ फुट का फासला बना लिया। मैं पानी में ऊपर थी. एकदम फ्लैट। कान पानी के नीचे थे. पानी का लेवल चेहरे के पास था. बस नाक ऊपर थी पानी में. मैंने आँखें भींच रखी थीं. यकीं नहीं हो रहा था लेकिन आई वाज फ्लोटिंग। मैंने आँखें बंद रखीं और जोर से चीखी 'जॉर्ज आई एम फ्लोटिंग'. इसके थोड़ी देर बाद मैं पानी में वापस खड़ी हो गयी. इतना अच्छा लग रहा था कि क्या बताएं। फिर मैंने देखा कि ऑफिस के सारे लोगों ने नोटिस किया कि मैं वाकई फ्लोट कर रही थी. बस फिर क्या था सारे लोग जॉर्ज के पीछे कि मुझे भी सिखाओ। जॉर्ज ने लगभग सबको फ्लोटिंग सिखायी। कुछ देर बाद तो इतना मजा आ रहा था जैसे फ्लोटिंग क्लास चल रही हो. मैंने अनिशा और प्रदीप को फ्लोटिंग सिखायी। अनिशा ने कर लिया मगर प्रदीप के लिए जॉर्ज की जरूरत पड़ी. वो डूबता तो उसे मैं बचा भी नहीं पाती ;) बेसिकली पानी में सबसे डर सर नीचे करने में लगता है. सब एक बार उस डर से उबर गए तो फ्लोटिंग बहुत आसान है.

मुझे वो पहली बार फ्लोटिंग जिंदगी भर याद रहेगी। पहले बहुत सा शोर था. बहुत से लोग. फिर बाहें फैला कर पानी में पीठ की और हौले से गिरना होता है, ऐसा भरोसा कर के कि कोई है जो बाँहों में थाम लेगा, जैसे समंदर पानी का कोई मखमली गद्दा हो. साँस रोके हुए. फिर पहली सांस छोड़ते हुए महसूस होता है कि सब कुछ शांत हो गया है. कहीं कोई आवाज नहीं है. कहीं कुछ भी नहीं है. बहुत शांति का अनुभव होता है. इस शोर भरी दुनिया में जैसे अचानक से पॉज आ जाता है. पानी चारो तरफ होता है. जैसे समंदर चूम रहा हो. जिस्म का पोर पोर. Its like a giant hug by the sea. समंदर की बाँहों में जैसे बहुत सा सुकून है. जिंदगी भर का सुकून।

श्रीकांत -पैरासेलिंग के बाद
किसी का वापस जाने का मन ही ना करे. मगर लंच का टाइम हो रहा था. वापस तो जाना ही था. सब झख मार के वापस आये. कपड़े बदलने की जगह नहीं थी और वक्त भी नहीं। किसी जगह शायद ४० बाथ (लगभग ८० रुपये) देने थे तो सर्वसम्मति से निर्णय हुआ कि बोट पर चलते हैं. लंच करके होटल चले जायेंगे और वहीं कपड़े बदल लेंगे। मौसम गर्म था तो कपड़े सूख भी जाते। अब मेरी चप्पल ही न मिले। भारी दुखी हुयी मैं. अभी कुछ दिन पहले क्रॉक्स खरीदी थी, ढाई हज़ार की चप्पल का चूना लग गया. बहरहाल हम किनारे लौटे। हमारी बस नहीं आयी थी. धूप के कारण जमीन बहुत तप रही थी और पैर रखना पौसिबल नहीं था।  जॉर्ज ने कहा जब तक बस आती है चलो तुमको चप्पल दिलाता हूँ नहीं तो यहीं भंगड़ा करती रहोगी। हम भागे भागे आये चप्पल लेने। जब जो चाहिए होता है उसके अलावा सब कुछ मिलता है दुनिया में. समुद्र किनारे घड़ी घड़ी लोग चप्पल बेच रहे थे और हम खरीदने चले तो चप्पलचोर सारे नदारद। कुछ दूर जाके फाइनली चप्पल मिली तो हम खरीद के वापस आये. अब ऑफिस के सारे लोग गायब। फोन करो तो कोई फोन न उठाये। मैं, जॉर्ज, रवि और श्रीकांत थे. वहाँ एक मॉल था और सबका वहीं अंदर जाने का प्रोग्राम था. मैंने देखा कि ऊपर फूड कोर्ट है. अब चूँकि ऑफिस में सब तरह के लोग हैं तो मुझे लगा कि लोग फूड कोर्ट ही गए होंगे खाने के लिए कि सबको अपनी पसंद का खाना मिल जाए तो जॉर्ज और मैं ऊपर देखने बढ़े. ऊपर गए तब भी कोई नहीं दिखा और तब तक भूख के मारे जान जाने लगी. तैरने के बाद एक तो वैसे ही किलर भूख लगती है उसपर मुझे भूख बर्दाश्त नहीं होती। हमें एक इन्डियन जगह दिख गयी. वहाँ छोले भटोरे थे. बस हिंदी में आर्डर किया मजे से और एक ग्लास अमरुद का जूस. मेरा बैग चूँकि मेरे पास था तो पैसे, कपड़े सब थे पास में. जब तक खाना आया मैंने चेंज भी कर लिया वाशरूम में जा के. कसम से क्या कातिल छोले भटोरे थे, मैंने आज तक वैसे छोले भटोरे भारत में नहीं खाये कभी. खाना खा रहे थे तो रहमान का कॉल आया जॉर्ज को, वो लोग इसी मॉल में दूसरे फ्लोर के रेस्टोरेंट में खाना खा रहे थे. बस के आने में डेढ़ घंटे का टाइम था. खाना खाते, गप्पें मारते कब वक्त निकल गया मालूम ही नहीं चला. बाकी लोगों का खाना हो गया तो नेहा और बग्स भी ऊपर आ गए. कुछ देर हम सब समंदर निहारते रहे. फ़ोटो खींचते रहे और जाने क्या क्या बतियाते रहे. टीम में मेरे आलावा सिर्फ बाला वेजिटेरियन है. बस में उसको खूब चिढ़ाये कि हम तो छोला भटूरा खाये, तुम क्या खाये ;) ;)

