13 November, 2013

थ्री डेज ऑफ़ समर

यूँ रोज़ का जीना तो हो ही जाता है तुम्हारे बगैर. तुम्हारी आदत ऐसी भी कुछ नहीं है कि बदन से सांस छीन ले जाए. हाँ एक दिल है ज़ख़्मी जो गाहे बगाहे दुखता रहता है. नसों में धड़कन की रफ़्तार थोड़ी मद्धम सही, तुम्हारे बिना कई साल और जीने का माद्दा तो है मुझमें.

कभी कभार ही ऐसे बेसाख्ता याद आती है तुम्हारी. लू के थपेड़ों में जलते बदन के ताप जैसी. माथे पर लहकी आग जैसी. जंगल में फूले पलाश जैसी. चारों ओर फिर कुछ नहीं बचता एक तुम्हारे नाम के सिवा. तुम्हारा है ही क्या मेरे पास जो जोग के रखूं मैं. ले देकर कुछ तसवीरें हैं, कुछ वादे, झूठे मूठे, कुछ कहानियों के किरदार हैं तुम्हारी तरफदारी करते हुए. तुलसी चौरा में जल ढारते हुए कभी तुमको सोच लिया था. हनुमान जी की ध्वजा पर अटका हुआ तुम्हारा इंतज़ार है...पुरवा में बहता...दस दिशाओं को एक अधूरी इश्क की दास्तान कहता. चाचियों के ताने में जहर सा घुलता. यूँ तुम्हारे बिना पहले भी जीना कोई नामुमकिन तो नहीं था, मुश्किलों में जीने की आदत गयी कहाँ थी. तुम थे तब भी तो हज़ार परेशानियाँ थी जिंदगी में.

बिट्टू की फीस भरनी थी...माँ के लिए नयी साड़ियाँ लानी थीं. बड़की दीदी के नंदोई को बेटा हुआ था. हफ्ते भर का भोज रखा था उसकी सास ने. गुड्डू के हॉस्टल में पैसे भेजने थे. रोज रोज की जिंदगी में  बारिश के झोंके की तरह ही तो आये थे तुम. यूँ तुमने कभी कोई वादा भी तो नहीं किया था कि एक तुम्हारे होने से सर पर हमेशा गुलमोहर की छाँव रहेगी...अमलतास के गीत रहेंगे...तितलियों की उड़ान रहेगी. जिंदगी होम ही तो कर दी थी मैंने घर के लिए, अपने घर के लिए. आखिर बड़ी बेटी का भी कुछ फ़र्ज़ होता है. तो क्या हुआ अगर मेरे होने पर माँ ने अनगिन ताने सुने थे...तुम बस सूखी हवा की तरह लहकाने आये थे मेरी आंच को. तुम जितने दिन रहे...कितने ताप से जलती थी मेरी अंतरात्मा.

आँखें बंद करने से रौशनी ख़त्म नहीं हो जाती मगर हम अँधेरे के लिए बेहतर तैयार हो जाते हैं. मैं जानती थी तुम्हारा छल. सदियों से. जैसे कि कृष्ण को महाभारत का अंत...फिर भी अपना कर्म तो करना ही था. तुम्हारे आने पर अगर मैं बदल जाती तो तुम कितने बड़े हो जाते. जो किसी के लिए कभी न बदली, तुम्हारे लिए कोई और हो जाती तो शायद खुद से जिंदगी भर आँख न मिला पाती. अभी भी मेरा इतना अभिमान तो है कि मैंने तुम्हें अपनी तरह से चाहा. तुम्हारे आने का मौसम था...तुम्हारे जाने का मौसम है.

अच्छा सुनो, तुम सच में कह पाते थे इतना सारा झूठ? थियेटर के नामचीन कलाकार हो...शब्द, रंग, रौशनी पर तुम्हारी बेहतरीन पकड़ है ये तो मानना पड़ेगा. इतने सालों से नियत लोगों के सामने लाइव परफोर्म करते आ रहे हो. ऑडियंस का मूड समझते हो...उसके हिसाब से स्क्रिप्ट में भी वहीं बदलाव कर देते हो. मुझसे भी ऐसा ही था न प्यार तुम्हारा? तुम्हारी आवाज़ की मोड्यूलेशन ऐसी थी कि लगता था दुनिया की सारी तकलीफें ख़त्म हो गयी हैं. तुमने वो तीन शब्द अनगिनत लोगों को कई माहौल और मूड में बोले होंगे, हर बार उनकी पसंद और मूड भांपते हुए. लेकिन सुना है कि बहुत सारे किरदार जीने से एक्टर भूल जाता है कि वो वाकई में कैसा है. उसकी ओरिजिनल हंसी कैसी है...बिना मिलावट का प्यार कैसा है...अनगिन मुखौटे लगाने वाले लोगों के लिए आइना भी कारगर नहीं होता...हमेशा कोई और अक्स दिखाता है. शायद किसी के आँखों में तुम अपने आप को पा सकते. मगर तुम्हें खोना कहाँ आता है...जरा सा अपने को गिरवी नहीं रखोगे तो कैसे पाओगे कुछ भी वापसी में. लेकिन तुम्हें इसकी चाहत नहीं होगी शायद. तुम सिर्फ जायका बदलने के लिए इश्क को करते हो. झूठ को जीना तुम्हारे लिए खुशनुमा रहा है. इसलिए तुम्हारे हिस्से मेरी दुआएं नहीं हैं.

