सिन्दूरी सुबह सुनहली होने लगी है
नींद से उठी हूँ अभी अभी मैं
भीगे भीगे हैं
खिड़की से नज़र आते शीशम के पेड़
धुली धुली सी है कमरे की हवा
और खिलखिला रहा है सामने के आईने में मेरा अक्स
जैसे किसी ने पेंट-ब्रुश उठा कर
मेरे हाथ में एक नयी लकीर बना दी है
ख्वाबों के रंग घुल गए फिजाओं में
खुशरंग सी कुछ खुशबुओं में लिपटी हुयी हूँ मैं
चूड़ियों की खनक है सिरहाने रखे तकिये पर
और जिंदगी के पहलू में …आज जागी हूँ मैं
हर दिन नया सवेरा।
ReplyDeleteबढ़िया है ख्वाब, बधाई.
ReplyDeleteकविता में छंद एक बड़ी ज़रूरत है.
ReplyDeleteचाहि मुक्त छंद लिख रहे हों तब भी छंद की गति तो होना चाहिये. थोड़ी कसावट चाहिये .
रचना पसंद आई।
ReplyDeleteभाषा अच्छी है आपकी। हिंदी में और भी लिखें।
ReplyDeletelikhti rahiye,yahi aapko majbooti dega.
ReplyDeleteबड़ी प्यारी कविता है...
ReplyDeleteसादर.
बहुत ही खूबसूरत एहसास लिए हुए कविता।
ReplyDeleteसादर
वाह ...बहुत बढि़या।
ReplyDeleteधुली धुली सी है कमरे की हवा
ReplyDeleteऔर खिलखिला रहा है सामने के आईने में मेरा अक्स
जैसे किसी ने पेंट-ब्रुश उठा कर
मेरे हाथ में एक नयी लकीर बना दी है
और एक नई शुरुआत....