Writing is my salvation
my escape from the grim realities of life
my acceptance of the harder responsibilities
words hold my hand
take me to a shore of undulating waves
take me to an orchestra of silence
black and white merge
to give shape to my inner conflicts
to paint in shades of light and dark grey
i revolt against myself
try to make sense of the madness unleashed
try to rise from the ashes like a phoenix
the barriers are there
to protect from the frightening unknown
to forbid the exultation of discovery
blood stained paper
does justice to a bleeding heart
does justice to a spirit on fire
i die. i am born.
09 June, 2010
07 June, 2010
भाई के नाम
मेरा भाई उम्र में मुझसे तीन साल छोटा है. बचपन हमारा भी बाकी बच्चों की तरह मार पीट में गुजरा. पर जैसे जैसे हम थोड़े बड़े हुए, मैंने देखा कि उसमें मुझसे कहीं ज्यादा समझदारी है. किसी चीज़ में अगर दोनों जिद्द करते तो मम्मी उसको ही मान जाने बोलती, और वो मान भी जाता. आज मुझे कई बार दुःख होता रहता है कि बचपन में मैंने उसे कुछ क्यों नहीं दिया. यहाँ तक कि बड़े होने के बाद भी उसके लिए कुछ खास नहीं किया है मैंने...इन फैक्ट कुछ भी नहीं किया है मैंने.
पर उसके हर बड़प्पन के बावजूद वो है तो मेरा छोटा भाई ही. जब पटना से दिल्ली आई तो पहली बार उससे इतने दिनों तक दूर रहना पड़ा था, उसकी बड़ी याद आती थी. सारे झगड़े, सारी बातें याद आती थीं...बड़ा मन करता था कि वो आये और हम फिर से खूब सारी बातें कर सकें...और इस बार मैं उससे बिलकुल झगडा नहीं करती. मेरे जन्मदिन पर हर साल वो याद से डेरी मिल्क खरीद के ले आता था...कई बार तो लगता था वो मेरा बड़ा भाई है.
जिंदगी अचानक से नए रास्तों पर ले आई और उससे मैं दूर होती चली गयी. अब फुर्सत वाली रातें नहीं आती जब मैं उससे कभी चिढाने की तो कभी बदमाशी पर डांटने की बातें कर सकूँ. मेरा भाई मेरी तरह बिलकुल नहीं है, बहुत कम बोलता है वो...अपनी भावनाएं कभी बांटता नहीं है. माँ के जाने के बाद वो बोला था, और है ही कौन मेरा. पर मैं उसके साथ नहीं खड़ी हो सकी, उसकी खुशियाँ उसके ग़मों में शरीक नहीं हो सकी. हालात कितने अजीब हो जाते हैं बड़े होने के बाद. बचपन कितना अनकोम्प्लिकेटेड होता है.
उससे मैंने हमेशा पाया ही है. TCS में इंजीनियर बन गया है वो, अपनी पहली सैलरी से उसने मेरे लिए घडी खरीद के भेजी है, titan रागा, बहुत खूबसूरत है. आज ही कुरियर आया हमको. मेरा छोटा भाई कब इतना बड़ा हो गया पता ही नहीं चला. तब से पलकें भीगी ही हैं...आज भी मेरे पास उसको देने के लिए कुछ नहीं है. बस ढेर सारा प्यार और आशीर्वाद.
03 June, 2010
वो लड़की जो खिड़की थी
क्यों चलना यदि पथ है केवल
मेरे अन्धकार से
सब के अन्धकार तक?
- अज्ञेय
पानी की थरथराती हुयी बूँदें खिड़की पर गिर रही हैं. उसे उन बूंदों का थरथराना महसूस होता है. उसे लगता है वो खिड़की हो गयी है और घर को सूखा रखना उसका कर्त्तव्य है. उसने खुद को मजबूत कर लिया है, भिंचे हुए होठों में रक्तिम बूँदें उभरती हैं और पानी में घुलती चली जाती हैं.
रात बहुत काली और गहरी है. ऐसी गहरी रातें अक्सर सन्नाटे का दामन थामे आती हैं. उसे दूर की आवाजें भी सुनाई पड़ने लगी हैं. आँखें ना हों तो कान बहुत सुनने लगते हैं, स्पर्श बहुत कहने लगता है, गंध बहुत तीखी हो जाती है. जरूरत ना होने पर भी उसने आँखें मींच रखी हैं. रौशनी ना होने पर भी रौशनी का छलावा दिल को तसल्ली देता है, आँखें खोल कर सच को देखना बहुत मुश्किल हो जाता है.
प्रलय के इस सागर में एक छोटे से द्वीप पर एक विशाल हवेली है, अनगिनत कमरों वाली...किसी खुली पीली धूप वाले दिन भी वो इन कमरों में भटक जाती है, तब गिने चुने लोग होते हैं जो उसे ढूंढते पहुँच जाते हैं...वर्ना तो वो बाग़ में हरसिंगार के फूलों की माला ही गूंथती रह जाए. घर में अकेले जाने में जब उसे डर लगता है वो हमेशा हरसिंगार के नीचे आके बैठती है, हरसिंगार को पारिजात भी कहते हैं...कहते तो ये भी हैं कि इस पेड़ को स्वर्ग के आंगन से चुरा कर लाया गया था.
तूफ़ान रूकने का नाम ही नहीं लेता तो धीरे धीरे खिड़की से वो दीवार होने लगती है. पुरानी पेंट हुयी दीवारों में से एक, किले की दीवारों की तरह पत्थर और मजबूत...ऐसी किसी दीवार में अनारकली को जिन्दा चिनवा दिया गया था. उसकी सांसें रुकने लगती हैं, जैसे डूबते जाती है सागर की लहरों में. सागर उसे गहरे खींचता है, उद्दाम, उन्मत्त और उद्दंड, पर उसकी भी जिद्द है कि वो सागर पर बाँध बना के ही मानेगी. जिद्दी है बहुत. सागर की विशालता, कभी ना ख़त्म होने वाली सीमाएं उसे जितना डराती हैं उतना ही अपनी ओर खींचती भी हैं. कुछ कुछ मौत के सम्मोहन जैसे.
वो अपनी आँखें खोल कर रख देती है और हाथों से देखने लगती है, हाथों को मसहूस होता है कि सांसें बहुत तेज चल रही हैं. कहीं भी जाने और ना खोने के लिए उसके पास आवाज की एक डोर है. उसे जब भी लौट आने की इच्छा होती है वो इस आवाज को पकड़ कर चलने लगती है. इस आवाज में रौशनी भी है, उसे रास्ता साफ़ दिखने भी लगता है. आवाज उसे दिलासा देती है, कहती है ये प्रलय नहीं है, बाढ़ का पानी है...उतर जाएगा. ये तुम्हारी पूरी जिंदगी नहीं 'एक फेज़ है, गुजर जाएगा'.
लहरें उसे तराशती रहती हैं, और हर बार उसका कुछ बहा ले जाती हैं. बहुत कुछ बीतता है पर वक़्त एक लकीर ना होकर पन्ना हो जाता है और उसे खुद को बचाने भर को हाशिया मिलता है. इस हाशिये में वो अपना दिल रख देती है, उस आवाज के इंतज़ार में उसी पॉज़ से धड़कने के लिए.
'और उस वक़्त से लहरें शोर नहीं करती...गीत गाती हैं'.
मेरे अन्धकार से
सब के अन्धकार तक?
- अज्ञेय
पानी की थरथराती हुयी बूँदें खिड़की पर गिर रही हैं. उसे उन बूंदों का थरथराना महसूस होता है. उसे लगता है वो खिड़की हो गयी है और घर को सूखा रखना उसका कर्त्तव्य है. उसने खुद को मजबूत कर लिया है, भिंचे हुए होठों में रक्तिम बूँदें उभरती हैं और पानी में घुलती चली जाती हैं.
रात बहुत काली और गहरी है. ऐसी गहरी रातें अक्सर सन्नाटे का दामन थामे आती हैं. उसे दूर की आवाजें भी सुनाई पड़ने लगी हैं. आँखें ना हों तो कान बहुत सुनने लगते हैं, स्पर्श बहुत कहने लगता है, गंध बहुत तीखी हो जाती है. जरूरत ना होने पर भी उसने आँखें मींच रखी हैं. रौशनी ना होने पर भी रौशनी का छलावा दिल को तसल्ली देता है, आँखें खोल कर सच को देखना बहुत मुश्किल हो जाता है.
प्रलय के इस सागर में एक छोटे से द्वीप पर एक विशाल हवेली है, अनगिनत कमरों वाली...किसी खुली पीली धूप वाले दिन भी वो इन कमरों में भटक जाती है, तब गिने चुने लोग होते हैं जो उसे ढूंढते पहुँच जाते हैं...वर्ना तो वो बाग़ में हरसिंगार के फूलों की माला ही गूंथती रह जाए. घर में अकेले जाने में जब उसे डर लगता है वो हमेशा हरसिंगार के नीचे आके बैठती है, हरसिंगार को पारिजात भी कहते हैं...कहते तो ये भी हैं कि इस पेड़ को स्वर्ग के आंगन से चुरा कर लाया गया था.