रात को ऐलकजार शो था, बेहतरीन म्यूजिक, कॉस्चुम और सेट डिजाइन। मैंने उतना खूबसूरत शो नहीं देखा है आज तक. सब कुछ बेहतरीन था वहाँ।  फिर समंदर किनारे एक रेस्टोरेंट में खाना। ग्रीन सलाद। वेज आदमी को और क्या मिलेगा। बहुत सी कहानियां कहीं, कुछ सुनीं। थोड़ा भटकी। दिवाकर रास्ता खो गया था उसको उठाये और फिर होटल वापस। हम ऑफिस में जिनके साथ काम करते हैं और घूमने जिनके साथ जाते हैं उनमें कितना अंतर होता है. इतना अच्छा लगा सबको ऐसे जानना। हमेशा किसी नए से बात करना। कोई नया किस्सा सुनना। हिंदी में सवाल करना, तमिल में जवाब सुनना, मलयालम में लोगों का बतियाना। उफ्फ्फ्फ़ ही था बस.

पटाया में आखिरी दिन था. अगले दिन बैंगकॉक के लिए निकलना था. हम स्विमिंग पूल में पैर डाले बैठे रहे. बतियाते। हँसते। दिल भर सा आया था. मुझ सी को ऐसे पूरा का पूरा ऐक्सेप्ट करना थोड़ा मुश्किल है. मेरा शोर. मेरा पागलपन। सब कुछ. मगर सब ऐसे थे जैसे एक बड़ा सा परिवार, जिसमें शामिल होने की कोई शर्त नहीं होती। बहुत अच्छा सा लगा. सुकून सा.
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समंदर था कि आसमान था कि समंदर में पिघलता हुआ आसमान था. जमीन कहाँ ख़त्म होती है आसमान कहाँ शुरू। समंदर से पूछूं उसे मेरा नाम याद रहेगा? सितारे हैं या कि आँखों में यादों का जखीरा।

शुक्रिया जिंदगी। इन मेहरबान दो दिनों के लिए. 

03 April, 2014

अ मैड ट्रिप टु पटाया- डे १

याद से सब कितनी जल्दी फिसलता जाता है.
पिछले वीकेंड हमारा पूरा ऑफिस पटाया गया था, थाईलैंड में एक जगह है 'पटाया' नाम की :)
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याद कितनी जल्दी बिसरने लगती है. लोग. नाम. जगहें। सब.

यहाँ सिर्फ कुछ चीज़ों को सकेर रही हूँ क्यूंकि जिस तरह से भूल रही हूँ सब लगता है कुछ ही दिनों बाद यकीन भी नहीं होगा कि हम गये भी थे. घर से एयरपोर्ट के लिए अनु और अनिशा भी साथ थे. टीम से अधिकतर लोग पहली बार विदेश जा रहे थे. पूरा हंगामे का मूड था सबका। इतनी एनेर्जी थी  कि उससे पूरा एयरपोर्ट चार्ज हो जाता। पतिदेव और सासुमाँ को टाटा बोल कर तीन दिन की छुट्टियों पर निकल गए. मैं आज तक कभी ऐसे ऑफिस ट्रिप पर नहीं गयी थी. पिछले साल हम सबने वाकई जान धुन कर काम किया था उसका रिवार्ड था तो सेन्स ऑफ़ अचीवमेंट भी थी.

ट्रिप की मेरी सबसे फेवरिट फोटो- जॉर्ज
टिकट चूँकि सबकी ग्रुप में बुक थी इसलिए हम अपनी सीट खुद चुन नहीं सकते थे. चेक इन के वक्त सीट नंबर आये तो मेरी और नेहा की सीट साथ में थी. हमने बहुत ढूँढा कि बेचारा और कौन फंसा है हमारे साथ तो पता नहीं चला. प्लेन बोर्ड कर गए तो नेहा, जॉर्ज और हम साथ में सामान ऊपर के कम्पार्टमेंट में रख रहे थे. वो तीसरी सीट प्रियंका की थी. जॉर्ज ने पूछा, कि वो सीट जॉर्ज से बदलना चाहती है कि नहीं तो उसने कहा बिलकुल नहीं, फिर जॉर्ज ने उससे पूछा 'तुम्हें मालूम है तुम्हारी सीट किसके पास है, पूजा के' :) फिर तो हमारे नाम का टेरर कुछ ऐसा है कि उसने एक बार भी कुछ नहीं कहा और सीधे जॉर्ज की सीट पर शिफ्ट हो गयी. मैं और नेहा अकेले अकेले भी कम आफत नहीं हैं मगर एक साथ हम दोनों को झेलना बहुत हिम्मत का काम है. हम और नेहा दोनों साइड की सीट पकड़ के बैठ गए और जॉर्ज को बीच में सैंडविच कर दिया। हम सारे लोग पगलाये हुए थे. रात के एक बजे की फ्लाईट थी लेकिन हम न सोयेंगे न किसी और को सोने देंगे की फिलॉस्फी में यकीन करते हैं. तो पूरे टाइम खुराफात चलती रही कभी सामने वालों की सीट पर तकिया फेंकना, बाकि सोये हुए लोगों को मार पीट के उठाया इत्यादि कार्य हमने पूरी डेडिकेशन के साथ किये। मेरे आसपास की सीट पर किशोर, सतीश, श्रीकांत, प्रदीप और पीछे की सीट पर दिवाकर, अनु, अनिशा, प्रियंका थे. राहिल मेरे से ठीक कोने वाली सीट पर था. एक सतीश के आलावा सारे लोग खुराफाती थे. इन फैक्ट जब आस पास के लोगों को परेशान करके दिल भर जाता था तो हम सारे उठ के दूसरे आइल में चले जाते थे और कुछ और लोगों को जगा देते थे. कोई बेईमानी नहीं, सबको बराबर आफत लगनी चाहिए। We were all high...on life and we were gonna have the time of our lives.

