पान सिंह तोमर...इसके प्रोमो देखे थे तब ही से सोच रखी कि फिल्म तो देखनी ही है...पर सोच रही थी अकेले देखने जाउंगी कुणाल या फिर बाकी जिन दोस्तों के साथ फिल्में देखती हूँ शायद उन्हें पसंद न आये...ये पलटन क्या...अधिकतर लोगों का फिल्मों के प्रति आजकल नजरिया है कि फिल्में हलकी-फुलकी होनी चाहिए...जिसमें दिमाग न लगाना पड़े. हफ्ते भर ऑफिस में इतना काम रहता है कि वीकेंड पर कहीं दिमाग लगाने का मूड नहीं रहता. ब्रेनलेस कॉमेडी हिट हो जाती है और अच्छी फिल्में पिछड़ जाती हैं. अफ़सोस होता है काफी...मगर उस पर फिर कभी.
पान सिंह तोमर एक बेहतरीन फिल्म है...इसे देख कर प्रेमचंद की याद आती है...सरल किस्सागो सी कहानी खुलती जाती है...बहुत सारे प्लोट्स, लेयर्स नहीं...सीधी सादी कहानी...और सादगी कैसे आपको गहरे झकझोर सकती है इसके लिए ये फिल्म देखनी जरूरी है. बहुत दिन बाद किसी फिल्म को देखते हुए आँख से आंसू टपक रहे थे...आँखें भर आना हुआ है पहले भी मगर ऐसे गहरे दर्द होना...उसके लिए एक लाजवाब निर्देशक की जरूरत होती है. तिग्मांशु धुलिया किस्से कहने में अपने सारे समकालिक निर्देशकों से अलग नज़र आते हैं. सीधी कहानी कहना सबसे मुश्किल विधा है ऐसा मुझे लगता है. फिल्म का सहज हास्य भी इसे बाकी फिल्मों से अलग करता है.
कास्टिंग...अद्भुत...इरफ़ान एक बेहतरीन कलाकार हैं...चाहे डायलोग डिलीवरी हो या कि बॉडी लैंग्वेज. कहीं पढ़ा था कि एक धावक के जैसी फिजिक के लिए इरफ़ान ने बहुत मेहनत और ट्रेनिंग की थी...फिल्म में उनके दौड़ने के सारे सीन...चाहे वो पैरों की कसी हुए मांसपेशियां हों कि बाधा पर घोड़ों के साथ कूदने का दृश्य...सब एकदम स्वाभाविक लगता है. पान सिंह एक खरा चरित्र है...जैसे हमारे गाँव में कुछ लोग होते थे...मन से सीधे...कभी कभी गंवार...उसे बात बनानी नहीं आती...सच को सच कहता है. फिल्म का सीन जब अपने वरिष्ठ अधिकारी से बात कर रहा है तो संवाद अदायगी कमाल की है...'देश में तो आर्मी के अलावा सब चोर हैं' या फिर शुरुआत का पहला सीन जो ट्रेलर में भी इस्तेमाल किया गया है 'बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत तो पार्लियामेंट में पाए जाते हैं'. एक्टिंग के बारे में एक शब्द उभरता है 'टाईट एक्टिंग किया है'.
तिग्मांशु को क्रेडिट जाता है कि ऐसी अलग सी कहानी उन्होंने उठाई तो...देश में क्रिकेट के अलावा सारे स्पोर्ट्स की बुरी स्थिति है...ओलम्पिक में जीतने वाले हमारे एथलीट्स को किसी तरह का कोई संरक्षण नहीं है...फिल्म देख कर इसका सच तीर की तरह चुभता है कि जब आप जानते हो कि बागी सिस्टम बनाता है. फिल्म में निर्देशक न्यूट्रल है...वो कहीं किसी को अच्छा बुरा नहीं कहता...खाके नहीं खींचता. फिल्म कहानी कहती है...पान सिंह तोमर की...कैसे वो पहले फौज में थे, कैसे खेल में पहुंचे और कैसे आखिर में बागी हो गए...फिल्म किस्सागोई की परंपरा को एक कड़क सैल्यूट है.
मैं रिव्यू इसलिए लिख रही हूँ कि ऐसी फिल्में देखी जानी चाहिए ताकि ऐसी और फिल्में बनें...साल में कम से कम कुछ तो ऐसी फिल्में आयें कि देख कर लगे कि फिल्म बनाने वाले लोग सोचते भी हैं. वीकेंड है...आपके पास फुर्सत है...तो ये फिल्म जरूर देख कर आइये...निराश नहीं होएंगे.