तूफ़ान रूकने का नाम ही नहीं लेता तो धीरे धीरे खिड़की से वो दीवार होने लगती है. पुरानी पेंट हुयी दीवारों में से एक, किले की दीवारों की तरह पत्थर और मजबूत...ऐसी किसी दीवार में अनारकली को जिन्दा चिनवा दिया गया था. उसकी सांसें रुकने लगती हैं, जैसे डूबते जाती है सागर की लहरों में. सागर उसे गहरे खींचता है, उद्दाम, उन्मत्त और उद्दंड, पर उसकी भी जिद्द है कि वो सागर पर बाँध बना के ही मानेगी. जिद्दी है बहुत. सागर की विशालता, कभी ना ख़त्म होने वाली सीमाएं उसे जितना डराती हैं उतना ही अपनी ओर खींचती भी हैं. कुछ कुछ मौत के सम्मोहन जैसे.
वो अपनी आँखें खोल कर रख देती है और हाथों से देखने लगती है, हाथों को मसहूस होता है कि सांसें बहुत तेज चल रही हैं. कहीं भी जाने और ना खोने के लिए उसके पास आवाज की एक डोर है. उसे जब भी लौट आने की इच्छा होती है वो इस आवाज को पकड़ कर चलने लगती है. इस आवाज में रौशनी भी है, उसे रास्ता साफ़ दिखने भी लगता है. आवाज उसे दिलासा देती है, कहती है ये प्रलय नहीं है, बाढ़ का पानी है...उतर जाएगा. ये तुम्हारी पूरी जिंदगी नहीं 'एक फेज़ है, गुजर जाएगा'.
लहरें उसे तराशती रहती हैं, और हर बार उसका कुछ बहा ले जाती हैं. बहुत कुछ बीतता है पर वक़्त एक लकीर ना होकर पन्ना हो जाता है और उसे खुद को बचाने भर को हाशिया मिलता है. इस हाशिये में वो अपना दिल रख देती है, उस आवाज के इंतज़ार में उसी पॉज़ से धड़कने के लिए.
'और उस वक़्त से लहरें शोर नहीं करती...गीत गाती हैं'.
01 June, 2010
धुएं में लिपटी आवाज
वो कार से उतरते ही फ़ोन लगाती है. और बात करते हुए ही घर में जाती है. अँधेरे घर की लाईट अकेले जलाना अच्छा नहीं लगता इसलिए. फ़ोन की आवाजें कभी फ़ोन में नहीं रहतीं, पूरे घर में चहलकदमी करने लगती हैं. वो सोचती है कि उसे लोगों की आवाजों की कई बारीकियां मालूम हैं.
उसके रिश्ते फकत घर में टहलती इन आवाजों से है, पुरानी, छोड़ी हुयी, गिरती इमारतों की तरह. घर लौटना हमेशा अकेला होता है...किससे बात कर रही है उसके हिसाब से आवाज का एक पसंदीदा कोना होता उस घर में, एक कमरे का छोटा सा घर. एक आवाज है जो एक अकेली बालकनी में टंग जाती है और सिगरेट फूंकती रहती है, उस आवाज से उसे अजीब सा लगाव हो गया है. उस आवाज में गाहे बगाहे ट्रैफिक भी गलबहियां डाले मिलता है, तब वो आवाज एक अकेले की ना होके एक शहर की हो जाती है...एक कभी ना सोने वाले शहर की. वो अक्सर उस आवाज से सिगरेट छीन कर अपनी व्हिस्की के ग्लास में डुबा देती है, फिर रात को पीने का मूड नहीं होता. दूसरा पैग वो वैसे भी खुद अकेले के लिए कभी नहीं बनाती. और वो अक्सर अकेले ही पीती है. अजनबी लोगों के साथ वो जूस या कुछ और पीती है...अजनबी...उसकी जिंदगी में सब अजनबी ही लोग आते हैं. जान पहचान के लोग चाँद पर बने कोलनियों में शिफ्ट कर गए हैं. वहां जाने का किराया नहीं है उसके पास.
उसकी कई बार इच्छा होती है कि इस पसंदीदा आवाज को रिकोर्ड कर ले पर ये बात वो उसे बता नहीं सकती इस लिए रिकोर्ड भी नहीं करती है. भागते शहर के ठहरे हुए ट्रैफिक में रेडियो या सीडी सुनने के बजाये उसकी आवाज सुनेगी तो लगेगा वो उसके साथ लॉन्ग ड्राइव पर गयी है. कार चलते हुए बात नहीं करने का उसका नियम है. वैसे भी वो आजकल बहुत ज्यादा नियमों से बंधने लगी है. उसे अपना बहुत पुराना लिखा कुछ याद आता है "एक उम्र में आ के हर लड़की अपनी माँ की तरह हो जाती है". वो भी अपनी माँ की तरह चीज़ों को करीने से करने लगी है, बहुत कुछ बनाना सीख लिया है उसने. उसकी इच्छा होती है कि माँ होती तो उससे पूछती कि वो उसके जैसे हुयी है कि नहीं कितना बाकी है. उसे अपनी तरह पुरानी चीज़ें अच्छी लगने लगी हैं.
उसे बालों को रंगना पसंद नहीं है, हालाँकि लोग कहते हैं कि उसपर सफ़ेद बाल बहुत सूट करते हैं स्मार्ट और कूल लगती है वो.
उसकी बहनों के बच्चे अपनी इस मौसी को बहुत पसंद करते हैं, उसके गिफ्ट सबसे अच्छे होते हैं. आखिर वो गिफ्ट खरीदती भी तो है सबसे अलग और ढूंढ ढूंढ कर...वो सब कुछ जो शायद उसे कभी खुद के लिए चाहिए होता. पिछले महीने उसने नीलाभ के लिए मोटरसाइकिल खरीदी थी, सबसे लेटेस्ट वाली...नीलाभ नाम भी तो उसी का दिया हुआ है. जिस शाम बच्चे फ़ोन करते हैं वो अपना डाइटिंग मिस कर देती है और आइसक्रीम या गुलाबजामुन खाती है. एक आधा किलोमीटर ज्यादा jog कर लेती है और यूँ ही मुस्कुराते रहती है.
उसकी जिंदगी में सब कुछ जल्दी जल्दी बदलता रहता है, शहर, देश, सोने का समय उठने का समय...पर हर बार लौट के एक घर होता है, और एक आवाज. उसे कुछ और नहीं चाहिए बस उस फ़ोन की आवाज की सीडी.
क्या उसे पूछ के रिकोर्ड करना चाहिए या बिना पूछे?
31 May, 2010
मैसेज इन अ बॉटल
बहुत सालों बाद अकेले सफ़र कर रही थी. बंगलोर से बॉम्बे, फ्लाईट तीन बजे की थी और फिर बॉम्बे जा के साढ़े सात की ट्रेन पकडनी थी नासिक के लिए. वक्त कम था फ्लाईट लैंड करने और ट्रेन के छूटने में. ऐसे में समय जितना बच सके. अधिकतर फ्लाईट थोड़ा बहुत लेट हो ही जाती है. तो मैंने सोचा कि सामान सारा हैण्ड बैगेज में ही ले लूं. ट्रोली थी तो कोई चिंता नहीं थी, घुड़काते हुए ले जा सकती थी.
फ्लाईट बोर्ड करने के लिए सारे लोग लाइन में लग चुके थे, जब मैंने उसे पहली बार देखा. उसमें कुछ तो था जो पूरी भीड़ में वो अलग नज़र आ रहा था. ऐसा होता है कि कई लोगों के बीच आप एक चेहरे पर फोकस हो जाते हैं, और अचानक से लोगों के बीच बार बार उसपर नज़र पड़ जाती है. सांवले रंग का, लगभग ५'११ के लगभग लम्बा होगा...पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगा कि मैं उसे पहले से जानती हूँ. कहीं देखा है पहले...एक कनेक्शन सा लगा. ये भी लगा कि वो आर्मी या एयर फ़ोर्स में रहा है. उसकी आँखों के पास चोट का निशान था, कालापन था आँखों के इर्द गिर्द. उसने शोर्ट्स डाल रखे थे और बैग्पैक लेकर कतार में खड़ा था.
