06 April, 2014

समंदर की बाँहों में - डे २- पटाया

रात थी भी क्या? सुबह उठी तो लगा कि कोई सपना देखा है। सपने में बहुत सारा पानी था। समंदर था। डूबता सूरज था। फिर बालकनी में गयी तो दूर तक फैला नीला-हरा समंदर दिखा। ख्वाब नहीं था। नेहा उठ गयी थी। बगल वाले बालकनी से भी आवाज आ रही थी। नेहा ने तब तक मार्क को कौल कर लिया था। जौर्ज और मार्क का रूम हमारे रूम के नीचे वाले फ्लोर पर था। फोन किया तो मार्क  तैयार होकर नाश्ता कर चुका था और कमबख्त ने जौर्ज को उठाया तक नहीं था। हम दोनों पहले बौस को उठाने का शुभ काम निपटाये, कौफी पी थी या नहीं अब याद नहीं। मेरी आवाज अच्छी खासी लाउड है, उस पर नेहा साथ हो तो बस। पूरी बिल्डिंग न उठ गयी गनीमत है।

सब लोग फटाफट रेडी हो कर खाने पहुंच गये। शेरटन का ब्रेकफास्ट बढ़िया था एकदम। आज का प्लान था कोरल आईलैंड जाने का। बस टाईम पर आ गयी थी। लोगों ने शौर्टस वगैरह खरीदीं, कुछ ने टोपी भी लीं। फिर हम स्पीडबोट पर बैठ कर आइलैंड की तरफ चल दिए. समंदर में स्पीडबोट ऐसे चलती है जैसे बैंगलोर की सड़कों पर मेरी बाइक, कसम से क्या स्पीडब्रेकर थे समंदर में. लहर लहर पर उछलती स्पीडबोट। बहुत सारा पानी उड़ता हुआ. नमक का खारा पानी। दूर तक दिखता खूबसूरत समंदर। कैमरा वैगेरह मैंने बैग में ही डाल दिया था. कभी कभी जीना रिकॉर्ड करने से ज्यादा जरूरी और खूबसूरत होता है. बीच समंदर में कहीं एक बड़ी सी बोट पार्क थी. वहाँ पर लोग पैरासेलिंग कर रहे थे. टीम में सबने पैरासेलिंग की. नेहा। जॉर्ज। बग्स। अनिशा। मैंने नहीं की :( वो जो पैराशूट को पानी में डुबाते हैं वो देख कर मेरी जान सूखती है.