मेरी ओर से फिल्म को ४/५ स्टार्स.
पान सिंह तोमर एक बेहतरीन फिल्म है...इसे देख कर प्रेमचंद की याद आती है...सरल किस्सागो सी कहानी खुलती जाती है...बहुत सारे प्लोट्स, लेयर्स नहीं...सीधी सादी कहानी...और सादगी कैसे आपको गहरे झकझोर सकती है इसके लिए ये फिल्म देखनी जरूरी है. बहुत दिन बाद किसी फिल्म को देखते हुए आँख से आंसू टपक रहे थे...आँखें भर आना हुआ है पहले भी मगर ऐसे गहरे दर्द होना...उसके लिए एक लाजवाब निर्देशक की जरूरत होती है. तिग्मांशु धुलिया किस्से कहने में अपने सारे समकालिक निर्देशकों से अलग नज़र आते हैं. सीधी कहानी कहना सबसे मुश्किल विधा है ऐसा मुझे लगता है. फिल्म का सहज हास्य भी इसे बाकी फिल्मों से अलग करता है.
एक अच्छी फिल्म के सभी मानकों पर पान सिंह तोमर खरी उतरती है, पटकथा, निर्देशन, एक्टिंग, एडिटिंग और लोकेशन. बेहतरीन पटकथा, एकदम कसी हुयी...कहीं भी फिल्म ढीली नहीं पड़ती, हर किरदार की तयशुदा जगह है, यहाँ कोई भी सिर्फ डेकोरेशन के लिए नहीं है...चाहे वो पान सिंह की पत्नी बनी माही गिल हो या कि उसका बेटा. डायलोग में आंचलिक पुट दिखावटी नहीं बल्कि स्क्रिप्ट में गुंथा हुआ था तो बेहद प्रभावशाली लगा है.
कास्टिंग...अद्भुत...इरफ़ान एक बेहतरीन कलाकार हैं...चाहे डायलोग डिलीवरी हो या कि बॉडी लैंग्वेज. कहीं पढ़ा था कि एक धावक के जैसी फिजिक के लिए इरफ़ान ने बहुत मेहनत और ट्रेनिंग की थी...फिल्म में उनके दौड़ने के सारे सीन...चाहे वो पैरों की कसी हुए मांसपेशियां हों कि बाधा पर घोड़ों के साथ कूदने का दृश्य...सब एकदम स्वाभाविक लगता है. पान सिंह एक खरा चरित्र है...जैसे हमारे गाँव में कुछ लोग होते थे...मन से सीधे...कभी कभी गंवार...उसे बात बनानी नहीं आती...सच को सच कहता है. फिल्म का सीन जब अपने वरिष्ठ अधिकारी से बात कर रहा है तो संवाद अदायगी कमाल की है...'देश में तो आर्मी के अलावा सब चोर हैं' या फिर शुरुआत का पहला सीन जो ट्रेलर में भी इस्तेमाल किया गया है 'बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत तो पार्लियामेंट में पाए जाते हैं'. एक्टिंग के बारे में एक शब्द उभरता है 'टाईट एक्टिंग किया है'.
तिग्मांशु को क्रेडिट जाता है कि ऐसी अलग सी कहानी उन्होंने उठाई तो...देश में क्रिकेट के अलावा सारे स्पोर्ट्स की बुरी स्थिति है...ओलम्पिक में जीतने वाले हमारे एथलीट्स को किसी तरह का कोई संरक्षण नहीं है...फिल्म देख कर इसका सच तीर की तरह चुभता है कि जब आप जानते हो कि बागी सिस्टम बनाता है. फिल्म में निर्देशक न्यूट्रल है...वो कहीं किसी को अच्छा बुरा नहीं कहता...खाके नहीं खींचता. फिल्म कहानी कहती है...पान सिंह तोमर की...कैसे वो पहले फौज में थे, कैसे खेल में पहुंचे और कैसे आखिर में बागी हो गए...फिल्म किस्सागोई की परंपरा को एक कड़क सैल्यूट है.
मैं रिव्यू इसलिए लिख रही हूँ कि ऐसी फिल्में देखी जानी चाहिए ताकि ऐसी और फिल्में बनें...साल में कम से कम कुछ तो ऐसी फिल्में आयें कि देख कर लगे कि फिल्म बनाने वाले लोग सोचते भी हैं. वीकेंड है...आपके पास फुर्सत है...तो ये फिल्म जरूर देख कर आइये...निराश नहीं होएंगे.
