31 December, 2017

साल 2017 - कच्चा हिसाब किताब

ज़िंदगी की भागदौड़ में साल गुम होते जाते हैं और एक को दूसरे से अलग करना मुश्किल होता है। मेरे लिए लेकिन साल दो हज़ार एक मुकम्मल साल रहा। कुछ लोगों के कारण। एक शहर के कारण। निर्मल वर्मा के कारण। एक छोटे से ईश्वर के कारण। और सब में इस समझदारी के कारण कि छोटे छोटे सुखों को थाम कर ज़िंदगी के बड़े बड़े दुःख बर्दाश्त किए जा सकते हैं।

मेरी शादी का दशक पूरा हो गया। ज़िंदगी का एक तिहाई लगभग। छोटे बड़े झगड़ों के साथ, और छोटे बड़े झगड़ों के कारण हम दोनों के बीच का प्यार बढ़ता गया है, पागलपन भी। मैं अभी भी रोज़ सुबह उठती हूँ तो कई बार उसके सोते हुए चेहरे को ग़ौर से देखती हूँ...प्यार से...अरमान से...सुकून से...कि मैं इस लड़के से आज भी कितना कितना प्यार करती हूँ। कुणाल मेरी ज़िंदगी की सबसे ख़ूबसूरत चीज़ है। सबसे ख़ूबसूरत। उसे प्यार जताना छोटी छोटी चीज़ों में नहीं आता, लेकिन उसे कोई एक बड़ी सी गिफ़्ट देना आता है, कि जो साल भर चले। २०१६ में उसने मेरे लिए रॉयल एनफ़ील्ड ख़रीद दी। मेरी स्क्वाड्रन ब्लू की RC कॉपी मेरी वालेट में रहती है। मैं उसे दुनिया का सबसे छोटा लव लेटर कहती हूँ। इस साल मन उदासियों से भरता गया था। किसी चीज़ को लेकर कोई उत्साह नहीं रहा और कोई चाहत, कोई अरमान, कोई ख़्वाहिश नहीं। लेकिन न्यू यॉर्क जाने का मन था। वहाँ जा कर जैक्सन पौलक की पेंटिंग देखने का मन था। कुणाल ने मेरी दो दिन की न्यू यॉर्क की ट्रिप बुक कर दी। अकेले। कि उसे फ़ुर्सत नहीं थी, ऑफ़िस का काम था बहुत। ह्यूस्टन से न्यू यॉर्क तीन घंटे की फ़्लाइट थी लगभग। वक़्त इतना ही था कि म्यूज़ीयम औफ़ माडर्न आर्ट देख सकूँ और MET म्यूज़ीयम देख सकूँ। लेकिन ये एक छोटी ट्रिप उसकी ओर से तोहफ़ा थी...कि जिसकी रौशनी में सब खिला खिला सा लगे।