वहाँ से आइलैंड के पास एक और बोट पार्क थी. वहाँ आप मछलियों को देखने पानी के अंदर जा सकते थे. मुझे क्लौस्ट्रफ़ोबिया है. बंद जगहों से डर लगता है. उस पर पानी से तो और भी डर लगता है. यहाँ पर दोनों का कॉम्बिनेशन था. एकदम किलर। एक हेलमेट पहनना होता है, जैसे स्पेस ट्रैवेलर पहनते हैं न, वैसा और फिर आप पानी में नीचे चल सकते हैं. कुल मिला कर बीस मिनट का प्रोग्राम था. पहले तो मैंने सोचा नहीं जाउंगी पर देखा कि सब जा रहे हैं. तो बस ज्यादा सोचे बिना भाग के गयी कि मैं भी जाउंगी। इंस्ट्रक्टर ने बताया कि नीचे पानी के दबाव के कारण कान में दर्द हो सकता है, ऐसे में हेलमेट के नीचे से हाथ डाल कर नाक बंद करनी होती है और तेजी से सांस बाहर निकालनी होती है ताकि कान से हवा निकले। ऐसा करने के बाद दर्द बंद हो जाएगा। किसी भी हाल में घबराने की जरूरत नहीं है. लोग आसपास ही रहेंगे। अगर सब ठीक है तो ओके का साइन नहीं तो तर्जनी से ऊपर की ओर इशारा करने पर ऊपर ले कर आ जायेंगे। फिर सबने समझाया कि घबराना मत, सारे मेरे साथ हैं. मेरा सफ़ेद हुआ चेहरा शायद दिख रहा होगा सबको। पानी में पैर डालते ही मेरे होश फाख्ता होने लगे. मगर मैंने खुद को कहा कि मैं कर सकती हूँ. मुझे बस गहरी सांस लेनी है, बाहर छोड़नी है. बस. हेलमेट पहनाया गया तभी लगने लगा कि बड़ी आफत  मोल ली है, मुझसे नहीं होगा। पानी के अंदर बोट की सीढ़ियां उतर कर गहरे पानी में जाना था. कोई बहुत सी सीढ़ियों के बाद इंस्ट्रक्टर ने पैर पकड़ कर नीचे गहराई में खींच लिया। जाने कितने फीट नीचे थे हम पानी में. कानों में बहुत तेज़ दर्द हुआ और बहुत डर लगा. जैसे कि दम घुट रहा है और जान चली जायेगी। इंस्ट्रक्टर बार बार ओके का साइन बना के पूछ रहा था कि सब ठीक है और मुझे कुछ ठीक लग ही नहीं रहा था. जॉर्ज भी सामने, कितनी बार उसने भी ओके का साइन बना के पूछा। मगर मुझे इतनी घबराहट हो रही थी कि लगा जान चली जायेगी। मुझे आज तक उतना डर कभी नहीं लगा था. ऊपर जाने कितना गहरा पानी था. हम पानी में जाने कितनी दूर और कितनी देर तक चलने वाले थे. सब कुछ स्लो मोशन में था। मुझे लगा मुझसे नहीं होगा। मैंने ऊपर जाने का सिग्नल दिया। इंस्ट्रक्टर मुझे लेकर ऊपर आ आया.

जैसे ही पानी से बाहर आयी जान में जान आयी. फिर मालूम चला कि नहीं जाने पर भी जो ढाई हज़ार रुपये लगाए हैं वो वापस नहीं मिलेंगे। फिर ये भी लगा कि डर गयी तो हमेशा डर लगता रहेगा। अपनी बहादुरी का झंडा जहाँ तहां गाड़ते आये हैं यहाँ कैसे हार मान जाएँ। एक बार ये भी लगा कि सब चिढ़ाएगा बहुत। उस वक्त ऑफिस की टीम का कोई भी नहीं था बोट पर, सब लोग नीचे थे पानी में. एक थाई लड़की थी, उसने समझाया कि पांच मिनट में सब नॉर्मल हो जाएगा, बस गहरी सांस लेते रखना...याद रखना कि पानी में सांस लेना भी एक काम होता है. हिम्मत करके चली जाओ. उस वक्त लग रहा था कि इश्क़ के बारे में भी तो ऐसे ही कुछ नेक ख्याल हैं मेरे। फिर जब इतना खतरा वाला तूफानी काम करने में कभी डर नहीं लगा कि तो ये अंडरवाटर वॉक क्या है. मैं कर लूंगी। मैंने कहा कि मैं फिर से अंदर जाना चाहती हूँ. बोट पर जितने क्रू मेंबर थे सबसे खूब तालियां बजा कर मेरा उत्साह बढ़ाया। मैं फिर पानी में उतरी। वापस बहुत सी सीढ़ियां और नीचे। नीचे बग्स और जॉर्ज थे सामने। उनके चेहरे पर 'यु हैव डन इट गर्ल' वाला भाव था. मैंने गहरी गहरी सांसें लीं और जैसा कि इंस्ट्रक्टर ने कहा था चुविंगम चबाती रही. सारा ध्यान सांस लेने पर. थोड़ी देर में सब नॉर्मल लगने लगा. सारे लोग एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए थे. मेरे एक तरफ जॉर्ज और एक तरफ बग्स  था. एक आधी बार लगा कि कहीं बेचारों का हाथ फ्रैक्चर न हो जाए मैंने डर के मारे इतनी जोर से पकड़ रखा था. फिर सामने बहुत सारी मछलियां आयीं। ये किसी बड़े अक्वेरियम में होने जैसा था. सब कुछ एकदम साफ़ दिख रहा था. मछलियां जैसे स्लो मोशन में सामने तैरती थीं. चटक पीले रंग की मछलियां, गहरे नीले रंग की मछलियां, कोरल, सी स्पंज और बहुत सारा कुछ. इंस्ट्रक्टर हमें ब्रेड का एक टुकड़ा देता था हाथ में और मछलियां ठीक आँखों के सामने आकर उसे खाने लगती थीं. मुझे पिरान्हा याद आने लगी थी. हम जाने कितनी देर तक समंदर के अंदर चलते रहे. ये सब सपने जैसा था. सब कुछ एकदम ठहरा हुआ. कोई फ़ास्ट मोवमेंट नहीं। धीमे धीमे चलना। आसपास की खूबसूरती को देखना। महसूसना। जीना।

