16 July, 2012

क्राकोव डायरीज-३-बारिशों का छाता ताने

यूँ तो इस कासिदाने दिल के पास, जाने किस किस के लिए पैगाम हैं
जो लिखे जाने थे औरों के नाम, मेरे वो खत भी तुम्हारे नाम हैं
-जान आलिया
डायरी में लिखा हुआ...
12th July, 12:26 local time Krakow
किले के पीछे विस्तुला नदी बहती है. मैं नदी किनारे बैठ कर हवा खा रही हूँ. लोगों के आने जाने की आवाजें हैं. नदी की लहरों का शोर. घूमने को कई सारे म्यूजियम हैं, देखने को कई सारी जगहें...ऐसे में बिना कुछ किये बैठे रहने में वैसा ही भाव है जैसे गर्मी की छुट्टी का होमवर्क नहीं करने में था. M lovin it :)
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वे धूप की खुशबू में भीगे दिन थे...गुनगुनाते हुए. 
मेरे फोन में 3G आ गया था तो शहर घूमना थोड़ा आसान हो गया. मुझे वैसे भी रास्ते अच्छे से याद रहते हैं. क्राकोव में मैं जहाँ ठहरी हूँ वो 'ओल्ड टाउन' का हिस्सा है. सारे किले, पुराने चर्च, म्यूजियम आसपास ही हैं और पैदल घूमा जा सकता है. १२ की सुबह आराम से तैयार होकर घूमने निकली तो सोचा ये था कि यहाँ का जो मुख्य किला है...वावेल कैसल उसके अंदर के म्यूजियम घूमूंगी. आज दूसरा रास्ता लिया था कैसल जाने के लिए. इस रास्ते के एक तरफ पार्क था और दूसरे तरफ बिल्डिंग्स. यूरोप का आर्किटेक्चर लगभग एक जैसा ही है...स्लोपिंग छत वाले घर और बालकनी...खिड़कियों के बाहर फूलों वाले गमले जिनमें अक्सर लाल फूल खिले रहते हैं. 

इस दूसरे रास्ते पर चलते हुए किले के नीचे पहुँच गयी...नदी के किनारे. यहाँ ड्रैगन की गुफा का बाहरी दरवाजा है...जहाँ एक ड्रैगन बना हुआ है जिसके मुंह से आग निकलती है. नदी के लिए क्रूज भी यहीं से मिलते हैं. क्राकोव में बहुत सारा स्टूडेंट पोपुलेशन है इसलिए यहाँ धूप में पढ़ते हुए लोग दिख जाते हैं...नदी किनारे, पेड़ के नीचे पढ़ते लिखते लोग देख कर लगता है कि जिंदगी इसी का नाम है. कोई बारह बज रहे थे और माहौल इतना अच्छा था कि कहीं जाने का मन ही नहीं कर रहा था. शहर में आये हुए ये तीसरा दिन था. कुछ खास देखा नहीं था अभी...कैसल में भी म्यूजियम हैं, राजाओं की कब्रें हैं और इसके अलावा टाउन स्क्वायर जिसका मूल नाम रैनेक ग्लोव्नी होता है में भी एक बड़ा सा म्यूजियम है जिसे क्लोथ हॉल म्यूजियम कहते हैं. इसके अलावा ३ बजे मेन स्क्वायर से जुविश क्वाटर के लिए टूर शुरू होता है...उसे देखने का भी दिल था.

घोर गिल्ट महसूस करने के बावजूद मैं वहाँ कुछ देर ठहरी रही...ठंढ के दिन में धूप...उसपर इतनी खूबसूरती...सारा गिल्ट महसूस करने के बावजूद कहीं जाने का दिल नहीं कर रहा था. सोच ये रही थी कि यहाँ बैठ कर पोस्टकार्ड लिखने में कितना मज़ा आएगा...किले की बुर्ज पर बने कमरेनुमा वाच टॉवर को देखा तो बिलकुल पुराने जमाने के लाल-डिब्बे जैसा दिखा. कुछ देर वहीं धूप खाने के बाद ऊपर किले पर पहुंची और पोस्टकार्ड ख़रीदा...फिर खाने का इन्तेज़ार करते हुए पोस्ट कार्ड पर पता और मेसेज लिखा. फिर कार्ड को असली वाली पोस्टबोक्स में गिराया. यहाँ के स्टैम्प्स बहुत अच्छे लगते हैं मुझे.

टाउनहाल की नींवें
आज की कहानी है नीवों की...पार्ट वन में आपने यहाँ की नींव के बारे में सुना...अब बारी थी उन्हें असल में जा कर देखने की. क्लोथ हॉल म्यूजियम एक बड़ी सी इमारत है. जब मैंने सोचा कि आज म्यूजियम देखना है तो मुझे लगा कि ईमारत में जाना है...सीढ़ियाँ नीचे की ओर जाते हुए देख कर भी मुझे नहीं लगा था कि म्यूजियम दरअसल ऊपर की इमारत नहीं...वाकई टाउन स्क्वायर की गिरी हुयी इमारत की नींवों में है. म्यूजियम के एंट्रेंस में एक विडीयो चल रहा था...मुझे लगा कि कोई दीवार है...जिसपर प्रोजेक्शन है...मगर तकनीक इतनी आगे बढ़ गयी है...वो असल में हवा में थ्री डी प्रोजेक्शन था...कोई दीवार नहीं थी. 


१५०० AD: मेन टावर, क्राकोव टाउनहाल
क्राकोव का टाउनहाल १२वीं शताब्दी से उसी जगह पर है. म्यूजियम में बहुत सालों पुरानी बनी नींवें थीं...थ्री डी टेक्निक और प्रोजेक्शन से हर सदी के साथ कैसे नींव की रूपरेखा बदली ये भी दिखता था. १६ वीं शताब्दी में जहाँ आज का टाउनहाल है वहाँ पर एक बहुत बड़ा बाजार हुआ करता था फिर एक भीषण आग में सब जल कर भस्म हो गया. आर्कियोलॉजिकल सर्वे में उस समय का काफी कुछ सामान मिला है. पुराने जमाने में लुहार, स्वर्णकार किस तरह काम करते थे इसे मोडेल्स और छोटी फिल्मों के माध्यम से दिखाया गया है. यहाँ कई सारे स्कूल के बच्चे भी आये हुए थे जिनके साथ टीचर और गाइड भी थीं. नीवें पूरे टाउन स्क्वायर के नीचे नीचे हैं...और म्यूजियम भी इन्ही नींवों के बीच बना हुआ है...यानी कि पूरा अंडरग्राउंड है. सबसे अधिक आश्चर्य हुआ जब एक जगह पानी की परछाइयाँ देखीं. मुझे लगा कि फिर से कोई इन्तेरैक्तिव वीडियो है...पानी में पैर भी देखे...बहुत देर बाद जाकर अहसास हुआ कि नींव की सुरंगनुमा गलियारों में चलते हुए मैं मेन स्क्वायर के बड़े से झरने के ठीक नीचे खड़ी हूँ...और जो पानी है वो उसी फाउंटेन का है...और जो पैर नज़र आ रहे हैं वो असल में ऊपर पानी में खेलते बच्चों के हैं...किसी वीडियो फिल्म के नहीं. म्यूजियम इतना बड़ा है कि अगर लोग कम हों तो कई बार डर लग जाए कि कहीं खो न जायें.
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उस शाम से हर शाम बारिशें हो रही हैं...मैं सोचती हूँ अच्छा हुआ कि धूप में कुछ देर बैठने का मन था तो बैठ लिए...कल का दिन कैसी बारिशें लिखा के लाता है कोई नहीं जानता. इधर बारिशें होती हैं तो मैं जींस मोड़ कर...फ्लोटर्स पहन कर फोन-वोन होटल के कमरे पर छोड़ कर  निकल जाती हूँ. भीगता हुआ शहर भीगती लड़की की तरह ही खूबसूरत दिखता है. पुरानी पत्थर की बनी इमारतें...और सड़कें. बारिश में लगभग हर कोई भागता हुआ दिखता है...एक मैं ही हूँ जो इस शहर की कहानियां सुनने को भटकती रहती हूँ. रंग बिरंगे छाते तन गए हैं हर तरफ और शोर्ट्स में घूमने वाली लड़कियां जींस और जैकेट में बंध गयी हैं.

हर शहर में पहली बारिश की खुशबू एक ही होती है फिर इस शहर में क्या खास है...फुहारों में वायलिन की आवाज़ भी आती है...यहाँ की बारिश में संगीत घुला होता है. मैं यहाँ कभी हेडफोन लगा कर नहीं घूमती कि यहाँ के हर चौराहे पर कोई न कोई संगीत का टुकड़ा ठहरा होता है...कभी वायलिन, कभी गिटार तो कभी ओपेरा गाती लड़की तो कभी बांसुरी की तान छेड़ता कोई बूढा...यहाँ कितना संगीत है...और कितनी ही उदासी. यहाँ की हवाएं ऐसे ठहरती हैं जैसे गले में सिसकी अटकी हो.

पूछना बादलों से मेरा पता...
मैं बारिशों में यहाँ की दुकानें देखती हूँ...सबके लिए कुछ न कुछ लेकर जाउंगी इस शहर से...दोस्तों के लिए पोस्टकार्ड छांटती हूँ...सबसे अलग, सबसे अच्छे...सबसे रंग भरे...क्या भेज दूं यहाँ से...इस शहर से मुझे प्यार हो गया है...यहाँ से लोगों से...गलियों से...पुरानी, रंग उड़ी इमारतों से...किले के नीचे चुप  बहती विस्तुला से...ड्रेगंस...स्ट्रीट आर्टिस्ट्स...बारिश...हवा...पानी...सबसे. बहुत सी बारिशों में बैठ कर पोस्टकार्ड लिखती हूँ...किले की खिड़की से बारिश बाहर बुलाती है...मैं पोस्टकार्ड पर फूँक मार रही हूँ...इंक पेन से लिखा है...यहाँ और देश की बारिश में धुल न जाए.

कितना अच्छा लग रहा है...इतने अच्छे और खूबसूरत देश में...बारिशों को देखते हुए...बहुत से अच्छे प्यारे दोस्तों को लिखना...कि जैसे जितनी मैं यहाँ हूँ...उतनी ही भारत में भी. कि जैसे दुनिया वाकई इतनी छोटी है कि आँखों में बस जाए. कि प्यार वाकई इतना है कि पूरे आसमानों में बिखेर दो...कि तुम्हारे शहर में बारिशें हो तो समझना, मैंने दुआएँ भेजी हैं.

बस...दूर देश से आज इतना ही.

Mood Channel: Edit Piaf- Bal dans ma rue

11 July, 2012

क्राकोव डायरीज-२-गायब हुए देश की कहानियां

बहुत समय पहले की बात है...एक युवक था...आदर्शों में डूबा हुआ...दुनिया को बदलने के ख्वाब देखता हुआ...वो एक कवि था...पोलैंड एक मुश्किल दौर से गुज़र रहा था उस वक्त...युवक के परिवार में भी कोई शख्स नहीं बचा था...उसने चर्च की ओर रुख किया पादरी बना. फिर चर्च के एक एक पायदान चढ़ते हुए वैटिकन...और फिर...एक मिनट रूकती है...अलीशिया की आँखों में खुशी नाच उठी है...जैसे वो कोई उसका अपना था...अपने दिल पर हाथ रख कर कहती है...इस छोटे से पोलैंड से उठ कर गया वो लड़का...वो कवि...वो आइडियल लड़का...'पोप' बनता है...यू नो...पोप जॉन पौल २...वो पोलैंड से था...हमारा अपना पोप. उस वक्त पोलैंड में कम्युनिस्ट रूल था...वे लोगों को एक बराबर मानते थे इसलिए धर्म के खिलाफ थे. जॉन पौल ने पोलैंड आने का प्रोग्राम बनाया. कम्युनिस्ट अथोरिटी को ये पसंद नहीं आया और वे तैयार थे कि खून खराबा होगा और कोई क्रांति होगी तो वे कितनी भी हद तक जाकर उसे शांत करेंगे. लोगों में इस बात की उत्सुकता थी कि जब कम्युनिस्ट जेनेरल जरुज्लेसकी और पोप मिलेंगे तो कैसे मिलेंगे...क्या पोप उनसे हाथ मिलायेंगे...पोप ने कमाल का उपाय निकाला...उन्होंने जेनरल को अपने प्लेन में अंदर बुलाया...और आज तक कोई नहीं जानता कि अंदर क्या हुआ था...जब बाहर आये तो दोनों हाथ हिला रहे थे पब्लिक की ओर. अलीशिया बताती है कि लोग जेनरल  जरुज्लेसकी से सबसे ज्यादा नफरत करते हैं...अब वो कोई १०० साल की उमर का आदमी होगा मगर अब भी उसके घर के आगे खड़े होकर गालियाँ देते हैं और पत्थर फेंकते हैं...उसके हिसाब से अब उसे उसके हाल पर छोड़ देना चाहिए...लेकिन...नफरत इतनी आसानी से खत्म नहीं होती. एक गहरी सांस! उफ़.

पोलिश लोग पोप से बहुत प्यार करते थे और एक गर्व की भावना से भरे हुए थे...उनके 'मास' में आने के लिए सारे लोगों में उत्सव जैसा उत्साह था...कम्युनिस्ट सरकार ने लोगों को पोप से मिलने से रोकने के लिए अनेक उपाय किये...मास के दिन सारा पब्लिक ट्रांसपोर्ट बंद था...लोगों को ऑफिस में बहुत ज्यादा काम दे दिया गया और ऐसे अनेक तरीके कि लोग अपने घर से बाहर जा ही न पाएं. लेकिन लोगों ने मास अटेंड करने के लिए ४० किलोमीटर तक से पैदल आ गए थे. पोप को पोलिश रिवोलूशन में एक महत्वपूर्ण कड़ी माना जाता है. मास के बाद जब पोप अपने घर में आराम करने आये तो उनके साथ पूरा जनसमूह उमड़ पड़ा...तो वो अपने क्वार्टर से बाहर खिड़की पर खड़े हो गए और लोगों से बात करते रहे. उस पूरी रात लोग उनकी खिड़की के नीचे खड़े रहे...कोई गीत गा रहा था...कहीं कविता सुनाई जा रही थी...कहीं प्रार्थनाएं हो रही थीं...कहीं हँसी मजाक हो रहा था...और इस सारे वक्त सारे लोग रुके रहे और पोप अपनी बालकनी नुमा खिड़की पर उनके साथ पूरी रात बातें करते रहे. उस दिन के बाद से नियम हो गया कि पोप जब भी पोलैंड आते अपनी खिड़की पर जरूर आते और लोग उनसे मिलने वहीं खिड़की के नीचे खड़े रहते. उनके रेसिडेंशियल क्वाटर का एरिया हमेशा पोप से जुड़ी जगह हो गयी...जब पोप का देहांत हुआ तो पूरे दो हफ्ते तक वो सड़क...जो कि क्राकोव की एक बेहद बीजी सड़क है...दो हफ्ते तक वो सड़क फूलों और मोमबत्तियों से जाम रही. ये थी कहानी उस पोलिश पोप की जिससे पोलिश बहुत प्यार करते हैं...जो कवि था...और जिसने क्रांति की उम्मीद लोगों के दिलों में जलाए रखी. 

