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31 March, 2021

'96 not a review... but the feels, जानलेवा.

हर चीज़ की एक क़ीमत होगी। ये रुपयों में हो, ज़रूरी नहीं, कभी कभी समय भी बहुत मुश्किल से मिलता है। और कुछ चीजें समय माँगती हैं। होली के दो दिन पहले, मैंने बहुत दिन बाद एक फ़िल्म देखी। वो भी पूरी एक सिटिंग में। सुबह के पाँच साढ़े पाँच बज गए सोते सोते। फ़िल्म देखना तो बहुत अच्छा लगा लेकिन अगला दिन पूरा ही लगभग बर्बाद हो गया। मैं इतनी थकी हुई थी कि कुछ और कर नहीं साक़ी। रंग ख़रीदने थे, पिचकारी। होली के लिए और भी कुछ घर का राशन वग़ैरह लाना था।

फ़िल्म का नाम है ‘96। सिम्पल सी फ़िल्म है। लेकिन ऐसे लम्हे जुड़े हैं कि एक के बाद एक सीधे दिल पर चोट लगती जी जाती है। बाद के समय में मैं जितनी मुखर रही प्रेम को लेकर, ये इमैजिन करना मुश्किल होता है कि पहली बार कोई अच्छा लगा था तो उससे कुछ भी कहना कितना मुश्किल था। फिर छोटे शहरों में किसी के प्रति कुछ महसूस करना यानी आपके बिगड़ने के दिन आ गए। चाहे कितने भी अच्छे मार्क्स आ जाएँ, डाँट तो खूब पड़ेगी ही अगर घर में बात पता चली तो। स्कूल में बाक़ी बच्चे चिढ़ाएँगे, सो अलग। पहली बार कोई अच्छा लगता है तो हम बहुत कमजोर सा महसूस करते हैं, क्यूँकि चीजें हमारे हाथ से एकदम निकल जाती हैं। उसका एक नज़र देखना, उसका राह चलते मिल जाना या कि कभी क्लास में कॉपी देते हुए ज़रा सा हाथ छू भर जाना। कितना मुश्किल होता है उससे कुछ भी कहना।
उन दिनों कहाँ सोचा था कि फ़ेस्बुक या Orkut जैसी कोई चीज होगी और हम बाद में मिलेंगे भी। तब तो ऐसा ही लगा था कि अब शायद ज़िंदगी में फिर कभी भी नहीं मिलेंगे। गर्मी की छुट्टियाँ कितनी बुरी लगती थीं। सारी छुट्टियाँ बुरी लगती थीं। लेकिन सबसे बुरा लगता था कि जो हमें इतना पसंद है, उसे हम रत्ती भर भी नहीं पसंद। उस समय का हिला हुआ कॉन्फ़िडेन्स वापस आने में कितना वक़्त लग गया।
फ़िल्म देखते हुए मुझे खूब रोना आया। लगभग पूरी फ़िल्म में ही। इस तरह किसी के लिए कुछ महसूस करना और न कह पाना। उस उम्र में कितना दुखता है, जिसपर बीती है, उसे ही मालूम होगा। तब तो ये भी नहीं समझ में आता है कि प्यार अभी कई बार और होगा। इतनी समझ होती तो फिर भी कम दुखता, उस वक्त भी। फ़िल्म देखते हुए मैं एकदम से उस चौदह पंद्रह साल की उम्र में थी और शायद इसलिए इतना रोना आया कि आयडेंटिफ़ाई कर पा रही थी किरदार से। छोटी छोटी चीजों से बुनी हुई फ़िल्म है। डिटेलिंग कमाल की है। पानी के नल के नीचे हाथ लगा कर पानी पीना, पानी पीने के बाद नल को धोना ऐसी चीजें हैं जो हम सबने की हैं, अपने 90s में।
