समेट लो ना...
ओ गंगा! अपना किनारायूं ही अंजुरी में भर कर खेलती रहूंगी
संकल्पों का खेल मैं अनगिन दिनों तक
धारा उड़ेलती अंजुरी से
नादान सी ख्वाहिशें पालती रहूँगी
घरौंदे बनाती रहूंगी...और बिलखती रहूंगी
ओ गंगा समेट लो अपना किनारा तुम...कि बह जाएँ बचपन के सपने
तुम्हारी अठ्खेलियों में
कहते हैं मोक्ष मिलता है तुम्हारे पानियों में
कि शायद मेरे सपनो को भी राहत मिल जाए
ओ गंगा इसलिए समेट लो अपना किनारा तुम...
कि अब भी ढूँढती हूँ
रेत पर मैं खुशियों के निशां
मैं अब भी कागजों कि कश्तियाँ देती हूँ बच्चों को
औरअब भी उनके डूब जाने पर उदास होती हूँ
ओ गंगा समेट लो अपना किनारा तुम...
कि जब भी डूबता है सूरज
और लाल हो जाता है पश्चिमी किनारा
यूं लगता है किसी ने फ़िर से कोई लाश बहा दी है
किसी ने फ़िर कोई जुर्म किया है...चुपके से
ओ गंगा समेट लो अपना किनारा तुम...
या कि एक बार आओ...साथ बहते हैं