तुम यूँ ही दफन रहो शहर के बाहर की परती जमीन पर नागफनियों के साथ. मुझे जाने क्यूँ तुम्हारा क़त्ल कर देने का अफ़सोस कभी नहीं नहीं होता है. अफ़सोस यूँ तो तुमसे इश्क करने का भी कभी नहीं होता है. जबसे तुम्हें दफनाया है इत्मीनान रहता है कि किसी रात तुम अपने हिस्से का इश्क मांगने नहीं पहुँच जाओगे. मैंने तुम्हारे जैसा भिखारी कहीं नहीं देखा. गरीब से गरीब आदमी बुद्ध के लिए अपनी झोली से एक मुट्ठी अनाज दे सकता था मगर तुम ऐसे कृपण थे कि अपनी ओर से बुआई के लिए अन्न तक नहीं देते.  यूँ तुम्हारा क़त्ल अपने हाथों करने की जरूरत नहीं थी...किसी और से भी करवा सकती थी मगर सुकून नहीं आता.

ठंढ के दिन थोड़े मुश्किल होते हैं मानती हूँ मगर इतना भी नहीं कि तुम्हारी आवाज़ के अलाव के बिना रात ठिठुरते हुए मर जाए. वो दिन याद हैं जब तुम्हारी आवाज़ को ऊन की तरह उँगलियों में लपेट कर कविताओं का मफलर बुना था. नर्म पीले रंग का. उस सर्दियों में मेरा गला  कभी ख़राब नहीं हुआ. इन जाड़ों में सोच रही हूँ अपने पुराने प्यार कीट्स से फिर से इश्क कर बैठूं, सच ही कहता था न...

“I almost wish we were butterflies and liv'd but three summer days - three such days with you I could fill with more delight than fifty common years could ever contain.” 
― John Keats

9 comments:

  1. कितना प्यारा... कितना मीठा... कितना भला सा टुकड़ा लिख गयी तुम्हारी कलम...
    और ये पंक्ति
    "आँखें बंद करने से रौशनी ख़त्म नहीं हो जाती मगर हम अँधेरे के लिए बेहतर तैयार हो जाते हैं."
    वाह...!!!

    सच!

    कितना सच कहता था वो...
    “I almost wish we were butterflies and liv'd but three summer days - three such days with you I could fill with more delight than fifty common years could ever contain.”
    ― John Keats
    ***
    लिखती रहो, बांटती रहो... यूँ ही हमेशा खुशियाँ... बुनती रहो कवितायेँ... कहानियां अपने लिए, अपने अपनों के लिए...
    बहुत बहुत प्यार और ढ़ेरों शुभकामनाएं!

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  2. यूँ तुम्हारा क़त्ल अपने हाथों करने की जरूरत नहीं थी...किसी और से भी करवा सकती थी मगर सुकून नहीं आता.

    वाह क्या लाइन लिखी हे !! लाजवाब बिल्कुल सत्य

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  3. देव कुमार झा जी ने आज ब्लॉग बुलेटिन की दूसरी वर्षगांठ पर तैयार की एक बर्थड़े स्पेशल बुलेटिन ... तो पढ़ना न भूलें ... और हाँ साथ साथ अपनी शुभकामनायें भी देना मत भूलिएगा !
    ब्लॉग बुलेटिन के इस खास संस्करण के अंतर्गत आज की बुलेटिन बातचीत... बक बक... और ब्लॉग बुलेटिन का आना मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  4. जब ये तूलिका लहरों पर यूं चित्र रचती है तो उस इंद्रधनुषी छटा के सम्मोहन से निकलना हर किसी के बूते की बात नहीं है पूजा । लिखती रहो .........................हमें इतज़ा रहता है ,हमेशा से

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  5. ठंड के दिन थोड़े मुश्किल होते हैं मानती हूँ मगर इतना भी नहीं कि तुम्हारी आवाज़ के अलाव के बिना रात ठिठुरते हुए मर जाए. वो दिन याद हैं जब तुम्हारी आवाज़ को ऊन की तरह उँगलियों में लपेट कर कविताओं का मफलर बुना था. नर्म पीले रंग का. उस सर्दियों में मेरा गला कभी ख़राब नहीं हुआ. ...सुन्दर !!

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  6. सुन्दर ,सार्थक रचना,बेहतरीन, कभी इधर भी पधारें
    सादर मदन

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  7. बहुत सुंदर

    मित्रों कुछ व्यस्तता के चलते मैं काफी समय से
    ब्लाग पर नहीं आ पाया। अब कोशिश होगी कि
    यहां बना रहूं।
    आभार

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  8. यूँ रोज़ का जीना तो हो ही जाता है तुम्हारे बगैर. तुम्हारी आदत ऐसी भी कुछ नहीं है कि बदन से सांस छीन ले जाए. हाँ एक दिल है ज़ख़्मी जो गाहे बगाहे दुखता रहता है. नसों में धड़कन की रफ़्तार थोड़ी मद्धम सही, तुम्हारे बिना कई साल और जीने का माद्दा तो है मुझमें.

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  9. शुरुवात कि पंक्तियों ने पूरी पोस्ट पढा दी। Very nice mam......

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