 Tiger zoo- me, bugs, maryam, anu, maya, dhiva, ani
ऑफिस में रहते हुए काम ऐसा रहता है कि बात करने की फुर्सत नहीं मिलती। लगभग दो साल होने को आये लेकिन मैंने कभी जॉर्ज को अपनी लिखी कोई कहानी नहीं सुनायी थी. सोने टाइम कहानी सुनना अच्छा भी लगता है. मैंने उसे तीन कहानियां सुनायीं। मजे की बात ये थी कि मैं कहानी सुना रही हूँ और वो मुझे बताता जा रहा है कि इसे ऐसे शूट कर सकते हैं, ये वाली चीज़ बहुत अच्छी लगेगी और मैं हल्ला कर रही थी कि ध्यान से कहानी सुनो न आप अपनी ही पिक्चर बनाने लगते हो. उसने बोला कि मेरी कहानियां ऐसी होती हैं, सुन कर सब कुछ दिखने लगता है आँखों के सामने। फिर मैंने कहा कि काश आप हिंदी में मेरी कहानी पढ़ पाते क्यूंकि सुनाने में सिर्फ प्लाट रह पाता  है. मगर उसे मेरी कहानियां बहुत अच्छी लगीं। मुझे भी अच्छा लगा क्यूंकि उसकी राय इम्पोर्टेन्ट थी. बहुत कम लोगों की बात को ध्यान से सुनती हूँ. उसके साथ के इतने वक्त में इतना हुआ है कि उसकी बहुत रेस्पेक्ट करती हूँ. चीज़ों को लेकर उसकी समझ गहरी है ऐसा मैंने देखा है. उसे मेरी कहानियां अच्छी  लग रही थीं तो फिर एक के बाद दूसरी करते हुए चार घंटे बीत गए। मुझे सुनने वाला कोई मिल जाए तो मैं पूरी रात कहानी कह तो सकती ही हूँ :) फिर सामने वाली सीट से कोई तो बोली कि उसे सोना है अब। जॉर्ज ने बोला कि मैं उत्साह में बोलती हूँ तो मेरा वॉल्यूम अपनेआप ऊपर हो जाता है और मुझे मालूम भी नहीं चलता। उसपर प्लेन में कान बंद रहते हैं। एनीवे, आधा घंटा सो लिए इसी बहाने।
जाने क्या तूने कही

पटाया में जाने के लिए बस थी. मुझे सफ़र में भूख प्यास सब बहुत लगती है तो मैं सारा इंतेज़ाम करके रखती हूँ. ऑफिस में मेरी टीम मुझे फेज वैन कैंटीन बुलाती है. इस बार भी रसद का इंतेज़ाम मैंने बैंगलोर एयरपोर्ट पर ही कर लिया था. चिप्स, बिस्किट्स, आइस टी.… सब बेईमानी से बांटे गए जिसके हाथ जो लगा टाइप्स :) वहाँ से निकलते हुए कोई १० बज गए थे. हम कोई तो चिड़ियाघर में रुके और नाश्ता किया। वहाँ पर खाना खाते हुए आप शेर को देख सकते हैं. मुझे जानवरों के साथ ऐसा करना अच्छा नहीं लगता। आगे के प्रोग्राम में शेर और बाकी जानवरों का शो भी था मगर मैं वो देखने नहीं गयी. टीम के और भी बहुत से लोग नहीं गए. क्रिएटिव टीम पूरी की पूरी गप्पी टीम है. हमें कैमरा लेकर भटकना, कहानियां सुनाना और ऐसी ही चीज़ों में ज्यादा मज़ा आता है.


