प्रेम की परिभाषा उन शब्दों से बनती हैं जो हमने जिया होता है। किताबों में पढ़ लेने से चीज़ें हमारी नहीं हो जाती हैं। बहुत कुछ क़िस्से कहानियों की बात होती है। ज़िंदगी का उससे दूर दूर तक कोई सामना नहीं होता।
बिहार के जिस छोटे से शहर में मेरा बचपन बीता और लड़कपन की दहलीज़ देखी, वहाँ स्पर्श अलभ्य था। वर्जित। गुनाह की कैटेगरी का। बचपन शायद फ़िफ़्थ स्टैंडर्ड तक था क्यूँकि उसमें कबड्डी, बुढ़िया-कबड्डी, छुआ छुई, डेंगा-पानी, लुक्का-छुप्पी जैसे कई खेल थे जो छुए जाने के इर्द गिर्द ही थे। चोर को हमेशा एक स्पर्श ही चुराना होता था, उसके बाद वो चोर नहीं रहता। जो छू लिया जाता, वो चोर हो जाता। एक दिन अचानक से मुहल्ले के सब बच्चे पढ़ाई को सीरीयस्ली लेने लगे और शाम को खेलने जाना बंद हो गया। तब मोबाइल तो था नहीं, ना घड़ी सब कोई हाथ में पहनते थे। अँधेरा हो जाने के पहले घर आ जाना होता था बस।
इसके बाद स्पर्श हमारे जीवन से ग़ायब हो गया। स्कूल के खेल भी पिट्टो और बोमपास्टिंग जैसे गेंद वाले हो गए, जिसमें सब एक दूसरे से भागते फिरते। कितकित में भी किसी को छूना नहीं होता था। मुझे अपनी दोस्त का हाथ पकड़ के चलना अच्छा लगता था, तब भी। लेकिन ये बच्चों वाली हरकत थी। और हम अब बड़े हो गए थे। किसी को छूना सिर्फ़ जन्मदिन पर हैपी बर्थ्डे बोलते हुए हाथ मिलाने भर रह गया था।
प्यार ऐसे किसी समय चुप दस्तक देता है।
’96 देखते हुए कई सारे सीन पर एकदम कलेजा चाक हो गया है। ख़ूब रोयी हूँ। आँसू से। ऐसा ही एक सीन है जिसमें वे बाइस साल बाद पहली बार मिल रहे हैं। राम बुफे से प्लेट लगा कर लाया है जानू के लिए। जानू ने खाना खाया और फिर प्लेट राम को दे कर कहती है, तुम खा लो अब। वो जेब से निकाल के पेपर नैपकिन देता है उसे और प्लेट उसके हाथ से ले लेता है। स्लो मोशन में प्लेट में चम्मच डाल कर फ़्राइड राइस उठाता है…स्लो मोशन में चम्मच मुँह में लेकर खाता है…संगीत बताता है कि ये लम्हा ख़ास है। हम जानते हैं कि ये लम्हा ख़ास है।
इसके दो हिस्से हैं। पहला तो है जूठा का कॉन्सेप्ट - हमारे यहाँ किसी को अपनी प्लेट से खाना खाने नहीं देते या बोतल या ग्लास से पानी नहीं पीने देते। क्यूँकि वो जूठा होता है। हमें उन लोगों से घिन भी आती है जो किसी का भी जूठा खा लेते हैं। ये किसी तरह के हायजीन - साफ़ सफ़ाई से जुड़ी हुयी चीज़ होती है। जूठे हाथ से खाना परोस भी नहीं सकते, भले ही आपने कुछ सूखा जैसे कि ब्रेड खाया हो। किसी का जूठा खाना बहुत क़रीबी होने की पहचान होता है। एक ही थाली में खाना खाना सिर्फ़ परिवार के लोगों के साथ होता है या बहुत क़रीबी दोस्तों का। दाँत काटी रोटी का रिश्ता जैसे मुहावरे भी हैं। अधिकतर घरों में भाई-बहन अक्सर एक ही थाली में खाते हैं। कहीं कहीं देवरानी-जेठानी भी।
दूसरा हिस्सा है, प्यार में किसी का जूठा खाने या पीने की इच्छा होना। इसे वही समझ सकता है जिसने कभी बिसरते स्पर्श को छू लेने की ख़ातिर कुछ ऐसा महसूस किया हो जो हर परिभाषा से बचकाना है। नल से किसी के पानी पीने के बाद नल बिना धोए उस नल से पानी पीना। अपनी पानी की बॉटल से उसे पानी पी लेने को देना। कि अधिकतर बच्चों को पानी की बोतल बिना होंठ से लगाए…यानी, ऊपर से पीना नहीं आता। (मुझे तो अभी तक नहीं आता। मैं हमेशा इसलिए अपनी बॉटल लिए चलती हूँ)। किसी की जूठी चम्मच से खाना खा लेना। और अक्सर ये सबसे ज़रा सा छुप कर, अपराध भाव के साथ करना। हमारे कई छोटे छोटे गुनाह हैं, जो इतने छोटे हैं कि किसी से कहे नहीं गए। उनकी माफ़ी नहीं माँगी गयी। चोरी से अपने क्रश की वॉटरबॉटल से एक घूँट पानी पी लेने में जो आत्मा को तृप्ति मिलती है, वो शब्दों में बयान नहीं की जा सकती।