मैं सोच ही रही थी कि कहाँ देखा है पर याद नहीं आया. बस में चढ़ते वक़्त उसने सनग्लास्सेस लगा लिए थे...बस आई, हम चढ़े...और फिर प्लेन पर चढ़ी. मेरी सीट आगे से दूसरे नंबर पर ही थी. मेरा बैग थोड़ा ज्यादा भारी हो गया था और कोशिश करने पर भी अपने सर के ऊपर वाले कम्पार्टमेंट पर नहीं डाल पा रही थी मैं. मैंने गहरी सांस ली और सोचा कि एक बार चढ़ा ही दूँगी...उस वक़्त कई लोग और भी चढ़े थे फ्लाईट पर, मेरे रस्ते में खड़े होने से जाने में दिक्कत भी हो रही होगी सबको पर किसी ने एक मिनट रुक कर नहीं कहा कि मैं चढ़ा देता हूँ. और किसी से मदद माँगना शायद मेरी शान के खिलाफ होता...पता नहीं, पर किसी से मदद मांगने में मुझे बड़ी शर्म आती है.
सोचा तो था कि फ्लाईट अटेंडेंट होते हैं, उनको कह दूँगी, पर कोई दिखा नहीं...तो सोचा खुद ही करती हूँ. जैसे ही बैग उठाया, पीछे से आवाज आई, कैन इ हेल्प यू , मैंने बिना मुड़े कहा...यॉ प्लीज और मुड़ के देखती हूँ तो देखती हूँ वही है जिसे देखा था अभी थोड़ी देर पहले. एक सुखद आश्चर्य हुआ और अच्छा लगा...मेरे थैंक यू बोलने पर उसने एकदम आराम से मुस्कुराते हुए कहा, चीयर्स :) बात छोटी सी थी, बहुत छोटी पर मुझे बहुत अच्छा लगा.
भले लोगों से कम ही भेंट होती है, पर जब होती है बड़ा अच्छा लगता है. जैसे जाड़ों के मौसम में कॉफ़ी से गर्माहट आ जाती है, वैसे ही कुछ अच्छे लोगों से मिल कर जिंदगी खुशनुमा सी लगने लगती है. उस अजनबी और उसके जैसे और लोग जिन्होंने मेरी मदद की है, उनसे कुछ कहने के लिए मैंने एक टैग बनाने कि सोची है "message in a bottle" जानती हूँ ये लोग कभी आके मेरा ब्लॉग नहीं पढेंगे पर ये मेरा तरीका है शुक्रिया बोलने का.
"दोस्त, मैं तुम्हें जानती नहीं, पर तुम्हारी एक छोटी सी मदद से काफी देर मुस्कुराती रही मैं...शुक्रिया".
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इन्टरनेट पर एक साईट है जहाँ आप जाकर अजनबियों के लिए अपने मैसेज छोड़ सकते हैं, मुझे काफी अलग सी लगी ये साईट. मुझे लगा कि ऐसी किसी चीज़ की सच में जरूरत है. आप भी देख आइये, किसी को कुछ कहना है तो कह दीजिये. साईट का नाम है -ब्लॉक, आई सॉ यू देयर...एंड आई थॉट यानि मैंने तुम्हे देखा और सोचा. देख के आइये :)
26 May, 2010
ट्रैफिक जाम के बहाने कुछ फंडे
'परम शान्ति' या 'zen' अवस्था में पहुँचने के लिए सबके अलग अलग तरीके हैं. मेरा भी अपना तरीका है, इश्वर को ढूँढने का, तन मन से शांत होने का. ये और बात है कि मैंने इसकी तलाश नहीं की कभी, अपितु परम ज्ञान की तरह ये खुद मेरे सामने चल कर खड़ा हो गया.
मेरा नया ऑफिस घर से १० किलोमीटर दूर है, आना जाना बाइक से करती हूँ. बंगलोर की सडकें एकदम महीन हैं, महँगी साड़ी की कशीदाकारी जैसी, मजाल है कि एक टांका इधर से उधर हो. जाने बनाने वाले ने ऐसी सडकें बनायीं कैसे...उसपर कहीं पर भी स्पीडब्रेकर...ये दर्द वही समझ सकते हैं जो बंगलोर में रह रहे हों, इसलिए बंगलोर में कभी भी दूरी किलोमीटर में नहीं घंटे में बताई जाती है.
तो मेरा ऑफिस लगभग पैंतालिस मिनट से एक घंटे की दूरी पर है. सुबह लगभग पौने नौ में घर से निकलती हूँ और अधिकतर साढ़े नौ बजे के लगभग पहुँच जाती हूँ. ट्राफिक में चलते कुछ मुझे कुछ दुर्लभ ज्ञान प्राप्त हुआ...सोचा आपको भी बताती चलूँ.
- ट्राफिक में बाइक वाले और ऑटो वालों का कोई इमान धरम नहीं होता, ये कभी भी किसी भी दिशा में, कितनी भी तेजी से मुड़ सकते हैं. इनमें भी बाइक पर तो फिर भी थोड़ा भरोसा किया जा सकता है क्योंकि सड़क दिखती है आगे की, और थोड़ा अनुमान लगाया जा सकता है कि किस दिशा में बाइक मुड़ने वाली है. ऑटो वाला किसी इंसान को देख कर, अचानक से बायें मुड़ सकता है...या फिर कभी भी दायें कट सकता है. अब इसमें आप उसको ठोक के तो देखिये, जरा सा रगड़ खा जाने पर ऐसी ऐसी बातें सुनने को मिलेंगी कि बस(अगर उसको पता चल जाता है कि आपको कन्नड़ नहीं आती तो आपको हिंदी में भी गरिया सकता है) नानी, दादी, अम्मा, बाबूजी, सारे यार दोस्त एक साथ याद आ जायेंगे.
- ऑटो वाला आपको कभी भी साइड नहीं देगा, चाहे कितना भी होर्न बजा लें, आपके पास गलत तरफ से ओवेर्टेक करने के अलावा कोई रास्ता नहीं होता. और ऐसे में जब आप ओवेर्टेक कर रहे हो, वो अचानक से बायें भी मुड़ सकता है. कहीं से रुके हुए से अचानक चल सकता है और चलते के साथ एकदम राईट लेन में आ सकता है.
- कुछेक बाइक में रियर व्यू मिरर नहीं होते, ऐसा क्यों होता है मुझे कोई अंदाजा नहीं पर ये वो लोग होते हैं जो किसी भी लेन के नहीं होते, कुछ कुछ कॉलेज के रोमियो की तरह, किसी एक से नहीं बंध सकते. कुछ पैंतालिस डिग्री के कोण पर झुकते हुए ये हर गाड़ी को ओवेर्टेक करते हुए चलते हैं.
- सरकारी बस अपने बस में नहीं रहती...अधिकतर सबसे राईट वाली लेन में चलती है. इसका भी कोई ठिकाना नहीं...इसके ब्रेक लाईट, इंडिकेटर वगैरह के चलने की उम्मीद होना बेमानी है...अगर चलते भी हैं तो गाड़ी के चलने से उनका कोई वास्ता नहीं होता. ये ट्राफिक जाम होने का मुख्य कारण होती है. इससे हमेशा दूर ही रहने की कोशिश करनी चाहिए.
- टाटा सुमो/सफारी/बोलेरो/इत्यादि सवारी गाड़ियाँ, ये टैक्सी सर्विसेस होती हैं. अक्सर इतनी तेज और ऐसे चलती हैं जैसे इन्हें पहुँचने में थोड़ी देर हो गयी तो शहर कहीं भाग जाएगा. इन्हें लगातार होर्न बजाने की बीमारी है, अगर आपने साइड दे दी तो आके आगे वाले से आगे जाने के लिए बजायेंगे.
- पैदल आदमी...ये अपनी जान हथेली पर और मोबाइल हाथ में लेकर चलता है...इनका मोबाइल अक्सर कान के आसपास पाया जाता है. ये प्राणी अक्सर वन वे रोड में दूसरी तरफ देखता हुआ चलता है, सड़क पार करते हुए भी मोबाइल कान से चिपका हुआ रहता है. ये लोग शायद 'व्हाट अन आइडिया सरजी' को बहुत सीरियसली लेते हैं...वाल्क एंड टॉक के चक्कर में किसी दिन चल बसेंगे...
- साइकल वाले...ये या तो भले आदमी होते हैं या गरीब. ये किसी को परेशान नहीं करते, अपनी गति से चलते रहते हैं. इन्हें परेशान करने को सारा कुनबा जुटा रहता है क्या कार, क्या बाइक...सभी इनको होर्न बजा बजा के अहसास दिलाते रहते हैं कि 'सड़क तुम्हारे बाप की नहीं है, हमारे बाप की है'.
ये सब तो हैं इस ड्रामे के किरदार...कोई अगर रह गया तो कृपया याद दिलाएं.
इन सबों के साथ सुबह का सफ़र ऐसे कटता है कि क्या कहें. शुरू के एक हफ्ते जब २० मिनट के रस्ते में एक घंटा लगता था तो बड़ी कोफ़्त होती थी. पर हर रोज का ट्रैफिक देख कर बहुत कुछ ध्यान आता है.
