27 September, 2021

मिलीसेकंड्ज़ वाली ख़ुशी, दुःख, सफ़र

शायद मैंने कभी इस शहर को मुहब्बत की नज़र से नहीं देखा। आज पता नहीं क्यूँ बहुत प्यार आया बैंगलोर पर। दोपहर में K को ऑफ़िस  छोड़ने निकली थी। वहाँ से Starbucks जा के एक कॉफ़ी पीने का मन था। लेकिन रोड पर कट मिस हो गया तो आगे बढ़ गयी। फिर लगा कि आगे ही गए है तो HCF खा लें। जब से इंदिरानगर छूटा है, कुछ चीज़ें एकदम छूट गयी हैं। जैसे कि कॉर्नर हाउस जा के हॉट चोक्लेट फ़ज खाना। हमको भगवान जाने काहे उसमें मिंट फ़्लेवर भी डाल के खाना अच्छा लगता है। अभी तक हमको लगता था कि ये नौर्मल कॉम्बिनेशन है। लेकिन आज नए आउट्लेट में आयी तो पाया कि यहाँ पर वो कॉम्बिनेशन मिलता नहीं है। हालाँकि वहाँ जो साहब थे, वो कह रहे थे कि आपको जो फ़्लेवर चाहिए हम डाल देंगे। बात ये नहीं थी। उनको क्या समझाते कि ऐसा कुछ होता है तो हमारे ख़्यालों में कोई एक गाँठ उलझी हुयी हमें आफ़त देने लगती है। हम सोचते है कि आख़िर कब ये कॉम्बिनेशन ट्राई किए थे। आख़िर कब हुआ था कि हमने पहली बार सोचा था कि HCF नहीं खाएँगे, मिंट भी चाहिए। पिछले ऑफ़िस में थे तो HCF ख़ूब खाते थे। मेरे लिए इस कॉम्बिनेशन का मतलब सेलीब्रेशन होता है। कोई अच्छा प्रोजेक्ट मिला, कोई बहुत अच्छी कॉपी लिखी। डिज़ाइनर ने कोई कमाल का डिज़ाइन बनाया। हम ख़ुश हो जाते थे और अपनी बाइक से कॉर्नर हाउस जाते थे और सबके लिए HCF लेकर आते थे। या कभी कभी तो सब लोग मिल कर जाते थे और खा के आधे घंटे में जाते थे। ख़ुशी, यारी, दोस्ती। काम। मज़ा। छोटा रीचार्ज यू नो। 


यहाँ कल्याण नगर में जो कॉर्नर हाउस है, उसके पास वाली सड़क पर गाड़ी पार्क की तो देखा कि सामने बोगनविलिया है सफ़ेद और गुलाबी रंग में। सेमल भी खिले हैं। और एक हल्के बैगनी रंग का फूल का पेड़ भी था। हम उसको देख कर सोचते रहे कि इस शहर से कभी प्यार नहीं हुआ। यहाँ की तन्हाई से नहीं, यहाँ के लोगों से नहीं। शायद एक समय हुआ होगा, लेकिन वो इतनी पुरानी बात है कि हमको याद नहीं। कभी कभी पुरानी पोस्ट्स पढ़ती हूँ तो अचरज होता है कि हम कितने ग़ैर शिकायती थे इस शहर को लेकर। बहुत साल पहले गुनाहों का देवता पढ़ने की कोशिश की थी, एकदम ही बकवास लगी  थी, कि जाने कैसे किसी को पसंद आती हैमेरे टाइप की तो एकदम नहीं है। इधर कुछ दिन पहले क्लबहाउस पर इसके बारे में बात हो रही थी, कि कुछ लोग रोए भी थे जब क्लब में इसे पढ़ा गया था। मैंने फिर से इसे पढ़ने को किंडल पर डाउनलोड किया। अभी कुछ दस पन्ने पढ़े होंगे। ध्यान इसलिए गया कि इसमें बोगनविलिया को बेगमबेलिया लिखा पढ़ा है। क़सम से, इस फूल को क्या कहते हैं, हमको ठीक ठीक मालूम नहीं है। कुछ साल बोगनविला कहे होंगे, कुछ साल बोगनविलिया कहे हैं। इसका कोई शॉर्ट नाम होना चाहिए। कुछ भी। छोटा, प्यारा सा। 