फ़िल्म में गाने भी बहुत सुंदर हैं। बैक्ग्राउंड म्यूज़िक भी। फ़िल्म देखने के बाद तमिल थोड़ा सीखने का भी मन किया। हालाँकि तमिल या कभी कभी मलयालम देखते हुए भी, कुछ शब्द तो समझ आ ही जाते हैं क्यूँकि संस्कृत के शब्द होते हैं। जैसे कि कन्नड़ में पानी को नीर बोलते हैं। कुछ मोमेंट्स पर ऐसे शब्द भी आए, ऐसे मोमेंट्स भी आए कि लगा कि इतना सीधे असर कैसे कर सकती है कोई चीज़। किसी के गले तक न लगना। किसी का हाथ तक न पकड़ना। और फिर भी इतना प्यार करना। क्या पागलपन है। क्या बेवक़ूफ़ी है। बचपना इसी को कहते हैं।
कुछ साल पहले अपने पहले क्रश से मिली थी। एक कॉफ़ी शॉप में। यूँ उसे बैंगलोर आए हुए काफ़ी टाइम भी हो गया था, उसने एक आध बार बोला भी मिलने को। लेकिन मैंने कभी हाँ नहीं कहा। उस दिन पता नहीं क्या मूड हुआ, उसको बोले कि मिलते हैं। बोलने के दस मिनट बाद ही लगा कि बेकार बोल दिए। फिर फ़ोन करके बोले कि रहने दो, तो बोला कि अब तो हम आधे रास्ते आ गए हैं। हम उसको बोले कि मिलते हैं, उसी समय सीधे लैप्टॉप बंद किया, बॉस को बोला कुछ ज़रूरी काम है और निकल गया। हम हड़बड़ में जींस टी शर्ट पहन के नहीं चले गए। साड़ी पहने। एक सुंदर सी फूलों वाले प्रिंट की ऑफ़ वाइट साड़ी थी। जूड़ा बनाया, घर से निकलते हुए दरवाज़े पर खिले फूल दिखे, तोड़ कर बाल में बोगनविला के फूल लगा लिए।
वो सर्प्राइज़्ड था। उसने सोचा नहीं था मैं साड़ी पहनूँगी। उन दिनों मैं अक्सर साड़ी पहना करती थी। घर से बाहर जाने के लिए तो अधिकतर ही। उसे कॉफ़ी नहीं पसंद थी, लेकिन बोला तुम्हारे पसंद की पी लेते हैं। दालचीनी वाली कॉफ़ी। पी कर बोला, कॉफ़ी नहीं अच्छी लगती है, पर ये वाली लग रही है। हम काफ़ी देर बात करते रहे। उस दिन पहली बार रियलाइज हुआ कि हम अच्छे दोस्त हुआ करते थे एक टाइम, लेकिन जब से उसपर क्रश हुआ था, हमारी बातचीत तक़रीबन कभी नहीं हुई। उसके बाद सीधे उस दिन मिले और बात कर रहे थे। खूब सारी बातें। ज़िंदगी, मुश्किलें, यार-दोस्त। बहुत कुछ। लगा कि प्यार के कारण एक अच्छा दोस्त खो गया था। लेकिन मालूम तब भी था कि प्यार में होने के कारण आगे कभी दोस्ती हो भी नहीं पाएगी। दिल जो होता है कमबख़्त, कभी नॉर्मल नहीं होता है पूरा पूरा। हमेशा उसके होने पर थोड़ा सा तेज धड़कता ही है।
प्यार में होने की क़ीमत अक्सर दोस्ती होती है। हमारे यहाँ इसलिए अधिकतर लोग डरते हैं। कि एक अच्छा दोस्त खो बैठेंगे। लेकिन उसके लिए जिस तरह से हम सोचते हैं, बिना उसकी ज़िंदगी में मौजूद रहे भी, उसकी कोई क़ीमत तो नहीं होती। किसी को दुआ में हमेशा रखते हैं...
'96 ग़ज़ब फ़िल्म है। आप देखिए। शायद आपको पसंद आएगी। बाक़ी हमारा क्या है, ऐसा कुछ होता है जिसका क़िस्सा न बनता हो हमारी ज़िंदगी में। हाँ हो सके तो तमिल में देखिएगा, अंग्रेज़ी सब्टायटल्ज़ के साथ। हिंदी में डबिंग में कई सारी बारीकियाँ ग़ायब हो गयी हैं।
🙂 समय मिले तो फिर सुनाएँगे।


30 March, 2021

जूठा

प्रेम की परिभाषा उन शब्दों से बनती हैं जो हमने जिया होता है। किताबों में पढ़ लेने से चीज़ें हमारी नहीं हो जाती हैं। बहुत कुछ क़िस्से कहानियों की बात होती है। ज़िंदगी का उससे दूर दूर तक कोई सामना नहीं होता। 