जैसे कि 'भगवान' नाम का कुछ तो है कहीं पर...और ये सब मायाजाल उसी का फैलाया हुआ है. संसार की नश्वरता और अपना छोटापन भी ट्रैफिक को देख कर समझ आता है. मैं तो वाकई मोह माया से ऊपर उठ जाती हूँ, कि कुछ कर लो ऑफिस लेट होना ही होना है...दुनिया की कोई ताकत नहीं है जो टाइम पर ऑफिस पहुंचा दे. ट्रैफिक के महासागर में बस, कार, ट्रक, SUV, MUV, इन सबके बीच हम क्या हैं, एक तुच्छ बाइक पर बैठे छोटे इंसान...जायेंगे जब चल देगा रास्ता.
जिस दिन हमको ये अहसास हो गया कि ट्रैफिक का चलना मेरे हाथ में नहीं है, किसी बड़ी ताक़त के हाथ में है, मेरा तन मन आपस में हारमोनियम बजाने लगा...यानि कि आपस में शांति से रहने लगे दोनों. भगवान भरोसे चलना कभी कभी बड़ा आसान कर देता है चीज़ों को.
अब बंगलोर में १० किलोमीटर के रास्ते में अगर एक भी जगह रेड ट्रैफिक लाईट ना मिले तो भगवान् पर भरोसा तो हो ही जाता है. :)
21 May, 2010
कुणाल के लिए
यकीन करो मुझे तुम्हारी बहुत याद आती है...कई बार तो इस बेतरह कि ऑफिस में बैठे आँखें भर आती हैं अचानक से. पर ये पिछली ऑफिस कि तरह नहीं है कि बाइक उठाये और मिलने चल दिए. ५ मिनट में तुम्हारे ऑफिस के नीचे खड़े हैं और फ़ोन कर रहे हैं, नीचे आ जाओ...तुमको देखने का मन कर रहा है.
वैसे पिछले ऑफिस से इसी तरह पिछले बार जब आये थे हम तो तुमने बहुत डांटा था, कि ऐसे बिना बताये कहीं आया जाया मत करो...चिंता होती है हमको. हम उस बार बिना कुछ बोले वापस आ गए थे, पर हम बहुत रोये थे, चुप चाप ऑफिस के बाथरूम में जाके...फिर आँख पर पानी का छींटा मारे और हमेशा की तरह हंसने और हल्ला करने लगे. क्या करें, हम ऐसे ही हैं...हंसने का दिखावा नहीं होता हमसे...सब कुछ अन्दर रख कर भी आराम से हँस लेते हैं हम.
आजकल तुमको बहुत काम रहता है, इन फैक्ट तुमको पिछले काफी दिनों से बहुत काम रहता है...सुबह, शाम रात, वीकडे वीकेंड हमेशा. पता नहीं कौन सी बात करनी है हमको तुमसे कि बात जैसे दिल के आसपास कहीं फिजिकली फंसी हुयी लगती है. बात से जैसे खून का अवरोध रुक जाता है और दिल को बहुत मेहनत करनी पड़ती है नोर्मल तरीके से चलने के लिए. आखिर शारीर के बाकी हिस्से भी तो अपने हिस्से का खून मांगते हैं.
मुझे आजकल भूख लगने पर भी खाने का मन नहीं करता दिन भर खाली आलतू फालतू बिस्किट, चोकलेट खाती रहती हूँ...क्या मैंने तुमको बताया है कि आजकल हमको डेरी मिल्क अच्छा नहीं लगता है? खाना पता नहीं क्यों हलक के नीचे नहीं उतरता मैंने शायद बहुत दिन से मन भर अच्छे से खाना नहीं खाया है. मुझे हर वक़्त दिल के आसपास एक दर्द जैसा होता रहता है...चुभता, टूटता हुआ दर्द. सांस भी ठीक से नहीं ली जाती है हमसे.
तुम बहुत देर रात को आते हो वापस और उस वक़्त मैं लगभग आधी नींद में होती हूँ, सुबह जब मैं ऑफिस के लिए आती होती हूँ तुम आधी नींद में होते हो. ये आधी आधी बंटी हुयी नींद ना सोने देती है ठीक से ना जगने देती है. मुझे पता नहीं क्यों साहिबगंज का मेरा घर याद आता है, उस घर में बहुत ऊंची छत थी या ऐसा भी हो सकता है कि ढाई साल की बच्ची के हिसाब से वो छत बहुत ऊंची हो. जब मैं वहां रहती थी तो पापा को बहुत कम देख पाती थी, पापा देर रात आते थे और सुबह सुबह चले जाते थे. मुझे उस छोटी उम्र में उस बड़े घर में पापा की बहुत याद आती थी और पापा को देखने का मन करता था.
शाम को ऑफिस से जल्दी घर आ जाती हूँ, आठ बजे से लगभग दस बजे तक कालोनी में यूँ ही टहलती रहती हूँ, घर में लाईट नहीं रहती ना अक्सर इसलिए...उस समय कुछ दोस्तों से बात भी करती हूँ फ़ोन पर, कभी घर भी बात करती हूँ...पर सच में मुझे उस समय तुमसे बात करने का बहुत मन करता है...थोड़ी सी देर के लिए भी. पर उस समय तुम्हारी कॉल होती है तो तुम एक मिनट भी मुझसे बात नहीं कर पाते हो. मुझे उस वक़्त बड़ी शिद्दत से इस बात का अफ़सोस होता है कि मैं एक लड़की हूँ...नहीं तो मैं सिगरेट पीती...वहीँ एक पनवाड़ी की दुकान भी है. पर सिगरेट पीने वाली लड़कियों को 'ईजी' समझ लेते हैं लोग. और मुझे मेरी शाम की वाक् में कोई लफड़ा नहीं चाहिए.
कहा जा सकता है कि सिगरेट पीने कि इत्ती इच्छा है तो घर में क्यों नहीं पी लेते हैं. पर नहीं, सिगरेट पीने का मन नहीं है...मन है कि अँधेरे सुनसान जैसे रास्तों पर टहलते हुए कोई गीत सुनते हुए सिगरेट पी जाए. इस इच्छा का अपने पूरेपन में वजूद है, बाकी एलिमेंट्स के बिना नहीं.
मुझे सच में पूरी जिंदगी कम लगती है तुम्हारे साथ बिताने के लिए. मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ. बहुत.
18 May, 2010
सपने में नास्तिक होना संभव नहीं होता
समंदर सूरज पर कमंद फेंक कर
आसमान पर चढ़ बैठा है
लहर लहर बारिश हो रही है
शहर अँधेरे पानी में डूब गया है
इसी पानी में सूरज भी घुला था
पर उसकी रौशनी कहीं भी नहीं पहुंची है
सारे घर लंगर डाले बैठे हैं
किसी की नींव उठाई नहीं जा सकती अब
थपेड़ों में अचल, शांत, अमूर्त
मोमबत्ती की बुझने वाली लौ में
जलाई जा रही है आखिरी सूखी सिगरेट
जिसके कश लेकर मरना चाहता है कवि
प्रलय के इस वक़्त भी वह नास्तिक है
इश्वर से जीतने पर गर्वोन्मत्त
इच्छा, आशा, क्या प्रेम भी? से मुक्त
गरजते बादल में कौंधती है बिजली
एक क्षण. काली आँखें. रोता बच्चा
कवि को गुजरती बारात याद आती है
जल विप्लव सी सांझ वो काली आँखें
सिन्दूरी सूरज सा लाल जोड़ा
भयावह शोर नगाड़ों का, प्रलय.
नींद टूटती है तो उसके हाथ जुड़े होते हैं
सपने में नास्तिक होना संभव नहीं होता
वो कल्कि अवतार का इंतज़ार करने लगता है
11 May, 2010
विदा
ट्रेन खुल रही है स्टेशन से और आस पास का सारा मंजर धुंधला पड़ता जा रहा है. तेज रफ़्तार में धुंधला होने जैसा धुंधला, मुझे अचनक से याद आता है कि मैं तो खड़ा हूँ स्टेशन पर. दूर जाती हुयी एक खिड़की है, उसमें बैठी जिंदगी हाथ हिला कर मुझे विदा कर रही है...मैं बस देख रहा हूँ. इतना नहीं होता कि रोक लूं...गाड़ी बहुत आगे बढ़ चुकी है. जिंदगी अब गाड़ी के दरवाजे पर खड़ी है उसके दुपट्टे की महक प्लेटफोर्म को गार्डेन में तब्दील कर गयी है. निजामुद्दीन के आगे पटरी घूमती है, गाड़ी मुड़ती है वहां से.
मुझे यहाँ से वो नहीं दिखती है पर उसकी आँखें यही रह गयी हैं उसी तरह जैसे उसका अहसास रह गया है, मेरे जिस्म, मेरी रूह में अभी भी...दिल्ली के भरे हुए प्लेटफोर्म पर किसी को पहली बार तो ट्रेन पर चढाने नहीं आया हूँ पर जिंदगी को यूँ कभी विदा भी तो नहीं किया है. उसने फ़ोन भी तो 'आखिरी वक्त' में किया था...मुझे अकेले जाने में डर लग रहा है मुझे स्टेशन पर छोड़ने आ जाओगे प्लीज...वो अब फोर्मल भी होने लगी थी.
