Everything is replaceable. Well, almost.
Heisenberg uncertainty principle में एक बिल्ली होती है जो एक ही समय पर मरी हुयी या ज़िंदा दोनों हो सकती है। दो सम्भावनाएँ होती हैं। इसी दुनिया में। एक किताब दो जगह हो सकती है एक साथ? या एक लड़की?
लिखते हुए एक शहर में जा रही मेट्रो होती है। मेट्रो दिल्ली की जगह पेरिस में भी हो सकती है और इससे लगभग कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। लड़का-लड़की फिर भी मिलेंगे और खिड़की से बाहर दिखते किसी बिल्डिंग पर कुछ कह सकेंगे। कि जैसे अक्षरधाम कितना बदसूरत बनाया है इन लोगों ने, डिटेल पर बिलकुल ही ध्यान नहीं दिया है। या कि एफ़िल टावर और किसी मोबाइल टावर में क्या ही अंतर है। लोहे का जंजाल खड़ा कर दिया है और दुनिया भर के प्रेमी मरे जा रहे हैं उस नाम से। बात में हल्का सा व्यंग्य। लड़का-लड़की हो सकता है इसलिए क़रीब आएँ कि दोनों ठीक वैसा ही सोचते हैं, या इसलिए क़रीब आएँ कि दोनों एकदम अलग अलग सोचते हैं और लगभग लड़ पड़ें कि कोई ऐसा सोच भी कैसे सकता है।
कुछ लोगों को जगह से जुड़ाव होता है। उनके दिमाग़ में एक जीपीऐस पिन ड्रॉप जैसी कोई सुविधा/असुविधा/दुविधा होती है। वे कॉफ़ी शॉप्स में अपनी नियत टेबल पर बैठेंगे। मेट्रो या बस में एक फ़िक्स जगह खड़े होंगे। सिनेमा हॉल में कोई एक सीट ही बुक करेंगे। उनके अकेलेपन में ऐसी कई हज़ार छोटी छोटी चीज़ें मिल जाएँगी।
ऐसी एक लड़की थी। जिसे एक लड़का पसंद था। दिल्ली मेट्रो में लड़की का स्टेशन लड़के के स्टेशन से पहले आता था। तीन स्टेशन पहले। इस लड़के के कारण लड़की ने एक बार मेट्रो में अपनी जगह बदली थी। लड़की हमेशा लेडीज़ कोच में आख़िरी वाली दीवार पर टिक कर खड़ी होती थी और कोई किताब पढ़ते मेट्रो में सफ़र करती थी। एक बार अपने किसी दोस्त से साथ मेट्रो में चढ़ी तो जेनरल डब्बे में चढ़ना पड़ा। आगे से दूसरा डिब्बा। भीड़ में उसे जो जगह मिली वो पहले और दूसरे डब्बे के बीच वाली प्लेट्स पर मिली। यहाँ पकड़ने के लिए हैंड रेल्स थे और खड़े रहना ज़्यादा आसान था। किताब पढ़ते हुए उसने देखा कि गेट के पास एक लड़का खड़ा है और उसने न हेड्फ़ोंज़ लगा रखे हैं, न उसके हाथ में कोई किताब है। वो कौतूहल से दरवाज़े के काँच के बाहर देख रहा है। उसके चेहरे पर इतनी ख़ुशी थी कि लड़की का उसकी नज़र से दिल्ली देखने का मन किया।
अगली रोज़ लड़की लेडीज़ कोच में नहीं चढ़ी। जेनरल में उसी डिब्बे में चढ़ी। यहाँ भीड़ थोड़ी कम होती थी तो उसे उसकी जगह आराम से मिल गयी। तीन स्टेशन बाद वो लड़का चढ़ा और ठीक दरवाज़े से टिक कर खड़ा हो गया। आज उसने काँधे पर एक छोटा सा बैग टांगा हुआ था। जिसमें एक किताब आ सकती थी और कुछ ज़रूरी सामान। उसके हाथ में एक किताब थी। लड़की को लगा कि आज ये किताब पढ़ेगा। लड़के ने लेकिन किताब को खोला और बुक्मार्क क़रीने से रख कर बंद कर दिया और बैग में रख दिया। लड़की इस किताब को पहचानती थी। ये निर्मल वर्मा की ‘धुँध से उठती धुन’ थी। नीले कवर में। कई साल से प्रकाशित नहीं हुयी थी, इसकी कॉपी कहीं नहीं मिलती। जिनके पास होती भी, वे किसी को इस बारे में बताते नहीं। लड़का बाहर देख रहा था। कल की तरह ही, बेहद ख़ुश।
