26 September, 2007

ठहरा हुआ सा कुछ

तरसती हूँ मैं
तुम्हारी आवाज के एक टुकड़े के लिए
जिसे तकिये तले रख
मुझे रात को नींद आ जाये

तड़पती हूँ मैं
अपनी खाली मुट्ठी में
तुम्हारे शर्ट पकड़ने को
थोड़ी देर ही सही

सिसकती हूँ मैं
तुम्हारे कंधे के लिए
कितने दिन कितनी रात
मुझे याद नहीं

अब जैसे आदत सी है
तुमसे नहीं मिलने की
तुम्हारा इंतज़ार करने की
जानते हुये कि आ नहीं पाओगे

टुकड़े टुकड़े सब
तुम्हें माँग ले जाते हैं मुझसे
तुम्हारी माँ
तुम्हारे ऑफिस के लोग
और हालात...

मैं रह जाती हूँ
दिन बीते
अपनी सूनी हथेली को देखती हुयी
मेहंदी की धुली हुयी लकीरों में
कहीं अपने सपने तलाशती हुयी

बस कुछ शैतान आंसू
आँखों में चले आते हैं
बदमाश बच्चों की तरह

मैं यादों के आँचल से
आँखें पोंछ लेती हूँ
और गांठ लगा देती हूँ ताकि भूल ना जाऊँ

यादों की गीली चुनरी ओढ़े
हर रात सो जाती हूँ
ये सोचते हुये

कि शायद कल तुम आओगे...

7 comments:

  1. कल जो खुद नहीं आता
    वह किसी को क्‍या लाएगा
    अपने साथ
    करने देगा अपनों से बात।

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  2. टुकड़े टुकड़े सब
    तुम्हें माँग ले जाते हैं मुझसे

    par tum phir bhi hamesha mere saath hi hote ho!!!

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  3. गहन ...मर्म को छूती हुई रचना ...

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  4. गाँठ लगा लेती हूँ .. ताकि भूल न जाऊं .. बहुत सुंदरता से लिखी मन की बात

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  5. सुन्दर...!!
    kalamdaan.blogspot.com

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  6. सदा जी को आभार की इस प्रेमपुर्ण रचना के पढ़ने का अवसर दिया। आपको लिए तो बस प्रेम में इसी तरह डुबी रह इंतजार करते है इंतजार के खत्म होने तक।
    बहुत ही प्रेम में डूबी कविता।
    दिल से महसूस किया गया।
    आभार।

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