ट्रेन पर चढ़ कर हर एक मिनट में उसने फ़ोन किया था...कहाँ पहुंचे...अभी तक नहीं पहुंचे...किधर से आ रहे हो...दिल्ली के उस भरे प्लेटफोर्म में दुनिया की भीड़ को परे हटाते पहुंचना कुछ आग का दरिया पार करना ही जैसा था, दौड़ता हांफता मैं पहुंचा था साँस फूल रही थी...वो एक हाथ से बोगी का दरवाजा पकड़ के झाँक रही थी, बेचैनी अजीब सी थी उसके चेहरे पर उस दिन. सांस काबू में भी नहीं आई कि वो दौड़ के गले लग गयी, जैसे कहीं नहीं जायेगी जैसे मैं रुकने को कहूँगा तो बिना जिरह किये लौट आएगी. उसका मेरी बाहों में होना ऐसा था जैसे एक लम्हे में मेरी जिंदगी समा गयी हो...दिल्ली के उस भरे प्लेटफोर्म पर हो सकता है लोग देख रहे होंगे, हँस रहे होंगे...उसने कहा नहीं पर कहा कि मुझे लौटा लो...कि मैं नहीं जाना चाहती, कि एक बार कहो तो.
ट्रेन ने आखिरी हिचकी ली सिग्नल हो गया...सब कुछ रफ़्तार पकड़ रहा था...धुंधला होता जा रहा था. उसे मुझे बहुत कुछ कहना था पर उसने कुछ नहीं कहा, उसकी आँखों में इतना पानी था कि कुछ दिखाई नहीं पड़ा...खट खट करती ट्रेन का शोर उसकी हंसी, उसके आँसू सब आपस में मिला दे रहा था. यमुना ब्रिज पर जाती ट्रेन...पल पल दूर जाती हुयी जिंदगी...
वो आखिरी ट्रेन थी या नहीं पता नहीं...पर प्लेटफोर्म एकदम खाली हो गया था. एकदम. मेरे जैसा.
09 May, 2010
मिस यू माँ
दर्द में डूबे डूबे से कुछ लम्हे हैं. अख़बारों पर बिखरी पड़ी मदर्स डे की अनगिन बधाईयाँ हैं...मुस्कुराती हुयी माँ बेटी की तसवीरें देख रही हूँ सुबह से. एक उम्र के बाद हर बेटी अपनी माँ का अक्स हो जाती है. मैंने भी पहले कभी नोटिस नहीं किया था, घर पर सब हमेशा कहते थे की मेरी शकल एकदम पापा जैसी है.
गुजरते वक़्त के साथ आज जब मम्मी मेरे साथ नहीं है, मैं देखती हूँ की वाकई मैं धीरे धीरे अपनी मम्मी का चेहरा होती जा रही हूँ. किन्ही तस्वीरों में, या कभी आईने में खुद को देखती हूँ तो मम्मी दिख जाती है. कभी हंसती हूँ तो लगता है मम्मी भी ऐसे ही हंसती थी. कभी अपनी बातों में अचानक से उसके ख्यालों को पाती हूँ. जा कर भी मम्मी कहीं नहीं गयी है, वो मेरे जैसी थी मैं उसके जैसी हूँ.
मेरी मम्मी मेरी बेस्ट फ्रेंड थी, एक ऐसी दोस्त जिससे बहुत झगडे होते थे मेरे...पर उससे बात किये बिना मेरा दिन कभी पूरा नहीं होता था. कॉलेज से आती थी तो मम्मी से बात करने की इतनी हड़बड़ी रहती थी की खाना नहीं खाना चाहती थी, जब तक उसको दिन भर की कमेंट्री नहीं दे दूं खाना नहीं खाती, ऐसे में मम्मी मेरे पीछे पीछे प्लेट ले के घूमती रहती थी और कौर कौर खिलाती रहती थी. दिल्ली आके भी मम्मी कभी बहुत दिन दूर नहीं रही मुझसे, हर कुछ दिन में अकेले ट्रेन का टिकट कटा के मिलने चली आती थी. और जब वो नहीं रहती थी तो फ़ोन पर दिन भर की कहानी सुना देती थी उसको.
मुझे अपनी मम्मी के जैसा कुछ नहीं आता, ना वैसा खाना बनाना, ना वैसे स्टाइल से बाल बांधना, ना वैसे सिलाई, कढाई, बुनाई...ना बातें...ना उसके जैसा परिवार को एक जैसा समेट के रखना. मैं अपनी मम्मी की परछाई भी नहीं हो पायी हूँ. और सोचती हूँ की अब वो नहीं है हमको सब सिखाने के लिए तो और दुःख होता है. ऐसा कितना कुछ था जो खाली उसको आता था, मैंने किसी और को नहीं देखा करते हुए. उसकी खुद की खोज...वो सब मैं कैसे सीखूं. मैं मम्मी जैसी समझदार और intelligent कैसे हो जाऊं समझ नहीं आता.
किसी भी समस्या में फंसने पर मम्मी के पास हमेशा कोई ना कोई उपाय रहता था, उसकी बातों से कितनी राहत मिलती थी. कभी ये नहीं लगा की अकेले हैं हम. अब जब वो नहीं है तो समझ नहीं आता है की किस्से पूछूं की जिंदगी अगर अजीब लगती है तो ये वाकई ऐसी है या सिर्फ मेरे साथ ऐसा होता है.
जिंदगी में कितनी भी independent हो जाऊं, सब कुछ खुद से कर लूं, महानगर में अकेले जी लूं पर मम्मी तुम्हारी जरूरत कभी ख़तम नहीं होगी. तुम्हारे बिना जीना आज भी उतना ही मुश्किल और तकलीफदेह है.
तुम बहुत याद आती हो मम्मी.
गुजरते वक़्त के साथ आज जब मम्मी मेरे साथ नहीं है, मैं देखती हूँ की वाकई मैं धीरे धीरे अपनी मम्मी का चेहरा होती जा रही हूँ. किन्ही तस्वीरों में, या कभी आईने में खुद को देखती हूँ तो मम्मी दिख जाती है. कभी हंसती हूँ तो लगता है मम्मी भी ऐसे ही हंसती थी. कभी अपनी बातों में अचानक से उसके ख्यालों को पाती हूँ. जा कर भी मम्मी कहीं नहीं गयी है, वो मेरे जैसी थी मैं उसके जैसी हूँ.
मेरी मम्मी मेरी बेस्ट फ्रेंड थी, एक ऐसी दोस्त जिससे बहुत झगडे होते थे मेरे...पर उससे बात किये बिना मेरा दिन कभी पूरा नहीं होता था. कॉलेज से आती थी तो मम्मी से बात करने की इतनी हड़बड़ी रहती थी की खाना नहीं खाना चाहती थी, जब तक उसको दिन भर की कमेंट्री नहीं दे दूं खाना नहीं खाती, ऐसे में मम्मी मेरे पीछे पीछे प्लेट ले के घूमती रहती थी और कौर कौर खिलाती रहती थी. दिल्ली आके भी मम्मी कभी बहुत दिन दूर नहीं रही मुझसे, हर कुछ दिन में अकेले ट्रेन का टिकट कटा के मिलने चली आती थी. और जब वो नहीं रहती थी तो फ़ोन पर दिन भर की कहानी सुना देती थी उसको.
मुझे अपनी मम्मी के जैसा कुछ नहीं आता, ना वैसा खाना बनाना, ना वैसे स्टाइल से बाल बांधना, ना वैसे सिलाई, कढाई, बुनाई...ना बातें...ना उसके जैसा परिवार को एक जैसा समेट के रखना. मैं अपनी मम्मी की परछाई भी नहीं हो पायी हूँ. और सोचती हूँ की अब वो नहीं है हमको सब सिखाने के लिए तो और दुःख होता है. ऐसा कितना कुछ था जो खाली उसको आता था, मैंने किसी और को नहीं देखा करते हुए. उसकी खुद की खोज...वो सब मैं कैसे सीखूं. मैं मम्मी जैसी समझदार और intelligent कैसे हो जाऊं समझ नहीं आता.
किसी भी समस्या में फंसने पर मम्मी के पास हमेशा कोई ना कोई उपाय रहता था, उसकी बातों से कितनी राहत मिलती थी. कभी ये नहीं लगा की अकेले हैं हम. अब जब वो नहीं है तो समझ नहीं आता है की किस्से पूछूं की जिंदगी अगर अजीब लगती है तो ये वाकई ऐसी है या सिर्फ मेरे साथ ऐसा होता है.
