20 December, 2010

मुझे जां ना कहो मेरी जां

'जान'...तुम जब यूँ बुलाते हो तो जैसे जिस्म के आँगन में धूप दबे पाँव उतरती है और अंगड़ाइयां लेकर इश्क जागता है, धूप बस रौशनी और गर्मी नहीं रहती, खुशबू भी घुल जाती है जो पोर पोर को सुलगाती और महकाती है. तुम्हारी आवाज़ पल भर को ठहरती है, जैसे पहाड़ियों के किसी तीखे मोड़ पर किसी ने हलके ब्रेक मारे हों और फिर जैसे धक् से दिल में कुछ लगता है, धडकनें तेज़ हो जाती हैं साँसों की लय टूट जाती है. इतना सब कुछ बस तुम्हारे 'जान' बुलाने से हो जाता है...एक लम्हे भर में. तुम जानते भी हो क्या?

कभी कभी यूँ ही तुम्हारी आवाज़ सुनने की हसरत जाग जाती है...तब मैं आँखें बंद कर सोचने की कोशिश करती हूँ कि तुम कैसे बोलते हो...पर कहीं ना कहीं याद में कोई कमी रह जाती है और याद की तुम्हारी आवाज़ तुम्हारी आवाज़ जैसी बिलकुल नहीं लगती. तुम्हारी आवाज़ को याद करते हुए मुझे अपने संगीत सीखने के दिन याद आते हैं...जब पहली बार जाना था कि मन्द्र सप्तक के सुरों में नीचे बिंदी लगाते हैं और तार सप्तक के सुरों में ऊपर...कोमल स्वरों में छोटी रेखा खींचनी होती है स्वर के नीचे...वो बचपन के दिन थे, कई बार सही मात्राएँ लगाना भूल जाती थी...ऐसे में राग की 'पकड़' से राग समझना बहुत मुश्किल हो जाता था. वो मात्राएँ ही राग का स्वरुप निर्धारित करती थीं उनके बिना रियाज़ नामुमकिन था...मेरा अगला संगीत का क्लास एक हफ्ते बाद होता था. उस पूरे हफ्ते मैं किसी सुनी हुयी धुन को बजाने की कोशिश करती रहती थी. पर हर बार कहीं ना कहीं कोई सुर गलत लग जाता था और आलाप बहुत ही बेसुरा हो जाता था. ऐसा ही कुछ होता है तुम्हारी आवाज़ को तलाशने पर...कभी भी कुछ पूरा नहीं मिलता. मैं किन्ही अँधेरी गुफाओं में टटोल कर बढ़ती रहती हूँ कि कहीं तुम्हारी याद की कोई प्रतिध्वनि कहीं से टकरा के वापस लौट रही हो...उससे तुम्हारा पता पूछ लूंगी.

तुम्हारे बिना एकदाम खामोश अँधेरा होता है और मैं खुद को एक सीलन वाली सुरंग में पाती हूँ...वहां बस पानी कि टप-टप सुनाई पड़ती रहती है. मैं चाहती हूँ कि मैं अपनी धड़कनें सुन सकूँ...पर ख़ामोशी इतनी गहरी होती है कि जैसे दिल धड़कना बंद कर देता है. ऐसे उदास अकेलेपन में जिस्म ऐंठना शुरू कर देता है...तुमने जेठ के समय के खेत देखे हैं? कभी कभी दरारें पड़ जाती हैं कुछ वैसी ही टूटन सी होती है. कई बार यूँ भी लगता है कि सब कुछ एकदम कठोर, एकदम शीशे की तरह पारदर्शी भी हो गया है. इस बार जब तुम आओगे और कहोगे 'जान' तो मैं छन् से बिखर जाउंगी एकदम छोटे टुकड़ों में.

तुम्हारी आवाज़ के खालीपन को कई चीज़ों से भरने की कोशिश भी करती हूँ...दूर सड़क पर दौड़ते बस, ट्रक, स्कूटर...पेड़ पर बैठा कव्वा, बैक होती गाड़ी का सायरन...फ्रिज का हल्का वाइब्रेशन, नीचे गली से आता लोगों का शोरगुल...सब सुनती हूँ. कुछ लोगों को फोन भी करती हूँ...कभी गाने भी सुनती हूँ पर ये जिद्दी दिल है कि अड़ा हुआ है...तुम्हारी आवाज़ ही चाहिए और कुछ भी नहीं. सारे खिलोने तोड़ डाले कि 'मैय्या मैं तो चन्द्र खिलौना लैहों'. अब मैं इस दिल को चाँद कहाँ से ला के दूं?