Foot fetish
लंच करके शेरटन होटल पहुँचने में कोई चार बज गए थे. बस में थोड़ी नींद मारी मैंने भी. शेरटन क्या खूबसूरत होटल है, उफ्फफ्फ्फ़। होटल पहुँचते ही सारे लोग क्रैश कर गए अपने अपने कमरों में. अच्छा था कि मेरी रूममेट नेहा थी. हम एक सा सोचने वाले लोग हैं. ट्रिप पर भी कोई सोता है क्या। धाँय धाँय ब्रश किया, नहाये और तैयार। मैंने दो स्विमसूट रखे थे तो फटाफट चेंज करके रेडी हो गए. पूल में सिर्फ हम दोनों ही थे. पूल में पानी हल्का गर्म था, इनफिनिटी पूल, आसपास खूब सारी हरियाली और पास में ही समंदर। नेहा ने बहुत देर तक मुझे थोड़ी बहुत स्विमिंग सिखाने की कोशिश की. इतना अच्छा लग रहा था वहाँ। मुझे पानी बहुत पसंद है. समंदर। नदी. पूल. अब हल्का सा तैरना आता है तो डूबने का डर नहीं लगता। वहाँ फिर मेरी जिद कि समंदर चलो, सनसेट देखना है. नेहा को खींचते हुए ले गयी. तब तक जॉर्ज भी पहुँच गया था. ये मल्लू लोग पानी में मछली की तरह तैरते हैं. सबके घर के पीछे पोखर होता है. बचपन से सबको तैरना आता है. मुझे तैरते हुए लोगों को देख कर बहुत रश्क होता है कि काश मुझे आता. अब जल्दी ही सीख लूंगी। समंदर से वापस स्विमिंग पूल पहुँच गए. जॉर्ज बहुत अच्छा तैराक है और उससे भी अच्छा टीचर, उसने सिंपल टेक्निक्स सिखायीं और फिर नेहा और जॉर्ज दोनों मेरा बहुत उत्साह बढ़ा रहे थे कि मेरी स्पीड बेहतर हो गयी है और मैं बहुत दूर तक जा पाती हूँ. बाकी भी बहुत सारे लोगों को हमने जिद्दी मचा मचा के पूल में उतारा। पानी की लड़ाइयां। यहाँ भी जॉर्ज की टेक्निक थी कि जिससे विरोधी टीम पर अधिक से अधिक पानी उछाला जा सके.
  जानेमन रुममेट

रिश्ते अलग अलग किस्म के होते हैं. नेहा और जॉर्ज के साथ अजीब सा लगता है…पूरा पूरा सा.…जैसे फैमिली पूरी हो गयी हो. जैसे हम तीनों एक दूसरे को बिलोंग करते हैं. सेंटी हो रही हूँ. कुछ दिन में ही चले जाना है इसलिए।

शाम को अवार्ड्स नाइट थी. मेरी टीम को बेस्ट इवेंट का अवार्ड मिला टाइटन स्किन लांच के लिए. अच्छा लगा. मजे की बात ये थी कि पटाया आना का प्रोग्राम इतनी हड़बड़ी में बना था कि सारे अवार्ड्स रेडी नहीं हो पाये थे. तो एक ही अवार्ड था :) अपना अवार्ड ले कर फ़ोटो खिंचा कर वापस कर देना होता था :) फिर वही अवार्ड बाकी विनर को भी दिया जाता था.

वहाँ से निकल के हमारा वाकिंग स्ट्रीट जाने का प्लान बना. पूरा गैंग रेडी- मैं, जॉर्ज, नेहा, अनिशा, अनु, दिवाकर, भगवंत, बाला और साजन। हम होटल से बाहर निकले और टुकटुक पर बैठ गए. ऑफिस के अलावा सबको जानना एक अलग सा अनुभव था. टीम में चुप्पे रहने वाले लोग भी खूब सारी बातें करते हैं, भाषा के बैरियर के बावजूद। कुछ को हिंदी नहीं आती और मैं उनसे हिंदी में बकबक िकये जाती हूँ. वाकिंग स्ट्रीट रात भर जगी रहने वाली, नियोन लाइट्स वाली ऐसी जगह है कि लगता है हैलूसिनेशन हो रहे हों. माहौल ऐसा हो, लोग अच्छे हों तो मुझे पानी चढ़ जाता है ;) हमने घूम घूम कर बहुत सी चीज़ें देखीं जिनको यहाँ लिखना स्कैंडल्स हो जाएगा। हमारी छवि अच्छी है फिलहाल :) लिखने को इतना सारा कुछ मसाला मिला है कि नोवेल लिख सकती हूँ. चुपचाप जैसे पी रही थी अपने इर्दगिर्द का सारा जीवन। कितना अलग, कितना रंगीला और चमक के नीचे कैसे कैसे ज़ख्म छुपे होंगे। दिमाग पैरलेल ट्रैक पर था. कोई रात के एक बजे तक टीम में सब साथ घूमे। सभी रिस्पॉन्सिबल लोग थे. सबने तमीज से दारु पी. किसी को सम्हालने की जरूरत नहीं पड़ी. बाकी लोगों को और भी देर रुकने का मन था, मैं जॉर्ज और साजन वापस लौट आये. कुछ देर गप्पें मारीं और फिर टाटा बाय बाय.