कमोबेश हफ़्ते भर लड़की उसी जगह खड़ी रहती। लड़का बाहर देखता रहता। लड़की लड़के को देखती रहती। कई सालों में पहली बार ऐसा हुआ कि मेट्रो में पढ़ने वाली किताब हफ़्ते भर तक पढ़ी नहीं गयी। वो हाथ में किताब लिए चढ़ती ज़रूर लेकिन कुछ था उस लड़के में कि उसे देखना टीवी देखने से ज़्यादा रोचक था। इक रोज़ लड़की ने उससे धुन्ध से उठती धुन के बारे में पूछा। लड़के ने कहा कि उसे निर्मल ख़ास पसंद नहीं आए। ये उनकी आख़िरी किताब पढ़ रहा है, फिर कुछ और पढ़ेगा। किताब रेयर थी। मतलब बहुत रेयर भी नहीं कि उसके हज़ारों लाखों दिए जाएँ। लेकिन उस समय किताब आउट औफ़ प्रिंट थी और किताब का देख लेना भी कोई जादू जैसा ही था।
लड़के ने उसका नाम पूछा, और फिर बैग से क़लम निकाल कर एक कोने में लिख दिया। लड़के ने लड़की की दीवानगी को देखते हुए ये किताब उसे गिफ़्ट कर दी। कि उसे वो निर्मल उतना पसंद नहीं आए थे और लड़की उन पे मरती थी। वे किताब के बारे में बात करते हुए कनाट प्लेस के घास वाली लॉन पर देर तक बैठे रहे थे। लड़के को पढ़ना बहुत पसंद था। बहुत तरह की और बहुत सी किताबें पढ़ता था। उसे किताबों को क़रीने से रखने का शौक़ भी था, लेकिन उसे वो करीना आता नहीं था। उसने एक दिन लड़की को अपने घर की कुछ तस्वीरें दिखायीं। लड़की ने कहा वो उसकी किताबों को ज़्यादा सुंदर तरीक़े से रखना सिखा देगी। लड़की ने अपने घर की तस्वीरें दिखायीं, अपनी बुकरैक की…लड़की ने घर में कई रीडिंग कॉर्नर्ज़ बना रखे थे और मूड के हिसाब से कहीं भी बैठ कर पढ़ा करती थी। उसने लड़के को घर बुलाया कि वो देख सके, कितना अच्छा लगता है क़रीने के घर में। लड़का उसका घर देखने तो गया लेकिन किताबों, रीडिंग कॉर्नर्ज़, सुंदर लाइट्स और इंडोर प्लैंट्स के होने के बावजूद उसकी दिलचस्पी लड़की में ज़्यादा बन गयी। उसे बार बार लगा कि ये लड़की उसके कमरे ही नहीं, ज़िंदगी में भी होनी चाहिए। ख़ुद से ज़्यादा उसकी किताबों को एक ऐसी लड़की की ज़रूरत थी।
उसे ख़ुद भी उस लड़की की ज़रूरत और आदत लगने लगी थी धीरे धीरे। पढ़ते या लिखते हुए उसके आसपास मौसम के मुताबिक़ हाथ की दूरी पर कभी गर्म चाय कभी शिकंजी जैसी चीज़ें होने लगी थीं। पास वो लड़की नहीं होती थी, मालूम नहीं कैसे। लड़की किसी दूसरे कोने में चुपचाप बैठ कर अपनी किताब पढ़ रही होती थी। उनका ऑफ़िस का टाइम एक ही था तो वे साथ ही निकलते थे और अक्सर किसी किताब के बारे में बात करते ही निकलते थे। लड़के को ऐसा लगता था वो एक साथ कई दुनियाओं में जी रहा है। उसके दोस्तों को उसकी क़िस्मत से ईर्ष्या होती थी। कई बार मेट्रो के दरवाज़े के दोनों ओर खड़े वे बस दिल्ली शहर को देख रहे होते थे। पुरानी इमारतों के बीच से गुज़रते हुए। कभी कभी वे साथ घूमने भी निकल जाते थे। पुराना क़िला, जामा मस्जिद, हौज़ ख़ास। लड़का अतीत में जीता था। किताबों के घट चुके क़िस्से की तरह। लड़की जानती थी कि वो हुमायूँ के मक़बरे को देख कर नहीं मुस्कुरा रहा, उस शाम को याद कर के मुस्कुरा रहा था जब साथ चलते हुए उन्होंने पहली बार एक दूसरे का हाथ पकड़ा था।