बिहार के जिस छोटे से शहर में मेरा बचपन बीता और लड़कपन की दहलीज़ देखी, वहाँ स्पर्श अलभ्य था। वर्जित। गुनाह की कैटेगरी का। बचपन शायद फ़िफ़्थ स्टैंडर्ड तक था क्यूँकि उसमें कबड्डी, बुढ़िया-कबड्डी, छुआ छुई, डेंगा-पानी, लुक्का-छुप्पी जैसे कई खेल थे जो छुए जाने के इर्द गिर्द ही थे। चोर को हमेशा एक स्पर्श ही चुराना होता था, उसके बाद वो चोर नहीं रहता। जो छू लिया जाता, वो चोर हो जाता। एक दिन अचानक से मुहल्ले के सब बच्चे पढ़ाई को सीरीयस्ली लेने लगे और शाम को खेलने जाना बंद हो गया। तब मोबाइल तो था नहीं, ना घड़ी सब कोई हाथ में पहनते थे। अँधेरा हो जाने के पहले घर जाना होता था बस। 


इसके बाद स्पर्श हमारे जीवन से ग़ायब हो गया। स्कूल के खेल भी पिट्टो और बोमपास्टिंग जैसे गेंद वाले हो गए, जिसमें सब एक दूसरे से भागते फिरते। कितकित में भी किसी को छूना नहीं होता था। मुझे अपनी दोस्त का हाथ पकड़ के चलना अच्छा लगता था, तब भी। लेकिन ये बच्चों वाली हरकत थी। और हम अब बड़े हो गए थे। किसी को छूना सिर्फ़ जन्मदिन पर हैपी बर्थ्डे बोलते हुए हाथ मिलाने भर रह गया था। 


प्यार ऐसे किसी समय चुप दस्तक देता है। 


’96 देखते हुए कई सारे सीन पर एकदम कलेजा चाक हो गया है। ख़ूब रोयी हूँ। आँसू से। ऐसा ही एक सीन है जिसमें वे बाइस साल बाद पहली बार मिल रहे हैं। राम बुफे से प्लेट लगा कर लाया है जानू के लिए। जानू ने खाना खाया और फिर प्लेट राम को दे कर कहती है, तुम खा लो अब। वो जेब से निकाल के पेपर नैपकिन देता है उसे और प्लेट उसके हाथ से ले लेता है। स्लो मोशन में प्लेट में चम्मच डाल कर फ़्राइड राइस उठाता हैस्लो मोशन में चम्मच मुँह में लेकर खाता हैसंगीत बताता है कि ये लम्हा ख़ास है। हम जानते हैं कि ये लम्हा ख़ास है। 


इसके दो हिस्से हैं। पहला तो है जूठा का कॉन्सेप्ट - हमारे यहाँ किसी को अपनी प्लेट से खाना खाने नहीं देते या बोतल या ग्लास से पानी नहीं पीने देते। क्यूँकि वो जूठा होता है। हमें उन लोगों से घिन भी आती है जो किसी का भी जूठा खा लेते हैं। ये किसी तरह के हायजीन - साफ़ सफ़ाई से जुड़ी हुयी चीज़ होती है। जूठे हाथ से खाना परोस भी नहीं सकते, भले ही आपने कुछ सूखा जैसे कि ब्रेड खाया हो। किसी का जूठा खाना बहुत क़रीबी होने की पहचान होता है। एक ही थाली में खाना खाना सिर्फ़ परिवार के लोगों के साथ होता है या बहुत क़रीबी दोस्तों का। दाँत काटी रोटी का रिश्ता जैसे मुहावरे भी हैं। अधिकतर घरों में भाई-बहन अक्सर एक ही थाली में खाते हैं। कहीं कहीं देवरानी-जेठानी भी। 


दूसरा हिस्सा है, प्यार में किसी का जूठा खाने या पीने की इच्छा होना। इसे वही समझ सकता है जिसने कभी बिसरते स्पर्श को छू लेने की ख़ातिर कुछ ऐसा महसूस किया हो जो हर परिभाषा से बचकाना है। नल से किसी के पानी पीने के बाद नल बिना धोए उस नल से पानी पीना। अपनी पानी की बॉटल से उसे पानी पी लेने को देना। कि अधिकतर बच्चों को पानी की बोतल बिना होंठ से लगाएयानी, ऊपर से पीना नहीं आता। (मुझे तो अभी तक नहीं आता। मैं हमेशा इसलिए अपनी बॉटल लिए चलती हूँ) किसी की जूठी चम्मच से खाना खा लेना। और अक्सर ये सबसे ज़रा सा छुप कर, अपराध भाव के साथ करना। हमारे कई छोटे छोटे गुनाह हैं, जो इतने छोटे हैं कि किसी से कहे नहीं गए। उनकी माफ़ी नहीं माँगी गयी। चोरी से अपने क्रश की वॉटरबॉटल से एक घूँट पानी पी लेने में जो आत्मा को तृप्ति मिलती है, वो शब्दों में बयान नहीं की जा सकती। 