दूसरी कहानी है...क्राकोव की...कहानी के बहुत सारे वर्शन हैं...तो हम आपको अलीशिया का वर्शन सुनाते हैं...बहुत साल पहले की बात है क्राकोव में एक राजा रहता था...लेकिन उसका एक पड़ोसी था जो उसको बिलकुल पसंद नहीं था...होता है...हम अक्सर अपने पड़ोसियों को पसंद नहीं करते...वावेल पहाड़ी पर, विस्तुला नदी के किनारे एक गुफा में ड्रैगन रहता था...और ड्रैगन वर्जिन लड़कियों को ही खाता था...हर कुछ दिन में वर्जिन लड़कियां उठा ले जाता था...अब यू नो...राजा को भी वर्जिन लड़कियां पसंद थीं और जैसा कि होता है...वर्जिन लड़कियां हमेशा संख्या में कम होती हैं...तो राजा को ड्रैगन से कॉम्पिटिशन पसंद नहीं था...इसलिए उसने मुनादी कराई कि जो भी योद्धा ड्रैगन को मार देगा उसे बहुत सारा राज्य और एक खूबसूरत राजकुमारी मिलेगी. बहुत से योद्धा ड्रैगन की गुफा में गए...पर कोई भी वापस नहीं लौटा. आखिर राजा ने मुनादी कराई कि कोई आम इंसान भी ड्रैगन को मार देगा तो उसको भी वही इनाम मिलेगा. एक मोची के यहाँ एक छोटा सा लड़का काम करता था...स्कूबा...उसने कहा वो ड्रैगन को मार देगा तो सब लोग उसपर बहुत हँसे...मगर छोटे, बहादुर स्कूबा ने हार नहीं मानी...उसने एक मेमने के अंदर बहुत सारा सल्फर भर दिया और उसे ड्रैगन की गुफा के सामने बाँध दिया...ड्रैगन बाहर आया और मेमने को खा गया. अब ड्रैगन के पेट में सल्फर के कारण जलन होने लगी(अब उन दिनों में ईनो तो था नहीं कि ६ मिनट में गैस से छुटकारा दिला दे ;) ;)  ) तो ड्रैगन विस्तुला नदी में कूद गया और खूब सारा पानी पीने लगा...वो कितना भी पानी पीता जलन कम ही नहीं होती...आखिर वो पानी पीते गया पीते गया और बुम्म्म्म्म्म्म्म से फट गया. सब लोग खुश...स्कूबा की शादी राजकुमारी से हो गयी और वो लोग खुशी खुशी रहने लगे. 

ये तो हुआ परसों का बकाया उधार...

कल मेरे पास कोई प्रोग्राम नहीं था...मुझे वावेल कैसल घूमना था और शाम को ३ बजे एक पैदल टूर होता है जुविश क्वार्टर का वो देखना था...आधा दिन मेरा फोन में चला गया. अभी भी मेरा फोन काम नहीं कर रहा...उससे काल्स नहीं हो रहे...बस इन्टरनेट काम कर रहा है. तो अभी मेरे पास एक फोन है इन्टरनेट के लिए और एक फोन है नोकिया का कॉल करने के लिए...नोकिया वाले सिम में पैसे खतम हैं...तो मैं सिर्फ फोन अटेंड कर सकती हूँ...अगर कोई फोन करे तो.

मेरा दिन यहाँ ७ बजे शुरू होता है...८ बजे कुणाल के ऑफिस के टैक्सी आती है...उसके बाद का टाइम में थोड़ा बिखरा सामान समेटने और नहा के तैयार होने में जाता है. फिर लिखने में कोई घंटा डेढ़ घंटा लगता है...ग्यारह के आसपास मैं तैयार हो जाती हूँ. कल मुझे फ्री वाल्किंग टूर वाले दिखे नहीं...उनके साथ घूमने में मज़ा आता है...वो कहानियां सुनाते चलते हैं इसलिए मैं उनके साथ ही जुविश क्वार्टर देखना चाहती हूँ. 

टावर के ऊपर की खिड़की में 
कल फोन में नया नंबर लिया और सोचे कि क्या करें तो सबसे पहले जाके मार्केट में जो इकलौता टावर बचा है उसपर चढ़ने का टिकट कटा लिए. खतरनाक घुमावदार ऊँची नीची सीढ़ियाँ चढ़ते हुए टावर की आधी ऊँचाई पर खड़ी सोच रही थी कि मैं हर बार ऐसा क्यूँ करती हूँ...टावर देखते ही चढ़ने का मन क्यूँ करता है. मुझे क्लौस्ट्रोफोबिया है...बंद जगहों से डर लगता है...ऊँची जगहों से डर लगता है और ये टावर बंद भी है और ऊँचा भी है...माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वाले पहले व्यक्ति से पूछा गया कि आप माउंट एवेरेस्ट पर क्यूँ चढ़े तो उसका कहना था...क्यूंकि वो है...बिकॉज इट इज देयर...कुछ वैसा ही मेरा हाल है. तो टावर था तो चढ़ गयी :) अच्छा लगा...वहाँ से नज़ारा अच्छा था शहर का...फोटो वोटो खींच के नीचे उतरे. फिर फोन के चक्कर में पड़े...कोई ढाई टाइप बज गया. भूख के मारे चक्कर आने लगे. 

फिर सारे रेस्टोरेंट का मेनू पढ़ते पढ़ते एक जगह पास्ता विथ पेस्तो सौस दिखा...वो वेजेटेरियन होगा ये सोच कर खुश हो गए...और खाने बैठ गए. टाउनहाल की नीवों पर बने इस स्क्वायर पर रेस्टोरेंट्स हैं...चारों तरफ...कुछ दूर में विस्तुला नदी बहती है...लोग सड़कों पर खड़े कोई वायलिन, गिटार, अकोर्दियान बजाते रहते हैं...हवा में मिलीजुली आवाजों की खुशबू थी. आइस टी पी रही थी और सोच रही थी...किसी की याद में नहीं...पूरी की पूरी खुद के साथ. मैं किसी और के साथ होना नहीं चाहती थी...मैं किसी अतीत में खोयी नहीं थी...वर्तमान के साथ किसी और लम्हे का एको नहीं था...ऐसा कोई दिन कभी नहीं आया था...कभी नहीं आएगा...मुझे खुद के साथ होना अच्छा लगा. मुझे कहीं जाने की जल्दी नहीं थी...मैं इत्मीनान से आइस टी पीते हुए सामने के स्क्वायर पर आते जाते लोगों को, उनके कपड़ों को, उनकी मुस्कुराहटों को देख रही थी...धूप थोड़ी तिरछी पड़ने लगी थी...हवा में हलकी सी खुनक थी...मौसम ठंढा था और धूप से गर्म होती चीज़ें थी...सब उतना खूबसूरत था जितना हो सकता था. मैं मुस्कुरा रही थी. मैं वाकई बहुत बहुत साल बाद अपने आज में...उस प्रेजेंट मोमेंट में पूरी तरह से थी...खुश थी. 

पास्ता बहुत अच्छा था...खाना खा के मैंने जुविश क्वार्टर देखना मुल्तवी किया...वाकिंग टूर वाले लोग दिख भी नहीं रहे थे...सोचा टहलते हुए किला देख आती हूँ या नदी किनारे बैठती हूँ जा कर. मुझे लगता है मैं धीरे धीरे वापस से वही लड़की होने लगी हूँ जिससे मैं बहुत प्यार करती थी...अपनी गलतियों और अपनी बेवकूफियों को थोड़ा सा दिल बड़ा करके माफ कर देना चाहती हूँ.

The Monument. 1975-1986. A monument to show
the two great men that invented socialism to be set
in a country in which socialism had become a reality.
Creation of statues of Karl Marx and Friedrich Engels.
(From the exhibition- Stories from a vanished country)

सामने एक एक्जीबिशन दिखा...स्टोरीज फ्रॉम अ वैनिशड कंट्री...गायब हुए देश की कहानियां...तो मैं एक्जीबिशन देखने चली गयी. GDR- जर्मन डेमोक्रटिक रिपब्लिक जो कि बर्लिन की दीवार के पूर्वी हिस्से में था...एक आदर्श कम्युनस्ट देश की तरह स्थापित किया जा रहा था...जहाँ सारे लोग बराबर थे. इस प्रदर्शनी में कई सारी तसवीरें थीं जो उस खोये हुए देश की कहानियां सुनाती थीं...जीडीआर में खुद को एक्सप्रेस करने की आजादी नहीं थी...सारे लोग यूनिफार्म पहनते थे और एक जैसे ब्लाक्नुमा घरों में रहते थे. तस्वीरों और उनके शीर्षक एक अजीब तिलिस्मी दुनिया रच रहे थे मेरे इर्द गिर्द...आधी दूर जाते जाते लगने लगा कि मैं उन तस्वीरों में ही कहीं हूँ...जीडीआर में लोग जब एक लाइन लगी देखते थे तो उसमें लग जाते थे...बिना ये जाने कि किस चीज़ की लाइन लगी है...अगर वस्तु उनके काम कि नहीं है तो वे उसे उस चीज़ से बदल सकते थे जो उन्हें चाहिए होती थी. काला-सफ़ेद तिलिस्म...उचटे हुए लोग...हर तस्वीर से एक अजीब उदासी रिसती हुयी...ऐसा लग रहा था जैसे मेरा चेहरा उनमें घुलता जा रहा है...हर रिफ्लेक्शन के साथ मैं थोड़ी थोड़ी खोती जा रही हूँ...जीडीआर में लोगों के चेहरे नहीं होते थे...इंडिविजुअल कुछ नहीं...कोई अलग आइडेंटिटी नहीं...आप बस भीड़ का हिस्सा हो...आपका अपना कुछ खास नहीं. मनुफैकचर्ड लोग...खदानों, कारखानों में काम करते लोग...कामगार...बेहद अच्छे खिलाड़ी...लेकिन आइना देखो तो कुछ नज़र नहीं आता. एक्जीबिशन देखना एक अजीब अनुभव था...कुछ इतना डिस्टर्बिंग और रियलिटी से काट देने वाला कि मैं बाहर आई तो अचानक से इतनी सारी रौशनी और हँसते मुस्कुराते लोग देख कर अचंभित हो गयी...मुझे लग रहा था जिंदगी में रंग होते ही नहीं हैं...और हॉल से बाहर भी ग्रे रंग की ही दुनिया होगी...लोग मिलिट्री यूनिफार्म में होंगे. तस्वीरों और शब्दों में कितनी जान होती है ये कल महसूस हुआ. 
विस्तुला नदी किनारे
पेड़ की छाँव में बैठ कर किताब पढ़ना...

फिर कुछ खास नहीं...टहलते हुए किले के पास चली गयी...देखा कि लोग घास में आराम से लेट कर किताब पढ़ रहे हैं या गप्पें मार रहे हैं...थोड़ा बहुत और भटकी...फेसबुक पर कुछ फोटो अपडेट की और बस...वापस आ गयी. दिन के आखिर में आखिरी ख्याल ये आया...कि मैं बहुत अच्छी हूँ...और मैं खुद से बहुत प्यार करती हूँ...और सबसे खूबसूरत लम्हा वो होता है जिसे हम जी रहे होते हैं. ईश्वर की शुक्रगुजार हूँ इस जीवन के लिए...इन रास्तों और इस सफ़र के लिए और अपने दोस्तों और अपने परिवार के लिए...और सबसे ज्यादा कुणाल के लिए. 

चीयर्स!

10 July, 2012

क्राकोव डायरीज-१-अलीशिया के नाम

क्राकोव...पोलैंड.
9:34 am

कल मेरा क्राकोव में पहला दिन था...मैं अधिकतर ट्रैवेल डायरीज नहीं लिखती...पर पुराने अनुभव को देखते हुए पाती हूँ कि अगर न लिखूँ तो बहुत सी चीज़ें भूल जाउंगी. इसलिए इस बार जो चीज़ें मुझे सबसे अच्छी लगीं उनको यहाँ सहेज कर रख रही हूँ.

पिछले कुछ दिनों में मैं बैंगलोर से मुंबई...वहाँ से दुबई...वहाँ से म्यूनिक और आखिरकार क्राकोव पहुंची हूँ. पोलैंड आने का प्लान दो बार कैंसिल होकर ये तीसरी बार फाइनल हुआ है. इस बीच एयरपोर्ट पर घंटों का इन्तेज़ार था...म्यूनिक में हमारा वीसा लग गया था तो हम एयरपोर्ट के बाहर इंतज़ार कर रहे थे. वहाँ एक छोटा सा मेला लगा हुआ था...लाजवाब किस्म की अल्कोहल पीते हुए और जादू के कारनामे देखते हुए वक्त कैसा कटा मालूम ही नहीं चला. म्यूनिक की शाम मेरी अब तक की देखी हुयी शामों में सबसे खूबसूरत थी. वहाँ सूरज की रौशनी कम ही नहीं हुयी...पूरा चमकता हुआ गहरा नारंगी सूरज डूब गया...पूरे आसमान को गहरा नारंगी करते हुए.


हम क्राकोव रात के बारह बजे पहुंचे. अधिकतर मैं किसी देश जाती हूँ तो वहाँ के बारे में अच्छे से पढ़ कर जाती हूँ...पर पोलैंड का प्रोग्राम इतनी बार कैंसिल हुआ कि यकीं ही नहीं था कि आयेंगे भी...तो बिना कुछ पढ़े आ गयी. सुबह मुझे पीने का पानी और सिम कार्ड खरीदना था तो होटल से निकल कर मार्केट स्क्वायर की ओर चल पड़ी. मार्केट स्क्वायर के बीच में एक फाउंटेन है...मैं फोटो खींच रही थी तो देखा कि एक ग्रुप है जिसमें एक बोर्ड उठाए एक लड़की लोगों को जगह के बारे में बता रही थी...बोर्ड पर लिखा था 'Freewalkingtour Join Us'. मैं अधिकतर गाइड नहीं लेती हूँ...खुद घूमने में अच्छा लगता है...पर वहाँ जो लड़की खड़ी थी उसके बात करने का ढंग निराला था. मैं ग्रुप के साथ हो ली. 

हमारी टूर गाइड का नाम अलीशिया था...जिंदगी से भरी हुयी...पोलैंड के बारे में गर्व और प्यार से बात करती हुयी...इतिहास की कहानियों को वाकई कहानी की तरह सुनाती...उसने हमें पोलैंड का इतिहास बताया...राजाओं के किस्से बताये...नाज़ी जर्मन के अत्याचार बताए और ये सब थोड़ी सी मुस्कराहट के साथ कि बोझिल न हो...इतिहास मुझे सबसे बोरिंग सब्जेक्ट लगा था...कि इतिहास में क्यूँ रूचि होगी...मगर इतिहास ऐसे पढ़ाना चाहिए. पोलैंड पर और पोलिश लोगों पर कितने अत्याचार हुए...उन्हें सुनाने के दो तरीके हो सकते थे...एक तो फ़िल्मी देवदास टाइप रोना धोना...कि हमारी दुखभरी गाथा...एक था थोड़ा हँसी मजाक करते हुए...अपनी जिंदगी से जोड़ते हुए किस्से बुनना...अलीशिया ने वही किया. हँसते हुए उसने सारी कहानियां सुनायीं. उनमें से कुछ मेरी सबसे पसंदीदा मैं आपसे शेयर कर रही हूँ. ये मैंने जो सुना उस याद पर लिखा गया है...तो गलत हो सकता है...पोलिटिकली गलत हो सकता है वैसे में कृपया बता दें ताकि मैं बदलाव कर सकूं.

अलीशिया के हिसाब से...पोलिश लोग बहुत शिकायत करते हैं...ये अच्छा नहीं है...ये खराब है...खोट निकालते रहते हैं...लेकिन जैसे ही वो चीज़ उनसे छीनने की कोशिश करो...वो उसके लिए जान लगा देंगे...फिर वही चीज़ उनको जान से प्यारी हो जायेगी. ऐसा यहाँ की हर इमारत के बारे में किस्सा है.

क्राकोव के मार्केट स्क्वायर में एक टावर है...पहले यहाँ एक पूरी इमारत थी...यहाँ का टाउनहाल, मुख्य ईमारत के साथ लगे कुछ छोटी इमारतें भी थीं. नाज़ी छोटी इमारतों को गिरा कर एक आडियल टाउनहाल बनाना चाहते थे मगर पूरी इमारत कुछ ऐसी गुंथी हुयी थी कि बराबर की बिल्डिंग्स गिराने के क्रम में पूरा टाउनहाल गिर गया और अब बस एक टावर बचा है...और बचे हैं टाउनहाल की नींव. बिल्डिंग की नींव में लोगों के मनोरंजन का इन्तेजाम था. एक तरफ थे यातनागृह...टॉर्चर चेम्बर्स...एक्सिक्युशन चेम्बर्स और एक तरफ थे बार जहाँ यूरोप की सबसे अच्छी बियर मिलती थी...इन दोनों चेम्बर्स के बीच एक खिड़की खुलती थी...ताकि आप अपना बियर एन्जॉय करते हुए लोगों को मरते हुए देख सकें...ये लिखते हुए मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं. ये खिड़की यहाँ की सबसे प्रसिद्ध खिड़की थी.