वक्त ख़त्म हुआ तो हम बोट पर वापस आ गए. सबने शब्बाशी दी कि मैंने डर पर काबू पा लिया। कि मैंने हिम्मत की. डर के आगे जीत है :) फिर हम स्पीडबोट से आइलैंड पर गए. बैग वैग धर कर सारे लोग समंदर की ओर दौड़े। मुझे तैरने का एक स्टेप आता है बस तो मैं बस पानी में चल रही थी. जॉर्ज और नेहा फ्लोट कर रहे थे. उन्हें देख कर मुझे बहुत रश्क हो रहा था कि काश और कुछ भी न आये स्विमिंग करने में बस फ्लोट करना आ जाए किसी तरह. जॉर्ज बहुत अच्छा टीचर है, सिखाने की बात पर एकदम एंथु में आ जाता है. उसने कहा खुद को पानी में छोड़ के देखो, नहीं डूबोगी और कमर भर पानी में कोई डूबता है भला और उसके भी आगे मैं हूँ बचने के लिए. मैंने एक आध बार कोशिश की और हर बार डूबने लगती थी. फिर मुझे लगा कि नहीं होगा मुझसे। सब लोग फिर पानी में नॉर्मल बदमाशी कर रहे थे. तैरना बहुत कम लोगों को आता था. मैं थोडा और गहरे पानी में गयी कि घुटने भर पानी में तो फ्लोट नहीं ही होगा। समंदर एकदम शांत है वहाँ। कोई लहरें नहीं। उसपर पानी गर्म। जैसे गीजर से आ रहा हो. चूँकि बहुत सारे लोग थे आसपास तो डूबने का डर नहीं लग रहा था।  मैंने गहरी सांस ली और रोक ली. खुद को पानी में छोड़ दिया। बाँहें खोल लीं और पैरों के बीच लगभग डेढ़ फुट का फासला बना लिया। मैं पानी में ऊपर थी. एकदम फ्लैट। कान पानी के नीचे थे. पानी का लेवल चेहरे के पास था. बस नाक ऊपर थी पानी में. मैंने आँखें भींच रखी थीं. यकीं नहीं हो रहा था लेकिन आई वाज फ्लोटिंग। मैंने आँखें बंद रखीं और जोर से चीखी 'जॉर्ज आई एम फ्लोटिंग'. इसके थोड़ी देर बाद मैं पानी में वापस खड़ी हो गयी. इतना अच्छा लग रहा था कि क्या बताएं। फिर मैंने देखा कि ऑफिस के सारे लोगों ने नोटिस किया कि मैं वाकई फ्लोट कर रही थी. बस फिर क्या था सारे लोग जॉर्ज के पीछे कि मुझे भी सिखाओ। जॉर्ज ने लगभग सबको फ्लोटिंग सिखायी। कुछ देर बाद तो इतना मजा आ रहा था जैसे फ्लोटिंग क्लास चल रही हो. मैंने अनिशा और प्रदीप को फ्लोटिंग सिखायी। अनिशा ने कर लिया मगर प्रदीप के लिए जॉर्ज की जरूरत पड़ी. वो डूबता तो उसे मैं बचा भी नहीं पाती ;) बेसिकली पानी में सबसे डर सर नीचे करने में लगता है. सब एक बार उस डर से उबर गए तो फ्लोटिंग बहुत आसान है.