वे बिल्कुल अलग अलग क़िस्म की किताबें पढ़ते। लड़की को जासूसी उपन्यास और छद्मयुद्ध की कहानियाँ पसंद थीं। उसकी रैक में विश्व युद्ध के बारे में कई किताबें होतीं। रोमैन्स या कविताएँ उसे कम पसंद आतीं, पर जब आतीं तो दीवानों की तरह पसंद आतीं। फिर सब जगह बस वही कवि या लेखक होता। उसके फ़ेस्बुक, इन्स्टग्रैम और ट्विटर पर भी और घर के बुलेटिन बोर्ड, किचन, फ्रिज पर भी। लड़के को धीरे धीरे इन युद्ध की किताबों से कोफ़्त होने लगी थी। नाज़ुक मिज़ाज लड़का इतनी भयावह कहानियाँ सुन कर परेशान हो जाता। लड़की उसे बताती रहती हिटलर ने यहूदियों पर कितने अत्याचार किए। जापानी सेना ने किस तरह चीन में गाँव के गाँव जला दिए। लड़के को दुस्वप्न आने लगे थे। उसे आतंकवादी हमलों से डर लगने लगा था, कि कहीं अचानक से ऐसा कोई हमला हो गया तो वो क्या करेगा। वो नींद में अपनी अधजली फ़ेवरिट किताबों के बारे में बड़बड़ाता रहता।
कुछ दिन बाद दोनों ने महसूस किया कि किताबें ही उन्हें अलग भी कर रही हैं। उनके होने में किताबों का प्रतिशत इतना ज़्यादा है कि एक दूसरे के साथ रहने का आकर्षण भी उन्हें अपनी पसंद की किताबों से दूर नहीं कर सकता। लड़की उदास होती, कि लड़के के दोस्तों ने नज़र लगा दी। पर दोनों जानते थे कि ये ज़िंदगी है और यहाँ क़िस्से ऐसे ही आधे अधूरे होने पर भी छोड़ देने पड़ते हैं। लड़की ने घर तलाशना शुरू किया। अपने ऑफ़िस के एकदम पास, कि मेट्रो लेने की ज़रूरत ही न पड़े। लड़के ने घर शिफ़्टिंग में सारी मदद की। जाने के पहले लड़की ने एक बार ठीक से लड़के के कमरे में सारी किताबें जमा दीं। चादरें, परदे सब हिसाब से आधे आधे कर लिए। किचन के सामान में से अपनी पसंद की क्रॉकरी वहीं रहने दी कि लड़के को भी अब ख़ूबसूरत मग्स में चाय पीने की आदत लग गयी थी।
अपने घर में शिफ़्ट होने के बाद कुछ दिन लड़की इतनी उदास रही कि उसने किताबें पढ़नी एकदम बंद कर दीं। ऑफ़िस में उसकी एडिटिंग की डेस्क जॉब थी। बस अपनी सीट पर बैठो और दुनिया जहान के बारे में रीसर्च करके आर्टिकल लिखो। उसने बॉस से फ़ील्ड प्लेस्मेंट माँगी। वो कश्मीर की मौजूदा स्थिति पर वहाँ जा के रिपोर्टिंग करना चाहती थी। बॉस ने उसका डिपार्टमेंट शिफ़्ट कर दिया। अगले कई महीने वो घूमती और रिपोर्टिंग करती रही। अपनी जगह से अलग होना चीज़ें भूलना आसान करता है। जब उसे लगा कि अब दिल्ली में रहना शायद उतना न दुखे, तब उसने वापसी की अर्ज़ी डाली। युद्ध के बारे में इतना ज़्यादा कुछ पढ़ना काम आया था। उसके लिखे में संवेदनशीलता थी और स्थिति की बारीकियों पर अच्छी पकड़। बहुत कम वक़्त में उसने बहुत क्रेडिबिलिटी बना ली थी। लोग उसकी रिपोर्ट्स का इंतज़ार करते थे।