हम सपने में भी उसे छू लेने का ख़याल नहीं करते। उसकी छुई चीज़ों को छू लेना चाहते। उसकी नोट्बुक। उसकी क़लम। उसके कंधे से उतारा गया स्कूल बैग। उसका रूमाल हमारे कल्पना में आकाशकुसुम था। कभी उसका रूमाल चुरा लेने के सपने देखा करते थे, जानते हुए कि हम में इतनी हिम्मत है ही नहीं। स्क्रैप बुक में उसके लिखे शब्दों को पढ़ने के पहले उस पन्ने पर हथेली रख कर महसूसना, कि उसने यहाँ हाथ रखा होगा। 

मैं दिल्ली अपनी पहली इंटर्नशिप पर गयी थी। कॉलेज के फ़ाइनल ईयर में। वहाँ मेरा जो बॉस था, उसने दूसरे या तीसरे दिन खाना खाने के लिए चम्मच बढ़ा दिया। मैं कभी नहीं भूली कि प्लेट में राजमा चावल था और उसने मुझे अपनी प्लेट में साथ में खाना खाने को कहा था। शायद उसकी यही बात उसे मेरे लिए ज़िंदगी भर ख़ास बना गयी। मेरे घर में पापा, भाई और मैं एक थाली में खाते थे। मैंने बहुत कम वक़्त अकेले खाना खाया होगा। लेकिन घर के बाहर मैं किसी के साथ खाना कभी शेयर नहीं करती थी। अपनी बॉटल से किसी को पानी पीने देती थी। अब भी नहीं देती हूँ। किसी की जूठी बॉटल से पानी नहीं पी सकती। 


किसी की ड्रिंक का एक सिप ले कर देखना। या किसी से गुज़ारिश करना कि मेरी कॉफ़ी का एक सिप ले लो। चलते हुए किसी का हाथ नहीं, उसकी शर्ट स्लीव पकड़ कर चलना। R माधवन की फ़िल्म, रहना है तेरे दिल में का सीन है जिसमें वो उस लड़की का जूठा ग्लास लेकर आता हैसारे दोस्त उसकी बहुत खिल्ली उड़ाते हैंलेकिन जिन्होंने ऐसा कुछ जिया है, वे समझते हैं ऐसी बारीकी। ’96 फ़िल्म में जब वो राम के घर जाते हैं, राम जानू के लिए तौलिया और नया साबुन लेकर आता है। वो अपनी कल्पना में ये नहीं सोच सकता कि जानू उस साबुन से नहा सकती है जो राम इस्तेमाल कर चुका है। 


किसी किरदार को रचते हुए बहुत सारी छोटी छोटी बारीकियों पर ध्यान देने से फ़िल्म ऐसी बनती है कि देखने वाला उससे जुड़ जाता है। क्यूँकि कई सारे लम्हे हमने ठीक ठीक ऐसे ही जिए हैं। कभी कभी। जानकी और रामचंद्रनपूरी फ़िल्म में एक दूसरे को एक बार hug तक नहीं करते। बस, जब जानकी राम के स्टूडेंट्स को झूठ कहानी सुना रही है कि कैसे वो जानकी से मिलने आया था और वो दौड़ती हुयी आयी थी और कुछ कह नहीं पायी थी, बस उसके गले लग गयी थी। बाइक पर बैठती है तो कैसे सिमट कर बैठती है। गियर पर हाथ रखती है बस...ये कितना छोटा सा स्पर्श है। सहेजने को। जाने के पहले एयरपोर्ट पर उसकी बाँह पकड़ती है। गले लग के रोती नहीं। हथेलियों से उसकी आँखें बंद करती है बस। 


फ़िल्म हिंदी में डब हुयी है और जैसा कि अक्सर होता है, अनुवाद में कई सारी बारीकियाँ खो गयी हैं। फ़िल्म का जो सबसे सुंदर, प्यारा और दिल को छू लेने वाला गाना हैउसकी जगह एक जम्प-कट है। तमिल वाली फ़िल्म देखने के बाद अगर आप हिंदी देखेंगे तो धोखा लगेगा। इरविंग थीवैलूप में। 



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