जिंदगी में कितनी भी independent हो जाऊं, सब कुछ खुद से कर लूं, महानगर में अकेले जी लूं पर मम्मी तुम्हारी जरूरत कभी ख़तम नहीं होगी. तुम्हारे बिना जीना आज भी उतना ही मुश्किल और तकलीफदेह है.
तुम बहुत याद आती हो मम्मी.
06 May, 2010
कन्फ्यूज्ड सूरज
सूरज बादलों में उलझ के
घर जाने का रास्ता भूल गया है
कंफ्यूज्ड सा सोच रहा है
पश्चिम किधर है
जिस पेड़ से पूछता है
हड़का देता है, जम्हाई लेते हुए
सोने का टाइम हो रहा है
ऊंघ रहे हैं सारे पेड़
रात छुप के खड़ी है
क्षितिज की ओट में
सूरज के कल्टी होते ही
दादागिरी करने आ जायेगी
शाम लम्बी खिंच गयी है
पंछी ओवरटाइम के कारण
भुनभुनाते लौट रहे हैं
ट्रैफिक बढ़ गया है आसमान का
चाँद बहुत देर से
आउट ऑफ़ फोकस था
सीन में एंट्री मारा
फुसफुसा के सिग्नल दिया
डाइरेक्शन मिलते ही
सूरज सर पे पैर रख के भागा
अगली सुबह हाँफते आएगा
बदमाश पेड़ को बिफोर टाइम जगाना जो है.
05 May, 2010
जिंदगी...रिपीट...जिंदगी
बस आज मेरी बातें ख़तम हो गयीं. मैंने सारी कहानियां सुना दी तुमको, हर कविता लिख डाली. जिंदगी की हर याद का पोस्टमार्टम कर डाला. अब कुछ नहीं बचा है कहने को.
और जिंदगी तू ऐसे तंग करना बंद कर, ये तेरी हर वक़्त की खिट खिट से परेशान हो गयी हूँ मैं. अकेला छोड़ दो मुझे...मुझे किसी की बात नहीं सुननी, कोई किताब नहीं पढनी, कोई फिल्म नहीं देखनी...कुछ समझ नहीं आता है मुझे. और इस ना समझने से सर में दर्द हो रहा है और बहुत झुंझलाहट भी हो रही है.
कहीं, कुछ तो नया हो...कोई रंग, कोई पर्दा कोई रास्ता, कोई मौसम. वही सूरज रोज जिदियते धकियाते डुबा देती हूँ की जाओ, बला टली...जिंदगी का एक दिन और कटा.
एक ही दिन में अचानक कभी जिंदगी बहुत लम्बी लगती है तो कभी बहुत छोटी लगती है. किसी भी केस में हड़बड़ी उतनी ही रहती है इस जिंदगी से निकलने की. आध्यात्म मेरे पल्ले कभी नहीं पड़ा, ये उस दुनिया की बातें अधिकतर समझ नहीं आती. मैं अपनेआप को बेहद अकेला और परेशान महसूस करती हूँ. घर लौटते हुए भीगी हुयी बाइक के स्पीड मीटर पर अटका गुलमोहर के फूल की पंखुड़ी सा...अकेला, बेमकसद.
बेसिकली मैं अपनी जड़ें तलाश रही हूँ. हर इंसान का एक घर होता है...ये घर ईट, पत्थर दीवारों से बना हो जरूरी नहीं...कभी कभी किसी की बाहों से भी बना होता है...कभी किसी की आँखों में भी बना होता है. पर एक घर होता है...और इस घर का फिजिकली होना बहुत जरूरी है. ये घर हमारी सोच में या कल्पना में नहीं हो सकता. इस घर में जाने की ख्वाहिश है तो है, उस समय इस घर को वहां होना चाहिए...कैसे होना चाहिए, या होना प्रक्टिकल नहीं है ये सारी बातें मुझे समझ नहीं आती.
आजकल मैं अक्सर थकी और बीमार रहती हूँ.और मुझे ना थकी रहने की आदत है ना बीमार रहने की. मुझे मेरे सवालों के जवाब भी नहीं आते. एक क्वेस्चन पेपर है जिंदगी और मुझे फेल होना है ऐसा एक्साम के बाद लग रहा है. मैंने ऐसा कोई एक्जाम नहीं दिया जिसमें फेल हो गयी हूँ, या फेल होने का डर लगा हो. सबसे परेशानी की बात ये है की मुझे पता भी नहीं है की सवालों के सही जवाब क्या हैं तो मैं अपना स्कोर भी नहीं कैलकुलेट कर पा रही हूँ. अगली जिंदगी की प्रेपरेशन के लिए जाने कितनी देर हो गयी है. क्या लाइफ का भी री-एक्जाम होता है?
जीना बड़ा मुश्किल है यार...जाने लोग कैसे पूरी जिंदगी जी जाते हैं, हमको तो पहाड़ लगती है बची हुयी जिंदगी. बैठे ठाले, चले जा रहे हैं चले जा रहे हैं. थक गए उफ्फ्फ...
और जिंदगी तू ऐसे तंग करना बंद कर, ये तेरी हर वक़्त की खिट खिट से परेशान हो गयी हूँ मैं. अकेला छोड़ दो मुझे...मुझे किसी की बात नहीं सुननी, कोई किताब नहीं पढनी, कोई फिल्म नहीं देखनी...कुछ समझ नहीं आता है मुझे. और इस ना समझने से सर में दर्द हो रहा है और बहुत झुंझलाहट भी हो रही है.
कहीं, कुछ तो नया हो...कोई रंग, कोई पर्दा कोई रास्ता, कोई मौसम. वही सूरज रोज जिदियते धकियाते डुबा देती हूँ की जाओ, बला टली...जिंदगी का एक दिन और कटा.
एक ही दिन में अचानक कभी जिंदगी बहुत लम्बी लगती है तो कभी बहुत छोटी लगती है. किसी भी केस में हड़बड़ी उतनी ही रहती है इस जिंदगी से निकलने की. आध्यात्म मेरे पल्ले कभी नहीं पड़ा, ये उस दुनिया की बातें अधिकतर समझ नहीं आती. मैं अपनेआप को बेहद अकेला और परेशान महसूस करती हूँ. घर लौटते हुए भीगी हुयी बाइक के स्पीड मीटर पर अटका गुलमोहर के फूल की पंखुड़ी सा...अकेला, बेमकसद.
बेसिकली मैं अपनी जड़ें तलाश रही हूँ. हर इंसान का एक घर होता है...ये घर ईट, पत्थर दीवारों से बना हो जरूरी नहीं...कभी कभी किसी की बाहों से भी बना होता है...कभी किसी की आँखों में भी बना होता है. पर एक घर होता है...और इस घर का फिजिकली होना बहुत जरूरी है. ये घर हमारी सोच में या कल्पना में नहीं हो सकता. इस घर में जाने की ख्वाहिश है तो है, उस समय इस घर को वहां होना चाहिए...कैसे होना चाहिए, या होना प्रक्टिकल नहीं है ये सारी बातें मुझे समझ नहीं आती.
आजकल मैं अक्सर थकी और बीमार रहती हूँ.और मुझे ना थकी रहने की आदत है ना बीमार रहने की. मुझे मेरे सवालों के जवाब भी नहीं आते. एक क्वेस्चन पेपर है जिंदगी और मुझे फेल होना है ऐसा एक्साम के बाद लग रहा है. मैंने ऐसा कोई एक्जाम नहीं दिया जिसमें फेल हो गयी हूँ, या फेल होने का डर लगा हो. सबसे परेशानी की बात ये है की मुझे पता भी नहीं है की सवालों के सही जवाब क्या हैं तो मैं अपना स्कोर भी नहीं कैलकुलेट कर पा रही हूँ. अगली जिंदगी की प्रेपरेशन के लिए जाने कितनी देर हो गयी है. क्या लाइफ का भी री-एक्जाम होता है?
जीना बड़ा मुश्किल है यार...जाने लोग कैसे पूरी जिंदगी जी जाते हैं, हमको तो पहाड़ लगती है बची हुयी जिंदगी. बैठे ठाले, चले जा रहे हैं चले जा रहे हैं. थक गए उफ्फ्फ...