मुझे वो पहली बार फ्लोटिंग जिंदगी भर याद रहेगी। पहले बहुत सा शोर था. बहुत से लोग. फिर बाहें फैला कर पानी में पीठ की और हौले से गिरना होता है, ऐसा भरोसा कर के कि कोई है जो बाँहों में थाम लेगा, जैसे समंदर पानी का कोई मखमली गद्दा हो. साँस रोके हुए. फिर पहली सांस छोड़ते हुए महसूस होता है कि सब कुछ शांत हो गया है. कहीं कोई आवाज नहीं है. कहीं कुछ भी नहीं है. बहुत शांति का अनुभव होता है. इस शोर भरी दुनिया में जैसे अचानक से पॉज आ जाता है. पानी चारो तरफ होता है. जैसे समंदर चूम रहा हो. जिस्म का पोर पोर. Its like a giant hug by the sea. समंदर की बाँहों में जैसे बहुत सा सुकून है. जिंदगी भर का सुकून।

श्रीकांत -पैरासेलिंग के बाद
किसी का वापस जाने का मन ही ना करे. मगर लंच का टाइम हो रहा था. वापस तो जाना ही था. सब झख मार के वापस आये. कपड़े बदलने की जगह नहीं थी और वक्त भी नहीं। किसी जगह शायद ४० बाथ (लगभग ८० रुपये) देने थे तो सर्वसम्मति से निर्णय हुआ कि बोट पर चलते हैं. लंच करके होटल चले जायेंगे और वहीं कपड़े बदल लेंगे। मौसम गर्म था तो कपड़े सूख भी जाते। अब मेरी चप्पल ही न मिले। भारी दुखी हुयी मैं. अभी कुछ दिन पहले क्रॉक्स खरीदी थी, ढाई हज़ार की चप्पल का चूना लग गया. बहरहाल हम किनारे लौटे। हमारी बस नहीं आयी थी. धूप के कारण जमीन बहुत तप रही थी और पैर रखना पौसिबल नहीं था।  जॉर्ज ने कहा जब तक बस आती है चलो तुमको चप्पल दिलाता हूँ नहीं तो यहीं भंगड़ा करती रहोगी। हम भागे भागे आये चप्पल लेने। जब जो चाहिए होता है उसके अलावा सब कुछ मिलता है दुनिया में. समुद्र किनारे घड़ी घड़ी लोग चप्पल बेच रहे थे और हम खरीदने चले तो चप्पलचोर सारे नदारद। कुछ दूर जाके फाइनली चप्पल मिली तो हम खरीद के वापस आये. अब ऑफिस के सारे लोग गायब। फोन करो तो कोई फोन न उठाये। मैं, जॉर्ज, रवि और श्रीकांत थे. वहाँ एक मॉल था और सबका वहीं अंदर जाने का प्रोग्राम था. मैंने देखा कि ऊपर फूड कोर्ट है. अब चूँकि ऑफिस में सब तरह के लोग हैं तो मुझे लगा कि लोग फूड कोर्ट ही गए होंगे खाने के लिए कि सबको अपनी पसंद का खाना मिल जाए तो जॉर्ज और मैं ऊपर देखने बढ़े. ऊपर गए तब भी कोई नहीं दिखा और तब तक भूख के मारे जान जाने लगी. तैरने के बाद एक तो वैसे ही किलर भूख लगती है उसपर मुझे भूख बर्दाश्त नहीं होती। हमें एक इन्डियन जगह दिख गयी. वहाँ छोले भटोरे थे. बस हिंदी में आर्डर किया मजे से और एक ग्लास अमरुद का जूस. मेरा बैग चूँकि मेरे पास था तो पैसे, कपड़े सब थे पास में. जब तक खाना आया मैंने चेंज भी कर लिया वाशरूम में जा के. कसम से क्या कातिल छोले भटोरे थे, मैंने आज तक वैसे छोले भटोरे भारत में नहीं खाये कभी. खाना खा रहे थे तो रहमान का कॉल आया जॉर्ज को, वो लोग इसी मॉल में दूसरे फ्लोर के रेस्टोरेंट में खाना खा रहे थे. बस के आने में डेढ़ घंटे का टाइम था. खाना खाते, गप्पें मारते कब वक्त निकल गया मालूम ही नहीं चला. बाकी लोगों का खाना हो गया तो नेहा और बग्स भी ऊपर आ गए. कुछ देर हम सब समंदर निहारते रहे. फ़ोटो खींचते रहे और जाने क्या क्या बतियाते रहे. टीम में मेरे आलावा सिर्फ बाला वेजिटेरियन है. बस में उसको खूब चिढ़ाये कि हम तो छोला भटूरा खाये, तुम क्या खाये ;) ;)

