06 November, 2010

नैना लग्यां बारिशाँ

वो आती तो हवाओं को हलके से छू कर खिलखिला देती, पलकें झपकतीं और हवा मुस्कुराती उसकी मासूमियत पर और अपनी मुट्ठी में उसकी उँगलियों की थिरकन को भर लेती. फिर वहां से चल देती और घंटों एक लड़के के एसी ऑफिस के सामने बैठी रहती, कि कोई आये दरवाजा खोले ताकि वो चुपके से दाखिल हो सके. ऑल इण्डिया रेडिओ के कालीनों वाले फर्श पर हवा की आहट सुनाई नहीं पड़ती और मोटी दीवारें ऐसी हैं कि आवाजें उनसे टकरा के गुम हो जाएँ...तो हवा के लिए ये जरूरी हो जाता कि वो उस लड़के को ढूंढ निकाले ये बताने के लिए कि हवा को गुदगुदी लगाने वाली लड़की दिल्ली आ गयी है और जल्दी ही उसे परेशान करने भी आ जायेगी. लड़का सर उठा के देखता तो हवा खुशी से गोल-गोल चक्कर काटने लगती और उसके लिखे रेडिओ स्क्रिप्ट्स तितिर बितर हो जाते...वो न्यूज़ की जगह कहानी लिखने लगता, सादे कागजों पर कविता लिख देता. हवा ये सारी गलतियाँ देख कर बहुत खुश हो जाती. शाम के बादलों तक सारी खबर पहुँच जाती और दिल्ली लहलहाती यमुना में अक्स देख कर सँवरने लगती. 

लड़की बहुत कम बोलती थी...उसके पास एक डुप्लीकेट चाबी हुआ करती थी, लोहे का छोटा सा जादुई बटन...ताला खुलता था और सारा कमरा घर में बदलने लगता था. कपड़े अलगनी पर टंग जाते थे...हवा धूल को पटकनी मार कर बाहर भगा आती थी,   डब्बों में मिठाइयाँ, मैगी, बिस्कुट, काजू-किशमिश भर जाते थे...पड़ोसी भी घी की गंध ताड़ लेते थे...बगल के कमरे वाले लड़के खुश हो जाते थे कि शाम को अब जाने पर चाय मिला करेगी. 

शिफ्ट ख़तम हुए काफी वक़्त गुज़र जाता था, अचानक लड़के को याद आता था कि घर जाना है...उठता था तो दरवाजे के शीशे में अपना चेहरा देख कर सोचता था कि बिना उसके आये भी शेव बनवानी चाहिए वरना डांट खाने का चांस बढ़ जाता है. झोला उठाता था और स्क्रिप्ट्स ले लेता था कि वो देख कर खुश होगी...बस स्टैंड पर लड़की दिखती थी, मूंगफली खाती हुयी. आखिरी बस अक्सर काफी खाली आती थी...वो सबसे पीछे वाली सीट पर बैठती थी उसके साथ. चेहरा नोट करती थी...कहती कुछ नहीं थी...गाना गाती थी...मेरे पिया हुए लंगूर...मुस्कुराती थी, बस. रास्ते में उसकी स्क्रिप्ट चेक कर देती थी. हवा खिड़की से उछल-कूद करने अन्दर आती रहती थी...उसके बालों में भीनी खुशबू रहती थी. लड़का सोचता था ये कौन सा शम्पू लगाती होगी...सारे तो उसने ट्राई कर डाले हैं पर कभी उस जैसी खुशबू नहीं मिली. हवा हँसती थी उसकी खोज पर. बस स्टॉप से पहले लड़के का घर पड़ता था, फिर लड़की का होस्टल...पहले स्टॉप पर दोनों साथ उतरते थे और एक आध किलोमीटर चलकर लड़की के होस्टल तक जाते थे. 

रास्ते में ढेर सारे लैम्प-पोस्ट पड़ते थे...उनकी परछाईयाँ एक साथ चलती थीं, साथ चलते उसके बाल हलके हलके हवा में उड़ते रहते...परछाई पीले रौशनी में भूरी नज़र आती थी. लड़की को परछाई अपने जैसी लगती थी...कुछ पल का साथ जो बेइंतिहा खूबसूरत होता था पर उससे ज्यादा कुछ नहीं. वो अक्सर साथ चलते हुए उसका चेहरा देखने के बजाई परछाई देखते चलती थी...
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दिल्ली में सालों से वैसी प्यारी हवा नहीं चली है...लड़का अब सेनियर एडिटर हो गया है...बहुत कुछ करता है एक साथ, उसकी स्क्रिप्ट्स चेक करने के लिए ढेर सारे जूनियर लोग हैं. माँ घर पे रिश्ते देख रही है...और वो आजकल कम बोलने लगा है...उसे लगता है हवा शायद कुछ कहना चाहती हो. हवा आजकल चुप है. 

9 comments:

  1. हवा....पहली बार ऐसी कल्पना पढ़ी ..हवा को माध्यम बनाया है ..और कहानी में बहुत कुछ समेट लिया है ...हवा को भी उन दोनों को एक साथ देखना भाता था ...बहुत अच्छी कहानी ..

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  2. क्यों यह फिर एक बार हो गया.
    बहुत कचोटती है ऐसी कहानियाँ..

    बहुत करीब हूँ इस कहानी से...

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  3. लैम्पपोस्ट पर लम्बाई बदलती छायायें, बिना अनुभव किये लिखना कठिन।

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  4. ankahe hi sab kah gayi hawa!!!
    sundar likha hai!!!

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  5. सुन्दर.. हवा के खोंको के साथ का सफर और गीत..सुन्दर पोस्ट..

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  6. सुवासित हवा के झौंके का स्पर्श समेटे एक खूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार.
    सादर
    डोरोथी.

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  7. सच है, दिल्ली में सालों से वैसी प्यारी हवा नहीं चली है|

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  8. होंठों पर बरबस मुस्कराहट फ़ैल गयी जो देर तक रही फिर धूमिल हुई. सचमुच यह कई सारी कल्पनाएँ जाग गयी तुम जितना लिखी उससे कहीं ज्यादा... हाँ ऐसे कह सकते हैं की इसने उत्प्रेरक का काम किया है.

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