30 April, 2010
चाँद रातों के तागे
तेरी तलाश में फिर खुद को खंगाला हमने
लम्हा लम्हा कई यादों को निकाला हमने
दर्द सुलझे कई, उलझे कई धड़कन की तरह
बस खुदी को दिया जख्मों का हवाला हमने
साँस की तरह तेरा नाम हवा में घोला
पर ना चक्खा तेरे होठों का भी प्याला हमने
तेरा घर देखा और देख के मुस्काया किये
चाबी थी पर कभी खोला नहीं ताला हमने
चाँद रातों में तेरी याद के तागे काते
ओढा जाड़ों में हिज्र का वो दुशाला हमने
अब के पहले तुझे भूलूं ऐसा भी मुमकिन था
चाहा भी नहीं, ना दिल को सम्हाला हमने
लम्हा लम्हा कई यादों को निकाला हमने
दर्द सुलझे कई, उलझे कई धड़कन की तरह
बस खुदी को दिया जख्मों का हवाला हमने
साँस की तरह तेरा नाम हवा में घोला
पर ना चक्खा तेरे होठों का भी प्याला हमने
तेरा घर देखा और देख के मुस्काया किये
चाबी थी पर कभी खोला नहीं ताला हमने
चाँद रातों में तेरी याद के तागे काते
ओढा जाड़ों में हिज्र का वो दुशाला हमने
अब के पहले तुझे भूलूं ऐसा भी मुमकिन था
चाहा भी नहीं, ना दिल को सम्हाला हमने
28 April, 2010
मोबाइल में हिंदी ब्लोग्स देखना
नोट: ये एक लम्बी पोस्ट है, जिनको सिर्फ फ़ोन में हिंदी देखने के जुगाड़ में इंटेरेस्ट है, स्क्रोल करके आखिर के पॉइंट्स पढ़ सकते हैं।
--------------------------
इसके लिए इंग्लिश में एक टर्म है"शो ऑफ", तो मैं आज शो ऑफ कर रही हूँ :)
बहुत दिन हो गए थे नया फ़ोन ख़रीदे हुए, अपने फ़ोन से थोड़ी बोर हो गयी हूँ तो सोचा की नया फ़ोन लिया जाए। मेरे पास फ़िलहाल सोनी एरिक्सन का फ़ोन है। फ़ोन खरीदते वक़्त ब्लॉग्गिंग नहीं की थी, और कभी जरूरत नहीं लगी थी फ़ोन पर ब्लॉग देखने या पढने की। मेरे फ़ोन में हिंदी फोंट्स नहीं होने के कारण सिर्फ बक्से नज़र आते हैं किसी भी वेब साईट पर।
अब जो नया फ़ोन खरीदना है, उसमें तीन चीज़ें चाहिए थी...दिखने में अच्छा होना, हिंदी पढने की सुविधा होना और अच्छा कैमरा होना। मैंने सब देख सुन के विवाज़ को पसंद किया। यहाँ से परशानी शुरू हुयी की हिंदी कैसे पढ़ी जाए फ़ोन पर। क्योंकि पहले की तुलना में मेरे ब्लॉग पर मेरा आना जाना बढ़ गया था।
इसके लिए बहुत सी रिसर्च की. पहले सैमसंग कार्बी बहुत पसंद आया था पर यही हिंदी फोंट्स की समस्या के कारण उसके बारे में नहीं सोचा।
रिसर्च के सिलसिले में फ़ोन, ऑपरेटिंग सिस्टम के बारे में भी बहुत कुछ पढ़ा। एक हद तक अंदाजा हो गया कि फ़ोन काम कैसे करता है। बहुत दिन कुणाल को भी परेशान करने में बिताये कि फ़ोन पर फोंट्स डाउनलोड करने का कुछ जुगाड़ बताओ। कोई सीधा और सिम्पल रास्ता नहीं मिला।
मोबाइल भी कंप्यूटर की तरह ओपेरातिंग सिस्टम से चलता है। अधिकतर स्मार्ट फ़ो
न में ऑपरेटिंग सिस्टम है सिम्बियन। लगभग पचास प्रतिशत स्मार्ट फ़ोन सिम्बियन ऑपरेटिंग सिस्टम पर चलते हैं। मैंने सोनी एरिक्सन को मेल लिखा और अपनी समस्या से अवगत कराया। उन्होंने कहा कि वो हिंदी फॉण्ट सपोर्ट नहीं देते हैं, और आगे भी उनका कोई इरादा नहीं है सपोर्ट देने का। तो मैंने सोचा कि सीधे operating सिस्टम वालों से बात की जाए।
सिम्बियन वालों का एक वेबसाइट हैं सिम्बियन आइडिया यहाँ पर वो operating सिस्टम को बेहतर बनाने के लिए लोगों से अपने आइडियास देने को कहते हैं। एक बार जा के देखे, काफी अच्छी साईट है, और आप देख सकते हैं कि लोग वाकई मोबाइल को बेहतर बनाने के लिए कई दिशाओं में सोच रहे हैं।
मैंने भी अपनी प्रोफाइल बनायीं और अपनी बात रखी कि मोबाइल में हिंदी फोंट्स मिलने चाहिए ताकि लोग ब्लोग्स और अन्य वेब साइट्स पढ़ सकें। आप मेरी पोस्ट को यहाँ देख सकते हैं। और अगर आपको लगे कि हिंदी फोंट्स की जरूरत वाकई है तो आप मुझे सपोर्ट कर सकते हैं। मुझे ३० वोट चाहिए ताकि ये आईडिया अगली स्टेज तक जा सके। सिम्बियन पर ज्वाइन करने के लिए यहाँ क्लिक करें। कुल तीन स्टेज हैं, पहले आईडिया पर लोग अपनी सहमति/असहमति देते हैं, दूसरी स्टेज में उसपर एक एक्सपर्ट ग्रुप अपनी राय देता है और तीसरी स्टेज में आईडिया की जरूरत और उसको पूरा करने में आसानी/मुश्किल देखी जाती है और आईडिया पूरा होता है/रिजेक्ट होता है। तो अगर यहाँ हम हिंदी इस्तेमाल करने वाले लोग अपनी राय दें, बताएं कि कैसे हमें हिंदी जरूरत है और बड़ी संख्या में इसकी मांग करें तो सिम्बियन अपने वर्शन के लिए ऐसा कोई सॉफ्टवेर में बदलाव करेगा जिससे किसी भी फ़ोन में हिंदी देखी जा सके।
मुझे कई बार लगता है कि हमें जो जरूरत होती है उसके लिए पूरी कोशिश किये बिना ही हम हार मान जाते हैं। अडजस्ट कर लेते हैं, समझौता कर लेते हैं परिस्थितियों से। पर अगर सच में किसी चीज़ के लिए लगातार कोशिश की जाए तो सफलता मिल के ही रहती है।
ये तो हुआ मोबाइल इस्तेमाल के लिए बदलाव की दिशा में एक लम्बा कदम जो धीरे धीरे शायद सफल होगा। हो सकता है ना भी हो।
फिलहाल के लिए जुगाड़। :)
ओपेरा एक वेब ब्रोव्सेर है, इसे आप इसकी वेबसाईट से डाउनलोड कर सकते हैं। इसकी खासियत है कि इसमें आप किसी भी कंप्यूटर पर हिंदी देख सकते हैं। अगर आपके कंप्यूटर में हिंदी फोंट्स नहीं है तब भी। इसी ब्रावज़र का मिनी वर्शन फ़ोन के लिए ओपेरा मिनी नाम से आता है। आप इसे या तो अपने फ़ोन से डाउनलोड कर सकते हैं, या कंप्यूटर पर डाउनलोड करके अपने फ़ोन पर सेव कर सकते हैं। छोटी सी २६२ किलोबाईट की फाइल है, इसे अपने मोबाइल पर सेव करें और फिर execute कर लें। इसके बारे में गूगल किया और इस पेज से सब कुछ समझ में आया, चूँकि वहां शुक्रिया बोलने का कोई तरीका नहीं है, अपने ब्लॉग पर कह रही हूँ। शुक्रिया अनिन्दा।
------------------------------
मैं स्टेप बाई स्टेप लिखती हूँ
मैं इसे अपनी achivement मानती हूँ। काम जितना मुश्किल हो, उसे करने के बाद उतना ही अच्छा लगता है। उम्मीद है मेरी इत्ती मेहनत से किसी का फायदा होगा।
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इसके लिए इंग्लिश में एक टर्म है"शो ऑफ", तो मैं आज शो ऑफ कर रही हूँ :)
बहुत दिन हो गए थे नया फ़ोन ख़रीदे हुए, अपने फ़ोन से थोड़ी बोर हो गयी हूँ तो सोचा की नया फ़ोन लिया जाए। मेरे पास फ़िलहाल सोनी एरिक्सन का फ़ोन है। फ़ोन खरीदते वक़्त ब्लॉग्गिंग नहीं की थी, और कभी जरूरत नहीं लगी थी फ़ोन पर ब्लॉग देखने या पढने की। मेरे फ़ोन में हिंदी फोंट्स नहीं होने के कारण सिर्फ बक्से नज़र आते हैं किसी भी वेब साईट पर।
अब जो नया फ़ोन खरीदना है, उसमें तीन चीज़ें चाहिए थी...दिखने में अच्छा होना, हिंदी पढने की सुविधा होना और अच्छा कैमरा होना। मैंने सब देख सुन के विवाज़ को पसंद किया। यहाँ से परशानी शुरू हुयी की हिंदी कैसे पढ़ी जाए फ़ोन पर। क्योंकि पहले की तुलना में मेरे ब्लॉग पर मेरा आना जाना बढ़ गया था।