ऑफ़िस में एक छोटी सी बालकनी है। छोटी माने, एकदम छोटी। दो फुट बाई चार फुट की होगी। वहाँ बमुश्किल तीन लोग खड़े होकर सिगरेट पी सकते हैं। बहुत तेज़ हवा चलती है और  नीचे देखो तो पेड़ दिखायी देते हैं, सामने देखो तो बादल। इन दिनों सेमल खिले हुए हैं। अचरज की बात ये है कि बैंगलोर में कई साल रहने के बावजूद मैंने इन फूलों का नाम जानने की कोशिश नहीं की। 2019 में जब दिल्ली गए थे  तब पता चला कि इन फूलों का नाम सेमल है। बैंगलोर में लेकिन सेमल नारंगी रंग के होते हैं। दिल्ली की तरह टहकते हुए लाल नहीं कि टेसू का कन्फ़्यूज़न हो। 


वीकेंड पर एक पुराने कलीग से मुलाक़ात हो गयी। घर से निकलते हुए पूछा था कि हम स्टारबक्स रहे हैं, तुम उधर हो क्या। तो उसने कहा कि मैं उधर ही जा रहा हूँ। पास में हूँ। पहुँची तो देखी कि पार्किंग में बमुश्किल एक कार की जगह है। उसने के गाड़ी पार्क करा दी। फिर कहा कि वो जब आया तो उसने अपनी गाड़ी जितना हो सकता था, उतनी लेफ़्ट कर के पार्क की ताकि मेरी गाड़ी फ़िट हो जाए। मुझे अच्छा लगा कि लोग अब भी छोटी-छोटी चीज़ों का ख़याल रखते हैं। स्टारबक्स में एक और कलीग को देखा। वो अपनी मम्मी के साथ आया हुआ था। अब यहाँ अच्छा लगने लगा है। चलते फिरते लोग मिल जाते हैं। शहर थोड़ा कम अकेला लगता है। 


मैं जब 28 की हुयी थी तो लिखने के बारे में थोड़ा सीरीयस्ली सोचा था। कि लिखा है तो एक किताब छपवा सकते हैं क्या। इस बात को दस साल बीत गए। इस साल, एक दिन यूँ ही शूटिंग करने चली गयी। एयर राइफ़ल शूटिंग मुझे बहुत अच्छी लगती है। गोली का निशाने पर लगने के पहले का जो फ़्रैक्शन औफ़ सेकंड समय होता है जब कि मुझे मालूम होता है कि निशाना सही लग रहा है या ग़लत। मुझे ये थ्रिल देता है। ज़िंदगी में ये दूसरी बार है, मैंने अब तक सिर्फ़ लिखा है। पर्सनली भी और प्रोफेशनली भी। मुझे इसके सिवा कुछ और नहीं आता। संगीत की मैंने सात साल ट्रेनिंग ली है। हिंदुस्तानी संगीत में विशारद हूँ, लेकिन उसमें कभी मज़ा नहीं आया। हम बिना मज़े के कोई काम कभी करते नहीं। दूसरी चीज़ जो बहुत पसंद आयी थी, वो थी रॉयल एनफ़ील्ड। लेकिन उस पैशन को कभी फ़ॉलो इसलिए नहीं किया कि देश में बाइक राइडिंग ख़तरनाक है। आए दिन किसी ना किसी के ऐक्सिडेंट में मरने की खबर आती रहती और हम बाइक नहीं चलाते। या चलाते भी तो शौक़िया चलाते। बेटियों के होने के बाद तो और भी थोड़े केयरफुल हो गए हैं। शूटिंग लेकिन पहली बार भी अच्छी लगी थी और ज़िंदगी में जितने भी छर्रे मारे, सब में बहुत मज़ा आया। अब लग रहा है कि इसको थोड़ा ध्यान से करें। ट्रेनिंग भी, शूटिंग भी, शॉपिंग भी। एक अच्छी राइफ़ल ढाई लाख की आती है और थोड़ा भी क़ायदे का शूटर बनने में दो साल लगते हैं। आजकल क़लम की जगह बंदूक़ रहती है हाथ में। अच्छा लगता है। शूटिंग के बाद स्कोर चेक करते हैं, वो भी अच्छा लगता है। 