फिर समंदर किनारे चली गयी. होटल की बेंच थी और पूरा खाली समंदर का किनारा। चश्मा नहीं पहना था तो सब धुंधला सा. समंदर का शोर. लहरें। बहुत देर बेंच पर बैठी जाने क्या क्या सोचती रही. जिंदगी। ठहरी हुयी सी. अच्छी सी।  सुकून सा बहुत सारा कुछ.
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बाकी दोनों दिन के किस्से कल। शायद। कभी।

18 March, 2014

सदा आनंद रहे एही द्वारे मोहन खेले होली

कब है होली?
बंगलोर में रह कर भूलने लगे थे होली कैसी होती है। हमारे लिये होली एक बाल्टी पानी में मन जाती थी। चार लोग आये, छत पर गये और दस मिनट में होली खत्म। छत पर कोई नल नहीं था इसलिये पानी का कोई इंतजाम नहीं। बाल्टी उठा कर किसी पर डाल नहीं सकते कि फिर एक तल्ला नीचे जा कर पानी कौन लायेगा। भागने, भगा कर रंग लगाने की भी जगह नहीं। अड़ोसी पड़ोसी कोई ऐसे नहीं कि जिनके साथ खेला जाये। विद औल ड्यू रिस्पेक्ट टु साऊथ इंडियन्स, बड़े खड़ूस लोग हैं यहां, कोई खेलना ही नहीं चाहता। हम तो यहाँ तक डेस्पेरेट थे कि पानी से खेल लो, चलो रंग भी और्गैनिक लगा देंगे। बिल्डिंग में पाँच तल्ले हैं, खेलने वाले किसी में नहीं। बहरहाल...रोना रोने में पूरी पोस्ट लग जायेगी, मुद्दे पर आते है।

इस साल मोहित और नितिका इलेक्ट्रौिनक सिटी में एक अच्छे से सोसाईटी में शिफ्ट हुये थे। होली के पहले उनके असोसियेशन का मेल आया कि होली खेलने का पूरा इंतजाम है। दोनों ने हमें इनवाईट किया। होलिका दहन का भी प्रोग्राम था, हमने सोचा वो भी देख लेंगे। तो फुल जनता वहां एक दिन पहले ही पहुँच गयी। जनता बोले तो, हम, कुणाल, उसकी मम्मी, साकिब कीर्ति, रमन, कुंदन, चंदन, नितिका की एक दोस्त भी आयी। खाने के लिये दही बड़ा हम यहां से बना कर ले गये थे। शाम को ही अबीर खेल लिये। जबकि पुराने कपड़े भी नहीं पहने थे, हम तो होलिका दहन के लिये अच्छे कपड़े पहन कर निकले थे कि त्योहार का मौसम है। बस यही है कि बचपन का एक्सपीरियंस से यही सीखे हैं कि होली के टाईम पर हफ्ता भर से नया कपड़ा पहनना आपका खुद का बेवकूफी है, इसमें आप के उपर रंग डालने वाले का कोई दोष नहीं है। कल शाम को पिचकारी खरेदते वक्त ये गन खरीदी थी। पीले रंग की। हम तमीजदार लोग हैं(कभी कभी खुद को ऐसा कुछ यकीन दिलाने की कोशिश करते हैं हम। अनसक्सेसफुली) तो गन में सादा पानी भरा था। इस पिद्दी सी गन से कितना कोहराम मचाया जा सकता है ये हमारे हाथों में आने के पहले गन को भी पता नहीं होगा। देर रात तक खुराफात चलती रही। हौल में दो डबल बेड गद्दे लगा कर ८ लोग फिट हो गये। कुंदन घर चला गया था, रात के डेढ़ बजे चंदन पहुँच रहा था मलेशिया से। जस्ट इन टाईम फौर होली। पहले तो हौरर फिल्म देखा सब, हम तो पिक्चर शुरू होते ही सो गये। हमसे हौरर देखा नहीं जाता। वैसे ही चारो तरफ भूत दिखते हैं हमें। 

अगली सुबह हम साढ़े सात बजे उठ कर तैयार। बाकी सब लोग सोये हुये। ऐसा लग रहा था कि जैसे शादी में आये हुये हैं। भोले भाले मासूम लोगों पर पिचकारी से भोरे भोर पानी डालना शुरू। सब हमको गरियाना शुरू। लेकिन फिर सब उठा। अब बात था कि चाय कौन बनायेगा। डेट औफ बर्थ से पता चला कि सब में रमन सबसे छोटा है, तो जैसा कि दस्तूर है, रमन चाय बनाया। तब तक हम पुआ के इंतजाम में जुट गये। क्या है कि हमसे खाली पेट होली नहीं खेली जाती। जब तक दु चार ठो पुआ अंदर नहीं जाये, होली का माहौल नहीं बनता। होली का इंतजाम सामने के फुटबौल फील्ड में था। नौ बजे से प्रोग्राम चालू होगा ऐसा मेल आया था। नौ बजे वहाँ कबूतर तक नहीं दिख रहा था। लोग तैयार होके औफिस निकल रहे थे। कुछ लोग वहाँ प्राणायाम कर रहे थे। हम लोग सोचे कि बस हमीं लोग होंगे खेलने वाले। साकिब कीर्ति दोनों मिल कर गुब्बारा में रंग भरना शुरु किया। हम सबसे पहले तो काला, जंगली वाला रंग लगा दिये कुणाल को, उसको होली में कोई और रंग लगा दे हमसे पहले तो हमारा मूड खराब हो जाता है। पजेसिव हो गये हैं हम भी आजकल। अब रंग लगा तो दिये ई चक्कर में भूल गये कि पुआ बनाना है। फिर बहुत्ते मेहनत से रगड़ रगड़ कर रंग छुड़ाये। पहला राउंड पुआ बनाते बनाते फील्ड में लोग आने चालू, लाउड स्पीकर पे गाने भी बजने लगे। कीर्ति ने चौथे फ्लोर की बालकनी से गुब्बारे फेंक कर टेस्टिंग भी कर ली थी कि सारे हथियार रेडी हैं। 
असली होली
हमारे पास कुल मिला के दो बंदूक, तीन बड़ी पिचकारी और बहुत सारा रंग था। कमीने लोगों ने मेरे पक्के वाले जंगली रंग छुपा दिये थे कि और्गैनिक होली खेलेंगे। शुरुआत तो फील्ड में दौड़ा दौड़ा के रंग लगाने से हुयी। कुछ बच्चे थे छोटे छोटे, अपनी फुली लोडेड पिचकारी के साथ दौड़ रहे थे। रंग वंग एक राउंड होने के बाद सब रेन डांस करने पहुंच गये। म्युजिक रद्दी था पर बीट्स अच्छे थे, और लोग डांस करने के मूड में हों तो म्युजिक कौन देखता है। धीरे धीरे लोगों का जमवाड़ा होते गया। कुंदन और चंदन भी पहुंच गये तब तक। उनको लपेटा गया अच्छे से। अब गौर करने की बात ये है कि रेन डांस के कारण चबूतरे से इतर जो जमीन थी वहां कीचड़ बनना शुरु हो गया था। थोड़ी ही देर में सबके रंग भी खत्म हो गये। बस, लोगों को कीचड़ में पटका जाना शुरु हुआ। फिर क्या था बाल्टियां लायी गयी और बाल्टी बाल्टी कीचड़ फेंका गया। चुंकी पानी के फव्वारे चल रहे थे और कीचड़ भी विशुद्ध पानी और मिट्टी का था इसमें नाली जैसे किसी हानिकारक तत्व की मिलावट नहीं थी मजा बहुत आ रहा था। 

