07 March, 2023

अपनी कहानी कोई नहीं

मैं किस किताब में  जी रही हूँ? रात से रो रो कर आँखें सुजा ली हैं। 

सुबह उठी तो मेसेज देखा society ग़्रुप पे, कि होली वीकेंड में मनाएँगे। 

हम अपने साथ क्या ला सकते हैं किसी जगह से? मैं कहाँ ला पायी हूँ दिल्ली से पलाश का एक फूल, या कि उँगलियों में उसकी ख़ुशबू या कि उसका रंग ही। यहाँ होली सहूलियत का त्योहार है, वहाँ मन का। मुहब्बत का। शरारत का। उस शहर में कहा, तुम्हें थोड़ा रंग लगा दूँ, तो शहर कहता है, मैं तुम्हारे ही रंग में रंगा हूँ जानां, मुझ पर अब और क्या रंग लगाओगी। 


इश्क़ रंग। 


पिछली किताब के बाद मेरे पास कुछ भी था। कुछ भी नहीं। जिंदगी के सारे हसीन क़िस्से, सारे हौलनाक हादसे, सब ख़त्म हो गए थे। पिछले चार सालों में मैंने लगभग कुछ नहीं लिखा है। कोविड के बाद जिंदगी में इतनी uncertainity हो गयी थी कि ना क़िस्से पे यक़ीन होता था, किसी से मिलने पर। चार साल कितना लम्बा अरसा होता है, ये बता नहीं सकते। इसे सिर्फ़ महसूस कर सकते हैं। कि आज सुबह से सिर्फ़ इसलिए रोना रहा है कि यक़ीन नहीं हो रहा कि इतने लम्बे इंतज़ार के बाद वाक़ई मिलते हैं लोगों से। कि गले लगते हैं। कि चूमते हैं माथा और कहते हैं उस शहर में धड़कते नन्हे दिल से, मैं हूँ, तुम्हारे लिए। मैं रहूँगी, तुम्हारे इश्क़ में हमेशा। मैं तुम्हें खोने नहीं दूँगी। मन के भीतर इतना कुछ चल रहा है कि ब्लॉग पर लिख रही हूँ। समंदर में कभी कभी सूनामी लहरें आती हैं। 


दिल्ली। 


हज़ार बार उजाड़ कर बसी है दिल्ली। हमारे दिल की तरह ही न। 

हमारे भीतर बसने लगे हैं नए अरमानों के जलते हुए मकान। कि जो कबीर की उलटबाँसी में फूँका हुआ घर होता है। चल देते हैं इश्क़ राह। 


उलझना मेरी फ़ितरत रही है। बौराए बौराए फिरते हैं। जाने क्या चाहिए होता है कि दिल्ली जा के भर आता है दिल इस तरह। कि जैसे मायके से लौटती हैं बेटियाँ बहुत सी चीजों के साथ। माँ के हाथ कि चुनी हुयी साड़ियाँ। दोस्तों के दिए हुए झुमके। सतरंगी चूड़ियाँ। बचपन की पसंद कि मिठाई। पैर रंगे, आलता लगाए। मायका, जहाँ बचपन से पले-बढ़े होते हैं। जहाँ का मंदिर, जहां के रास्ते, इमारतें। पौधे, फूल। सब आपके जाने-पहचाने होते हैं। जहाँ वे भी आपको जानते हैं जिन्हें आप नहीं जानते। आपका चेहरा देख कर वे जानते हैं कि आप किसकी बेटी हैं। 


कि हमारे शब्दों से जानते हैं हमें वे लोग भी जिन्होंने मुझे कभी नहीं देखा। हमसे वे भी प्यार करते हैं जो जाने कहाँ कहाँ तलाशते रहे हमें मेले में और छोटा सा उलाहना दे रहे कि आप मिले नहीं। जिनसे हम मिलना चाहते थे ख़ूब ख़ूब मन से, वे मिलते रहे। सिगरेट फूंकते, चाय पीते, गपशप करते, बाँहों में भरते लोग। हम काग़ज़ पर लिखते रहे छोटे छोटे संदेश, इन शहरों में भटकने में सुख हो, दुआ, मुहब्बत, love सब लिखा हमने। 