इस साल मैंने निर्मल वर्मा को पहली बार डिस्कवर किया। 'अंतिम अरण्य' से शुरू किया और सफ़र 'वे दिन', 'धुंध से उठती धुन', 'एक चिथड़ा सुख', 'लाल टीन की छत(आधी पढ़ी है अभी)' और गाहे बगाहे रोमियो जूलियट और अँधेरा पर रहा। निर्मल को पढ़ना एक सफ़र है। उनके लिखे में बहुत सी जगह रहती है कि जिसमें कोई पाठक जा के रह सकता है। हमारे जीवन में रिश्तों के नाम बहुत संकुचित शब्दों में रख दिए गए हैं, निर्मल हमारे लिए रिश्तों की नयी डिक्शनरी बनाते हैं। प्रेम और मित्रता से परे भी कुछ रिश्ते होते हैं, निर्मल के किरदारों को समझना, ख़ुद को समझना और ख़ुद को माफ़ करना है। अपराधबोध से मुक्त होना है। निर्मल को पढ़ना, रिश्तों की शिनाख्त करते हुए उन्हें बेनाम रहने देना है। 'वे दिन' को पढ़ते हुए फ़ीरोज़ी स्याही में अंडरलाइन करना है, 'छोटे छोटे सुख'। एक चिथड़ा सुख पढ़ते हुए किसी छूटे हुए बचपन के प्रेम को याद कर लेना है। आप निर्मल को पढ़ नहीं सकते, उनके प्रेम में पड़ सकते हैं बस। उनकी डायरी, 'धुंध से उठती धुन' को पढ़ते हुए ख़ुद को एक लेखक के तौर पर थोड़ा बेहतर समझ पायी। अपने लिखे में रखे हुए सच के छोटे छोटे टुकड़ों के लिए ख़ुद को माफ़ कर पायी। अपने किरदारों से, सच और कल्पना के बीच प्यार करने और उन्हें बिसरा देने और सहेज देने के बीच के बारीक जाल को बुनती रही। निर्मल आपको तलाश लेते हैं। मैंने पहले कई बार उन्हें पढ़ने की कोशिश की, पर कुछ भी अच्छा नहीं लगा था। अब उन्हें पढ़ना एक ऐसे प्रेम में होना है जिसमें ग़लतियाँ करने से बिछोह नहीं मिलता है। 'धुंध से उठती' धुन का मेरे पास होना इस बात की राहत देता है कि मेरी ज़िंदगी में कुछ अच्छे लोग मेरे दोस्त हैं।

Good Morning New York. न्यू यॉर्क। ज़िंदगी में दो ही बार शहरों से प्यार हुआ है। पहली बार दिल्ली। और अब न्यू यॉर्क। बहुत साल पहले एक लड़के ने प्रॉमिस किया था, तुम न्यू यॉर्क आओ तो सही, तुम्हें इस शहर से प्यार हो जाए, ये मेरी ज़िम्मेदारी। ऐसे वादे लोग बेवजह करते नहीं। शहर में होता है कुछ ख़ास। कुछ शहरों में आत्मा होती है। जीती जागती। दिल होता है, धड़कता हुआ। सड़क के नीचे चलने वाली मेट्रो में थरथराता हुआ। मेरी ज़िंदगी में न्यू यॉर्क का आना किसी कहानी जैसा था। हज़ार प्लॉट ट्विस्ट्स के बीच मुकम्मल होता। मैं एयरपोर्ट से न्यू यॉर्क जाने वाली ट्रेन में बैठी थी। Penn स्टेशन पर उतरना था। ट्रेन की खिड़की से बाहर दिखता शहर था...कुछ कुछ पटना जैसा, पुल थे, हावड़ा जैसे...और प्यार हुआ था पहली नज़र का। दिल्ली जैसा ही एकदम। कि धक से लगा था जब पहली बार ही देखा था शहर को। कि मैं भूल गयी थी कि शहरों से भी प्यार हो सकता है। पेन स्टेशन के ठीक बाहर ही मेरा होटल था। पैदल चलते हुए देख रही थी शहर को आँख भर भर के। उसकी प्राचीनता, उसका नयापन...थोड़ी ठंढ और हल्की गरमी। कि शहर से बेवजह ही प्यार हो चुका था। कि मेरे लिए प्यार और पसंद में यही अंतर होता है। पसंद करने की वजहें होती हैं, प्यार की नहीं। मुझसे पूछो कि क्यूँ प्यार करती हो तुम न्यू यॉर्क से तो मेरे पास कोई वजह नहीं होगी। कोई भी वजह नहीं। दिल पर हाथ रखूँगी और कहूँगी, सुनो मेरे दिल की धड़कन...डीकोड कर लो। बस। मेरे पास शब्द नहीं हैं। वहाँ की इमारतें। उसका सब-वे सिस्टम। वहाँ खो जाना। म्यूज़ीयम में जैक्सन pollock को देखना। Monet को देखना, बिना जाने हुए कि वो है। टाइम्ज़ स्क्वेयर। सेंट्रल पार्क। फ़्लैटआयरन बिल्डिंग। ब्रॉडवे। राह चलते ख़रीद लेना एक स्कार्फ़, सिर्फ़ उस लम्हे की याद के लिए। लौटते हुए लिए आना एक चाँदी की अँगूठी, 'love' लिखा हो जिसमें। रख लेना उस पूरे पूरे शहर को दिल में पजेसिव होकर। नहीं भेजना एक भी पोस्टकार्ड किसी को भी। अकेले भटकना म्यूज़ीयम में। भर भर आँख नदी हो आना। बहना हज़ार रंगों में। हुए जाना। न्यू यॉर्क।