हम और चंदन- सबसे डेडली कौम्बो
अब मैंने नोटिस किया कि लड़कियों को पटकने की कोशिश तो की जा रही है पर वे भाग निकलती हैं, कयुंकि किसी को सिर्फ कंधे से पकड़ कर कीचड़ में लपेटा नहीं जा सकता है, जरूरी है कि कोई पैर जमीन से खींचे। तो हमने माहौल की नाजुकी को देखते हुये लीडरी रोल अपनाया और पैर पकड़ के उठाओ का कामयाब नारा दिया। बहुत सारे उदाहरण भी दिखाये जिसमें ऐसी ऐसी लड़कियों का नंबर आया जिन्होनें हमारा कुछ नहीं बिगाड़ा था। लेकिन हम होली में हुये किसी भी भेदभाव के सख्त खिलाफ हैं। फिर तो एकदम माहौल बन गया, लोग दूर दूर से पकड़ कर लाये जाते और कीचड़ मे डबकाये जाते। उस छोटी सी जगह में हम पूरा ध्यान देते कि कहीं भी मैनपावर की कमी हो, जैसे कि मोटे लोग ज्यादा उछलकूद कर रहे हैं तो आसपास के लोगों को, अपने भाईयों को भेजती कि मदद करो...आगे बढ़ो। इसके अलावा जब कोई कीचड़ में फेंका जा रहा होता तो हम वहीं खड़े होकर पैर से पानी फेंकते, एकदम सटीक निशाना लगा कर। अब रंग खत्म थे, पिचकारियां थी खाली। पानी के इकलौते नल पर बहुत सी बाल्टियां, बस हमने वहीं कीचड़ से पिचकारियां भरने का जुगाड़ निकाला। उफ़ कितना...कितना तो मजा आया। 

काला रे सैंया काला रे
फव्वारों के नीचे खड़े हम चंदन से बतिया रहे थे, कि बेट्टा आज जितने लोग को कीचड़ में लपेटा है, अच्छा है कि रंग लगा है, नहीं तो ये लोग कहीं पहचान लेते हमको तो बाद में बहुत्ते धुलाई होता हमारा। नये लोगों का आना जारी रहा, हम साइक्लिक तरीके से कीचड़, पिचकारी, बाल्टी का इस्तेमाल करते रहे। सरगत तो कब्बे हो गये थे लेकिन मौसम गर्म था तो ठंढ नहीं लगी। लास्ट राउंड आते आते वहां सब हमें चीन्ह गये थे। लोगों ने श्रद्धा से हमें बाल्टी वगैरह खुद ही देनी शुरू कर दी थी। पानी में लगातार खेलने के कारण रंग धुल गया था तो एक भले इंसान ने रंग भी दिये। पक्के रंग। खेल के बाद एक राउंड डांस भी किये। ये सारे कांड हमने नौ बजे से लेकर दुपहर देढ़ बजे तक लगातार किये। 

फिर कुछ लोगों को औफिस जाना था तो जल्दी से नहा धोकर तैयार हो गये। एक राउंड पुआ और बनाये और पैक अप। इस बार सालों बाद ऐसी होली खेले थे। एकदम मन आत्मा तक तर होकर। दिल से बहुत सारा आशीर्वाद सब के लिये निकला। सदा आनंद रहे एही द्वारे, मोहन खेले होली। 

पूरी टोली
घर आये तो बुझाया कि पिछले छह साल में जो होली नहीं खेले हैं ऐसा उ साल में उमर भी बढ़ गया है। पूरा देह ऐसा दुखा रहा था। और कुणाल चोट्टा उतने चिढ़ाये। फिर हम जो कभी दवाई नहीं खाते हैं बिचारे कौम्बिफ्लाम खाये तब जाके आराम आया। चिल्लाने के कारण गले का बत्ती लगा हुआ था अलग। हमारी मेहनत से छीले गये कटहल की सब्जी बनाने का टाईम ही नहीं मिला था। उसपर नितिका के यहां ही फ्रिज में रखे थे तो लाना भी भूल गये। शाम को कुंदन चंदन अबीर खेलने आया। फिर रात को हमने बिल्कुल नौन होली स्टाईल में पिज्जा मंगाया। खुद को हिदायत दी कि कल से कुछ एक्सरसाईज करेंगे रेगुलर। आधी पोस्ट रात को लिखी थी फिर सौलिड नींद आ रही थी तो सो गये। 

आज उठे हैं तो वापस सब कुछ दुखा रहा है। एक्जैक्टली कौन ज्वाईंट किधर है पता चल रहा है। होर्लिक्स पी रहे हैं और सोच रहे हैं...उफ़ क्या कमबख्त कातिलाना होली खेले थे। ओह गरदा!