नशा।

हम कहते हैं कि हमें नीट पानी दे दो, आइस डाल के, हम उसमें ही हाई हो जाएँगे। दिल्ली में हम ऐसे ही सुरूर में रहते हैं। ज़रूरत क्या है किसी नशे की। बैंगलोर में हम पीते नहीं। दुनिया के बाक़ी शहरों में भी नहीं, ऐक्चूअली। हमको पीने का शौक़ नहीं है। पर पीते हैं तो सिंगल मॉल्ट या फिर JD लेकिन हमारे आसपास सब कुछ तरतीब से चाहिए होती है। माहौल होना चाहिए। रोशनी, म्यूज़िक। काँच के गिलास। आइस। ये क्या है कि प्लास्टिक के ग्लास में विस्की डाले और एक सिप में पूरी दुनिया डोल गयी। कि कह सकें किसी को कि ऐसे नहीं पिएँगे, जुठा के दो। कि हाथ बढ़ा के माँग लें किसी के हाथ से ग्लास। नीम अंधेरे में सिगरेट फूंकते जाने किस मुहब्बत में गाएँ। मीठा, मुहब्बत में। मीठा। 


तिलिस्म।

क्या होता है जब दो तिलिस्म मिलते हैं

वे चुप हो जाते हैं।


इश्क़ तिलिस्म में लिखा है


‘“सब लोग तुम्हारे हाथ पहचानते हैं। 

वे शायद बिसार दें तुम्हारा माथा। तुम्हारी सोना आँखें। तुम्हारे काँधे का टैटू। मगर कोई नहीं भूल सकता तुम्हारे हाथ। 

कि हम तुम्हारी कहानी के किरदार हैं।

और तुम्हारे हाथ ईश्वर के हाथ हैं।


तुम्हारा हाथ थाम कर भटकती रही शहर दिल्ली। हथेलियों में उगता रहा नक़्शा, ख़्वाहिशों के शहर  का। बनते रहे मकान कि जिनमें होती धूप, जहां पीले पर्दे होते जहाँ बालकनी से दिखता शाम का सिंदूरी सूरज। नए-पुराने महबूब याद आते तो उन यादों को कटघरे में खड़ा नहीं होना होता। 


आसान नहीं है हमसे प्यार करना। मेरे साथ उम्र काटना। उमरक़ैद होगी, पता नहीं। 

हमको कुछ पता नहीं। कुछ दिन लगेंगे प्रॉसेस करने में कि हमको हुआ क्या है। 


कोई आरी से चीर गया है वजूद के दो हिस्से। 

एक वही लड़की है, दिल्ली की दीवानी। बीस पच्चीस की। जिसका दिल कभी टूटा नहीं है। जिसकी मम्मी उसको सुबह काजल लगा के भेजी है बाहर कि पूरी दुनिया के लोग बैठे हैं उसकी सुंदर बेटी को नज़र लगाने। जिसे मुहब्बत से डर नहीं लगता। जिसे ज़माने से डर नहीं लगता। सालों बाद लौटते हैं दिल्ली, इतने खुश, इतने खुश। दिन में दस बार बोलते हैं, दोस्तों को, हम बहुत खुश हैं। 


भूलने और याद करने के बीच का शहर। 


कि इस दूसरी औरत को डर लगता है कि पहली वाली लड़की उसपर हावी हो जाए। कि वो दीवानों की तरह कहीं मर जाए। किसी सफ़र पर निकल जाए। कि उसे इस ख़ुशी कि क्रेविंग न होने लगे बहुत ज़्यादा।


 जिसकी दो जुड़वां बेटियाँ हैं तीन साल कीं। जिसका घर बेतरह बिखरा हुआ रहता है। जिसे घर का कोई काम-काज करना-करवाना नहीं आता। जो इस शहर में खुद को मोटी, भद्दी और बदसूरत समझती है। जिसके क़िस्से सुनने इस शहर में कोई नहीं आता। 


जब दो हिस्से हो जाते हैं तो कोई टूट जाता है बुरी तरह से। कैसे जीते हैं कि अपने दोनों हिस्से के साथ न्याय कर सकें। लिख भी सकें और जी भी सकें। मर जाएँ। कि इतना vulnerable होना कितना डराता है। कि हमारे मन के भीतर क्या चल रहा है, उसको हम भी ठीक-ठीक न समझ सकते हैं, न लिख सकते हैं। तो क्या जवाब दें किसी को, कि सुबह सुबह रो क्यूँ रही हो?ख़ुशी में? दुःख में?


