16 November, 2015

मुराकामी, मोने और जरा मनमर्जियाँ

मेरे गूगल मैप्स में एक दिन की हिस्ट्री उभर आई. मेरी करेंट लोकेशन से तुम तक पहुँचने में बहुत से देश...बहुत सा समंदर...बहुत से रास्ते लांघने पड़ते...गूगल कह रहा था...नो डायरेक्ट रूट फाउंड...सही ही तो है न. तुम तक पहुँचने का कोई सीधा रास्ता तो है नहीं.
बहुत से दुःख. बहुत सी उलझन. बहुत सी खुशफहमियों को छू कर गुज़रता है तुम तक पहुँचने का रास्ता. इसमें अवसाद के नीले दिन भी आते हैं...चुप्पी की गहरी खाई भी आती है...नमक भरा आँसुओं का समंदर भी आता है...हिचकियों के ऊंचे पहाड़ भी आते हैं...मगर बात है कि इन सब हादसों से गुज़र कर भी तुम्हारे पास जाने का कोई पक्का रास्ता मिलता नहीं. सोचना ये भी है न कि तुमसे मिल ही लेंगे...फिर? 
हर बार वही इंतज़ार के इंधन को जमा करते रहेंगे...जब बहुत सा इंतज़ार हो जाएगा...इतना कि तुम तक पहुंचा जा सके...फिर तुम्हारे शहर आने का रास्ता तलाशेंगे...
गूगल फिर कहेगा...नो डायरेक्ट रूट फाउंड. इस बार हम गूगल की बात मान लेंगे और तुम्हें तलाशने की इस हिस्ट्री को हमेशा के लिए डिलीट कर देंगे.
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मैंने एक मुराकामी की नावेल पढ़ी. फिर. मुराकामी आजकल मेरे पसंदीदा लेखक हैं. किताब का नाम है स्पुतनिक स्वीटहार्ट. इसमें एक लड़का है जो एक दिन एक लड़की को अपना घर शिफ्ट करने में मदद करता है. लड़का एक स्कूल में टीचर है. बच्चों को पढ़ाता है. लड़की उसे अक्सर रात बेरात फोन करती है. वो उनींदा बात करता है उससे, लड़की कहती है कि वो जानती है कि उसकी बातों का कोई सर पैर नहीं है...मगर लड़के को एक बार उस लड़के के हिस्से का भी सोचना चाहिए...वो इतनी देर रात नींद और ठंढ में चल कर इस फोन बूथ तक आई है...और सिक्के वाले इस फोन बूथ से उसे फोन कर रही है...लड़के का भी कोई फ़र्ज़ है उसकी बातें सुने. लड़का उसकी सारी बातें सुनता रहता है. कितने कितने दिन. इस पूरी दुनिया में एक उस लड़की के साथ ही उसे नजदीकी महसूस होती है. इक रोज उसे अचानक से पता चलता है कि लड़की गुम हो गयी है, 'डिसअपीयर्ड इन थिन एयर'. वो उस ग्रीक द्वीप पर जाता है जहां से वह गायब हुयी है. उसका कोई पता नहीं चलता. वो जानता है कि लड़की मरी नहीं है कहीं...उसे कैसे तो लगता है वो किसी अँधेरे कुँए में गिर गयी है. पुलिस और डिटेक्टिव लगे होते हैं मगर उसका कोई पता नहीं चलता. लड़का जानता है कि लड़की किसी दूसरी दुनिया में चली गयी है. जैसे आईने के दूसरी तरफ वाली. उसे इंतज़ार रहता है कि लड़की फोन करेगी. 