मुझे लगता है कि किसी भी चीज़ में अच्छा करने के लिए तीन चीज़ों की ज़रूरत होती है। पहली तो ये कि आप में थोड़ी बहुत नैसर्गिक प्रतिभा हो। दूसरी, आपको उस चीज़ में कितना मज़ा आता है। और तीसरा, और शायद सबसे ज़रूरीआप कितनी मेहनत कर सकते हैं उस पर। लिखने में ठीक यही रहा, बचपन से हमेशा लिखने में ख़ूब नम्बर भी आते और प्राइज़ वग़ैरह भी मिलते रहे। लिखने में ख़ूब मज़ा आता और इसके सिवा मैंने सालों साल ख़ूब-ख़ूब लिखा है। ख़ुशी में, ग़म में, अवसाद मेंप्यार होने पर, दिल टूटने पर, नए ऑफ़िस, नए शहर, नया शख़्समेरे लिए सब कुछ लिखने का सबब बनता रहा है। मैं आदतन लिखती हूँ। कभी भी, किसी भी समय, किसी भी टॉपिक पर लिख लेने में मुश्किल नहीं होती। जैसे हैरी पॉटर में होता था, कि सही wand यानी कि जादुई छड़ी हाथ में आते ही एक हल्की गर्माहट महसूस होती है और चिंगरियाँ निकलती हैंवैसे ही जब मैंने लैमी से लिखना शुरू किया तो लगा कि मेरे पास मेरी जादुई छड़ी गयी है। 


अब इसी तरह आदतन शूट करने का मन है। इसे muscle memory कहते हैं। अभिनव बिंद्रा ने अंधेरे कमरे में शूटिंग का अभ्यास किया था। वह पूरी तरह अंधेरे कमरे में भी शूट कर सकता था। उसके बारे में पढ़ना बहुत प्रेरक है। हम छोटे थे तो कहानियों में जब भी तीरंदाज़ी की बात आती, मुझे बहुत मज़ा आता। इसलिए शब्दभेदी बाण का क़िस्सा मुझे बहुत आकर्षित करता। या कि अर्जुन के दोनों क़िस्से, जब कि द्रोणाचार्य शिक्षा देते वक्त सब से पूछ रहे हैं कि तुम्हें क्या दिख रहा और अर्जुन कहता है उसे सिर्फ़ चिड़िया की आँख दिख रही है, और कुछ नहीं। मछली की आँख भेदने का क़िस्सा भी उतना  ही अच्छा लगता था। हालाँकि इतने मुश्किल कॉम्पटिशन के बाद भी जब  द्रौपदी को लेकर आया तो कुंती ने सबमें बँटवा दिया। बिना जाने। ये  बात मुझे ख़ूब अखरी। ख़ैर। हम कौन सा द्रौपदी जीत कर लाए थे। 

 

इन दिनों एयर राइफ़ल के बारे में पढ़ते रहते हैं। कि अपने हिसाब की राइफ़ल बहुत ज़रूरी है। एक बार वो फ़ाइनल हो जाए। जर्मन बहुत अच्छी guns बनाते हैं। और क्या है कि हम क़लम भी जर्मन इस्तेमाल करते हैं, तो शायद राइफ़ल भी वही सही रहे। इतनी चीज़ें हैं किसी भी खेल में। हमें बचपन सेपढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे तो  होगे ख़राबसिखाने की जगह बताया जाता कि खेल किस तरह ज़िंदगी  को बेहतर करता है तो  कितना अच्छा रहता। हमें क़िस्सों में गांधी के साथ ध्यानचंद और  कपिल देव की कहानी भी सुनायी जाती तो शायद हम इन चीजों पर  शुरू से ध्यान दे सकते। वो तो इंटर्नेट का भला हो और कुछ उन लोगों का जो खेल पर बहुत मुहब्बत के साथ लिखते हैं। कि हमें भी लगता है, कुछ असम्भव सपने सबको देखने चाहिए। ये हमें जीने के लिए ईंधन देता है। 


बाद की ज़िंदगी सीखे हुए सबक़ भूलने में लगती है। हम लगभग सब कुछ ही अपने हिसाब से फिर से डिफ़ाइन करते हैं। दोस्ती, मुहब्बत, पसंद की किताबें, पसंद के शहर। जो मैंने सोचा था कभी कि फ़िल्म डिरेक्ट करूँगीअब जाने क्या करूँगीकि सामने वो छोटा सा काग़ज़ का गोला दिखता हैकाला


