कहीं से कोई आसमां टूटे, कहर बरपा हो
तुम बिन जी रही हूँ मेरी कोई सजा हो
आतिशें शाम को सुलगाएं, सूरज जलता रहे
घर जाने के रास्ते में रुकता, थमता जलजला हो
भूल जाऊं सारे शब्द, खो जाएँ किताबें मेरी
दर्द टूट के उभरे और लिखना न आता हो
हाथों में उभर आये टूटी कई लकीरें
इन रास्तों में मंजिल का कोई पता ना हो
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ReplyDeleteइसे में बहुत करीब से महसूस कर रहा हूँ....
ReplyDeleteइसकी बहुत जरुरत थी... आखिर हफ्ते हो गए थे
ReplyDeleteकहीं से कोई आसमां टूटे, कहर बरपा हो
ReplyDeleteतुम बिन जी रही हूँ मेरी कोई सजा हो
अनोखी सोच
तुम बिन जी रही हूँ मेरी कोई सजा हो .nice
ReplyDeleteदर्द टूट के उभरे और लिखना न आता हो..............बहुत ही खुबसुरत पंक्तिया हैं ये ,.....वाह
ReplyDeleteभूल जाऊं सारे शब्द, खो जाएँ किताबें मेरी
ReplyDeleteदर्द टूट के उभरे और लिखना न आता हो
ओह ये तो बहुत बडी सजा हो जायेगी। बहुत अच्छी प्रस्तुति है शुभकामनायें
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
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