अभिषेक। किसी कहानी जैसा लड़का। कितना करता अपने शहर से प्यार। शहर की छोटी छोटी चीज़ों से। सेंट्रल स्टेशन की छत से। सड़कों से। पैदल चलने से। मैं चकित हुए जाती। उसे पता है कॉफ़ी पीने की सबसे अच्छी जगह। देखो, ये है 'Carnegie Hall', यहाँ पर सब बड़े बड़े लोग परफ़ॉर्म  करने आते हैं। मैं खड़ी देखती। कहती। ये हॉल नहीं है, सपना है। जब मैं यहाँ कहानी सुनाने आऊँगी, तो तुम आओगे सुनने? उसे कितने सालों से पढ़ रही हूँ। उसका लिखा हास्य पढ़ कर आँख नम हो जाती है। बैरीकूल और उसका वो मैथमैटिकल लव लेटर। याद आते हैं वे शुरुआती ब्लॉगिंग के दिन कि जब लगता नहीं था कि वर्चूअल दुनिया सच में कहीं एग्ज़िस्ट भी करती है। उन दिनों कहाँ कभी सोचा था कि अभिषेक से मिलेंगे भी तो न्यू यॉर्क में पहली बार। उसने कहा था बहुत साल पहले, एक नोवेल का प्लॉट देने वाला शहर है न्यू यॉर्क। ठीक डेढ़ दिन के समय में कहाँ जाएँ और कैसे, उसके होने से यक़ीन था कि भुतलाएँगे नहीं इस शहर में। उसने कहा था, 'भुलाना मुश्किल है इस शहर में', दरसल, 'भुलाना मुश्किल है उस शहर को' भी तो। बिना प्लान के अचानक आ जाना शहर और मिल जाना अचानक ही। ब्लॉगिंग के टाइम से जिन लोगों को पढ़ रहे हैं, कमोबेश सबसे मिलकर यही लगता है, उन दिनों हमने कहानियों में भी अपने होने का बहुत बहुत सच लिखा था। कि किसी से भी मिलना वैसा ही है जैसा हमने सोचा था उन्हें पढ़ कर। कि अभिषेक से मिलना आसान होना था। अच्छा होना था। अभिषेक से मिल कर लगता है एकदम अच्छा और भला होना भी कितना सुकूनदेह है। कि उसका बहुत उदार होना...kind होना...ज़िंदगी के प्रति एक भलेपन में विश्वास करना सिखाता है। उससे मिलना एक छोटा सा सुख है। अपने आप में मुकम्मल। शुक्रिया लड़के एक एकदम से भटक जाने वाली लड़की के लिए एक शहर आसान कर देने के लिए। तुम जब 'वे दिन' पढ़ोगे, जब जानोगे, एक छोटा सुख क्या होता है। कभी तो पढ़ोगे ही। अगली बार कभी मिलेंगे तो फ़ुर्सत से मिलेंगे। बातों की फ़ुर्सत रखेंगे। इस बार तो भागते शहर को बस थोड़ा सा ही देख सके। अगली बार...फिर कभी...