कि हमें मरने से नहीं, तुमसे दुबारा मिले बिना मर जाने से डर लगता है। 

***


सज्जाद अली का गाया हुआ रावी, इसे लूप में सुन रहे हैं। समझ कुछ नहीं आ रहा, न गाने के बोल। न अपना मन-मिज़ाज।  


https://youtu.be/rBk5EKHggKo



04 March, 2023

थी वस्ल में भी फ़िक्र-ए-जुदाई तमाम शब - मेले के आख़िरी दिन से पहले का दिन

पाँच बजे के उठे हुए हैं। सोए होंगे कोई एक डेढ़ बजे। जब एक डेढ़ घंटा और नींद नहीं आयी, तो लगा कि अब लिखने बैठ जाते हैं। 

कल पुस्तक मेले का आख़िरी दिन है। मेले में हम चार साल बाद आए हैं। आख़िर बार 2019 में आए थे। इस बीच बहुत सी घटनाएँ हुयीं। मेरी ही नहीं, सबकी दुनिया थोड़ी  थोड़ी बदली। कुछ लोग इस दुनिया से हमेशा के लिए चले गए। ऐसे किसी बड़े हादसे के बाद, सब लोग, थोड़ा सा भीतर से बदल जाते हैं। मेरे लिए ये बदलाव ऐसा रहा कि मैं थोड़ा सा, YOLO में यक़ीन करने लगी। वैसे तो अफ़सोस करने में मेरा विश्वास हमेशा से थोड़ा कम रहा है। हम नहीं जानते कि कल क्या होगा, कल ये लोग होंगे या नहीं। ये मौसम होगा या नहीं। ये शहर रहने लायक़ होगा या नहीं। 



लेकिन आज। 


दस दिन का दशहरा होता है। हमारे यहाँ कहते हैं कि सप्तमी-अष्टमी से दुर्गा जी का चेहरा ज़रा उदास हो जाता है। दस दिन का मेला होता है। शनिवार को शुरू होकर, अगले रविवार तक। बुधवार को मेरा जी उदास होना शुरू हो जाता है। अभी ठीक याद नहीं आ रहा कि किस कविता का हिस्सा है, ‘मेरे दिल में एक आँसू भरा फुग्गा है जो दीवारों से टकराता रहता है।’

मेरा मन भीतर भीतर सीलने लगता है। जाने इस दुनिया में इतनी नाइंसाफ़ी कैसे है। कि मेरे जैसा बहुत ही ज़्यादा extrovert इंसान, किसी शहर में इतना अकेला कैसे हो सकता है। इतने लोग हैं उस शहर में, कोई तो हो, जिससे मेरा मिलने-जुलने-बतियाने को मन करे! लेकिन ये बहुत छोटी सी दिक्कत है। किसी के भी पास, सब कुछ तो नहीं हो सकता ना। तो, बस, इतनी सी दिक्कत है। 

हम दिल्ली में होते हैं। मेरा मन वसंत हुआ जाता है। मेरे हाथों में किसी का हाथ हो ना हो, कोई किताब ज़रूर होती है। शाम में किसी से मिलें ना मिलें, किसी से, किसी से भी, मिल लेने की उम्मीद ज़रूर होती है। मेरे पास वक्त कम पड़ जाता है, लोग कम नहीं पड़ते।

हम जो एक ज़रा सा काग़ज़ और थोड़ा सा क़िस्सा कहते हैं, मेले में आ कर इतनी किताबें देखते हैं। ये क्या ही अचरज की बात है, कि मेरी किताब, कुछ लोगों तक ही सही, पहुँच रही है। कितनी किताबें, इस मेले में, कितने स्टॉल्ज़ पर, एकदम अनछुई रह जाएँगी। ये कितनी उदास बात है। कितने लोग आएँगे चुप-चुप, किसी से नहीं कहेंगे अपने दिल की बात, और वैसे ही चले जाएँगे। भीतर भीतर शब्दों का ग्लेशियर जमाए। 