जब नाज़ियों ने पोलैंड पर कब्ज़ा कर लिया तो हिटलर नहीं चाहता था कि पोलिश लोग पढ़ें...वो सिर्फ सस्ते कामगारों की तरह उनका इस्तेमाल करना चाहता था. उसने एक बार पोलैंड के सारे अच्छे साइंटिस्ट और प्रोफेसर्स को बुलवाया कि एक कोन्फेरेंस है जहाँ उन्हें जर्मन कल्चर के बारे में बताया जाएगा...फिर उसने उन सबको कंसन्ट्रेशन कैम्पस में भेज दिया. पूरा यूरोप सन्न रह गया क्यूंकि उस समय वैज्ञानिकों को संत के जैसा दर्जा दिया जाता था...वे हर जंग और हर सरहद से ऊपर होते थे...कोई भी देश या व्यक्ति उन्हें नुक्सान पहुंचाने के बारे में सोचता भी नहीं था. यूरोप के लोगों ने हिटलर पर बहुत दबाव डाला तो आखिर छः महीने बाद जिन साइंटिस्ट्स के जुविश(यहूदी) रूट्स नहीं थे, उन्हें छोड़ दिया गया. मगर छः महीने कैम्पस में अमानवीय तरीके से रहने के कारण अधिकतर साइंटिस्ट्स मर गए, कुछ में आगे काम करने की ताकत नहीं बची. जो साइंटिस्ट्स बचे थे और जिनमें आगे काम कारने की इच्छा थी...उन्होंने काम बरक़रार रखा...लेकिन उस वक्त यूनिवर्सिटीज नहीं थीं...कोलेज बंद कर दिए गए थे. फिर लोगों ने उपाय निकाला...सीक्रेट ग्रुप्स का...लोगों में पढ़ने और पढाने की कैसी अदम्य लालसा थी...जान का जोखिम था लेकिन लोग मिलते थे...किसी को किसी का नाम पता नहीं होता...न छात्र का न टीचर का...न जगह फिक्स होती थी...जगह बदल बदल कर, लोग बदल बदल कर लोग पढ़ते रहे. इस तरह पोलैंड में अनेक सीक्रेट सोसाइटीज बनीं पढ़ने के लिए.

अगर आपका पोलैंड जाने का मन है और घूमना है...तो ऐसे वाकिंग टूर जरूर कीजिये...इससे आपको यहाँ के लोग, उनके सपने, आज़ादी का मतलब और मकसद...कला का जीवन में महत्व पता चलता है...और सबसे ज्यादा कि हम जिंदगी को कितना टेकेन-फॉर-ग्रांटेड लेते हैं...जिंदगी सिर्फ किसी के प्यार में डूब कर सपने देखने से कहीं ज्यादा बड़ी है और ये दुनिया हम जितनी जानते हैं उससे कहीं ज्यादा विस्तृत...खूबसूरत और सहेजने लायक है...अलीशिया...मेरी ये पोस्ट तुम्हारे लिए...मैं जानती हूँ तुम इसे समझ नहीं पाओगी...लेकिन ये मेरा तुम्हारे जन्मदिन का तोहफा...हैप्पी बर्थडे लड़की.

और दो कहानियां बहुत मजेदार हैं...यहाँ के किले...वावेल कैसल की और पोप जान पौल की...वो अगली बार बताती हूँ. कहानियां बहुत सी हैं...मगर सारी सुनाने लगी तो आज की कहानी नहीं सुन पाउंगी...११ बजे एक और टूर है जिसे सुनने जाना है...तो बाकी कहानी लौट कर लिखती हूँ. 


यहाँ शामें कोई ९ बजे होती हैं...रात दस बजे तक रौशनी ही रहती है...मार्केट स्क्वायर में मेला सा लगा रहता है...लोग बियर पीते...घूमते फिरते रहते हैं. मैं भी घूमने निकलती हूँ :) बाकी कहानी फिर कभी...

06 July, 2012

एक ओक भर सांस...


उसकी आवाज़ नीम नींद के किसी गलियारे में भटकती है...आधे भिड़े हुए दरवाज़े खटखटाती है...रौशनी की बुझती हुयी लकीर से उलझती है...मुझे छू कर पहचानती है...उस आवाज़ ने मेरी आँखें नहीं देखीं हैं.

आवाज़ है कि काँधे पर खुशबू बांधती है...लंबी पतली उँगलियों से मेरी गिरहें खोलती है...उसकी आवाज़ है कि गाँव की कच्ची याद कोई...टीसते ज़ख्म खोलती है और सिलती है...धान की बालियों सी तीखी काट है उस की.

एक दिन पुराना पूर्णिमा का चाँद है कि जैसे घिस गया है सिक्का कोई एक तरफ से...वो खनखनाता है मेरी खिलखिलाहटों में...बिखेरता है जैसे कबूतरों को चुगाती है दाना कोई लड़की...मेरी कलाइयां थाम लीं थीं उसने आज.

कतरा है आवाज़ का मैं रोज जमा करती हूँ गुल्लक में थोड़ा थोड़ा...जिस दिन पूरा हो जाएगा उसके होठों का मानचित्र मैं ऊँगली बढ़ा कर पोंछ दूँगी खून का नन्हा सा कतरा जो उभर आया है...सिसकियाँ रोकते रोकते.

वो जिस्म है भी कि रूह है कोई कि जो बात करती है मुझसे कि कैसे छू कर देखते हैं आवाज़ को...कि ऐसा भी हुआ है कि वो कहता जाता है जाने क्या कुछ...पर मैं सुनती हूँ सिर्फ साँसों की नदी का बहना... कल... कल... कल...कल. वो कभी मुझसे सच में नहीं मिलेगा?

वो कैसे देखेगा मेरी नब्ज़...उसके छूते ही तो बढ़ जाती हैं न सांसें...धड़कन...मैं ख्वाब में भी उसकी आवाज़ को ढूंढती चलती हूँ...वो कहता है जरा कलाई दिखाओ तो...यहाँ...ठीक यहाँ ब्लेड मारना और पानी में डुबा देना कलाइयां...मैं तुम्हें मौत और जिंदगी के बीच मिलूँगा कहीं.

अधिकतर ऐसा होता है कि जिंदगी में लोग होते हैं और उसके साथ जुड़ी आवाज़ होती है...यहाँ आवाज़ है...पर उससे जुड़ा वो कैसा है मुझे मालूम नहीं.

मेरा गला सूखता है...होठों पर जीभ फिराती हूँ तो लगता है उसके होठों को छू लिया है...बिजली का करंट लगता है. उसके होठों का स्वाद बीड़ी जैसा है...बीड़ी धूंकनी होती है...सिगरेट की तरह नफासत नहीं है उसमें. मैं एक बार देखना चाहती हूँ कि जब वो मेरा नाम लेता है तो उसके होठ किस तरह हिलते हैं...क्या वैसे ही  जैसे मैं हमेशा सोचती आई हूँ?

केमिस्ट्री के नियम समझा नहीं सकते कि मुझमें और उसमें कौन सा बौंड है...फिजिक्स पीछे हट जाता है कि ये कौन सा एनर्जी कन्वर्शन है कि उसकी आवाज़ सुनती हूँ तो खाए पिये बगैर भी दिन गुज़र जाता है. 

दुनिया को जिस क्लीन सोर्स ऑफ एनर्जी की जरूरत है न...वो हम सबके अंदर है...एनर्जी ऑफ केओस...एनर्जी ऑफ मैडनेस...एनर्जी ऑफ इश्क.

मैं उससे पूछती हूँ...कि तुम्हारा नाम कुछ खास है कि मुझे लगता है...पूछती हूँ...नुक्ते का फर्क...ग़ और ग में...वो समझाता है गिलास वाला ग नहीं...ग़ालिब वाला ग. मैं हँसती हूँ...अच्छा...गधा वाला ग नहीं...हम दोनों की आवाज़ घुलती जा रही है एक दूसरे में. जैसे हम दोनों घुलते जा रहे हैं...एक दूसरे में. उसके नाम से मैं सुनने लगी हूँ...मेरे नाम से वो बुलाने लगा है...

कंठमणि ...ओह! हिंदी के कुछ शब्द कितने सुन्दर हैं...अडैम्स एप्पल में वो बात कहाँ...सारी मुसीबत की जड़ यही है न...अपने हाथों से उसका गला दबा के मार दूं...फिर इस आवाज़ के पीछे नहीं भागूंगी.

रति की तरह विलाप करती हूँ...आह अनंग...तुम्हारी आवाज़ मुझे बाँहों में नहीं भर सकती है...नीम अँधेरे में आँखों को ढके हुए करवट बदलती हूँ...मेरे उसके बीच सिर्फ सांसों की नदी बहती है...एक ओक भर सांस उठा कर उसके हिस्से का दिन जी लेती हूँ...एक पाल भर नाव बढ़ा कर उसकी हिस्से की प्यास.

आह...अनंग! आह अनंग! 

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Mood Channel: Lana Del Rey - Video Games

01 July, 2012

आसमां की रेत-घड़ी


Meet me in July...
कभी एक कहानी लिखने बैठी थी जिसमें मॉनसून था...लड़का था एक...टपकती छतों के नीचे खड़े होकर कुल्हड़ में चाय पीती लड़की थी...भीगे दुपट्टे से छूटा रंग था...कागज़ की नावें थीं...बोतल में बंद चिट्ठियां...अब बस शीर्षक रह गया है...बाकी पूरी कहानी धुल गयी.
#तुम्हारे लिए
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Of delays and more...
क्या कुछ नहीं आता लौट कर...मॉनसून भी तो हर साल आता है...बस एक साल देर से आया थोड़ा...उसी साल मेरे जन्मदिन पर तुम मेरे शहर में नहीं थे. तो बारिशें भी तुम्हारे साथ लेट दाखिल हुयीं थी जिंदगी में. करीने से लगे क्रोटन के पौधे पानी में भीगते हुए उदास हो गए थे...महीने भर से तुम्हारे इंतज़ार में मेरा दुपट्टा भी कुछ कुछ फीका होने लगा था. तुमने तो वादा किया था न...मेरे जन्मदिन पर आओगे...मैंने तो याद भी दिलाया था तुम्हें...तुम भूल गए...तुम व्यस्त थे. वैसे एक बात बताऊँ...हम जिनसे प्यार करते हैं न...उनके लिए वक्त हमेशा होता है हमारे पास. 
#बिसरते हुए
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Yes. I miss you. 
यूँ तो सब कुछ बदल गया है. मेरी जिंदगी में कायदे से तुम्हारी यादों की कोई जगह नहीं होनी चाहिए. मैं टाईमपास थी न तुम्हारे लिए. फुर्सत होती, माहौल होता, मूड होता तो तुम्हारी जिंदगी में मेरी जगह होती...गलती मेरी कहाँ थी...प्यार ऐसे ही होता है. तुम्हारी याद लेकिन बेहद बदतमीज है...ऑफिस टाइम में आने के पहले दरवाजा नहीं खटखटाती...फोन के पहले मेसेज करके पूछती नहीं कि फुर्सत है? तुम्हारी यादें मुझपर इतना हक जताती हैं जितना तुमने भी कभी नहीं जताया. फ़िल्टर कॉफी...कोल्ड कॉफी...कॉफी विद आइसक्रीम...सब कुछ तो है.
बस. तुम्हारे बिना कुल्हड़ वाली चाय में सोंधापन नहीं लगता. 
#दोराहे   
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Some goodbyes are forever.
ट्रेन के सफ़र में मिले थे हम. मालूम था कि इसके बाद फिर कभी नहीं मिलना होगा. तीन दिन के सफ़र में चार मौसम आये थे. ठंढ, गर्मी, बारिश और पतझड़. हरे खेत थे. जलते पलाश के जंगल. पागल होती नदियाँ. बाँहों में भरता तूफ़ान. हमने एक दूसरे के साथ उतने दिनों में ही एक जीवन भर के सपने देख लिए. एक सफ़र में रजनीगन्धा के पौधे रोपे गए...उनमें फूल खिले और वे फिर जमींदोज भी हो गए. 
सालों बाद फिर कहीं मिले भी तो क्या एक दूसरे को पहचान पाते हम?
#कसक 
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It still hurts.तुमसे प्यार करते हुए जिरहबख्तर नहीं पहना था. तुम जिस्म में कहीं भी चोट दे सकते थे. लेकिन तुमने दिल को चुना. तुम मेरा सर कलम कर सकते थे. तुमने नहीं किया. तुम्हें मालूम है मैं अब तुम्हारा नाम नहीं लेती...बहुत तकलीफ होती है. बेहद. तुम सही कहते थे. तुम नहीं जानते प्यार क्या होता है. तुम्हें समझने के कोशिश में मैं प्यार भूल गयी. आज की डेट में मुझे नहीं मालूम प्यार क्या होता है.
#कुछ भी नहीं 
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मैं बस एक पुरसुकून नींद सोना चाहती हूँ...तुम अंदाजा नहीं लगा सकते मैं कितनी थकी हुयी हूँ...मैं कितनी सदियों से प्यास हूँ...तुम कितने जन्मों से रेगिस्तान.

19 June, 2012

बारिशों का मौसम इज विस्की...सॉरी...रिस्की...उफ़!


सोचो मत...सोचो मत...अपने आप को भुलावा देती हुयी लड़की ग्लास में आइस क्यूब्स डालती जा रही है...नयी विस्की आई है घर में...जॉनी वाकर डबल ब्लैक...ओह...एकदम गहरे सियाह चारकोल के धुएँ की खुशबू विस्की के हर सिप में घुली हुयी है...डबल ब्लैक.

तुम्हारी याद...यूँ भी कातिलाना होती है...उसपर खतरनाक मौसम...डबल ब्लैक. मतलब अब जान ले ही लो! लाईट चली गयी थी...सोचने लगी कि कौन सा कैंडिल जलाऊं कि तुम्हारी याद को एम्पलीफाय ना करे...वनीला जलाने को सोचती हूँ...लम्हा भी नहीं गुज़रता है कि याद आता है तुम्हारे साथ एक धूप की खुशबू वाले कैफे में बैठी हूँ और कपकेक्स हैं सामने, घुलता हुआ वानिला का स्वाद और तुम्हारी मुस्कराहट दोनों क्रोसफेड हो रहे हैं...मैं घबरा के मोमबत्ती बुझाती हूँ.

ना...वाइल्ड रोज तो हरगिज़ नहीं जलाऊँगी आज...मौसम भी बारिशों का है...वो याद है तुम्हें जब ट्रेक पर थोड़ा सा ऑफ रूट रास्ता लिया था हमने कि गुलाबों की खुशबू से एकदम मन बहका हुआ जा रहा था...और फिर एकदम घने जंगलों के बीच थोड़ी सी खुली जगह थी जहाँ अनगिन जंगली गुलाब खिले हुए और एक छोटा सा झरना भी बह रहा था.तुम्हारा पैर फिसला था और तुम पानी में जा गिरे थे...फिर तो तुमने जबरदस्ती मुझे भी पानी में खींच लिया था...वो तो अच्छा हुआ कि मैंने एक सेट सूखे हुए कपड़े प्लास्टिक रैप करके रखे थे वरना गीले कपड़ों में ही बाकी ट्रेकिंग करनी पड़ती. ना ना करते हुए भी याद आ रहा है...पत्थरों पर लेटे हुए चेहरे पर हलकी बारिश की बूंदों को महसूस करते हुए गुलाबों की उस गंध में बौराना...फिर मेरे दाँत बजने लगे थे तो तुमने हथेलियाँ रगड़ कर मेरे चेहरे को हाथों में भर लिया था...गर्म हथेलियों की गंध कैसी होती है...डबल ब्लैक?

कॉफी...ओह नो...मैंने सोचा भी कैसे! वो दिन याद है तुम्हें...हवा में बारिश की गंध थी...आसमान में दक्षिण की ओर से गहरे काले बादल छा रहे थे...आधा घंटा लगा था फ़िल्टर कॉफी को रेडी होने में...मैंने फ्लास्क में कॉफी भरी, कुछ बिस्कुट, चोकलेट, चिप्स बैगपैक में डाले और बस हम निकल पड़े...बारिश का पीछा करने...हाइवे पर गाड़ी उड़ाते हुए चल रहे थे कि जैसे वाकई तूफ़ान से गले लगने जा रहे थे हम. फिर शहर से कोई डेढ़ सौ किलोमीटर दूर वाइनरी थी...दोनों ओर अंगूर की बेल की खेती थी...हवा में एक मादक गंध उतरने लगी थी. फिर आसमान टूट कर बरसा...हमने गाड़ी अलग पार्क की...थोड़ी ही देर में जैसे बाढ़ सी आ गयी...सड़क किनारे नदी बहने लगी थी...कॉफी जल्दी जल्दी पीनी पड़ी थी कि डाइल्यूट न हो जाए...और तुम...ओह मेरे तुम...एक हाथ से मेरी कॉफी के ऊपर छाता तानते, एक हाथेली मेरे सर के ऊपर रखते...ओह मेरे तुम...थ्रिल...कुछ हम दोनों की फितरत में है...घुली हुयी...दोनों पागल...डबल ब्लैक?