फोन की घंटी बजती है. लड़की उससे कह रही है, 'सुनो तुम्हें मुझे यहाँ आ कर मुझे यहाँ से ले जाना होगा...मैं एक फोन बूथ में हूँ जो मालूम नहीं किधर है...मगर तुम यहाँ आ कर मुझे ले जाना...अच्छा मैं फोन रख रही हूँ, मेरे पास सिक्के ख़त्म हो रहे हैं'.
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मुराकामी की दूसरी नावेल, नार्वेजियन वुड भी ऐसे ही कहीं ख़त्म होती है. मुझे दोनों बार ये किरदार बड़े अपने से लगे हैं. बड़े तुम्हारे से भी. तुमने अगर मुराकामी को नहीं पढ़ा है तो तुम्हें जरूर पढ़ना चाहिए. मेरा मुराकामी को ट्रांसलेट करने का भी मन कर रहा है. हिंदी में. इतनी खूबसूरत चीज़ें अपनी भाषा में नहीं होंगी तो भाषा गरीब ही रहेगी.
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आजकल मेरे दिन बहुत उलझन भरे बीत रहे हैं. इतना सारा कुछ हो जा रहा है लिखने को और फुरसत धेले भर की भी नहीं है. इसी चक्कर में सच और कल्पना का घालमेल हो जाता है. मुझे ध्यान नहीं रहता कि कितनी बातें सच में हुयी हैं और कितनी बातें सोची हुयी भर हैं.
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मैं एटलांटा में म्यूजियम गयी थी. वहां मैंने मोने(Monet) की पेंटिंग देखी. यूं इसके पहले भी मैंने मोने को देखा है मगर या तो मैं किसी और मूड में रही होउंगी कि ध्यान नहीं गया. हम कभी कभी एक खास मूड में होते हैं कि जब आर्टिस्ट को देख कर हैरत से भर जाते हैं. रेजोनेंस होता है...कि हम भी वही कुछ सोच रहे होते हैं कि जो आर्टिस्ट सोच रहा होता होगा. मोने की पेंटिंग में एक कोहरे में डूबी बिल्डिंग है. इस एक्जिबिट में पेटिंग के आगे शीशे की परत नहीं लगाई गयी थी कि जैसा अक्सर बाकी पेंटिंग्स में होता है. पेंटिंग की अपनी एनेर्जी होती है. अपना औरा. कि जो इस पेंटिंग में था. मैं बहुत देर तक उस पेंटिंग के सामने खड़ी उसे एक्टुक देखती रही. गुलाबी, बैगनी और लैवेंडर रंग की पेंटिंग इतनी जीवंत थी कि वाकई लगता था कोहरे के पीछे की बिल्डिंग दिख रही है. कोहरे की परतें थीं...और जैसे सब कुछ चलायमान था...वो पेटिंग न केवल जीवंत थी बल्कि मुखर भी थी...उसे देखते हुए मेरी आँखें भर आई थीं. कि दुनिया में कितनी खूबसूरती है. और कि हम कहाँ जा रहे हैं ऐसे भाग भाग के. उसके ठीक बगल में एक और पेंटिंग थी जिसमें वसंत ऋतु के पेड़ एक झील में रिफ्लेक्ट होते हैं...हरा, सुनहला, पीला गुलाबी...कई रंग थे. ये पेंटिंग मोने ने अपने नाव से बनायी थी. उसने एक नाव को स्टूडियो में कन्वर्ट कर दिया था. उस मौसम, उस धूप को मोने ने हमेशा के लिए पेंटिंग में कैप्चर कर दिया था.

आर्टिस्ट्स में भी हमारे फेवरिट्स होते हैं. उनका लिखा कहीं हमारे मर्म को छूता है. it touches a raw nerve. कुछ टहकता है अन्दर. इसलिए महान आर्टिस्ट्स में भी हमारे फेवरिट्स होते हैं. कर्ट कोबेन को पहली बार डिस्कवर किया था तो ऐसे ही लगा था कि जैसे रूह तक पहुँच रही हो उसकी आवाज़. मोने को देखती हूँ तो यूं ही उसके पेंटब्रश के स्ट्रोक्स...इतना रियल है सब...इतना सच. मैं आभासी दुनिया में कैद थी और जैसे अचानक ही इस दुनिया में पहुँच गयी हूँ जहाँ रंग ऐसे कच्चे हैं कि उँगलियों में लगे रह जाते हैं. 

किसी पेंटिंग की फोटो देखने और असल पेंटिंग देखने में कितना अंतर होता है ये भी पहली बार महसूस किया. कि कला को उसके असल रूप में देखने की जरूरत होती है. हम जो कॉन्सर्ट या ओपेरा की रिकोर्डिंग सुनते हैं और जो असल में लाइव ओपेरा होता है उसमें ज़मीन आसमान का अंतर होता है. मैंने पहली बार जब वियेना में ओपेरा सुना था तो इसी तरह सीने में अटका कुछ महसूस हुआ था. रूह को छूने वाला कुछ. 