लौट कर आयी तो उसे किताब पढ़ने की तलब हुयी। कविताओं की रैक के आगे देर तक खड़ी रही। कॉन्फ़्लिक्ट एरिया में ग्राउंड रिपोर्टिंग ज़िंदगी की प्राथमिकताओं के बारे में बहुत कुछ सिखाती है। अपनी मर्ज़ी से घूमने फिरने खाने की आज़ादी। बात करने और कहने की आज़ादी। हम किसके साथ हैं और किसके साथ नहीं होना चाहते हैं, ये चुनने की आज़ादी। उसने कभी इन चीज़ों पर सोचा नहीं था। मौत को क़रीब से देखना ये भी सिखा देता था कि ज़िंदगी इतनी लम्बी नहीं है जितनी हमें लगती है। कि लोग कभी भी छिन सकते हैं। इस बीच उसे लड़के की कई बार याद आयी। लेकिन फिर हर बार उसे लगता था कि जिसे किताबों से दिक्कत हो रही है, वो उसकी सच की कहानियाँ सुनेगा तो शायद उसे कहीं जगह न दे। लड़के के सोशल मीडिया से पता चलता था कि वो अक्सर अपने घर की रीमाडलिंग करता रहता था। ख़ुश भी था शायद। और अकेला और उदास तो बिलकुल नहीं था। यूँ भी पढ़ने लिखने वाले लोग थोड़ी सी उदासी तो फ़ितरत में लेकर चलते हैं, उदासी और तन्हाई थोड़ी ज़्यादा हो जाए तो उसके साथ जीना भी उन्हें आता है।
लड़की इसके बाद लगभग हर महीने ही रिपोर्टिंग के लिए बाहर पोस्टेड रहती। उसका कमरा, उसकी किताबें, उसके रीडिंग कॉर्नर्ज़, सब उसका इंतज़ार करते रहते। उसे अब बाहर की कहानी ज़्यादा अच्छी लगने लगी थी। ज़िंदा - सामने घटती हुयी। लोग, कि जो किताबों से बिल्कुल अलग थे। उनकी कहानियाँ, उनके डर, उनकी उम्मीदें और सपने… सब किताबों से ज़्यादा रियल था। लड़का मेट्रो पर जाता हुआ अक्सर लड़की को तलाशता रहता। जब कि अख़बार में स्पेशल कोर्रोसपोंडेंट के नाम से जो ख़बर छपती थी, और बाद में लड़की की बायलाइन के साथ भी, तो उसे मालूम रहता था कि लड़की शहर से बाहर है।
लड़की को लगता था कि सबकी अपनी एक नियत जगह होती है। लेकिन इन दिनों वो अपनी बदलती हुयी जगह की आदी हो गयी थी। कुछ भी एक जैसा नहीं रहता था। रोज़ अलग शहर, अलग लोग, अलग होटेल, अलग बिस्तर...और फिर भी थकान के कारण अच्छी आती थी।
लेकिन घर लौटना होता था हर कुछ दिन में। ऐसे एक लौटने के दर्मयान लड़की को याद आया, कि एक रेयर किताब के पहले पन्ने पर उस का नाम लिखा हुआ था, लड़के की हैंड्रायटिंग में। 'था'। पता नहीं किताब थी कहाँ। लड़की उस जगह जाना चाह रही थी दुबारा। जब वो उस लड़के से पहली बार मिली थी और उन्होंने बात शुरू की थी। वो अक्सर सोचती, अगर किताबें न होतीं तो शायद वे साथ होते। एक दूसरे को अपनी ज़िंदगी की कहानियाँ सुनाते हुए। कि अगर किसी और शहर में, कोई और मेट्रो में वो लोग मिले होते तो शायद बात कुछ और होतीं। किसी शहर के आर्किटेक्चर के बारे में। या शायद नदियों, झीलों के बारे में… फिर शायद वो साथ होते।
लड़का लड़की कोई भी हो सकते हैं। पर होते नहीं। किताबें कई क़िस्म की होती हैं। लेकिन वो ख़ास होती हैं जो घर के किसी खोए हुए कोने में पड़ी होती हैं। जिन पर किसी का नाम लिखा होता है। जिनके साथ सफ़र शुरू होता है। ये किताबें रिप्लेस नहीं की जा सकतीं। लड़के को कभी कभी गिल्ट होता था कि उसे वो किताब लड़की को दे देनी चाहिए थी। लेकिन फिर ख़ुद को समझा लेता था कि किताब थी तो उसकी अपनी ही, उसी ने लड़की को दी थी...वो वापस ले लेने का हक़ तो उसका था ही।
लड़की को लगता रहा किताब कहीं खो गयी है। लड़के के घर में रखी किताब को भी लगता रहा, लड़की कहीं खो गयी है।