याद किसी का स्याह दिल भी आता है। कुछ शामें। एक शहर का कोहरा। कुछ ब्लैक ऐंड व्हाइट तस्वीरें। ऐब्सिन्थ पीने के पहले शुगर क्यूब से निकलती लपटें। वोदका में पिघलती सिंगल आइस क्यूब। महबूब शहर में, बाल खोले, देर रात किसी पुल पर गोल गोल घूमते हुए सोचना कि दिल में कितनी मुहब्बत है। कि इस सारी मुहब्बत के हिस्से एक शहर लिख दें तो क्या बुरा हो। 


बहुत दिन से कुछ लिखा ही नहीं। घर पर लिखने का मूड नहीं बनता। आज स्टारबक्स में बैठ कर दो घंटे में यही लेखा जोखा लिखा है। फिर जाने कब कुछ लिखने का मूड बने। इन दिनों ज़्यादा नहीं, छोटे-छोटे अरमान हैं। थोड़ा सा सुबह शाम योगा कर सकें। उपन्यास जो पूरा हो गया है, उसको एडिट करने लायक़ कॉन्सेंट्रेशन जाए। बस। और क्या। 


लिखते लिखते देखा है दोस्त का मेसेज आया है। देश आया हुआ था, अब वापस विदेश चला गया। हम सोचते हैं कि हमें क्या  क्या चीज़ से ख़ुशी मिलती है। उसके अपने टाइम ज़ोन में होने  पर भी। जब कि दूसरा शहर है तो क्या दिल्ली और क्या न्यू यॉर्क, हम कौन सा उससे मिल रहे हैं। वहाँ से कॉल आता है तो ज़रा सा लैग होता हैफ़्रैक्शन औफ़ सेकंड वाला लैग। ये इतना छोटा वक्फ़ा होता है जिसमें  हम सोच लेते हैं कि हम जो सोच रहे हैं, वो नहीं बोलेंगेवो बोलेंगे जो हमें बोलना चाहिए। किसी बात पर उसने कहा, ये महीना ही ऐसा हैअजीब उदास करता हैमैंने  कहा, यारमैंने खुद से वादा किया था एक सालइस महीने को अब कभीसितमबर नहीं कहूँगी। तो क़ायम हैं उस पर। 


कहानियाँ लिखने का मन करता है ख़ूब। अपनी पसंद के कुछ लोगों से मिलने का भी। आख़िरी कहानी मन मलंग लिखी थी। कोई किरदार होज़िंदामीठी आँखों वालाकच्ची मुस्कान और मिट्टी का दिल लिए हुए आए मेरे शहरऔर कहे आख़िर को, ऐसे दिल को तो टूट ही जाना चाहिए ना। 


क्लोज़ करते हुए याद रहा है फ़ैज़ का शेर, ऐसे ही, बेसलीके, बेतरतीबी से, ‘अपना ग़म था गवाही तेरे हुस्न की, देख क़ायम रहे इस गवाही पे हम

14 June, 2021

खारी आँखें

 मुझे ठंढ बहुत लगती है। बहुत। अभी बंगलोर में तापमान तेईस डिग्री है लेकिन हम हैं कि जैकेट पहन के बैठे हुए ख़ुद को कोस रहे हैं कि मोज़े धो देने चाहिए थे एक जोड़ी। पैर में बहुत ठंढ लगती है। हाथ में भी। टेबल पर एक कैंडिल जला ली है। कभी कभी उसपर हाथ सेंक लेते हैं। लैवेंडर कैंडिल है, काँच के जार में। तो हवा से बुझने का डर नहीं है। हाथ लौ के ऊपर रखने के बाद देखती हूँ कि हथेली से लैवेंडर की ख़ुशबू आने लगी है। इस छोटी सी बात से दिल्ली की कई साल पुरानी सुबह याद आती है। हम शायद नौ बजे ही सीपी पहुँच गए थे। उस वक़्त बस कैफ़े कॉफ़ी डे खुला हुआ था। हमने अपने लिए कॉफ़ी ऑर्डर की, वहाँ और कोई था भी नहीं। मैं हड़बड में पहुँची थी तो जाड़े के दिन होने पर भी बाल सुखाए बिना चली आयी थी। दिल्ली की सर्दियों में घर से निकलने के पहले बाल हेयर ड्रायर से सुखा लेती थी क्यूँकि अक्सर स्कार्फ़ या टोपी पहनने की ज़रूरत होती थी। उस रोज़ लेकिन तुमसे मिलना था और पहले से वक़्त डिसाइड नहीं किया था तो बस जैसे ही मेसेज आया नहा धो के सीधे निकल लिए। कैफ़े में बाल खोले बैठी थी। तुमने कॉफ़ी पी और नाश्ते में जो भी खाया होगा, उसके बाद हाथ धोने गए। वापसी में तुमने बाल हल्के से सहला दिए। उस साल के बाद कई कई दिन जब तुम्हारी बहुत याद आती तो दो चार सिगरेट पीती और बालों में उँगलियाँ उलझाती। सोचती कि मेरे हाथों से तुम्हारे हाथों जैसी ख़ुशबू नहीं आती है। बालों में धुएँ की गंध भर जाती। मैं काग़ज़ पर लिखती कुछ, सोचती तुम्हें। मेरे पास उन दिनों की गिनती नहीं है। पर ऐसी कई शामें थीं।