रात को ऐलकजार शो था, बेहतरीन म्यूजिक, कॉस्चुम और सेट डिजाइन। मैंने उतना खूबसूरत शो नहीं देखा है आज तक. सब कुछ बेहतरीन था वहाँ।  फिर समंदर किनारे एक रेस्टोरेंट में खाना। ग्रीन सलाद। वेज आदमी को और क्या मिलेगा। बहुत सी कहानियां कहीं, कुछ सुनीं। थोड़ा भटकी। दिवाकर रास्ता खो गया था उसको उठाये और फिर होटल वापस। हम ऑफिस में जिनके साथ काम करते हैं और घूमने जिनके साथ जाते हैं उनमें कितना अंतर होता है. इतना अच्छा लगा सबको ऐसे जानना। हमेशा किसी नए से बात करना। कोई नया किस्सा सुनना। हिंदी में सवाल करना, तमिल में जवाब सुनना, मलयालम में लोगों का बतियाना। उफ्फ्फ्फ़ ही था बस.

पटाया में आखिरी दिन था. अगले दिन बैंगकॉक के लिए निकलना था. हम स्विमिंग पूल में पैर डाले बैठे रहे. बतियाते। हँसते। दिल भर सा आया था. मुझ सी को ऐसे पूरा का पूरा ऐक्सेप्ट करना थोड़ा मुश्किल है. मेरा शोर. मेरा पागलपन। सब कुछ. मगर सब ऐसे थे जैसे एक बड़ा सा परिवार, जिसमें शामिल होने की कोई शर्त नहीं होती। बहुत अच्छा सा लगा. सुकून सा.
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समंदर था कि आसमान था कि समंदर में पिघलता हुआ आसमान था. जमीन कहाँ ख़त्म होती है आसमान कहाँ शुरू। समंदर से पूछूं उसे मेरा नाम याद रहेगा? सितारे हैं या कि आँखों में यादों का जखीरा।

शुक्रिया जिंदगी। इन मेहरबान दो दिनों के लिए. 

4 comments:

  1. बढिया यात्रा वृतांत

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  2. पानी के अन्दर रहने से समय रुक सा जाता है, आइन्स्टीन को उसके लिये भी कोई सापेक्षता का सिद्धान्त निकालना होगा। टैनिंग दिखायी पड़ रही है।

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  3. सुन्दर विवरण

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  4. समुद्र किनारे टेनिंग ज्यादा होती है

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