इसके लिए बहुत सी रिसर्च की. पहले सैमसंग कार्बी बहुत पसंद आया था पर यही हिंदी फोंट्स की समस्या के कारण उसके बारे में नहीं सोचा।
रिसर्च के सिलसिले में फ़ोन, ऑपरेटिंग सिस्टम के बारे में भी बहुत कुछ पढ़ा। एक हद तक अंदाजा हो गया कि फ़ोन काम कैसे करता है। बहुत दिन कुणाल को भी परेशान करने में बिताये कि फ़ोन पर फोंट्स डाउनलोड करने का कुछ जुगाड़ बताओ। कोई सीधा और सिम्पल रास्ता नहीं मिला।
मोबाइल भी कंप्यूटर की तरह ओपेरातिंग सिस्टम से चलता है। अधिकतर स्मार्ट फ़ो

सिम्बियन वालों का एक वेबसाइट हैं सिम्बियन आइडिया यहाँ पर वो operating सिस्टम को बेहतर बनाने के लिए लोगों से अपने आइडियास देने को कहते हैं। एक बार जा के देखे, काफी अच्छी साईट है, और आप देख सकते हैं कि लोग वाकई मोबाइल को बेहतर बनाने के लिए कई दिशाओं में सोच रहे हैं।
मैंने भी अपनी प्रोफाइल बनायीं और अपनी बात रखी कि मोबाइल में हिंदी फोंट्स मिलने चाहिए ताकि लोग ब्लोग्स और अन्य वेब साइट्स पढ़ सकें। आप मेरी पोस्ट को यहाँ देख सकते हैं। और अगर आपको लगे कि हिंदी फोंट्स की जरूरत वाकई है तो आप मुझे सपोर्ट कर सकते हैं। मुझे ३० वोट चाहिए ताकि ये आईडिया अगली स्टेज तक जा सके। सिम्बियन पर ज्वाइन करने के लिए यहाँ क्लिक करें। कुल तीन स्टेज हैं, पहले आईडिया पर लोग अपनी सहमति/असहमति देते हैं, दूसरी स्टेज में उसपर एक एक्सपर्ट ग्रुप अपनी राय देता है और तीसरी स्टेज में आईडिया की जरूरत और उसको पूरा करने में आसानी/मुश्किल देखी जाती है और आईडिया पूरा होता है/रिजेक्ट होता है। तो अगर यहाँ हम हिंदी इस्तेमाल करने वाले लोग अपनी राय दें, बताएं कि कैसे हमें हिंदी जरूरत है और बड़ी संख्या में इसकी मांग करें तो सिम्बियन अपने वर्शन के लिए ऐसा कोई सॉफ्टवेर में बदलाव करेगा जिससे किसी भी फ़ोन में हिंदी देखी जा सके।
मुझे कई बार लगता है कि हमें जो जरूरत होती है उसके लिए पूरी कोशिश किये बिना ही हम हार मान जाते हैं। अडजस्ट कर लेते हैं, समझौता कर लेते हैं परिस्थितियों से। पर अगर सच में किसी चीज़ के लिए लगातार कोशिश की जाए तो सफलता मिल के ही रहती है।
ये तो हुआ मोबाइल इस्तेमाल के लिए बदलाव की दिशा में एक लम्बा कदम जो धीरे धीरे शायद सफल होगा। हो सकता है ना भी हो।
फिलहाल के लिए जुगाड़। :)
ओपेरा एक वेब ब्रोव्सेर है, इसे आप इसकी वेबसाईट से डाउनलोड कर सकते हैं। इसकी खासियत है कि इसमें आप किसी भी कंप्यूटर पर हिंदी देख सकते हैं। अगर आपके कंप्यूटर में हिंदी फोंट्स नहीं है तब भी। इसी ब्रावज़र का मिनी वर्शन फ़ोन के लिए ओपेरा मिनी नाम से आता है। आप इसे या तो अपने फ़ोन से डाउनलोड कर सकते हैं, या कंप्यूटर पर डाउनलोड करके अपने फ़ोन पर सेव कर सकते हैं। छोटी सी २६२ किलोबाईट की फाइल है, इसे अपने मोबाइल पर सेव करें और फिर execute कर लें। इसके बारे में गूगल किया और इस पेज से सब कुछ समझ में आया, चूँकि वहां शुक्रिया बोलने का कोई तरीका नहीं है, अपने ब्लॉग पर कह रही हूँ। शुक्रिया अनिन्दा।
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मैं स्टेप बाई स्टेप लिखती हूँ
- यहाँ से अपने फ़ोन के लिए कंप्यूटर पर ओपेरा मिनी डाउनलोड करें। मेनू से अपना फ़ोन सेलेक्ट करें, जैसे नोकिया, सोनी एरिक्सन इत्यादि। ये एक executable फाइल है।
- ओपेरा मिनी फाइल को अपने फ़ोन पर सेव करें। फ़ोन में आप कहीं भी सेव कर सकते हैं। मैंने वेब पेज में सेव किया था।
- फ़ोन में उस फाइल पर क्लिक करें, इससे ओपेरा मिनी आपके फ़ोन में इन्स्टाल हो जायेगा। अधिकतर फ़ोन में ऑप्शन आता है कि आप इसे कहाँ सेव करना चाहते हैं। मैंने applications में सेव किया था। वहां आपको शोर्ट कट मिलेगा ओपेरा ब्रावज़र खोलने का। ये इंग्लिश का "O" लेटर होता है।
- वेब एड्रेस की जगह opera:config टाईप करें। ध्यान दें, इसके पहले http/www नहीं लगायें। एक पन्ना खुलेगा जिसमें Power-User settings लिखा होगा।
- स्क्रोल करके नीचे आयें, पन्ने के आखिर में use bitmap fonts for complex scripts लिखा मिलेगा, उसके आगे no लिखा होगा, उसे क्लिक करके yes कर दें।
- बस...अब कोई भी वेब पेज खोलें। हिंदी में पढ़ सकतें हैं।
मैं इसे अपनी achivement मानती हूँ। काम जितना मुश्किल हो, उसे करने के बाद उतना ही अच्छा लगता है। उम्मीद है मेरी इत्ती मेहनत से किसी का फायदा होगा।
26 April, 2010
पैराशूट से उतरता चाँद
सच को लिखना जितना आसान होता है, उसको जीना उतना ही मुश्किल।
ऐसा ही दर्द के साथ भी होता है।
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एक भाषा है, जिसके कुछ ही शब्द मुझे आते हैं, पर उसके ये शब्द गाहे बगाहे मुझसे टकरा जाते हैं और मैं सोचती रह जाती हूँ कि ये महज इत्तिफाक है या कुछ और। जेऐनयू क्यों मेरी जिंदगी के आसपास यूँ गुंथा हुआ है। ऑफिस से कब्बन पार्क दिखता है, दूर दूर तक फैली हरी चादर पेड़ों की कैनोपी...और इनके बीच लहकता हुआ गुलमोहर। बायीं तरफ स्टेडियम भी। और सामने डूबता सूरज, हर शाम...और अक्सर होती बारिशें।
ऐसा था पार्थसारथी रॉक, जेऐनयू में। सामने दिखता हरा भरा जंगल, और उसके बीच लहकती बोगनविलिया। और दायीं तरफ ओपन एयर थियेटर की सफ़ेद दीवार...
कुछ भी तो नहीं बदला है, सूरज अभी भी वैसे ही हर शाम डूबता है, हर शाम। बस नहीं दिखता है तो चाँद, जेट के पीछे से पैराशूट बाँध कर उतरता हुआ चाँद।
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some lost alphabet tatooes your name in my blood. love can never be skin deep it seems.
ऐसा ही दर्द के साथ भी होता है।
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एक भाषा है, जिसके कुछ ही शब्द मुझे आते हैं, पर उसके ये शब्द गाहे बगाहे मुझसे टकरा जाते हैं और मैं सोचती रह जाती हूँ कि ये महज इत्तिफाक है या कुछ और। जेऐनयू क्यों मेरी जिंदगी के आसपास यूँ गुंथा हुआ है। ऑफिस से कब्बन पार्क दिखता है, दूर दूर तक फैली हरी चादर पेड़ों की कैनोपी...और इनके बीच लहकता हुआ गुलमोहर। बायीं तरफ स्टेडियम भी। और सामने डूबता सूरज, हर शाम...और अक्सर होती बारिशें।
ऐसा था पार्थसारथी रॉक, जेऐनयू में। सामने दिखता हरा भरा जंगल, और उसके बीच लहकती बोगनविलिया। और दायीं तरफ ओपन एयर थियेटर की सफ़ेद दीवार...
कुछ भी तो नहीं बदला है, सूरज अभी भी वैसे ही हर शाम डूबता है, हर शाम। बस नहीं दिखता है तो चाँद, जेट के पीछे से पैराशूट बाँध कर उतरता हुआ चाँद।
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some lost alphabet tatooes your name in my blood. love can never be skin deep it seems.
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