10 March, 2014

फिल्म के बाद की डायरी

दिल की सुनें तो दिल बहुत कुछ चाहता है। कभी बेसिरपैर का भी, कभी समझदार सा।
इत्तिफाक है कि हाल की देखी हुयी दो फिल्मों में सफर एक बहुत महत्वपूर्ण किरदार रहा है...किरदार क्युंकि सफर बहुत तरह के होते हैं, खुद को खो देने वाले और खुद को तलाश लेने वाले। हाईवे और क्वीन, दोनों फिल्में सफर के बारे में हैं। अपनी जड़ों से इतर कहीं भटकना एक अलग तरह की बेफिक्री देता है, बिल्कुल अलग आजादी...सिर्फ ये बात कि यहाँ मेरे हर चीज को जज करने वाला कोई नहीं है, हम अपनी मर्जी का कुछ भी कर सकते हैं...और ठीक यही चीज हमें सबसे बेहतर डिफाइन करती है, जब हम अपनी मर्जी का कुछ भी कर सकते हैं तो हम क्या करते है। बहुत समय ऐसा होता है कि हमसे हमारी मर्जी ही नहीं पूछी जाती, बाकी लोगों को बेहतर पता होता है कि हमारे लिये सही क्या है...ये लोग कभी पेरेंट्स होते हैं, कभी टीचर तो कभी भाई या कई बार बौयफ्रेंड या पति। कुछ कारणों से ये तय हो गया है कि बाकी लोग बेहतर जानते है और हमारे जीवन के निर्णय वही लेंगे। कई बार हम इस बात पर सवाल तक नहीं उठाते। इन्हीं सवालों का धीरे धीरे खुलता जवाब है क्वीन, और इसी भटकन को जस का जस दिखा दिया है हाईवे में, बिना किसी जवाब के। मैं रिव्यू नहीं लिख रही यहां, बस वो लिख रही हूं जो फिल्म देखते हुये मन में उगता है। क्वीन बहुत अच्छी लगी मुझे...ऐसी कहानी जिसकी हीरो एक लड़की है, उसका सफर है।

कई सारे लोग जमीनी होते हैं, मिट्टी से जुड़े हुये...उनके ख्वाब, उनकी कल्पनाएं, सब एक घर और उसकी बेहतरी से जुड़ी हुयी होती हैं...लेकिन ऐसे लोग होते हैं जो हमेशा कहीं भाग जाना चाहते हैं, उनका बस चले तो कभी घर ना बसाएं...बंजारामिजाजी कभी विरासत में मिलती है तो कभी रूह में...ऐसे लोग सफर में खुद को पाते हैं। कल फिल्म देखते हुये देर तक सोचती रही कि मैं क्या करना चाहती हूं...जैसा कि हमेशा होता है, मुझे मेरी मंजिल तो दिखती है पर रास्ते पर चलने का हौसला नहीं दिखता। मगर फिर भी, कभी कभी अपनी लिखने से चीजें ज्यादा सच लगने लगती हैं...हमारे यहां कहावत है कि चौबीस घंटे में एक बार सरस्वती जीभ पर बैठती हैं, तो हमेशा अच्छा कहा करो।

मुझे लोगों का सियाह पक्ष बहुत अट्रैक्ट करता है। लिखने में, फिल्मों में...हमेशा एक अल्टरनेट कहानी चलती रहती है...जैसे हाइवे और क्वीन, दोनों फिल्मों में इन्हें सिर्फ अच्छे लोग मिले हैं, चाहे वो अजनबी लड़की या फिर किडनैपर...मैं सोच रही थी कि क्या ही होता ऐसे किसी सफर में सिर्फ बुरे लोग मिलते...जिसने कभी किसी तरह की परेशानियां नहीं देखी हैं, वो किस तरह से मुश्किलों से लड़ती फिर...ये शायद उनके स्ट्रौंग होने का बेहतर रास्ता होता। मेरा क्या मन करता है कि एक ऐसी फिल्म बनाऊं जिसमें चुन चुन के खराब लोग मिलें...सिर्फ धमकी देने वाले नहीं सच में कुछ बुरा कर देने वाले लोग...सफर का इतना रूमानी चित्रण पच नहीं रहा। फिर लड़की डेंटी डार्लिंग नहीं मेरे जैसी कोई हो...मुसीबतों में स्थिर दिमाग रखने वाली...जिसे डर ना लगता हो। अजब अजब कीड़े कुलबुला रहे हैं...ये लिखना, वो लिखना टाईप...ब्रोमांस पर फिल्में बनती हैं तो बहनापे पर क्युं नहीं? कोई दो लड़कियाँ हों, जिन्हें ना शेडी होटल्स से डर लगता है ना पुलिस स्टेशन से...देश में घूमने निकलें...कहानी में थोड़ा और ट्विस्ट डालते हैं कि बाईक से घूमने निकली हैं कि देश आखिर कितना बुरा है...हमेशा कहा जाता है, खुद का अनुभव भी है कि सेफ नहीं है लड़कियों का अकेले सफर करना...फिर...सबसे बुरा क्या हो सकता है? रेप ऐंड मर्डर? और सबसे अच्छा क्या हो सकता है? इन दोनों के बीच का संतुलन कहां है?

