12 March, 2008

ओ गंगा

समेट लो ना...
ओ गंगा! अपना किनारा
यूं ही अंजुरी में भर कर खेलती रहूंगी
संकल्पों का खेल मैं अनगिन दिनों तक
धारा उड़ेलती अंजुरी से
नादान सी ख्वाहिशें पालती रहूँगी
घरौंदे बनाती रहूंगी...और बिलखती रहूंगी
ओ गंगा समेट लो अपना किनारा तुम...


कि बह जाएँ बचपन के सपने
तुम्हारी अठ्खेलियों में
कहते हैं मोक्ष मिलता है तुम्हारे पानियों में
कि शायद मेरे सपनो को भी राहत मिल जाए
ओ गंगा इसलिए समेट लो अपना किनारा तुम...

कि अब भी ढूँढती हूँ

रेत पर मैं खुशियों के निशां

मैं अब भी कागजों कि कश्तियाँ देती हूँ बच्चों को

औरअब भी उनके डूब जाने पर उदास होती हूँ

ओ गंगा समेट लो अपना किनारा तुम...

कि जब भी डूबता है सूरज

और लाल हो जाता है पश्चिमी किनारा

यूं लगता है किसी ने फ़िर से कोई लाश बहा दी है

किसी ने फ़िर कोई जुर्म किया है...चुपके से

ओ गंगा समेट लो अपना किनारा तुम...

या कि एक बार आओ...साथ बहते हैं

6 comments:

  1. ओह ! Beautiful Boss.
    "या कि एक बार आओ...साथ बहते हैं"
    क्या बात है !

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  2. बहुत प्यारी रचना है। एक बच्चे की सोच है मेरे हिसाब से। एक मासूम दिल ही यह सोच सकता है। लिखते रहिए।

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  3. सुन्दर ! परन्तु...
    गंगा से कहिये ना समेटे अपना किनारा
    निर्बाध सी बहती ही रहे उसकी धारा ।
    घुघूती बासूती

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  4. bahut khoob aapne to mujhe pehlee hee baar mein prabhavit kar diya.

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  5. बहुत ही अच्छी कविता है . मेरे विचार से कविता की अन्तिम पंक्ति ही इसका शीर्षक होना चाहिए था . और हाँ अजय झा जी से मैं भी सहमत हूँ कि आप गंगा से किनारा समेटने का आग्रह न करें . गंगा तो ऐसे ही सिमटती जा रही है.
    वरुण राय

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