मैं घर में नोर्मल कैंडिल्स क्यूँ नहीं रख सकती...परेशान होती हूँ...फिर बाहर से रौशनी के कुछ कतरे घर में चले आते हैं और कुछ आँखें भी अभ्यस्त हो जाती हैं अँधेरे की...मोबाइल पर एक इन्स्ट्रुमेन्टल संगीत का टुकड़ा है...वायलिन कमरे में बिखरती है और मैं धीरे धीरे एक कसा हुआ तार होती जाती हूँ...कमान पर खिंची हुयी प्रत्यंचा...सोचती हूँ धनुष की टंकार में भी तो संगीत होता है. शंखनाद में कैसी आर्त पुकार...घंटी में कैसा सुरीला अनुग्रह. संगीत बाहर से ज्यादा मन के तारों में बजता है...अच्छे वक्त पर हाथ से गिरा ग्लास भी शोर नहीं करता...एकदम सही बीट्स देता है...गिने हुए अंतराल पर.

आज तो सिगार पीने का मूड हो आया है...गहरा धुआं...काला...खुद में खींचता हुआ...हलकी लाल रौशनी में जलते बुझते होठों की परछाई पड़ती है फ्रेंच विंडोज के धुले हुए शीशे में...डबल ब्लैक. 

18 June, 2012

समय की नदी में अनंत के लिए खो जाना

ईश्क हमेशा बचा के रखता है
अपना आखिरी दांव
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लो, लहरों ने अपने पाँव समेट लिए!
अब किनारे की रेत में लिख सकते हो तुम
अपनी प्रेमिका के लिए असंख्य कविताएं
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आखिरी सांस में ही खुलता है रहस्य
कि किससे किया था ताउम्र प्यार
दिल के तहखाने का पासवर्ड होती है
आखिरी हिचकी
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कभी गुलमोहरों के मौसम में मेरे शहर आना.
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कोई नहीं कर सकता है डिकोड
कि इस बेरहम दुनिया में
एक छोटी सी जिंदगी का
पूरा प्यार किसके नाम आया था
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तुम्हारी कहानियां पढ़ कर
सोचती थी
कहाँ मिल जाती हैं
ऐसी औरतें तुम्हें
अब समझती हूँ
वैसी होती नहीं है कोई भी औरत
तुम्हारा प्यार बना देता है उन्हें वैसा

ये उनके आंसुओं का इत्र है
जो तुम्हारे शब्दों को छूने से उँगलियों में रह जाता है
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Chasing the rains on my bike on a road on fire with crazy gulmohars in bloom.
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Some things are bound to be lost in the flowing river of time unless preserved in poetry.
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चेक कितनी खूबसूरत चीज़ हुआ करती है न...एकदम कंट्रास्टिंग...हलके रंग के ऊपर डार्क रंग की लकीरें...जैसे लाईट लेमन कलर जिंदगी पर एप्पल ग्रीन के चेक्स...जैसे वोदका विथ ऑरेंज जूस...जैसे हॉट चोकलेट विद विस्की...जैसे सीरियस आँखों वाले चेहरे पर मुस्कान...

जैसे मुझे प्यार तुमसे...जैसे गर्मियों की छत पर बारिश के बाद की उमस...जैसे...जैसे...जैसे कुछ भी नहीं...कि कुछ भी किसी की भी तरह नहीं होता...जैसे कोई भी तुम्हारी तरह नहीं होता...
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याद की मफलर में बुना तुम्हारा नाम.
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लिखने को एकदम कुछ नहीं होना...फिर भी शब्दों का ऐसा बवंडर कि शांत होने का नाम न ले और नींद आँखों से कोसों दूर भागी रहे.
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ये कुछ पुराने बिखरे हुए ड्राफ्ट हैं...इनमें कोई तारतम्य नहीं है...बस ऐसे ही यहाँ वहाँ पड़े थे...आज इनको छाप देने का मन किया कि मेरा भी कुछ नया देखने का मन कर रहा था...बहुत सारे ड्राफ्ट्स हो गए हैं...सोच रही हूँ थोड़ी फुर्सत निकालकर पहले पुराना माल क्लियर करूं फिर कुछ नया लिखूँ. जिंदगी में थोड़ा सा आर्डर चाहिए होता है...हमेशा केओस(Chaos) अच्छा नहीं होता शायद...मैं इसी बिखराव में जीने की आदी हूँ फिर भी. मैं केओस से ही रचती हूँ...मेरे मन के अंदर हमेशा कोई तूफ़ान उठा रहता है...जाने कैसे तो लोग होते होंगे जिन्हें मालूम होता होगा कि जिंदगी से क्या चाहिए.

पिछले कुछ दिन बड़ी उथल-पुथल वाले रहे...बहुत परेशान, उदास और तनहा रही...टूट बिखरने के दिन थे...मगर खुदा हम इश्क के बन्दों पर वाकई मेहरबान रहता है. मैं गिर रही थी तो उसने फरिश्ते भेज दिए...उन्होंने ने अपने नरम पंख सी हथेलियाँ खोलीं और मुझे थाम लिया...वरना बेहद चोट लगती...शायद कभी न उबर पाने जितनी. दोस्त से बात कर रही थी तो उसने भी यही कहा कि सच में लकी हो तुम...शायद बहुत से लोग मुझे वाकई दुआओं में रखते हैं.

आज कुछ खास नहीं. बस शुक्रिया जिंदगी. शुकिया ऐ खुदा उन सारे लोगों के लिए जो मुझसे इतना इतना सारा प्यार करते हैं.

La vie, je t'aime. 

16 June, 2012

बुरे लड़के से प्यार करते हुए सोचती है अच्छी लड़की...

कहाँ थे तुम अब तक?
कि गाली सी लगती है
जब मुझे कहते हो 'अच्छी लड़की'
कि सारा दोष तुम्हारा है

तुमने मुझे उस उम्र में
क्यूँ दिए गुलाब के फूल
जबकि तुम्हें पढ़ानी थीं मुझे
अवतार संधु पाश की कविताएं

तुमने क्यूँ नहीं बताया
कि बना जा सकता है
धधकता हुआ ज्वालामुखी
मैं बना रही होती थी जली हुयी रोटियां

जब तुम जाते थे क्लास से भाग कर
दोस्त के यहाँ वन डे मैच देखने
मैं सीखती थी फ्रेम लगा कर काढ़ना
तुम्हारे नाम के पहले अक्षर का बूटा

जब तुम हो रहे थे बागी
मैं सीख रही थी सर झुका कर चलना
जोर से नहीं हँसना और
बड़ों को जवाब नहीं देना

तुम्हें सिखाना चाहिए था मुझे
कोलेज की ऊँची दीवार फांदना
दिखानी थीं मुझे वायलेंट फिल्में
पिलानी थी दरबान से मांगी हुयी बीड़ी

तुम्हें चूमना था मुझे अँधेरे गलियारों में
और मुझे मारना था तुम्हें थप्पड़
हमें करना था प्यार
खुले आसमान के नीचे

तुम्हें लेकर चलना था मुझे
इन्किलाबी जलसों में
हमें एक दूसरे के हाथों पर बांधनी थी
विरोध की काली पट्टी

मुझे भी होना था मुंहजोर
मुझे भी बनना था आवारा
मुझे भी कहना था समाज से कि
ठोकरों पर रखती हूँ तुम्हें

तुम्हारी गलती है लड़के
तुम अकेले हो गए...बुरे
जबकि हम उस उम्र में मिले थे
कि हमें साथ साथ बिगड़ना चाहिए था

11 June, 2012

The pen-ultimate birthday


जन्मदिन...यानि एक दिन की बादशाहत. उस दिन सब कुछ आपकी मर्जी का...जो भी मांगो सब पूरा हो जाए. अभी तक के सारे जन्मदिन ऐसे ही रहे हैं. राजकुमारी जैसे. इस बार वाला कुछ अलग था. रिअलिटी चेक. मेरी कुक को मैंने इस महीने फाइनली टाटा कह दिया कि उसका खाना चंद रोज़ और खाते तो जान देने की नौबत आ जाती और कामवाली इंदिरा के भाई की शादी थी तो वो चार की छुट्टी पर गयी थी. मुझे यूँ तो घर का सारा ही काम करना नापसंद है पर इसमें भी बर्तन धोने से ज्यादा बुरा मुझे कुछ नहीं लगता. तो मेरे इस लाजावाब बर्थडे की शुरुआत हुयी एक चम्मच विम लिक्विड से. कभी न कभी तो नींद से जागना ही था :) :) तो सुबह सुबह बर्तन वर्तन धो कर खाना वाना बना कर थक हार कर बैठ गए. बर्थडे मेरी बला से...थोड़ी देर सो लेते हैं. फिर एक कड़क कॉफी बना कर पी...आपको पता है कि कॉफी में सुपरपावर होती है? नहीं पता? फिर तो आपको ये भी नहीं पता होगा कि मैं सुपरगर्ल हूँ! वैसे तो अधिकतर लड़कियां सुपरगर्ल होती हैं पर मोस्टली उनको ये बात पता नहीं होती हैं. उन्हें कोई इडियट बचपन में पढ़ा जाता है कि नारी अबला होती है तो बस वो अबला होने की कोशिश में हमेशा सुपरमैन का इंतज़ार करती रह जाती है उसे मालूम ही नहीं होता कि उसकी खुद की सुपरपॉवर बहुत सारी हैं.

मैं अधिकतर जन्मदिन के पहले वाले हफ्ते बहुत ही धीर गंभीर सोचने वाले मूड में चली जाती हूँ पर ये हफ्ता तो जैसे कब आया कब गया मालूम ही नहीं चला. पिछले हफ्ते मैं एक भी शाम अकेले नहीं रही...और कुछ बेहतरीन लोगों से मिली और दोस्तों के साथ बेहद मस्ती काटी. एक फुल दिन शौपिंग भी मारी. दिमाग का पैरलल ट्रैक चलता रहा. इस बीच एक दोस्त के लिए 'माय ब्लूबेरी नाइट्स' की डीवीडी बर्न कर रही थी तो उसका एक सीन सामने आया...इत्तिफ़ाक इसे ही कहते हैं...मैं भी कुछ ऐसा ही सोच रही थी. एलिज़ाबेथ चिट्ठी में लिखती है...

Dear Jeremy,
In the last few days I have been learning how to not trust people and I am glad I failed.
Sometimes we depend on other people as a mirror to define us and tell us who we are and each reflection makes me like myself a little more.
Elizabeth

मुझे गलतियाँ कर के सीखने की आदत है...कोई कितना भी समझा ले कि उधर तकलीफ है...उधर मत जाओ मगर जब तक खुद चोट नहीं लगेगी दिल मानता ही नहीं है. मुझे 'बुरे लोग' का कांसेप्ट समझ नहीं आता...कोई भी सबके लिए बुरा नहीं होता. मेरी जिंदगी में बहुत कम लोग हैं...मैं अपनेआप को लेकर बहुत fiercely protective हूँ. चूँकि मैं जैसी हूँ वैसी सबके सामने हूँ...तो वल्नरेबल भी हूँ बहुत हद तक. आप किसी को कैसे जानते हैं? मुझे लगता है कि तब जानते हैं जब आप उसकी कमजोरियां जानते हों...उसका डर जानते हों...उसके मन के अँधेरे जानते हों...और इसके बावजूद उससे प्यार करते हों. जो मेरे दोस्त हैं वो इसी तरह जानते हैं मुझे...और जिन्हें मैं अपना दोस्त मानती हूँ, मैं इसी तरह जानती हूँ उन्हें. कभी कभार मुझसे लोगों को पहचानने में गलती भी हो जाती है. मुझे कोई कितना भी समझा ले कि बेटा दुनिया बहुत बुरी है...मुझे नहीं समझ आता...हालाँकि इसके अपने खतरे हैं, अपनी तकलीफें हैं...मगर दुनिया वैसी है जैसे हम खुद हैं.

मैंने अपने फेसबुक का अकाउंट पिछले महीने डिजेबल किया था और तबसे शांति थी बहुत. हाँ, दोस्तों की याद आती थी तो कभी रात दो बजे के बाद लोगिन होकर उनकी तसवीरें देख लेती थी. फेसबुक मेरे लिए मेजर टाइमवेस्ट है. क्या है कि मुझे बीच का रास्ता अपनाना तो आता नहीं है. दिन में लिखने का काम लैपटॉप पर ही करती हूँ तो ऐसे में अगर एक टैब में फेसबुक खुला है तो कहीं ध्यान से कुछ कर नहीं सकती...सारे वक्त ध्यान बंटा रहता है. फिर मेरे जो क्लोज फ्रेंड्स हैं वो अधिकतर फेसबुक पर सक्रिय नहीं रहते. वर्चुअल की अपनी सीमाएं हैं...मैं फेसबुक, फोन और चैट के बावजूद कहीं 0 और 1 की बाइनरी दुनिया में खोती जा रही थी. इसका हासिल कुछ नहीं था...टोटल जीरो. उसपर हर समय कुछ अपडेट करने की बेवकूफी. महीने भर से काफी शांति थी और वक्त का बहुत अच्छा इस्तेमाल किया. कुछ बेहतरीन फिल्में देखीं...कुछ दोस्तों के साथ बहुत सा वक्त बिताया.

कल मेरे सारे अपनों ने फोन किया...कोई भी मेरा बर्थडे नहीं भूला...इस बार मैंने किसी को याद भी नहीं दिलाया था कि मेरा बर्थडे है...जो कि अक्सर करती हूँ कि मेरे कुछ दोस्त इतने भुलक्कड हैं कि मेरी खुद की ड्यूटी है उनको एक दो दिन पहले याद दिलाना...वरना वो झगड़ा भी करते हैं. घर से फोन आये...फिर दो बजे अनुपम का मेसेज आया. दिन में सारे दोस्तों के फोन आये...सारे...कोई भी नहीं भूला. इतना अच्छा लगा कि बता नहीं सकते हैं. फेसबुक ओर नो फेसबुक...मेरी लाइफ में अभी भी इतने सारे अच्छे दोस्त हैं कि ध्यान से मेरा बर्थडे याद रखते हैं. सबका बहुत बहुत बहुत सारा थैंक यू है.

कल कुणाल ने नयी पेन खरीदी मेरे लिए...अच्छी सी...वाइन कलर की...और पर्पल इंक भी दिलाया. घर से भी सब लोगों ने कॉल करके खूब सारा आशीर्वाद दिया...देवर ननदों ने पूछा कि क्या गिफ्ट चाहिए...भाई ने कहा कि गिफ्ट थोड़ा देर से पहुंचेगा...कुरियर हो गया है...कितना तो प्यार करते हैं सब मुझसे.

इस जन्मदिन में खुद को थोड़ा और समझते हुए जाना...मैं अपनेआप से और जिंदगी से बहुत प्यार करती हूँ. मेरे कुछ बेहद अच्छे दोस्त हैं जो मुझसे बहुत प्यार करते हैं और कि मैं कभी हार नहीं मानती.

I am at a cliff...about to take a jump...and in my heart of hearts, I know....
I'll Fly!

Happy Birthday Mon Amour! You are 29 and rocking!

08 June, 2012

मेरी कन्फ्यूजिंग डायरी

लिखने के अपने अपने कारण होते हैं. मैं देखती हूँ कि मुझे लिखने के लिए दो चीज़ों की जरूरत होती है...थोड़ी सी उदासी और थोड़ा सा अकेलापन. जब मैं बहुत खुश होती हूँ तब लिख नहीं पाती, लिखना नहीं चाहती...तब उस भागती, दौड़ती खुशी के साथ खेलना चाहती हूँ...धूप भरे दिन होते हैं तो छत पर बैठ कर धूप सेकना चाहती हूँ. खुशी एक आल कंज्यूमिंग भाव होता है जो किसी और के लिए जगह नहीं छोड़ता. खुशी हर टूटी हुयी जगह तलाश लेती है और सीलेंट की तरह उसे भर देती है. चाहे दिल की दरारें हों या टूटे हुए रिश्ते. खुश हूँ तो वाकई इतनी कि अपना खून माफ कर दूं...उस समय मुझे कोई चोट पहुंचा ही नहीं सकता. खुश होना एक सुरक्षाकवच की तरह है जिससे गुज़र कर कुछ नहीं जा सकता.