So, when you come back, you may have a broken body...but a totally...absolutely...invincible soul...now if that is not worth the journey, I don't know what is!

मुझे हमेशा लगता था मुझसे फुल टाईम औफिस नहीं होगा...हर औफिस में कुछ ना कुछ होता ही है जो स्पिल कर जाता है अगले दिन में...ऐसे में खुद के लिये वक्त कहां निकालें! लिखने का पढ़ने का...फिर भी कुछ ना कुछ पढ़ना हो रहा है...आखिरी इत्मीनान से किताब पढ़ी थी IQ84, फिर मुराकामी का ही पढ़ रही हूं...किताबें पढ़ना भाग जाने जैसा लगता है, जैसे कुछ करना है, वो न करके भाग रही हूं...परसों बहुत दिन बाद दोस्त से मिली...श्रीविद्या...एक बच्चे को संभालने, ओडिसी और कुचीपुड़ी के रिहर्सल के दौरान कितना कुछ मैनेज कर लेती है...उसके चेहरे पर कमाल का ग्लो दिखता है...अपनी पसंद का जरा सा भी कुछ मिल जाता है तो दुनिया जीने लायक लगती है...दो तरह की औरतें होती हैं, एक जिनके लिये उनके होने का मकसद एक अच्छा परिवार है बसाना और बच्चे बड़ा करना है...जो कि बहुत जरूरी है...मगर हमारे जैसे कुछ लोग होते हैं, जिन्हें इन सब के साथ ही कुछ और भी चाहिये होता है जहां हम खुद को संजो सकें...मेरे लिये लिखना है, उसके लिये डांस...इसके लिये कुर्बानियां देते हुये हम जार जार रोते हैं मगर जी भी नहीं सकते अगर इतना जरा सा कुछ ना मिल सके।

हम डिनर पर गये थे, फिर बहुत देर बातें भी कीं...थ्री कोर्स डिनर के बाद भी बातें बाकी थीं तो ड्राईव पर निकल गये...पहले कोरमंगला तक फिर दूर माराथल्ली ब्रिज से भी बहुत दूर आगे। कल से सोच रही हूं, लड़कियों के साथ का टूर होता तो कितना अच्छा होता...मेरी बकेट लिस्ट में हमेशा से है...अनु दी, नेहा, अंशु, शिंजिनी...ये कुछ वैसे लोग हैं जिनके साथ कोई वक्त बुरा नहीं हो सकता। कोई हम्पी जैसी जगह हो...देखने को बहुत से पुराने खंडहर...नदी किनारे टेंट। बहुत से किस्से...बहुत सी तस्वीरें। जाने क्या क्या।

बहरहाल, सुबह हुयी है और हम अपने सपने से बाहर ही नहीं आये हैं...चाह कितना सारा कुछ...फिल्में, किताबें...घूमना...सब होगा, धीरे धीरे...फिलहाल कहानियों को ठोकना पीटना जारी है। फिल्म भी आयेगी कभी। औफिस में आजकल सब अच्छा चल रहा है, इसलिये लगता है कि जाने का सबसे सही वक्त आ गया है। यहां डेढ़ साल से उपर हुये, इतना देर मैं आज तक कहीं नहीं टिकी, अब बढ़ना जरूरी है वरना जड़ें उगने लगेंगी। फ्रेंच क्लासेस शुरू हैं, अगले महीने...सारे प्लान्स हैं...वन ऐट अ टाईम। 

04 March, 2014

डाकिये से कहना, घर में कोई नहीं रहता

खत जो आते हैं तेरे
लगाते हैं कागज़ को गुदगुदी
तेरी उँगलियों की खुशबू में लिपटे
आफ्टर शेव, हाँ क्या?

खत जो आते हैं तेरे
बताते हैं मेरे शहर में तेरे मौसम का हाल
खुल के गिरते हैं लिफाफे से सूखे पत्ते कई
मैं भटक जाती हूं तुम्हारे ख्वाबों से अपने घर का रास्ता

मुझे रोकने को तुम पकड़ते हो हाथ
ठीक वहीं से सूखने लगती है रुह की सारी नदियां
लहरें दम तोड़ती हैं तुम्हारी आंखों के आईने में
तुम्हारे शहर में प्यास बहुत है

तुम्हारे इंतजार में मैं उलीचती हूं
समंदर का सारा पानी
फिर पड़ता है सौ बरस अकाल
मेरी आंखों से गिरता है एक बूंद आँसू

तुम लगाते हो भींच कर गले
कि जैसे कुबूल करने हों दुनिया के सारे गुनाह
अनामिका उंगली में चुभती है निब
गहरे लाल से मैं लिखती हूं सजाये मौत

हम सो जाते हैं गलबहियां डाले
हमारी पहली पूरी नींद
दुनिया के नाम लिख कर
एक ही, आखिरी सुसाईड नोट


*Pic: Kurt's suicide note. Last part. Photoshopped. 

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