मेरी ओर से फिल्म को ४/५ स्टार्स.
आज ही जाकर देख आते हैं
ReplyDeleteजरूर देख आइये. फिल्म बहुत अच्छी है.
Deleteदेख ली, हम ५ में ४.५ देंगे। झाँसी की पोस्टिंग के समय मुरैना से लगे बीहड़ में १ किमी अन्दर तक गया हूँ, वहाँ की बोली अभी भी कानों में गूँजती है। कभी ब्लॉग पर एक बागी का गाया हुआ 'चम्बल का पानी' नाम की कविता सुनाऊँगा। बहुत सोचने को विवश करते हैं, चंबल के बीहड़।
Deleteakele dekhni jani pade shayad...par koshish jarur karungi.aap logo ko pasand aai matlab film me dam jarur hoga
Deleteअच्छी फिल्मों को भी सिफारिश की जरूरत पड़ती है, खास तौर पर आज | अभी इतनी सारी वाहियात फ़िल्में बन रही हैं कि पान सिंह तोमर जैसी उम्दा फ़िल्में बहुत आराम से नजर-अंदाज कर दी जायेंगी | इसके लिए आपने लिखा, जो कि जरुरी भी था, बेहद शुक्रिया |
ReplyDeleteअच्छी फिल्मों को ही सिफारिश की जरूरत पड़ती है...कहीं न कहीं हमारा फ़र्ज़ भी बनता है कि ऐसी फिल्मों को थोड़ी सी 'word of mouth' पब्लिसिटी दें. इतना कुछ लिखा जा रहा है जो किसी उद्देश्य के लिए नहीं है...कभी कभार कुछ अच्छा भी करना चाहिए. :) :)
Deleteआप फिल्म देखने जा रहे हैं या नहीं?
देश में तो आर्मी के अलावा सब चोर हैं.
ReplyDeleteYe film ka samvaad hai ya aapka ?
फ़िल्म का... देख के आओ तो सही
Deleteसबसे बड़ी बात इस सिनेमा की ये थी कि, इसने ऐसा समां बाँधा था कि आखिरी सीन के खत्म होने के बाद भी लोग अपनी जगह से उठ नहीं रहे थे और वहां लिखे जा रहे सभी खिलाडियों के नाम पढ़ रहे थे जिनका अंत कष्टमय रहा. जबकि उस समय रात के एक बज रहे थे, फिर भी कोई हड़बड़ी नहीं किसी में.
ReplyDeleteफिल्म है ही अद्भुत...मुझे हालाँकि ये देख कर दुःख हुआ कि हॉल लगभग खाली ही था जबकि दिन का शो था और अभी कोई ढंग की और फिल्म भी नहीं रिलीज हुयी है फिर भी ऐसा रिस्पोंस...इसलिए लगा कि एक पोस्ट तो लिखनी पड़ेगी. अच्छी चीज़ों को प्रमोट करना बेहद जरूरी है. फिल्म जिसने भी देखी है अच्छे रिव्यू दिए हैं.
Deleteजबकि यहाँ चेन्नई में लेट नाईट शो भी हाउसफुल थी.
Deleteआज ही कहीं पढ़ रहा था कि इस फिल्म पर रोक लगाने की याचिका दायर की गई है उन लोगों के सगे संबंधियों द्वारा जिन्हें पान सिंह तोमर ने ख़त्म कर दिया था। उनका कहना है कि हमारे परिवारों को फिल्म में अत्याचारी दिखाया गया है।
ReplyDeleteबहरहाल फिल्म के अच्छे पहलुओं के बारे में बताने के लिए शुक्रिया ! मुझे लगता है फिल्म को और प्रमोट किया जाना चाहिए था जैसा कि आजकल विद्या बालन की फिल्म 'कहानी' को किया जा रहा है।
अच्छी फिल्मों को ही सिफारिश की जरूरत पड़ती है...आजकल !
ReplyDeleteआप की बात से १०० % सहमत | बाहर शायद न जा पाऊं ,डी वी डी पर देखने की इच्छा जरूर रखता हूँ |
खुश और स्वस्थ रहें !
शुभकामनाएँ !
Can understand you, sometimes few things which we love, want to tell all so that particular thing ii get the attention what it deserve. I saw "तुम मिलों तो सही" long back n could not stop self to share it. (http://rahulpaliwal.blogspot.in/2010/04/blog-post.html)..
ReplyDeleteI am going to watch this, after a long time, any movie in the theatre.