और फिर मुझे लगता है कि इस दौर में शायद लोग आभासी के पीछे रियल का अनुभव भूलते जा रहे हैं. कितने लोग पेंटिंग्स देखना चाहते हैं. मेरे कुछ दोस्त अभी भी चकित होते हैं कि मुझे म्यूजियम में क्या देखना होता है. कुछ लोगों का कहना है कि उन्हें पेंटिंग समझ नहीं आती है. मुझे भी पहले पेंटिंग समझ नहीं आती थी. लगता था कि क्या है कि लोग जान दिए रहते हैं पेंटिंग को लेकर. अब पहली बार महसूस किया है. ऐसी चीज़ जादू ही होती है. उसमें कैद एक लम्हा फॉरएवर के लिए वैसा ही रहेगा. हमेशा. तुम जब भी उस पेंटिंग के पास खड़े होगे तुम उस शहर, उस मौसम, उस फीलिंग तक पहुँच जाओगे. पहली बार महसूस हुआ कि काश मोने की एक पेंटिंग खरीद सकने लायक पैसे होते तो मैं भी एक पेंटिंग अपने घर में रखती. छोटी सी ही सही. मगर ऐसा जादू कि उफ़. 

विन्सेंट वैन गौग की आत्मकथा, लस्ट फॉर लाइफ एक जगह विन्सेंट करुणा से कहता है, 'कितनी दुःख की बात है कि गरीब आदमी के पास कला के लिए पैसे नहीं है. वो एक टुकड़ा कैनवस भी अपने घर पर नहीं रख सकता. उसे कला की सही समझ है. उसे पेंटिंग के भाव समझ आयेंगे. मगर अमीर आदमी कला खरीद सकता है जबकि उसे कला की कुछ भी समझ नहीं है और वह सिर्फ नाम के लिए ख्यात पेंटिंग्स खरीदता है कि अपने ड्राइंग रूम में टांग दे और अपने दोस्तों के सामने कह सके, ये पेंटिंग में इतने पैसों में खरीदी है.'.

मैंने शायद बहुत किताबें नहीं पढ़ी हैं. अपनी किताब को लेकर अभी भी संशय में रहती हूँ जब कि छपने के पांच महीने में 'तीन रोज़ इश्क़' का पहला एडिशन सोल्ड आउट हो गया, बिना किसी अतिरिक्त प्रचार प्रसार के...मुझे समझ नहीं आता कि मैं लोगों से क्या बात करूंगी. मैं किसी महान आर्टिस्ट के बारे में बात भी करूंगी तो उसकी टेक्निक या उसकी खासियत के बारे में नहीं...बल्कि उसे देखकर मुझे जो महसूस होता है उसके बारे में बात करूंगी. मुझे बहुत सी चीज़ें समझ नहीं आतीं. मॉडर्न आर्ट तो कई बार वाकई बदसूरत होता है. जैसे एटलांटा में एक एक्जीबिशन था फैशन पर. वहां एकक एक ड्रेस के पीछे आधे आधे घंटे की फिलोसफी थी. और ड्रेस न दिखने में खूबसूरत, न पहनने में प्रैक्टिकल. डिजाईन या फिर विसुअल आर्ट्स के बारे में मेरा मानना ये है कि डिजाईन को एक्प्लेनेशन की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए. अगर पढ़ कर समझना पड़े तो वो मेरे हिसाब की चीज़ नहीं.
कला भी इश्क़ जैसी होती है. यहाँ कोई चीज़ रूह तक पहुँचती है. लम्हे भर में और ताउम्र गिरफ्त में लेती है. यहाँ लॉजिक काम नहीं करता कि आको ये आर्टिस्ट पसंद आना चाहिए. मुझे पिकासो की पेंटिंग कमाल लगी थी. बेसिरपैर, लेकिन कमाल. उसके सिम्बोलिज्म को पढ़ कर उसको समझने से पहले भी पेंटिंग में कुछ था जो अपनी ओर खींचता था.
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और फिर जानती हूँ कि वोंग कार वाई को एक बार मिलने की ख्वाहिश कितनी जरूरी है. अंगकोर वात जाना क्यों रूह के लिए है...दिमाग और लॉजिक के लिए नहीं.
और इतना भी कि कहना किसी को...मैं एक बार आपकी उँगलियाँ चूमना चाहती हूँ...जिंदगी का एक मकसद कैसे हो सकता है. क्यूंकि कला समझने की नहीं, महसूसने की चीज़ है.
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लिखते हुए शिकागो में दिन उग आया है. कमरे की खिड़की से बेतरह खूबसूरत सुबह दिख रही है. आज मोने को देखने जाउंगी शिकागो म्यूजियम में. आज कुछ तसवीरें. मेरी आँखों से ऐसी दिखती है दुनिया.


1 comment:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 19-11-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2165 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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