कभी कभी ये देख कर बहुत सुकून होता था कि डायरी के पन्ने कोरे हैं...डायरी के पन्ने एकदम कोरे सिर्फ खुश होने के वक्त होते हैं...खुशियों को दर्ज नहीं किया जा सकता. उन्हें सिर्फ जिया जा सकता है. हाँ इसका साइड इफेक्ट ये है कि कोई भी मेरी डायरी पढ़ेगा तो उसे लगेगा कि मैं जिंदगी में कभी खुश थी ही नहीं जबकि ये सच नहीं होता. पर ये सच उसे बताये कौन? उदासी का भी एक थ्रेशोल्ड होता है...जब हल्का हल्का दर्द होता रहे तो लिखा जा सकता है. दर्द का लेवल जैसे जैसे बढ़ता जाता है लिखने की छटपटाहट वैसे वैसे बढ़ती जाती है. लिखना दर्द को एक लेवल नीचे ले आता है...जैसे मान लो मर जाने की हद तक होने वाला दर्द एक से दस के पॉइंटर स्केल पर १० स्टैंड करता है तो लिखने से दर्द का लेवल खिसक कर ९ हो जाता है और मैं किसी पहाड़ से कूद कर जान देने के बारे में लिख लेती हूँ और चैन आ जाता है.

खुशी के कोई सेट पैरामीटर नहीं हैं मगर उदासी के सारे बंधे हुए ट्रिगर हैं...मालूम है कि उदासी किस कारण आती है. इसमें एक इम्पोर्टेंट फैक्टर तो बैंगलोर का मौसम होता है. देश में सबसे ज्यादा आत्महत्याएं बैंगलोर में होती हैं. ऑफ कोर्स हम इस शहर के अचानक से फ़ैल जाने के कारण जो एलियनेशन हो रहा है उसको नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते...लोग बिखरते जा रहे हैं. हमारे छोटे शहरों जैसा कोई भी आपका हमेशा हाल चाल पूछने नहीं आएगा तो जिंदगी खाली होती जा रही है...इसमें रिश्तों की जगह नहीं बची है. बैंगलोर में सोफ्टवेयर जनता की एक जैसी ही लाइफ है(सॉरी फॉर generalization). अपने क्यूबिकल में दिन भर और देर रात तक काम और वीकेंड में दोस्तों के साथ पबिंग या मॉल में शोपिंग या फिल्में. साल में एक या दो बार छुट्टी में घर जाना. बैंगलोर इतना दूर है कि यहाँ कोई मिलने भी नहीं आता. उसपर यहाँ का मौसम...बैंगलोर में हर कुछ दिन में बारिश होती रहती है...आसमान में अक्सर बादल रहते हैं. शोर्ट टर्म में तो ये ठीक है पर लंबे अंतराल तक अगर धूप न निकले तो डिप्रेशन हो सकता है. सूरज की रौशनी और गर्मी therapeutic होती है न सिर्फ तन के लिए बल्कि मन को भी खुशी से भर देती है.

इस साल की शुरुआत में दिल्ली गयी थी...बहुत दिन बाद अपने दोस्तों से मिली थी. वो अहसास इतना रिचार्ज कर देने वाला था कि कई दिन सिर्फ उन लम्हों को याद करके खुश रही. मगर यादें स्थायी नहीं होती हैं...धीरे धीरे स्पर्श भी बिसरने लगता है और फिर एक वक्त तो यकीन नहीं आता कि जिंदगी में वाकई ऐसे लम्हे आये भी थे. मैं जब दोस्तों के साथ होती हूँ तब भी मैं नहीं लिखती...दोस्त यानि ऐसे लोग जो मुझे पसंद हैं...मेरे दोस्त. जिनके साथ मैं घंटों बात कर सकती हूँ. पहले एक्स्त्रोवेर्ट थी तो मेरा अक्सर बड़ा सा सर्किल रहता था मगर अब बहुत कम लोग पसंद आते हैं जिनके साथ मैं वक्त बिताना चाहूँ. मुझे लगता है वक्त मुझे बहुत खडूस बना दे रहा है. अब मुझे बड़े से गैंग में घूमना फिरना उतना अच्छा नहीं लगता जितना किसी के साथ अकेले सड़क पर टहलना या कॉफी पीते हुए बातें करना. बातें बातें उफ़ बातें...जाने कितनी बातें भरी हुयी हैं मेरे अंदर जो खत्म ही नहीं होतीं. बैंगलोर में एक ये चीज़ सारे शहरों से अच्छी है...किसी यूरोप के शहर जैसी...यहाँ के कैफे...शांत, खुली जगह पर बने हुए...जहाँ अच्छे मौसम में आप घंटों बैठ सकते हैं.

लिखने के लिए थोड़ा सा अकेलापन चाहिए. जब मैं दोस्तों से मिलती रहती हूँ तो मेरा लिखने का मन नहीं करता...फिर मैं वापस आ कर सारी बातों के बारे में सोचते हुए इत्मीनान से सो जाना पसंद करती हूँ. अक्सर या तो सुबह के किसी पहर लिखती हूँ...२ बजे की भोर से लेकर १२ तक के समय में या फिर चार बजे के आसपास दोपहर में. इस समय कोई नहीं होता...सब शांत होता है. ये हफ्ता मेरा ऐसा गुज़रा है कि पिछले कई सालों से न गुज़रा हो...एक भी शाम मेरी तनहा नहीं रही है. और कितनी तो बातें...और कितने तो अच्छे लोग...कितने कितने अच्छे लोग. मुझे इधर अपने खुद के लिए वक्त नहीं मिल पाया इतनी व्यस्त रही. एकदम फास्ट फॉरवर्ड में जिंदगी.

इधर कुक की जगह मैं खुद खाना बना रही हूँ...तो वो भी एक अच्छा अनुभव लग रहा है. बहुत दिन बाद खाना बनाना शौक़ से है...मुझे नोर्मली घर का कोई भी काम करना अच्छा नहीं लगता...न खाना बनाना, न कपड़े धोना, न घर की साफ़ सफाई करना...पर कभी कभार करना पड़ता है तो ठीक है. मुझे सिर्फ तीन चार चीज़ें करने में मन लगता है...पढ़ना...लिखना...गप्पें मारना, फिल्में देखना और घूमना. बस. इसके अलावा हम किसी काम के नहीं हैं :)

फिलहाल न उदासी है न अकेलापन...तो लिखने का मूड नहीं है...उफ़...नहीं लिखना सोच सोच के इतना लिख गयी! :) :)

03 June, 2012

चूल्हे के धुएँ सी सोंधी औरतें और धुएँ के पार का बहुत कुछ


छः गोल डब्बों वाला मसालदान होती हैं 
आधी रात को नहाने वाली औरतें

उँगलियों की पोर में बसी होती है
कत्थई दालचीनी की खुशबू 

पीठ पर फिसलती रहती है
पसीने की छुआछुई खेलती बूँदें 

कलाइयों में दाग पड़ते हैं
आंच में लहकी कांच की चूड़ियों से 

वे रचती हैं हर रोज़ थोड़ी थोड़ी
डब्बों और शीशियों की भूलभुलैया 

उनके फिंगरप्रिंट रोटियों में पकते हैं
लकीरों में बची रह जाती है थोड़ी परथन 

खिड़की में नियत वक्त पर फ्रेम रहती हैं
रोज के सोप ओपेरा की तरह

किचन हर रोज़ चढ़ता है उनपर परत दर परत
रंग, गंध, चाकू के निशान, जले के दाग जैसा 

नहाने के पहले रगड़ती हैं उँगलियों पर नीम्बू
चेहरे पर लगाती हैं मलाई और शहद 

जब बदन को घिस रहा होता है लैवेंडर लूफॉ 
याद करती हैं किसी भूले आफ्टरशेव की खुशबू 

आधी रात को नहाने वाली औरतें में बची रहती है 
१६ की उम्र में बारिश में भीगने वाली लड़की

30 May, 2012

कोडनेम सी.के.डी.

कोई नहीं जानता कि उसका असली नाम क्या था. सब उसे सीकेडी बुलाते थे. बेहद खूबसूरत लड़का. शफ्फाक गोरा. इतना खूबसूरत कि लड़कियों को जलन होने लगे. लंबा ऊँचा कद...चौड़ा माथा...खूबसूरत हलके घुंघराले कंधे तक आते बाल...मासूम आँखें और जानलेवा गालों के गड्ढे. लेडीकिलर...कैसानोवा जैसे अंग्रेजी शब्दों का चलन नहीं था उस छोटे से शहर में वरना उसे इन विशेषणों से जरूर नवाज़ा जाता.

उसके अंदर अगाध प्रेम का सोता बहता था...वह मुक्त हाथ से प्यार बांटता था...कि प्यार भी तो बांटने से बढ़ता है. जितना प्यार करो उससे कई गुना ज्यादा लौट कर वापस आता है. उसकी अनेक प्रेमिकाएं थीं...उनमें से किसी को ये शिकायत नहीं कि वो किसी और को ज्यादा चाहता है...उसका प्यार बराबर सबमें बंटता...प्रेमिकाओं में, दोस्तों में और अजनबियों में भी. यार लोग कई बार हैरत करते कि इतनी लड़कियां हैं, कैसे मेंटेन करता है कि लोग एक प्रेम निभाने में हलकान हो जाते हैं और वो जाने कितनों से एक साथ प्यार करता है. यूँ तो सारा कोलेज ही उसपर मरता था...उसमें कुछ तो बात ऐसी थी कि कोई उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था. प्रोफेसर्स की आँखों का तारा...स्टूडेंट नेता का जिगरी यार...यहाँ तक कि कोलेज का चपरासी तक उसके साथ ऐसे हिला मिला था जैसे दाँत-काटी दोस्ती हो.

किसी को कोई जरूरत हो...पहला नाम उसका ही आता. चाहे सरस्वती पूजा के लिए चंदा इकठ्ठा करना हो कि प्रिंसिपल से मिल कर कापियों की जांच दुबारा करवाने का मुद्दा हो. घाघ से घाघ सेठ जो अधिकतर चंदा वालों को देख कर ऐसे मुंह सिकोड़ते थे जैसे बेटी का हाथ मांग लिए हों सीकेडी को देखते नरम मक्खन हो जाते थे...चाय ठंढा तो पिलाते ही थे कोलेज का हाल ऐसे प्रेम से पूछते थे जैसे कॉलेज की ईंट ईंट में उनके दान-पुन्य का प्रभाव है और सारे विद्यार्थियों पर माँ सरस्वती की अनुकम्पा उनके दिए सालाना हज़ार रुपयों के कारण ही है. सीकेडी में क्या बात थी कि मर्म पहचानता था आदमी का...और उसमें बनावट लेशमात्र की भी नहीं थी. फ़कीर की तरह जो दे उसका भी भला जो ना दे उसका भी भला गाते चलता था...मगर दुनिया उसके लिए इतनी रहमदिल थी कि उसकी झोली किसी घर से खाली नहीं लौटती थी.

दो मीठे बोल कितने ज्यादा असरकारी हो सकते हैं जानने के लिए सीकेडी के साथ कुछ देर रह लेना काफी था. खबर आई कि आज़ाद चौक पर कोलेज के दो खूंखार ग्रुप शाम को जुटने वाले हैं...किसी ने किसी की गर्लफ्रेंड को छेड़ दिया है...बस आज तो चक्कू चल जाएगा. एक आध तो मरने ही वाले हैं किसी भी हाल में...खुदा भी नहीं बचा सकता. आधा शहर लड़ाई देखने के लिए चौक पर उमड़ता है लेकिन देखता है कि लड़की ने बड़े प्रेम से राखी बाँध दी है और हक से विरोधी गुट के मुखिया से मिठाई खरीदवा के खा भी रही है और बाकियों को बंटवा भी रही है. सीकेडी कृष्ण की तरह मंद मंद मुस्कान बिखेर रहा है जैसे कि माया के सारे खेल उसी के रचे हुए हैं.

नए क्लास शुरू हुए हैं...एक लड़की है क्लास में मीना...उसका कोई पहचान का आया है, शहर में नया है. उसे स्टेशन लाने जाना है. रहने को कोई ठिकाना भी नहीं है. किससे कहे. सीकेडी. उसके होते क्या तकलीफ. छोटे से शहर के छोटे से कमरे में पहले से चार लोग रहते थे. मगर सीकेडी ने कह दिया तो सब मुस्कुराते हुए अडजस्ट कर जायेंगे...आखिर इंसान इंसान के काम नहीं आएगा तो कौन आएगा. स्टेशन पर उस अजनबी को रिसीव करने गया है. सारा सामान उतरवाया है...अरे कुली रहने दो, हम किस दिन काम आयेंगे. बिना तकल्लुफ के उसने दो बैग उठा लिए हैं...दो बैग उस लड़के ने उठाये और एकलौता गिटार मीना ने टांग लिया. बड़े शहर मुंबई से आया अजनबी चकित है. ऐसे भी लोग होते हैं. बिना कुछ मांगे दिल खोल कर गले लगाने वाले. कमरे में जाते वक्त थोड़ा हिचकिचाया है...दोस्त छोटा सा ही कमरा है मेरे पास, कुछ दिन रह लो फिर तुम्हारे लायक देख देंगे. छोटा कमरा. छोटा शहर. लेकिन दिल...दिल कितना बड़ा है सीकेडी का.

वो सबमें इतना बंटा हुआ था कि उसका अपना कुछ नहीं था. घर से लाये बेहतरीन कपड़े उसके सारे दोस्तों के बदन पर पाए जाते थे सिवाए उसके. वो किसी गर्मियों की दोपहर किसी और की टीशर्ट धो रहा होता है बाथरूम में कि शाम को किसी से मिलने जाना है पर कपड़े बाकी सारे दोस्त पहन कर निकले हुए हैं. सीकेडी...यार आज प्रीती से मिलने जाना है, तेरी वो नीली छींट की शर्ट पहन लूं...और सीकेडी उसे लगभग लतियाते हुए कहता है कि साले पूछना पड़ा तो काहे की दोस्ती...और खूँटी से उतार के आखिरी धुला कपड़ा भी हाजिर कर दिया. यार मुझपर तो कुछ भी अच्छा लग जाएगा मगर तुम साले कुछ और पहन कर जाओगे तो चुकंदर लगोगे फिर प्रीती किसी और के साथ फुर्र हो जायेगी तो तेरे दर्द भरे मुकेश के गाने हमें सुनने पड़ेंगे. सुन, किताब की रैक पर पेपर के नीचे कुछ रुपये पड़े हैं...लेता जा, आइसक्रीम खिला देना उसे...खुश हो जायेगी. उसे दूसरों की खुशी में कौन सी खुशी मिलती थी...शायद जी के देखना पड़ेगा. समझना और समझाना बहुत मुश्किल है.

कोलेज लाइफ के बाद के स्ट्रगल के दिन थे. दिल्ली में मुनिरका में छोटा सा कमरा था फिर और आईएएस के सपने वाले अनगिन साथी. बगल के दड़बेनुमा कमरे में कुछ विदेशी छात्र रहते थे जिनके पैसे खत्म हो गए थे...और अगले पैसे लगभग तीन महीने बाद आने वाले थे. उसने तीन महीने उनको खुद से बना के चावल और आलू की सब्जी खिलाई...जितना है उतना में मिल-बाँट के रहना उसका अंदर का स्वाभाव था. पागलों की तरह तैय्यारी करता था...दिन रात पढ़ाई की धुन सवार रहती थी. तीन साल लगे उसे आइएएस निकालने में...और इत्तिफाक था कि खुदा की नेमत...कमरे में रहने वाले तीनो लड़कों का एक ही साल हो गया था. वे पागलों की तरह खुश थे. रिजल्ट निकलने के थोड़ी देर में जमवाड़ा लग गया...कुछ को खुशी में पीनी थी...कुछ को गम में. पर पीने वाले सब तरह के थे. आज बहुत दिन बाद नए छोकरों पर उसके नाम का रहस्य खुलने वाला था.