इस साल मैंने एक और चीज़ सीखी। जो मन में आए वो किए जाना। अफ़सोस के कमरे ढहा देना। एक एकदम ही अजनबी लड़के से मिली, शिव टंडन। एक रैंडम सी शाम, बहुत सी बातें। कॉफ़ी। कुछ ग़ज़लें और कितनी अचरज भरी कहानियाँ कि जितनी ज़िंदगी में ही हो सकती हैं। हम किसी अजनबी से मिल कर कितना मुकम्मल सा महसूस कर सकते हैं। कि शहर कैसे थोड़ा कम पराया लगने लगता है, अपना शहर बैंगलोर ही। इसलिए कि अपरिचित होते हुए भी किसी से को कनेक्ट महसूस होने पर अपने मन को डांट धोप के शांत नहीं कराया, उसके नाम एक शाम लिखी। ये बहुत सुंदर था। बहुत।

इसी तरह लीवायज़ में जींस ख़रीदने गयी थी और जींस फ़िट ना होने का रोना रो रही थी, वहीं पर खड़ी एक और लड़की से ही। फिर बात होते होते पहुँची UX डिज़ाइन पर। पता चला वो IIT गुवाहाटी में डिज़ाइन पढ़ाती है। whatsapp पर वहाँ के प्लेस्मेंट सेल के बंदे का नम्बर दिया उसने तो मैंने देखा कि वो रॉयल एनफ़ील्ड चलाती है...अचरज कि ऐसे रैंडम भी कोई मिलता है क्या जिससे इतनी चीज़ें कॉमन लगें। फिर हमने whatsapp पर कई बार कितनी कितनी तो बातें कीं और पाया कि हम ग़ज़ब अच्छी तरह से समझते हैं एक दूसरे को। उसके लिखे हुए में मुझे कोई चीज़ बाँधती है। शीतल नाम है उसका और ये लगता है कि हम गाहे बगाहे जुड़े रहेंगे एक दूसरे से।

कि इस साल से मैंने मानना शुरू किया है कि दुनिया एक काइंड जगह है और लोग अच्छे हैं और जादू होता है। साल की शुरुआत में मैंने पूजा शुरू की। मैंने पिछले लगभग नौ सालों से कभी पूजा नहीं की थी। अब एक छोटे से ईश्वर के सामने सर झुकाने से लगता है जैसे कोई ठहार मिल गया हो। जैसे शिकायत करने को कोई जगह हो जहाँ देर सेवर सुनवायी होगी। कि मन अब भी उदास होता है, दुखी होता है, लेकिन अशांत नहीं होता। कि मैं बहुत हद तक सुलझती गयी हूँ। शांत होती गयी हूँ। जिसने कई कई साल ज़िंदगी के उलझन में काटे हैं, उसके लिए ये छोटा सा सुख भी बहुत बड़ा है।

इस साल मैंने अपनी सोलो स्टोरीटेलिंग की शुरुआत की। नाम रखा, छूमंतर। मेरी पहली स्टोरीटेलिंग में क़रीबन पचास लोग आए थे। एक एकदम नए नाम के लिए ये एक तरह का रेकर्ड था। इससे बहुत उम्मीद पुख़्ता हुयी। ख़ुद पर यक़ीन आया कि मैं कहानी सुना सकती हूँ। बाद के सेशन में लोग बहुत कम आए लेकिन ऑडीयन्स के साथ कमाल का जुड़ाव रहा। पिछली स्टोरीटेलिंग में ऑडीयन्स भर भर आँख थी...जैसे मेरा दिल भर आया था, वैसे ही। मैंने जाना कि तालियों का शोर ही नहीं, गहरी चुप्पी भी देर तक याद रहती है।