हम सपने में भी उसे छू लेने का ख़याल नहीं करते। उसकी छुई चीज़ों को छू लेना चाहते। उसकी नोट्बुक। उसकी क़लम। उसके कंधे से उतारा गया स्कूल बैग। उसका रूमाल हमारे कल्पना में आकाशकुसुम था। कभी उसका रूमाल चुरा लेने के सपने देखा करते थे, जानते हुए कि हम में इतनी हिम्मत है ही नहीं। स्क्रैप बुक में उसके लिखे शब्दों को पढ़ने के पहले उस पन्ने पर हथेली रख कर महसूसना, कि उसने यहाँ हाथ रखा होगा।
मैं दिल्ली अपनी पहली इंटर्नशिप पर गयी थी। कॉलेज के फ़ाइनल ईयर में। वहाँ मेरा जो बॉस था, उसने दूसरे या तीसरे दिन खाना खाने के लिए चम्मच बढ़ा दिया। मैं कभी नहीं भूली कि प्लेट में राजमा चावल था और उसने मुझे अपनी प्लेट में साथ में खाना खाने को कहा था। शायद उसकी यही बात उसे मेरे लिए ज़िंदगी भर ख़ास बना गयी। मेरे घर में पापा, भाई और मैं एक थाली में खाते थे। मैंने बहुत कम वक़्त अकेले खाना खाया होगा। लेकिन घर के बाहर मैं किसी के साथ खाना कभी शेयर नहीं करती थी। न अपनी बॉटल से किसी को पानी पीने देती थी। अब भी नहीं देती हूँ। किसी की जूठी बॉटल से पानी नहीं पी सकती।
किसी की ड्रिंक का एक सिप ले कर देखना। या किसी से गुज़ारिश करना कि मेरी कॉफ़ी का एक सिप ले लो। चलते हुए किसी का हाथ नहीं, उसकी शर्ट स्लीव पकड़ कर चलना। R माधवन की फ़िल्म, रहना है तेरे दिल में का सीन है जिसमें वो उस लड़की का जूठा ग्लास लेकर आता है… सारे दोस्त उसकी बहुत खिल्ली उड़ाते हैं…लेकिन जिन्होंने ऐसा कुछ जिया है, वे समझते हैं ऐसी बारीकी। ’96 फ़िल्म में जब वो राम के घर जाते हैं, राम जानू के लिए तौलिया और नया साबुन लेकर आता है। वो अपनी कल्पना में ये नहीं सोच सकता कि जानू उस साबुन से नहा सकती है जो राम इस्तेमाल कर चुका है।
किसी किरदार को रचते हुए बहुत सारी छोटी छोटी बारीकियों पर ध्यान देने से फ़िल्म ऐसी बनती है कि देखने वाला उससे जुड़ जाता है। क्यूँकि कई सारे लम्हे हमने ठीक ठीक ऐसे ही जिए हैं। कभी न कभी। जानकी और रामचंद्रन… पूरी फ़िल्म में एक दूसरे को एक बार hug तक नहीं करते। बस, जब जानकी राम के स्टूडेंट्स को झूठ कहानी सुना रही है कि कैसे वो जानकी से मिलने आया था और वो दौड़ती हुयी आयी थी और कुछ कह नहीं पायी थी, बस उसके गले लग गयी थी। बाइक पर बैठती है तो कैसे सिमट कर बैठती है। गियर पर हाथ रखती है बस...ये कितना छोटा सा स्पर्श है। सहेजने को। जाने के पहले एयरपोर्ट पर उसकी बाँह पकड़ती है। गले लग के रोती नहीं। हथेलियों से उसकी आँखें बंद करती है बस।
फ़िल्म हिंदी में डब हुयी है और जैसा कि अक्सर होता है, अनुवाद में कई सारी बारीकियाँ खो गयी हैं। फ़िल्म का जो सबसे सुंदर, प्यारा और दिल को छू लेने वाला गाना है…उसकी जगह एक जम्प-कट है। तमिल वाली फ़िल्म देखने के बाद अगर आप हिंदी देखेंगे तो धोखा लगेगा। इरविंग थीवै…लूप में।
इतनी खूबसूरत समीक्षा लिखी है कि देखने का मन हो गया है ...
ReplyDeleteबशीर बद्र ने एक जगह लिखा है- 'अच्छा शेर वो हो है जिसे पढ़कर अपना कुछ याद आने लगता है, बुरा शेर पढ़कर कुछ याद नही आता'
ReplyDeleteजाने किन किन गलियों में वापस घुमा लाया आपका ये लेख।
96 बहुत खूबसूरत फ़िल्म है। मैंने भी देखी है। आपने बेहतरीन समीक्षा लिखी है।
ReplyDelete