सीकेडी एकदम ही नहीं पीता था. मगर चकना देखते ही उसकी आँखें ऐसे चमकती थीं जैसे उजरकी बिल्ली की मलाई देख कर. सब दारू पीने और दुखड़ा रोने में डूबते थे और इधर वो सारा चकना साफ़ कर जाता था. मूंगफली और प्याज तो जैसे उसकी कमजोरी थे...यही एक उसकी कमजोर नस थी कि चकना न बनाएगा, न खरीदने जाएगा...दारू पार्टी के सारे आयोजनों में विरक्त भाव से पड़ा रहेगा मगर चकना पर मजाल है किसी और का चम्मच भी पहुँच जाए. लोग चकना बनाते बनाते परेशान हो जाते थे मगर सीकेडी साहब किसी को एक फक्का खाने न देते थे. ऐसे ही किसी खुशमिजाज लोगों की पार्टी थी जब लोग पहली पहली बार मिले थे कोई १८ की उमर में...बहुत दिन तो पता ही न चले कि चकना जाता कहाँ है कि सब दारूबाज यही कहते हैं कि मैंने तो एक फक्का भी नहीं खाया...कसम से. फिर एक दिन किसी की नज़र पड़ी कि सारा चकना इस कमबख्त नामुराद ने साफ किया है...उसी दिन से उसका नामकरण हुआ...सी.के.डी. उर्फ चकना के दुश्मन. सीकेडी के रहते चकना खाना आइएएस निकालने से ज्यादा मुश्किल था...फिर वो आखिरी शाम भी थी दोस्तों की एक साथ.

फिर बहुत साल हुए सीकेडी कहीं खो गया. अफसरों की एलीट पार्टियों में वो कभी नज़र नहीं आता था. दोस्तों ने उसे कई साल ढूँढने की कोशिश की, मगर सब नाकाम. कोई कहता था आसाम पोस्टिंग हो गयी है तो कोई कश्मीर बताता था. गैरतलब है कि ऐसा कोई शख्स न था जिसने अपने अपने तरीके से सीकेडी को खोजा नहीं और उसकी सलामती के लिए दुआएँ नहीं मांगी हों. 'जियें मेरे दुश्मन' जैसा तकियाकलाम रखने वाला शख्स इस बड़े से देश में कहाँ गुम हुआ बैठा था.

इत्तिफाकों के लिए दुनिया बहुत छोटी है. बेटी के रिश्ते के सिलसिले में मुंगेर के एक गाँव जाना था, वहाँ एक खानदानी परिवार था, बड़ा बेटा आइआईटी करके अच्छी पोजीशन पर कार्यरत था. रिश्ता उधर से ही आया था...जिस व्यक्ति ने बताया कि वो लोग मेरी बेटी से रिश्ता जोड़ने के इच्छुक हैं उसने उनका नाम इतने इज्ज़त से लिया था कि आँख की कोर तक उजाले से भर गया था...चन्द्रभान सिंह. नाम इतना भारी भरकम था...मैंने सोचा एक बार देख के आना तो जरूरी था. गाँव ढूँढने में कोई दिक्कत नहीं हुयी...नाम बताते ही रिक्शेवाला बोला एक ही शर्त पर जाऊँगा कि उनके घर जाने के लिए आप मुझे पैसे नहीं देंगे. अपने बिटुआ के लिए आये है...हम बेटेवाले सही...हमारे यहाँ लड़की देने वाले का बहुत मान है.

चारों तरफ हरियाले खेत देखे कितना वक्त बीत गया था...रिक्शावाला चन्द्रभान सिंह की कहानियां सुनाता चल रहा था...कैसे उसकी बेटी की शादी नहीं हो रही थी तो सिन्घ बाबू के कहने पर लड़के वाले मान गए और कितनी धूम धाम से शादी हुयी थी गाँव से. अनगिन कहानियां. मेरे मन में इस व्यक्ति के लिए कौतुहल बढ़ता जा रहा था. फिर बीच सड़क पर एक आदमी एकदम सफ़ेद धोती कुर्ते में एक काँधे पर घड़ा रखे जाते दिखा...साथ में एक बूढ़ी औरत थी, कमर एकदम झुकी हुयी. पास जाते ही हँसी की आवाज़ सुनाई पड़ी...माई ई उमर छेके तोरा, अभियो जवाने बूझईछे...कमर मचकतै तो जईते काम से. बूढ़ी औरत अपने रौ में बतियाते चल रही थी. ई रहे हमरे सिन्घ बाबू...रिक्शे वाले ने रिक्शा रोका.

वो ऐसे सामने आएगा कब सोचा था...मगर वाकई सीकेडी कब क्या करेगा...कहाँ मिलेगा कौन जानता था. बस जिधर से हँसी गूँज रही है समझा जा सकता था कि वो आसपास ही होगा. मैं हड़बड़ाये हुए बढ़ा. हमारा सीकेडी...बालों में चांदी और चेहरे पर एक उम्र का तेज लिए सामने खड़ा था. आज भी एकदम पहले जैसा...दूसरों को मुस्कुराते देख खुश होने वाला. लेशमात्र भी बदलाव नहीं. मन से निश्छल. अपनी छोटी सी परिधि में कितना विशाल...एक पल को मैं अभिभूत हो गया.

शादी की सारी रस्मों के दौरान चन्द्रभान सिंह उर्फ सीकेडी के कितने पहलू खुले...उसने उस इलाके के लिए समाजसेवा नहीं की थी...लोगों का उचित मार्गदर्शन किया था बस. बच्चों को स्कूल भेजने के लिए देर देर रात तक उनके माँ बाप से बहस की थी...किसी का लोन अप्रूव नहीं होने पर बैंक मैनेजर को समझाया था कि क्यूँ इस लोन को देने से बैंक और लेनदार दोनों का फायदा है. अपनी अनगिनत किताबों का भण्डार लोगों के लिए खोल दिया था...यही नहीं जिस गाँव में बिजली आने में अनगिनत साल लगे थे वहाँ उसने इन्टरनेट स्थापित कर रखा था. किसी को कोई भी जानकारी चाहिए थी तो गूगल उनके लिए हाज़िर था. गाँव के लगभग हर व्यक्ति जिसके बच्चे बाहर पढ़ रहे थे के पास अपनी ईमेल आईडी थी.

शादी के लगभग हफ्ते पहले से उनके साझा मित्र गाँव में जुटने लगे थे. सीकेडी की बड़ी हवेली में पैर धरने की जगह नहीं थी. तरह तरह की विलायती शराब की नदी बह रही थी...इसमें रोज रात को बाजी लगती कि आज कोई एक चम्मच चकना खा के दिखा दे. सात दिनों में बाजी कोई नहीं जीत पाया था. सीकेडी की फुर्ती, उसकी आँखों की चमक, उसका चकना को देखकर बेताब हो जाना...कुछ नहीं बदला था.

हम दुनियावी लोग थे...हर कुछ दिन में परेशान होने लगते कि दुनिया बड़ी बुरी है...यहाँ कुछ अच्छा ज्यादा दिन नहीं चल सकता...देर सवेर सब कुछ करप्ट हो जाता है. सिस्टम में गड़बड़ी है, मानव स्वाभाव हमेशा बुरे की ओर झुकता है और जाने कितने फलसफे. यहाँ एक सीकेडी हमारी हर धारणा पर भारी पड़ता था...और सबसे आश्चर्यजनक ये बात थी कि उसके बड़े होने से हमें छोटे होने का बिलकुल अहसास नहीं होता था. अच्छा होना इतना सहज और सरल हो सकता है सीकेडी को देख कर पता चलता था. ईश्वर की बनायी इस दुनिया में प्राकृतिक रूप से कुछ खूबसूरत हो सकता है तो वो है इंसान का मन...हम इसे अनगिन सवालों में बांध कर परेशान कर देते हैं.

सीकेडी की कहानी में कोई उतार-चढाव नहीं हैं...एक असाधारण से शख्स की एकदम साधारण सी कहानी. ये  कितना अद्भुत है न कि वो इतना साधारण है कि विलक्षण है.
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लेखक की चिप्पी: मुझे लगता है हम सबमें एक ऐसा शख्स रहता है जिसे हम बहुत मेहनत से तहखाने में बंद करके रखते हैं कि हमें अच्छा होने से डर लगता है. वाकई...अच्छा होना ग्लैमरस नहीं...इसमें थ्रिल नहीं...मगर सुख...वो इसी तहखाने से होकर अपना रास्ता तलाशता है. 

29 May, 2012

किस्मत हाथों से गढ़ते हैं...हाथ की लकीरों से नहीं


कल शाम साढ़े छः बजे की ट्रेन है. क्या करे संध्या...मिल आये एक बार जाके उससे, शाम को वहीं पनवाड़ी के दूकान के पास रहेगा. घर में नमक खतमे पर है, दू संझा और चलेगा. लेकिन उ तो कल शाम जा रहा है. रेलवे में एसएम का निकला है उसका, वैसे लड़का तो तेज है. पहले तो लगता था कमसे कम बैंक पीओ तो जरूर करेगा. लेकिन सब जगह धांधली मचा हुआ है, उसपर जेनेरल का तो कहीं निकलना मुश्किल...उसपर किस्मत भी खराब. दू दू बार एसबीआई में निकला लेकिन इंटरव्यू में छंट गया. अब शहर का पिट पिट अंग्रेजी बोलने वाला लड़का सबसे कैसे कम्पीटीशन करेगा गाँव में सरकारी स्कूल से पढ़ने वाला लड़का. ऐसा नहीं है कि अंग्रेजी नहीं आता है...लिखित तो बहुत बढ़िया है लेकिन बोलने में गला सूखता है.

संध्या का मन है कि एक बार जा के उसको देख आये. ट्रेनिंग में जा रहा है तो साल छः महीने उधरे रहेगा...उसपर पोस्टिंग भी उधर साउथ में आएगा तो घर आये पता नहीं कितना दिन हो जाएगा. सुनते हैं साउथ जाने में तीन दिन का ट्रेन का सफ़र है और स्लीपर में ई गर्मी में ऐसा चिलचिलाता धूप लगता है कि ऊपर का सीट तो एकदम तवा जैसा गरम हो जाता है. गर्मी के दिन में स्लीपर में चलना बहुत मुश्किल का काम हो जाता है. भट्टी के जैसा तपता है ट्रेन का पूरा कम्पार्टमेंट. संध्या रोटी फुलाते हुए सोच रही है...मन भी तो वैसे ही भट्टी जैसा तप रहा है. पिंटू भी उसके बारे में सोच रहा होगा क्या अभी? फिर पसीना पोछते हुए ख्याल को झटक देती है. अभी उसके सर पर बहुत चिंता है...बहन का उम्र निकलते जा रहा है, उसका शादी करना है फिर घर भी तो एकदम ढह जाने वाला है. अभी पिछली बरसात में छत इतना चू रही थी कि छापर टापना पहले जरूरी है.

वो कहना चाहती है कि वो जब तक लौट के आये किसी भी तरह बाबूजी को रोके रखेगी कि कहीं शादी का डेट फाइनल ना करें. फिर खुद पर हँसती है...उसकी भी तो उमर अब २८ हो गयी लेकिन बाबूजी सबको दो साल कम करके २६ बताते हैं. स्कूल के टीचर बाबूजी के पास जोड़ जाड़ कर भी दहेज के पैसे नहीं पुरते इसलिए इतने साल से कोई लड़का नहीं मिला है हाथ पीले करने के लिए. अचानक बाबूजी का सोच कर उसका मन भर आता है. कितनी कितनी रातों तक वो लालटेन की रौशनी में परीक्षा की कॉपी जांचना याद आता है. हर कॉपी का पचास रूपया मिलता था. बाबूजी केतना बार तो खाना भी जल्दी में निपटा देते थे कि जेहे एक ठो और कॉपी जंचा जाए. पूजा भी तो उन दिनों माँ सम्हाल लेती थी या फिर जो माँ न सम्हाल सके तो संध्या के पाले में पड़ती थी. कभी कभार संध्या कितना कुढती थी. पूजा का सारा काम करने के चक्कर में उसे स्कूल को देर हो जाती थी. घर में अलार्म घड़ी तो थी नहीं, पूरी पूरी रात उठ कर देखती रहती थी कि उजास फूटी कि नहीं. फिर क्लास में नींद आती रहती थी तो वो पिंटू उससे पहले सवाल बना जाता था.

उसके तरफ कहते हैं कि कोई लड़की कुंवारी नहीं रहती ऐसा माँ पार्वती का वरदान है. संध्या को अखबार में पढ़ी खबर याद आती है बिहार में स्त्री-पुरुष अनुपात ९०१:१००० है. इसलिए हर लड़की की शादी हो जाती है. उसने कभी अपने बारे में सोचा नहीं था लेकिन आजकल पिंटू की दीदी को देखती है तो परेशान होने लगती है. उनका उमर ई साल फरवरी में ३१ हो गया. पहले कितना हँसते खेलती रहतीं थीं, बरी पापड़ बनाने में, बियाह का गीत गाने में, कुएं से पानी खींचने में उनका कोई सानी नहीं था. आजकल हर चीज़ पर झुंझला पड़ती हैं. ई सातवाँ बार है कि लड़का वाला देख कर उनको छांटा है...और लड़का भी कैसा, काला, मोटा, पकोडे जैसा नाक, पूरा मुंह चेचक के धब्बा से भरा हुआ, झुक के कंधा सिकोड़ कर चलता है लेकिन अपने लिए लड़की खोजता है हूरपरी...जैसे उसके लिए कटरीना बैठी है बियाह रोक के. उस रात पिंटू की दीदी खूब रोई थी उसके गले लग के...और संध्या बहुत देर तक उनको समझाते रही थी और उस लड़के को गालियाँ बकते रही थी.

संध्या को कोलेज फाइनल इयर की वो घटना याद आती है. राजेश लाइब्रेरी की आखिरी रो में खड़ा था और अचानक उसे पास आकर बोला उसे कुछ जरूरी बात करनी है. वो इतना घबरा गयी थी कि सीढ़ी से गिरते गिरते बची. दिन भर सोचते रही थी कि उसे क्या बात करनी होगी...अगले दिन सुबह के क्लास के बाद उसके साथ चली थी लाइब्रेरी की तरफ जब उसने बताया था कि उसकी पक्की सहेली उसे अच्छी लगी है और वो चाहता है कि शादी के लिए उसके घर रिश्ता लेकर जाए. संध्या को बस दिशा से पूछना था कि वो राजेश को पसंद करती है या नहीं. संध्या ने अच्छी दोस्त का कर्त्तव्य निभाया था. वे दोनों आज भी मिलते हैं तो राजेश उसका शुक्रिया करते नहीं थकता. उनकी शादी पूरे समाज में पहली बिना दहेज की शादी थी. राजेश के पापा कम्युनिस्ट थे...दहेज लेने और देने के सख्त खिलाफ. राजेश उनका एक ही बेटा था.

कोलेज में उसकी सारी दोस्तों की एक एक करके शादी हो गयी थी. वो बड़े उत्साह से उनकी शादी में गीत गाती थी. आजकल गाँव में रहती है...एमए के बाद कितना पढेगी आगे ये सोच कर गाँव आ गयी है. दिन भर खाली टाइम में या तो टीवी देखती रहती है या मैग्जीन पढ़ती रहती है. स्कूल के लाइब्रेरी में बहुत सी किताबें हैं. आज उसका मन किसी मैग्जीन में नहीं लग रहा था. बहुत मन था कि एक बार जा के बस उसे देख आये. नमक भी तो खतम होने ही वाला था न.

जो संध्या की आदत थी, सोचना ज्यादा करना कुछ नहीं. सो दिन भर सोचती रही लेकिन उससे मिलने नहीं गई. मालूम तो था ही कि आज के बाद उसका चेहरा देखे बहुत बहुत साल हो जाएगा. दिल पे पत्थर रखना लड़कियों को बचपन से ही सिखा दिया जाता है. सो वो भी सिसकारी दबाए बैठे रही दिन भर. अगली शाम जब उसकी रेल का टाइम निकल गया तो गोहाल की पीछे भूसा वाला कमरा में खूब फूट फूट कर रोई...जैसे कलेजा चाक हो गया हो उसका...जैसे वो पूरी पूरी पत्थर ही हो गयी है.