इसी साल दैनिक जागरण ने नीलसन से हिंदी किताबों के बेस्ट-सेलर के लिए सर्वे कराया। इसके पहले लिस्ट में मेरी किताब 'तीन रोज़ इश्क़' सातवें नम्बर पर रही। ये मेरे लिए अचरज भरी बात थी। मैंने किताब का बहुत कम प्रमोशन किया था और मेरे प्रकाशक पेंग्विन ने तो एकदम न के बराबर। सिर्फ़ वर्ड औफ़ माउथ पर किताब इतने लोगों ने ख़रीद कर पढ़ी ये मेरे लिए जादू जैसा था कि हमने कम्यूनिकेशन में पढ़ा था इस फ़ेनॉमना के बारे में। मेरी किताब के बारे में हमेशा दोस्तों ने कहा है कि तुम कुछ आसान लिखो, तुम्हारी किताब क्लिष्ट है। लोगों को समझ नहीं आएगी। पर मुझे पढ़ने वालों का एक अपना वर्ग रहा जिन्हें किताब इतनी पसंद आयी कि वे किताब को आगे बढ़ाते गए। पाठकों का इतना प्यार मेरे लिए बहुत बड़ी राहत है। कि मुझे जो कहानियाँ सुनानी हैं, वे सुनाऊँ, पढ़ने वाले लोग ख़ुद मिल जाएँगे किताब को। तो साल के अंत में, तीन रोज़ इश्क़ के सभी पाठकों को बहुत बहुत प्यार और शुक्रिया।

साल का आख़िरी और सबसे ज़रूरी शुक्रिया मेरी बेस्ट फ़्रेंड स्मृति के नाम। कि मैं जो भी हूँ, जैसी भी हूँ वो मुझे बहुत प्यार करती है। मेरे गुनाहों के साथ। मेरी बेवक़ूफ़ियों और पागलपन के साथ। मेरे सही ग़लत की उलझनों के साथ और बावजूद भी। बिना शर्तों के प्यार। बिना किसी अंतिम मियाद के। बहुत कम लोग इतने ख़ुशक़िस्मत होते हैं कि जिनकी ज़िंदगी में ऐसा कोई एक शख़्स भी हो जो उन्हें पूरी तरह प्यार कर सके। उसका होना मेरे पागल ना होने की वजह है। वो मुझे सम्हाल लेती है। वो मुझे बचा लेती है। हर बार।

ज़िंदगी और ईश्वर का शुक्रिया। इतना उदार होने के लिए। और उन छोटे छोटे सुखों के लिए कि जिनकी याद को थामे काट ली जा सकती है दुःख की लम्बी, काली रात भी।

सितम्बर। तुम्हारे होने का शुक्रिया। कि जाने कितने अगले सालों तक कोई पूछेगा कि तुम ख़ुश कब थी, पूरी पूरी...तो मैं सुख से भर भर आँख भरे...नदी की तरह छलछलाती...प्रेम में होती हुयी कहूँगी...सितम्बर २०१७ में।

आख़िर में, बस इतना...


***



ज़िंदगी
बस इतना करम रखना
कि कोई पूछे कभी
‘तुम किस चीज़ की बनी हो, लड़की?’
तो चूम सकूँ उसका माथा, और कह सकूँ
‘प्यार की’

7 comments:

  1. आपको भी ढेर सारा प्यार, तीन रोज़ इश्क़ जैसी सुंदर लिखवाट के लिए, तीन रोज़ इश्क़ के पाठक का❤️

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  2. आपको भी ढेर सारा प्यार, तीन रोज़ इश्क़ जैसी सुंदर लिखवाट के लिए, तीन रोज़ इश्क़ के पाठक का❤️

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  3. आपको भी ढेर सारा प्यार, तीन रोज़ इश्क जैसी सुंदर लिखवाट के लिए, तीन रोज़ इश्क के पाठक का।

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  4. आपको भी ढेर सारा प्यार। तीन रोज़ इश्क की सुंदर लिखवाट के लिए, तीन रोज़ इश्क के एक पाठक का।

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  5. संयोग, सुखद ही कहेंगे कि आज ही बहुत दिन बाद तुम्हारी पोस्ट पढी ! बहुत अच्छा लगा। ’तीन रोज इश्क’ को कई बार उलट-पलट कर देखा है! अब पढेंगे। तुम्हारी अगली किताब का इंतजार है ! शुभकामनायें ! :)

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  6. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’कुछ पल प्रकृति संग : ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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