दिल्ली आते ही हम पागल हो जाते हैं। ऐसा असर किसी और शहर में नहीं होता। जैसे ही आसमान से थोड़ा सा दिखने लगता है, महबूब शहर। हमारे दिल की धड़कन बढ़ जाती है। मुझे यहाँ की इमारतों, सड़कों, शोर, मौसम, सबसे इतना इतना प्यार है। मुहब्बत की सूनामी आ जाती है मेरे भीतर। मुझे समझ नहीं आता खुद को कैसे सम्भालें। हिसाब-किताब से जीना तो मुझे वैसे ही नहीं आता। लेकिन तन्हाई और भीड़ का ये कांट्रैस्ट जो हर साल होता है, मुझे भीतर भीतर अजीब क़िस्म से तोड़ता-मरोड़ता-जोड़ता है। मेरे भीतर कोई बंजारन रहती है। कोई भटकता यायावर होता है। उसे लगने लगता है, अब, निकल पड़ते हैं, सामान बाँध कर। देखेंगे थोड़ी दुनिया। नापेंगे थोड़ी ज़मीन। चक्खेंगे कुछ नदियों का पानी। 

इतने सारे लोग, अपने भीतर कितनी कहानियाँ लिए हुए। क्या कभी हम इनसे सीख पाएँगे, चुप रहना? टोमास ट्रांसतोमर की कविताओं को पढ़ने के पहले, हम उनके देश गए थे। स्वीडन के जिस शहर के जिस छोटे से द्वीप पर उनका घर था, वहाँ जा कर महसूस किया कि ये कमाल का देश है। यहाँ रहते हुए, इसे जीते हुए ट्रांस्टोमर ऐसा ही लिखेंगे। उस समय ट्रांसतोमर की कविता का अनुवाद पढ़ा था, एक पीली तितली थी जिसने अपनी उड़ान को गिरते हुए पीले पत्तों में बुन दिया था। मैं इस रूपक को वहाँ के पतझर में देखती रही। हर बार जब कोई पीला पत्ता काँधे पर गिरा, मैंने उस तितली को कहा, खुशआमदीद। 

संजय से मिली कल। संजय व्यास। कितने साल बाद। कितना अच्छा लगा, कि हम किसी से मिलते हैं कोई सात आठ साल पहले और दुबारा मिलने में इतने साल लग गए, लेकिन कोई अजनबीपन नहीं होता। कि हम कुछ लोगों को उनके शब्दों और कहानियों से ज़्यादा जानते हैं। उनका लिखा कितना सांद्र होता है। कितना ख़ुशबूदार। किताब पढ़ो तो उँगली के पोर पर क़िस्से की ख़ुशबू रह जाए। इतनी छोटी और इतनी ख़तरनाक कहानियाँ मैंने और कहीं नहीं पढ़ीं। उनका अगर उपनाम होता, तो खुख़री होता। छोटा, मारक, अस्त्र।

दिल्ली आ कर मेरे reasoning वाले फ़िल्टर हट जाते हैं। मैं किसी और दुनिया में जीती हूँ। किसी ऑल्टर्नट रीऐलिटी में। यक़ीन नहीं होता कोई शहर इतना उदार, इतना दिलकश और मेरे प्रति इतनी मुहब्बत से भरा हो सकता है। कि मेरी ये हँसी, कहीं और नहीं दिखती। मैं इतनी खुश, कहीं और नहीं होती। कि मेरे पाँव जमीं पर नहीं पड़ते, उड़ती उड़ती रहती हूँ। कि आईना देखने की ज़रूरत ही नहीं। हम सुंदर इसलिए दिखना चाहते हैं कि हमें देख कर कोई खुश हो, हम खुश हों। यहाँ अलग ही खुमार है। नीट पानी पी कर बौराते हम, चाहते हैं कि इस बेइंतिहा ख़ूबसूरत दिल्ली से ऐसी मुहब्बत बनी रहे। 

वैसे तो अब ब्लॉग पढ़ने कोई नहीं आता। लेकिन 2005 से जो ब्लॉगिंग की थी, वैसे लोग अब कहाँ ही मिलेंगे। आप सबका शुक्रिया। दिल्ली की दीवानी लड़की आप सबसे बहुत बहुत मुहब्बत करती है। अगर आप पुस्तक मेला आ रहे हैं, तो खूब सारी किताबें ख़रीदें। लोगों से बातें करें। और हिंद युग्म के स्टॉल पर मेरी किताब, इश्क़ तिलिस्म है, उसे पढ़ें और मुझे बताएँ, कि कई सालों से उलझती इस कहानी को आप तक मैं ठीक-ठाक पहुँचा पायी हूँ या नहीं। 

Love, Lots of love. 

[पढ़ नहीं रहे इसे। नींद आ रही है। जा रहे, एक घंटा सो जाएँगे। कुछ गलती-वलती हुयी, तो बाद में पढ़ के एडिट कर लेंगे]

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