वापस आई तो हर तरफ एक मुर्दा सन्नाटा था...जैसे करने को कहीं कुछ नहीं. बाबूजी रामायण पढ़ रहे थे. माँ चूल्हा धुआं रही थी रात के खाने के लिए. भैय्या का पंजाब से पहला मनीऑर्डर आया था इसलिए घर में सब थोड़े खुश थे. रात को माँ डाल में थोड़ा घी डालते हुए बोली...कैसा कुम्हला गयी है रे लड़की...इतना क्या सोचते रहती है दिन भर. राम जी सब अच्छा करेंगे. रात खटिया पर पड़े हुए संध्या देर तक आसमान के तारे देखती रही सोचती रही कि नसीब वाकई सितारों में लिखा है तो फिर जीवन का उद्देश्य क्या है. हम क्या वाकई दूर तारों के हिसाब से जियेंगे और मर जायेंगे...फिर हाथ की लकीरें क्या हैं. फिर ये क्यूँ कहते हैं कि बांया हाथ भगवान का दिया हाथ है और दांया हाथ वो है जो हम खुद बनाते हैं. स्कूल कोलेज में वो हमेशा सबसे तेज विद्यार्थी रही थी कोलेज में तो डिस्ट्रिक्ट टॉपर थी. फिर उसने कभी नौकरी करने के बारे में सोचा क्यूँ नहीं. नींद आने के पहले वो मन बना चुकी थी कि उसे भी कम्पीटीशन में बैठना है.

अगली सुबह पिंटू के यहाँ से जाकर सब बैंक पीओ की तैयारी का मटेरियल ले आई वैसे भी रद्दी में ही बिकने वाला था सब कुछ. बाबूजी को बता दिया कि जिस दिन अखबार में भैकेंसी निकलेगा उसको भी पेपर फॉर्म ला देंगे. संध्या जी जान से तैय्यारी में जुट गयी. बाबूजी भी उसे दिन रात मेहनत करता देख बहुत खुश हुआ करते थे. उसके पास खोने को कुछ नहीं था...लेकिन अगर उसका कम्पीटिशन में हो जाता तो उसके जैसी बहुत सी लड़कियों के लिए रास्ता खुल जाता. इतने सालों की लगातार पढ़ने की मेहनत काम आ रही थी. एक्जाम में बैठते और पेपर देते एक साल निकल गया. जब एसबीआई में उसका नहीं हुआ तो उसे दुःख हुआ था लेकिन उसने उम्मीद नहीं हारी थी. उसे खुद पर भी यकीन था और भगवान पर भी.

जिस दिन आंध्रा बैंक में पीओ होने का लेटर पोस्टमैन लेकर आया बाबूजी जैसे बौरा गए थे, पूरे गाँव को चिट्ठी दिखा रहे थे...मेरी बेटी अफसर बन गयी है. हमेशा काम के बोझ के कारण झुके कंधे तन गए थे और लालटेन में काम करते धुंधला गयी आँखें चमकने लगी थीं. माँ भी सब काम छोड़ कर उसका बक्सा तैयार करने में लग गयी थी. बक्से के साथ ही नसीहतों की भी भारी पोटली थी. जोइनिंग डेट के आसपास बहुत सी अफरातफरी थी...सारे पेपर ठीक से रखने थे...मन को समझाना था कि गाँव छूट रहा है. इस सब में सांझ तारे सी एक बात चमक जा रही थी...पिंटू की भी पोस्टिंग उसी शहर में है.

आखिर वो दिन आ गया जब माँ और बचपन की सारी सहेलियों से गले लग कर वो ट्रेन पर जा बैठी...उसे ऐसा लग रहा था जैसे शादी के बाद विदा होती है ऐसे सब उसे विदा कर रहे हैं. बाबूजी ट्रेन पर चढाते हुए उसके सर पर हाथ रखते हुए बोले...आप परिवार का नाम ऊँचा किये हैं बेटी...हमेशा घर की मर्यादा का ध्यान रखियेगा. बाबूजी बहुत कम उससे सीधे बात किये हैं...वो उनके कंधे से लग के फफक के रो पड़ी. पूरे रास्ते अपने नए ऑफिस, बाकी साथियों के बारे में सोचती रही. जिंदगी का नया अध्याय शुरू हो रहा था.

ट्रेन हैदराबाद पहुंची तो वो अपनी छोटी सी अटैची लेकर स्टेशन पर उतरी. भीड़ छंटी तो उसने देखा फूलों का गुलदस्ता और एक झेंपी सी मुस्कान लिए पिंटू खड़ा था. शाम के साढ़े छः बज रहे थे. आज पहली बार संध्या को अपने फैसले पर बेहद गर्व हुआ. उस शाम अगर पिंटू से मिलने चली जाती तो उस लंबे इंतज़ार का हासिल कुछ नहीं होता. गलती ये होती कि प्यार में खुद को भूल जाती...मगर उसने प्यार में खुद को और निखार लिया...अपना 'मैं' बचाए रखा. इन्तेज़ार उसने अब भी किया मगर इंतज़ार के समय में कितना कुछ उसने अपने नाम भी लिखा. आत्मविश्वास से लबरेज संध्या ने आगे बढ़ कर पिंटू से हाथ मिलाया. दोनों हँस पड़े.

संध्या ने अपने हाथ की लकीरें देखीं...उसके दायें हाथ में एक लकीर पिंटू के नाम की भी उगने लगी थी. 

27 May, 2012

पूरा पूरा कुछ नहीं...अधूरी अधूरी सब कुछ.

आप १४० पर हड़बड़ में नहीं पहुँच सकते.

मैं गाड़ी की स्पीड की बात कर रही हूँ...१४० किलोमीटर प्रति घंटा.

ऐसा नहीं होगा कि आप एक्सीलेरेटर को पूरा नीचे तक दबा दिए तो गाड़ी उड़ती हुयी १४० टच कर जायेगी.
ऐसा हो भी सकता है. पर वो कारें दूसरी तरह की होती हैं. मैं एक नोर्मल कार की बात कर रही हूँ...जैसे कि मेरे पास है. स्कोडा फाबिया. एक साधारण, मिड-लेवल कार...ये कारें हमारे पागलपन के लिए नहीं, हमारी सुरक्षा के लिए बनी हैं.

कोई क्यूँ चलाना चाहेगा कार को १४० की स्पीड पर...जैसा कि मैं खुद से कहती हूँ...१४० मजाक नहीं होता. ८० पर गाड़ी चलाना तेज रफ़्तार माना जाता है. १०० पर चलाने पर अगर कुछ लोग गाड़ी की बैक सीट में हैं तो मुमकिन है कि एक आध बार टोक दें...गाड़ी थोड़ा धीरे चलाओ प्लीज. १२० की स्पीड हाइवे पर गाड़ी को ओवर टेक करने के लिए अक्सर जरूरी होती है. बहुत मूड हुआ तो १२५ और महज छूने की खातिर कि कैसा लगता है १३० पर चलाना कई बार लोग स्पीडोमीटर पर ध्यान देते हुए स्पीड बढ़ा भी सकते हैं. एक बार फिर सुई १३० टच कर जाए तो वापस लौट आते हैं. कभी हुआ है कि भीड़ में कोई शख्स आगे जा रहा है और कौतुहल इतना बढ़ जाए कि आपको तेज कदम बढ़ा कर उसका चेहरा देखना हो...वैसा ही कुछ.

१४० पर चलाने के पहले के हालात और १४० के दरमयान क्या चलता है दिमाग में? जी...दिमाग कमबख्त १४० पर भी सोचना बंद नहीं करता...इस स्पीड में भी पैरलल ट्रैक चलाता है. वैसे अगर आपने चला रखी है गाड़ी तो फिर पढ़ने का सेन्स नहीं बनता कि आप जानते हैं कि कैसा लगता है...मगर फिर भी, हर अनुभव दूसरे से अलग होता है कि हर इंसान के सोचने समझने और रिएक्ट करने के तरीके अलग होते हैं. उसमें भी मैं तो जाने किस मिट्टी से बन के आई हूँ.

इतने भाषण के बाद क्रोनोलोजिकल आर्डर में बात करती हूँ. भोर का पहला पहर था...चार बज रहे होंगे...एकदम सन्नाटा. फिर कोई दस मिनट के आसपास चिड़िया पार्टी हल्ला करना शुरू की. मेरे घर के पीछे एक बहुत बड़ा सा पेड़ है...वही सबका अड्डा है. अँधेरा अपने सबसे सान्द्र फॉर्म में था...यू नो...सूरज उगने के पहले सबसे ज्यादा अँधेरा होता है...वही वक्त. मेरा मन थोड़ा छटपट कर रहा था...या फिर कह सकते हैं कि कहीं भाग जाने का मन कर रहा था...बहुत लंबी सड़क पर

बैंगलोर से बाहर जाने के सारे रास्ते मुझे मालूम है...वैसे अब तो आईफोन में जीपीएस है पर उसके पहले भी साधारण नक़्शे को मैं ही पढ़ती थी और हम घूमने जाते थे...इसलिए शहर का अच्छे से आइडिया है. सारे रास्तों में मुझे सबसे मायावी लगता है हाइवे नंबर ७ जो बहुत से घुमावदार शहरों से होकर कन्याकुमारी जाता है. मुख्यतः दो या तीन रास्ते हैं लेकिन जिनपर ड्राइव करने जाया जा सकता है. घर से निकलते ही सोचना पड़ता है किधर जाएँ...एक रास्ता है ओल्ड मद्रास रोड...जो हाइवे नंबर ४ है...चेन्नई जाता है. पोंडिचेरी जाने के लिए भी इस रास्ते को लिया जा सकता है. एक रास्ता है एयरपोर्ट होते हुए...जिसपर आगे चलते जायें तो हैदराबाद पहुँच जायेंगे. कोरमंगला होते हुए भी एक रास्ता बाहर को जाता है...जिसका सबसे बड़ा आकर्षण है १० किलोमीटर लंबा चार लेन का फ्लाईओवर...इसमें कोई खास मोड़ भी नहीं हैं...एकदम सीधी सड़क है. एयरपोर्ट के रस्ते में अच्छा ये था कि वहाँ मेरी पसंद की कॉफी मिलती है...मगर चार बजे सुबह एयरपोर्ट का रास्ता काफी बिजी रहता है. नाईस रोड भी ले सकती थी पर उधर के रास्ते जाने के लिए थोड़ा मैप ज्यादा देखना पड़ता...तो फिर सोचा कि इलेक्ट्रोनिक सिटी फ्लाईओवर के तरफ निकलते हैं आसानी से पहुँच जायेंगे और भीड़ कम रहेगी.

मैं कार बहुत हिसाब से चलाती हूँ...इतने साल में अब अच्छी ड्राइवर का खिताब मिल चुका है. काफी कण्ट्रोल में और नियमों के हिसाब से चलाती हूँ. अक्सर शांत रहती हूँ गाड़ी चलाते हुए...कार के शीशे उतार के चलाती हूँ...एसी चलाना पसंद नहीं है. सुबह इनर रिंग रोड...कोई ट्रैफिक नहीं था...सिल्क बोर्ड होते हुए आगे और फ्लाईओवर सामने. मेरे फोन में एक प्लेलिस्ट है 'लव मी डू'...बीटल्स के एक ट्रैक के नाम पर. इसमें मेरे सारे सबसे पसंद के गाने हैं...ऐसे गाने जिनसे मैं कभी बोर नहीं हो सकती. क्लासिक. सुबह यही प्लेलिस्ट चल रही थी. हवा में हलकी सी ठंढ थी, जैसे दूर कहीं बारिशें हुयी हों...आसमान में एक तरफ सलेटी रंग के बादल दिखने लगे थे...भोर की उजास फ़ैल रही थी.

फ्लाईओवर स्वप्न सरीखा है...स्विटजरलैंड की सड़कें याद आ गयीं. एकदम सीधी बिछी हुयी सड़क...शहर के कोलाहल से ऊपर...ऐसा लगता है किसी और दुनिया में जी रहे हैं...जहाँ न शोर है, न लोग हैं, न कोई ट्रैफिक सिग्नल. किसी से गहरे प्यार में होना इस फ्लाईओवर के अलावा की दुनिया है...और किसी से अचानक औचक प्यार हो जाना ये फ्लाईओवर...भले ही मुश्किल से दस मिनट का सफ़र होगा...मगर कभी न भूल जाने वाला अनुभव. मिस्टर ऐंड मिसेज अइयर देखते हुए नहीं सोचा था पर रिट्रोस्पेक्ट में हमेशा सोचती हूँ...प्यार की उम्र हमेशा कम ही होती है...और जब कम होती है तो हम बिना किसी रिजर्वेशन के जीते हैं...फिर हमारे पास लौट के जाने को कुछ नहीं होता है...तो दस मिनट से कम के लिए ही सही पर हम पूरी शिद्दत से वो होते हैं वो हम हैं...वो जीते हैं जो हम जीना चाहते हैं. लिविंग ऑन द एज जैसा कुछ.

फ्लाईओवर पर स्पीड लिमिट ८० है. कच्ची उम्र का डायलोग. रिश्ते की लिमिट काँधे तक है. उसके नीचे छू नहीं सकते. सोच नहीं सकते. उसके होटों का स्वाद कैसा है. मैं जब पागल होती हूँ तो १५ की उम्र में क्यूँ लौटती हूँ? स्पीड लिमिट ८० है...इसके कितने ऊपर तक छू सकते हैं? सीधी...सपाट सड़क...दूर दूर तक कोई गाडियां नहीं. न आगे न पीछे. पैर एक्सीलेटर पर हलके हलके दबाव बनाता है...इंटरमिटेन्टली. थोड़ा प्रेशर फिर कुछ नहीं. सुई आगे बढती है...१००...थोड़ी देर बाद फिर १२०...दुनिया अच्छी सी लगने लगी है. १३०...दिल की धड़कन तेज हो गयी है...वो पहली बार इतने करीब आया है...उसकी साँसों में ये कैसी खुशबू है...मीठी सी...१३०...बहुत देर से सुई १३० पर है...अब सब रुका हुआ सा लगता है.

कैसी हूँ मैं...१३० की स्पीड पर सब ऐसा लगता है जैसे रुका हुआ हो...धीमा हो...खंजर दिल में है...मैं रिस रही हूँ...ऐसिलेरेटर पर फिर हल्का दबाव बनाती हूँ...दूर दूर तक कोई गाड़ी नहीं है...थोड़ा और...अब सब कुछ बेहद तेज़ी से मेरी ओर आ रहा है...आसपास चीज़ें इतनी तेज हैं जैसे मैं वक्त में पीछे जा रही हूँ...टाइम ट्रैवेल जैसा कुछ...जिंदगी और आगे का रास्ता जैसे फिश आई लेंस से देख रही हूँ...एक छोटा सा शीशा है जिसमें से मेरी पूरी जिंदगी गुज़र रही है आँखों के सामने से जैसे पुरानी कहानी में एक अंगूठी से ढाके की मलमल का पूरा थान निकल आता था.

१४०...पॉज...एकदम जैसे सांस रुक गयी हो. फ्रैक्शन ऑफ अ मोमेंट...क्या उतना ही छोटा जब पहली बार अहसास हुआ था कि प्यार हो गया है मुझे?

सब कुछ रिवाइंड हो रहा है...एक इमेज उभरती है कि कार अगर फ्लाईओवर की बाउंड्री से टकराएगी तो प्रोजेक्टाइल की तरह गिरेगी. मैं विचार को झटक देती हूँ...सामने नज़र आती सड़क के अलावा लोग बहुत तेज़ी से आ जा रहे हैं...जैसे जिंदगी वाकई एक १४० की स्पीड से दौड़ती हुयी कार है और जिंदगी में आये हुए सभी लोग सिर्फ एक धुंधला सा अक्स.

मैंने एक्सीलेरेटर छोड़ दिया है और बेहद हलके ब्रेक मारती हूँ...लगभग छूती हूँ...जैसे खुद को रोकना...कि उससे प्यार नहीं करना है...हलके ब्रेक्स...थोड़ी थोड़ी देर पर. स्पीड घटती है...१३०...१२०...१००...८०. अब ठीक है...अब सब स्टेबल है. फ्लाई ओवर भी थोड़ी देर में खत्म हो जाएगा. उम्र...अगले महीने २९ की हो जाउंगी...जिंदगी भी थोड़ी देर में खत्म हो जायेगी.