रात को नींद नहीं आती, लगता है कि मर जाउंगी. कि सोचती हूँ कि मरने के पहले, एक पल को सब कुछ ठहर जाए...तुम सामने रहो और उठ कर एक बार तुम्हारे होठों को चूम लूं.

मुझे जां ना कहो, मेरी जां
जां ना कहो, अनजान मुझे
जां कहाँ रहती है सदा



(बंगलोर की एक ठंढी दोपहर...सुबह से इस गीत को सुनने के बाद...गीता दत्त के कहानी से वाकिफ होते हुए,  याद के एक ज़ख्म को सहलाते हुए लिखी गयी)

12 comments:

  1. कभी वंदना राग ! कभी मनीषा कुलश्रेष्ट ! स्मृति, विस्मृति, जयशंकर प्रसाद, आंसू... घुटन,

    माना कि खेत में दरार पड़ी है पर अन्दर नमी है, और बहुत अन्दर सोया हुआ सोता.... फव्वारा .... फूटेगा तो देर सवेर खुद को भी सींचेगा ही.

    गद्द के रूप में पद्द जैसी प्रेममयी विरह... सुन्दर !

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  2. क्या बात है ......मैं तो उन उदाहरणों में उतर कर देख समझ रहा हूं कि ये प्रेम की अतिरेक अनुभूति है या विरह का कोरस ..कमाल की पंक्तियां और शब्द हैं हमेशा की तरह अविरल उछलती लहरें ...साझा करने जा रहा हूं फ़ेसबुक पर

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  3. मन के उन गहरे भावों को समझने का प्रयास कर रहा हूँ जो अनुभव नहीं हो पाते हैं।

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  4. कभी कभी ऐसे ही भाव उमडते हैं जिनमे उतर जाओ तो वापस आना मुश्किल हो जाता है और उन भावो को बखूबी प्रस्तुत किया है…………बेहद कोमल अहसास्।

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  5. पूजा, तुमने जों लिखा....उस महसूस करने की कोशिश की....लेकिन कोशिश के लिए ख्यालों में कोई आमद होनी चाहिए थी...वो नहीं थी.....असफल हम हुए ...तुम नहीं ..जों भी है...जैसा भी खूबसूरत तो है

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  6. पूजा...पूजा ..पूजा... कई बार ऐसा क्यों होता है की किसी को पढो तो लगता है मानो अपने दिल की बात लिखी गयी है और बिलकुल वैसे ही जैसे शायद हम लिखना चाहते थे! अच्छा लगा पढ़कर....और हाँ..इन संगीत की मात्राओं और पकड़ से मैं भी बहुत जूझी हूँ. इसका ज़िक्र अच्छा लगा !

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  7. कितना कुछ महसूस करना पड़ा होगा - ये ३-४ पैराग्राफ लिखने के लिए......

    बहुत कुछ समेटे - गहरे भाव लिए ये शब्द.....

    आज निशब्द.

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  8. kyaa kahe ...padhkar bas kuch pal khamosh baithne ka man hai ...:)

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  9. बहुत खूब!
    पहाड़ियों के तीखे मोड़ पे हलके ब्रेक
    हर्फ़ की बिंदी लगाना भूल जाना
    सुरंग में पानी की टप टप
    जेठ के मौसम में खेत
    बैक होती गाडी का सायरन,
    फ्रिज की मद्धम वाइब्रेशन,
    तुम्हारी आवाज़ ही चाहिए और कुछ भी नहीं

    बस जी हमने तो नज्म बुन ली है |

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  10. कल बैंगलोर का मौसम वाकई मस्त था...कल पढता ये पोस्ट तो फीलिंग्स कुछ अलग सी तो लगती ही...:)

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  11. आपकी अति उत्तम रचना कल के साप्ताहिक चर्चा मंच पर सुशोभित हो रही है । कल (27-12-20210) के चर्चा मंच पर आकर अपने विचारों से अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।

    http://charchamanch.uchcharan.com

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