तरसती हूँ मैं
तुम्हारी आवाज के एक टुकड़े के लिए
जिसे तकिये तले रख
मुझे रात को नींद आ जाये
तड़पती हूँ मैं
अपनी खाली मुट्ठी में
तुम्हारे शर्ट पकड़ने को
थोड़ी देर ही सही
सिसकती हूँ मैं
तुम्हारे कंधे के लिए
कितने दिन कितनी रात
मुझे याद नहीं
अब जैसे आदत सी है
तुमसे नहीं मिलने की
तुम्हारा इंतज़ार करने की
जानते हुये कि आ नहीं पाओगे
टुकड़े टुकड़े सब
तुम्हें माँग ले जाते हैं मुझसे
तुम्हारी माँ
तुम्हारे ऑफिस के लोग
और हालात...
मैं रह जाती हूँ
दिन बीते
अपनी सूनी हथेली को देखती हुयी
मेहंदी की धुली हुयी लकीरों में
कहीं अपने सपने तलाशती हुयी
बस कुछ शैतान आंसू
आँखों में चले आते हैं
बदमाश बच्चों की तरह
मैं यादों के आँचल से
आँखें पोंछ लेती हूँ
और गांठ लगा देती हूँ ताकि भूल ना जाऊँ
यादों की गीली चुनरी ओढ़े
हर रात सो जाती हूँ
ये सोचते हुये
कि शायद कल तुम आओगे...
कल जो खुद नहीं आता
ReplyDeleteवह किसी को क्या लाएगा
अपने साथ
करने देगा अपनों से बात।
सुन्दर रचना...
ReplyDeleteटुकड़े टुकड़े सब
ReplyDeleteतुम्हें माँग ले जाते हैं मुझसे
par tum phir bhi hamesha mere saath hi hote ho!!!
गहन ...मर्म को छूती हुई रचना ...
ReplyDeleteगाँठ लगा लेती हूँ .. ताकि भूल न जाऊं .. बहुत सुंदरता से लिखी मन की बात
ReplyDeleteसुन्दर...!!
ReplyDeletekalamdaan.blogspot.com
सदा जी को आभार की इस प्रेमपुर्ण रचना के पढ़ने का अवसर दिया। आपको लिए तो बस प्रेम में इसी तरह डुबी रह इंतजार करते है इंतजार के खत्म होने तक।
ReplyDeleteबहुत ही प्रेम में डूबी कविता।
दिल से महसूस किया गया।
आभार।