टोल प्लाज़ा आ गया है...टू वे टोल...मैं शीशे के बोक्स में बैठे उस लड़के को देख कर मुस्कुराती हूँ. जब तक वो छुट्टा निकाल रहा है...टोल बूथ के दूसरी तरफ दो लोग खड़े हैं...मुझे कौतुहल से देखते हैं. इतनी इतनी भोर में अकेली लड़की गाड़ी लेकर शहर से बाहर क्यूँ जा रही है. मुझे हमेशा से लोगों का ये बेहद उलझा हुआ चेहरा बहुत पसंद है. मैं हलके गुनगुनाने लगती हूँ...टोल का टिकट लेकर आगे बढ़ी हूँ. यहाँ हाइवे है...इस समय बैंगलोर की तरफ आने वाले बहुत से ट्रक दिख रहे हैं दूसरी लेन में. अभी भी अँधेरा है तो उनकी हेडलाइट्स जली हुयी हैं. हाइवे पर बहुत देर बहुत दूर तक ड्राइव करती हूँ...अब लौटने का मन है...हाई बीम के कारण रोड दिख नहीं रहा है ढंग से...यू टर्न या तो राईट लेन से होगा या लेफ्ट लेन से फ्लाईओवर के नीचे से. जिंदगी ऐसी ही है न...लौटने का या तो सही रास्ता होता है या गलत.

इत्तिफाक कहूँ या फितरत...लेफ्ट लेन में यू टर्न मिला है...बहुत ध्यान से कार मोड़ती हूँ...कुछ देर रुक कर देखती हूँ...कोई गाड़ी नहीं आ रही. हाइवे पर ध्यान ज्यादा देना होता है...स्पीड बहुत तेज रहती है तो अचानक से गाड़ी आ सकती है सामने...वैसे में कंट्रोल में रहना जरूरी होता है. कोलेज बंक मार कर जेएनयू में टहलते हुए कई बार टीचर भी दिख जाते थे. वैसे में नोर्मल रहना होता है जैसे किसी प्रोजेक्ट के सिलसिले में जाना पड़ा था कहीं और अब लौट रहे हैं.

लौटते हुए बहुत से ट्रक हैं रास्ते में और उन्हें ओवरटेक करना पड़ा है...वापस लौटना वैसे भी हमेशा उतना आसान नहीं होता जितना कि चले जाना...अवरोध होते ही हैं. १२० पर ओवरटेक करती हूँ...गानों पर ध्यान देती हूँ...फ्लाईओवर फिर से सामने है...पर इस बार स्पीड बढ़ाऊंगी तो जाने किसका अक्स ठहर जाएगा...डरती हूँ. ८० की स्थिर स्पीड पर चलाती हूँ. ले बाई है. गाड़ी पार्क करती हूँ. एसएलआर निकालती हूँ...ट्राइपोड लाना भूल गयी. खुद को कोसती हूँ कि फोटो अच्छी नहीं आ पाएंगी. गाड़ियां भूतों की तरह भागती हैं कैमरे के व्यूफाइंडर में से...कुछ ऐसे ही फोटो उतारती हूँ...फिर फोन से खुद की एक तस्वीर उतारती हूँ. जानती हूँ मेरी फेवरिट रहेगी बहुत दिनों तक.

शहर जागने लगा है...मैं पूरी रात नहीं सोयी हूँ. फिर भी थकी नहीं हूँ...जरा सी भी. पहचाने रास्तों पर लौट आई हूँ...सिल्क बोर्ड के पास बहुत से फूल बिकते रहते हैं सुबह...जासमिन की तीखी गंध आई है अंदर तक...मैं बारिशों वाले दिन और बालकनी में कॉफी की याद करती हूँ...एक सिगरेट पीने का मन करता है. दिल की धड़कन बढ़ी हुयी है अब तक. कार पार्क करती हूँ. एहतियात से घर का लॉक खोलती हूँ.

कॉफी बनाती हूँ...सूरज उग गया है पर दिख नहीं रहा...बहुत बादल हैं. मैं हमेशा उन लोगों को बहुत एडमायर करती थी जो बहुत तेज़ी से कार चलाते हुए भी स्थिर रह सकते हैं...खुद को वहाँ देखती हूँ तो अच्छा लगता है. कुछ लोग खतरे का बोर्ड देख कर आगाह होते हैं...कुछ लोग खतरे का बोर्ड देखते ही वही काम करने चल देते हैं. मैं दूसरे टाइप की हूँ. फिर से वो साइन टांग देने का मन कर रहा है. 'Danger Ahead. You might fall in love with me'...लेकिन...कोई फायदा नहीं...फिर से खुद से प्यार हो गया मुझे.

थोड़ी पागल...थोड़ी खतरनाक...थोड़ी आवारा...थोड़ी नशे में...जरा सी बंजारामिजाज...थोड़ी घुमक्कड़...थोड़ी थोड़ी प्यार में. पूरा पूरा कुछ नहीं...अधूरी अधूरी सब कुछ. 

25 May, 2012

बोली बनाम भाषा ऐंड माथापच्ची इन बिहारी

इन्सोम्निया...कितना रसिक सा शब्द है न? सुन कर ही लगता है कि इससे आशिकों का रिश्ता होगा...जन्मों पुराना. ट्रांसलेशन की अपनी हज़ार खूबियां हैं मगर मुझे हमेशा ट्रांसलेशन एक बेईमानी सा लगता है...अच्छा ट्रांसलेशन ऐसे होना चाहिए जैसे आत्मा एक शरीर के मर जाने के बाद दूसरे शरीर में चली जाती है. मैं अधिकतर अनुवादित चीज़ें नहीं पढ़ती हूँ...जानती हूँ कि ऐसे पागलपन का हासिल कुछ नहीं है...और कैसी विडंबना है कि मेरी सबसे पसंदीदा फिल्म कैन्तोनीज (Cantonese)में बनी है...इन द मूड फॉर लव. ऐसा एक भी बार नहीं होता है कि इस फिल्म को देखते हुए मेरे मन में ये ख्याल न आये कि ट्रांसलेशन में कितना कुछ छूट गया होगा...बचते बचते भी इतनी खूबसूरती बरकरार रही है तो ओरिजिनल कितना ज्यादा खूबसूरत होगा.

मेरे अनुवाद को लेकर इस पूर्वाग्रह का एक कारण मेरी अपनी विचार प्रक्रिया है. मैं दो भाषाओं में सोचती हूँ...अंग्रेजी और हिंदी...ऐसा लगभग कभी नहीं होता कि एक भाषा में सोचे हुए को मेंटली दूसरे भाषा में कन्वर्ट कर रही हूँ. अभी तक का अनुभव है कि कहानियां, कविताएं और मन की उथल पुथल होती है तो शब्द हमेशा हिंदी के होते हैं और टेक्नीकल चीज़ें, विज्ञापन और सिनेमा से जुड़ी चीज़ों के बारे में सोचना अक्सर अंग्रेजी में होता है. इसके पीछे कारण ये है कि पूरी पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम में हुयी है और फिर ऑफिस भी वैसे ही रहे जिनमें अधिकतर काम और कलीग्स के बीच बातें अंग्रेजी में होती रहीं. वैसे तो सभ्य भाषा का इस्तेमाल करती हूँ लेकिन अगर गुस्सा आया तो गालियाँ हमेशा हिंदी में देना पसंद करती हूँ.

मुसीबत तब खड़ी होती है जब कुछ उलट करना पड़े...जैसे किसी कारणवश कुछ मन की बात अंग्रेजी में लिखना हो...कई बार तब अनुवाद करना होता है और हालाँकि ये प्रक्रिया बहुत तेज़ी से घटती है फिर भी मन में कुछ न कुछ टूटा हुआ चूरा रह ही जाता है जो कहीं फिट नहीं होता. ये बचे खुचे शब्द फिर मेरा जीना हराम कर देते हैं. फिल्मों या विज्ञापन पर हिंदी में लिखने पर ऐसी ही समस्या का सामना करना होता है...पूरे पूरे वाक्यांश अंग्रेजी में बनते हैं...फिर उनके बराबर का कुछ हिंदी में सोचना पड़ता है...और कितना भी खूबसूरत सोच लूं ऐसा बहुत कम होता है कि किसी फ्रेज(Phrase) के हिंदी अनुवाद से तसल्ली मिल सके. अच्छा होता न दिमाग में एक स्विच होता जिसे अंग्रेजी और हिंदी की ओर मोड़ा जा सकता जरूरत के हिसाब से.

मुझे ये भी लगता है कि लेखन में, खास तौर से मौलिक लेखन में परिवेश एक बेहद जरूरी किरदार होता है...कांटेक्स्ट के बाहर आप चीज़ों को समझ नहीं सकते और कुछ चीज़ों का वाकई अनुवाद हो ही नहीं सकता है. अनुवाद की सीमा से परे जो शब्द लगते हैं वो अक्सर 'बोलियों/dialects' का हिस्सा होते हैं, इसका कारण होता है कि कई शब्दों के पीछे कहानी होती है कि जिसके बिना उनका वजूद ही नहीं होता...कुछ शब्दचित्र होते हैं जिन्हें समझने के लिए आपको अपनी आँखों से उन दृश्यों को देखना जरूरी होता है वरना शब्द तो होंगे मगर निर्वात में...परिवेश से अलग उनका कोई वजूद नहीं होता. आप भाषा का अनुवाद कर सकते हैं पर बोली का नहीं...ये कुछ वैसे ही है जैसे भाव कई बार कविता में व्यक्त हो सकता है लेकिन गद्य में नहीं.

बिहार के बारे में एक फेवरिट डायलोग है...यू कैन ओनली बी बोर्न अ बिहारी...यू कैननोट इन एनी वे बिकम अ बिहारी...यानि कि आप जन्म से ही बिहारी हो सकते हैं...और कौनो तरीका नै है बाबू...बिहार में पैदा होने के कारण बचपन से अनगिनत बोलियां सुनती आई हूँ...हमारे यहाँ कहावत है...कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बानी...अर्थात...हर कोस पर पानी का स्वाद बदल जाता है और चार कोस की दूरी पर बोली बदल जाती है. गाँव में ऐसे लोग होते थे जो अनजान आदमी से पाँच मिनट बात करके उसका घर बता देते थे. बोली पहचान का उतना ही अभिन्न हिस्सा थी जितना कि किसी का नाम. ऐसे लोग रिश्ता तय करने, बर्तुहार आने के समय में खास तौर से बहुत काम के माने जाते थे. यही नहीं गाँव में कोई नया आदमी आया नहीं कि उसे टोहने के लिए इन्हें बुला लिया जाता था.

बातचीत का एक बहुत जरूरी हिस्सा होती हैं कहावतें...पापा जितने मुहावरे इस्तेमाल करते हैं मैं उनमें से शायद ४० प्रतिशत ही इस्तेमाल करती हूँ, वो भी बहुत कम. हर मुहावरे के पीछे कहानी होती है...अब उदहारण लीजिए...अदरी बहुरिया कटहर न खाय, मोचा ले पिछवाड़े जाए. ये तब इस्तेमाल किया जाता है जब कोई बहुत भाव खा रहा होता है...कहावत के पीछे की कहानी  ये है कि घर में नयी बहू आई है और सास उसको बहुत मानती है तो कहती है कि बहू कटहल खा लो, लेकिन बहू को तो कटहल से ज्यादा भाव खाने का मन है तो वो नहीं खाती है...कुछ भी बहाना बना के...लेकिन मन तो कटहल के लिए ललचा रहा है...तो जब सब लोग कटहल का कोआ खा चुके होते हैं तो जो बचे खुचे हिस्से होते हैं जिन्हें मोचा कहा जाता है और जिनमें बहुत ही फीका सा स्वाद होता है और जिसे अक्सर फ़ेंक दिया जाता है, बहू कटहल का वही बचा खुचा टुकड़ा घर के पिछवाड़े में जा के खाती है.

जिंदगी जो अफ़सोस का पिटारा बना के रखी हूँ उसमें अपने घर की भाषा(भागलपुरी/अंगिका) नहीं बोल पाना सबसे ज्यादा सालता है. पटना में रहते हुए पड़ोसी भोजपुरी बोलते थे...दिल्ली में एक करीबी दोस्त भी भोजपुरी बोलता था...तो काफी दिन तक ठीक-ठाक भोजपुरी बोलने लगे थे पर अब फिर से एकदम हिंदी पर आ गए हैं. अधिकतर दोस्तों से बात हिंदी में होती है. लेकिन बिहारी को बिहारी में गरियाने का जो मज़ा है ना कि आह! फिर से कुछ उदाहरणों पर आते हैं...एक शब्द है 'चोट्टा'...बेहद प्रेमभरी गाली है...सन्दर्भ सहित व्याख्या ऐसे होती है...

'शाम ऐसे लगती है जैसे किसी छोटी लड़की के गालों पर किसी बदमाश लड़के ने चुट्टी काटी हो...और उसके सफ़ेद रुई के फाहे जैसे गाल गुलाबी हो गए हों...गुस्से से भींचे होठ लाल...और वो शुद्ध बिहारी गाली देते हुए उसके पीछे दौडी हो.
चोट्टा!'

एक दोस्त है मेरा...उसे बात करते हुए हर कुछ देर में ऐसा कुछ कहना ही पड़ता है...लात खाओगे...मार के ठीक कर देंगे...डीलिंग दोगे बेसी हमको...अपनी तरह बोक्का समझे हो...देंगे दू थाप...ढेर होसियार बूझते हो...तुमरा कुच्छो नहीं हो सकता...कुछ बुझाईबो करता है तुमको...और एक ठो सबसे ज्यादा मिस्युज्ड शब्द है...थेत्थर(verb-थेथरई, study of थेथर एंड इट्स कांटेक्स्ट: थेथरोलोजी). अब इसका अनुवाद करने में जान चले जाए आदमी का. वैसे ही एक शब्द है...चांय...अब  चांय  आदमी जब तक आपको दिखा नहीं दिया जाए आप समझ ही नहीं सकते है कि किस  अर्थ में प्रयुक्त होता है. इसमें इनटोनेशन/उच्चारण बेहद जरूरी हिस्सा है...भाषा में चूँकि शब्दों के अर्थ तय होते हैं पर बोली में शब्द के कहने के माध्यम से आधा अर्थ उजागर होता है.

बचपन से हिंदी में बात करने के कारण कितना कुछ खो चुकी हूँ अब महसूस होता है लेकिन उसे वापस पाने का कोई उपाय नहीं है...अब जब नन्हें बच्चों को अंग्रेजी में बात करते देखती हूँ तो अक्सर सोचती हूँ...पराये देश की भाषा सीखते ये बच्चे कितने बिम्बों से अनभिज्ञ  रह जायेंगे...इन्हें petrichor तो मालूम होगा पर सोंधा नहीं मालूम होगा...सोंधे के साथ गाँव की गंध की याद नहीं आएगी. कितना कुछ खो रहा है...कितना कुछ कहाँ, कैसे समेटूं समझ नहीं आता. स्कूल में सिर्फ युनिफोर्म से नहीं दिमागी तरीके से भी क्लोन बनके निकल रहे हैं बच्चे...मेरी जेनेरेशन में ही कितनों ने सालों से हिंदी का कुछ नहीं पढ़ा...बहुतों को देवनागरी लिपि में पढ़ने में दिक्कत होती है. 

चौकी पर रखा हँसुआ.
इन सब ख्यालों के बीच एक दिन का धूप में बैठ कर अचानक रो देना याद आता है कि जब अचानक से ख्याल आया था कि मेरे बेटी अगर होगी तो उसको कभी कटहल बनाना नहीं सिखा पाउंगी क्योंकि कटहल काटने के लिए जिस हंसुए का इस्तेमाल जरूरी होता है वो उसके बड़े होने तक गायब हो जाएगा. ऐसे ही गायब हो जायेंगे कितने शब्द...कितनी दोस्ती...कितना अपनापन. कि जो इस मिट्टी में पैदा हुए हैं वही जानते हैं कि माथा दुखा रहा है में जो रस है वो सर दर्द कर रहा है में कहाँ.

सागर को सगरवा कहने का सुख...बचपन की याद से लहरों की तरह लौटता...गूंजता...नितुआ गे... बड़ी दिदिया...छोटकी फुआ...कुंदनमा... रे जिमिया...और आखिर में मंच पे पर्दा गिरने के पहले लौटता वो नाम जो बहुत सालों से गुम हो गया है...रे पमियाsssss 

पुनःश्च - कहाँ से कहाँ पहुँच गए...शायद इतना सारा कुछ धीरे धीरे मन में उमड़ घुमड़ रहा था...एक दिन राहुल सिंह जी के ब्लॉग पर छत्तीसगढ़ी पर ये आलेख पढ़ा था तब से.

बिहारी में एक लाजवाब सीरीज अभिषेक के ब्लॉग पर भी चल रही है...पटना की अद्भुत झलकी और कमाल के रंगीन लोग...जरा हुलक के आइये. 

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