आपसे महज आधा कम स्टार ने दिया है मैंने भी !
ReplyDeleteज़रूर देखेंगे...
ReplyDeleteआज जब "पान सिंह तोमर" देखने जा रहा था तो फिल्म को लेकर दिमाग में कई सवाल थे... सवाल इसलिए भी थे पान सिंह का बीहड़ का जो समय था... मलखान, पान सिंह, फूलन, घंसा बाबा, मुस्तकीम- मुस्लीम , छविराम....भिंड में इन सबकी ख़बरें अखबार में पढ़ -पढ़ कर ही मेरी किशोरावस्था बीती थी . या यूँ कहें घर में इकलौता पुत्र होने के कारण कहीं ना कहीं खौफ में भी बीती . क्योंकि उस समय पकड़ के लए इन तथाकथित बागियों की पहली पसंद खाते-पीते घरों के इकलौते पुत्र ही हुआ करते थे.
ReplyDeleteबहारहाल ..... बात फिल्म की करते हैं ..निसंदेह तिग्मांशु धूलिया ने 'हासिल' के बाद बहुत लम्बी छलांग मारी है. इरफ़ान को हमारे समय की अभिनय की किताब कहा जाय तो अतिश्योक्ति ना होगी. पान सिंह के पात्र से बाहर निकलने में उन्हें लंबा वक़्त लगा होगा. संवाद अदायगी के समय उनका जो सुर लगता है ... लाजवाब है. ( ये बात जिम्मी शेरगिल के पास भी है , लगता है हासिल के समय इरफ़ान से ही सीखी है उन्होंने )
फिल्म लगातार आपको जकड के रखती है. फिल्म में अस्सी प्रतिशत सच्चाई है बाकी बीस प्रतिशत फिल्मकार का हक है कि वो घालमेल करे . वरना कहानी में रोमांच को प्रारंभ से लेकर अंत तक बनाये रखना मुश्किल था. बेकग्राउंड म्यूजिक बेहतरीन है. कहीं कहीं बेंडिट क्वीन की याद दिलाता है. वो शायद इसलिए क्योंकि सारा बीहड़ एक जैसा ही दिखता है.
फिल्म तमाम जगह दिल को छूती भी है जैसे एक दृश्य है. पान सिंह एनकाउन्टर से कुछ समय पहले अपने कोच से मिलने जाता है ... ओर वहां उस फोटो एल्बम को देखता है जिसमें वो हर फोटो में खिलाड़ी नजर आ रहा है.. अपने आँखों में आंसू भर लेता है ......
अब बात करें असली पान सिंह की ....यानी ये फिल्म पान सिंह के लिए बहुत सारी भावुकता जगाती है . पान सिंह को हीरो बनाती है .
मगर यहाँ सवाल उन निर्दोषों का भी है जिनकी हत्याएं उन्होंने पुलिस का मुखबिर मान कर की. उन परिवारों के जख्म अभी भी ताजा हैं, ये फिल्म कहीं ना कहीं उन्हें फिर से कुरेद देती है.
ये बात सच है कि कोई मर्जी से बागी नहीं होता. तात्कालिक स्थितिया उसे धकेलती हैं. मगर ये बात भी सच है कि वही बागी बाद में डाकू हो जाता है.लूट ह्त्या अपहरण उसे खेल लगने लगता है ..... समाज उससे भय खाने लगता है डर के मारे उसकी इज्जत भी करता है. पान सिंह भी अपने अंतिम समय में कुछ ऐसे ही थे. मेरी स्म्रतियों में वे नायक कभी नहीं थे
बढ़िया विश्लेषण...
ReplyDeleteअच्छी समीक्षा की है..मैंने भी देखी है तथा कुछ अपने ब्लॉग पे लिखा भी है फिल्म के बारे में...आपका स्वागत है filmihai.blogspot.com पर
ReplyDeletesach mein ek behtreen film hai..aisi filmen bahut hi kam banti hain..
ReplyDeletemaine bhi kuch din pahle dekha ye film..
मैं चम्बल से ही हूँ... पान सिंह की कई कहानिया बचपन से सुन रखी थी.... पान सिंह पर बना यह सिनेमा शानदार है...
ReplyDeleteएक बहुत अच्छी फिल्म पर एक बहुत अच्छा रिव्यू
ReplyDeletei had expected a lot form this movie , from point of story..
ReplyDeletebut it is simple, yet gr8, somewhere it touch my heart..
"dil me ek kasak si rah gayi
or aansu bhi aa hi agye"