इन दिनों काग़ज़ की बहुत ज़रूरत लगती है। काग़ज़ अजीब क़िस्म से ज़िंदा होता है। ख़तों में ख़ास तौर से। A country without post-office, आगा शाहिद अली की कविताओं की छोटी सी किताब है जो इसी नाम की कविता पर रखी गयी है। इस कविता की आख़िरी पंक्ति है। “It rains as I write this. Mad heart, be brave.”। बहुत साल पहले एक लड़की ने इसका ट्रैन्स्लेशन करने को कहा था मुझसे। सिर्फ़ आख़िर के चार शब्द। मेरे पास कोई कॉंटेक्स्ट नहीं था। अब जब है, कहानी का, कविता का, लड़की का भी…मेरे पास शब्द नहीं हैं। कि टीस शायद हर भाषा में एक सी महसूस होती है। वे सारे लोग जो हमारे हिस्से के थे लेकिन हमें कभी नहीं मिले। जो मिले भी तो किसी दोराहे पर बिछड़ गए।
मेरी नोट्बुक में तुम्हारे लिखे कुछ शब्द हैं। उन्हें पढ़ते हुए रोना आ जाता है इसलिए उन शब्दों को आँख चूमने नहीं दे सकती। मैं सिर्फ़ कहानी लिख सकती हूँ जिसमें एक कैफ़े होता है और एक दरबान, कैफ़े में आगे नोटिस लगा होता है, यहाँ उदास आँखों वाली लड़कियों का बैठना मना है। तुम जानते हो, वो कैफ़े मेरा दिल है। और वो दरबान वक़्त है। कमज़र्फ़। जो कि चूम कर मेरी आँखें कहता है हर बार, इन आँखों का एक ही मिज़ाज है। उदासी।
तुम्हें तो मीठा पसंद है न मेरी जान। तुम भला क्यूँ चूमोगे मेरी खारी आँखें।

उदासी के सब शेड पहचाने हुए हैं

आख़िर क्यूँ है कि कुछ फ़िल्में देख कर आह तक नहीं निकलती लेकिन कुछ फ़िल्में हमें बेध देती हैं। हमारे भीतर एक सिसकी  ड्रिल होती जाती है। एक रिसता हुआ दुःख जिनमें शायद हमारे जैसे लोग पनप सकते हैं। कि हमने धान की खेती देखी है। घुटने भर पानी भरे खेतों में उगे और उखाड़ कर फिर से लगाते हुए धान के बिचड़े देखे हैं। जो गीत खेतिहर औरतों ने नहीं गाए, वे गीत हमारी चुप्पी की शब्दावली रचते हैं। 

हैपी टुगेदर नाम की फ़िल्म में ख़ुशी के बहुत छोटे छोटे टुकड़े हैं। प्रेम का भोला पागलपन है। एक प्रेमी युगल आर्जेंटीना घूमने गए हैं, वहाँ एक लैम्प पर बहते झरने की तस्वीर है जिसके व्यू पोईंट पर एक युगल खड़ा है। वे उस झरने को जा कर देखना चाहते हैं। वे साथ में प्रेम में तो हैं लेकिन ख़ुश नहीं हैं। कभी कभी वे ख़ुश हैं लेकिन प्रेम में नहीं हैं। उनमें से एक झरने पर जब जाता है तो उसे लगता है वहाँ उन दोनों को होना चाहिए था। और कभी कभी  वे ख़ुश हैं, सिर्फ़ इसलिए कि वे साथ में हैं।


कुछ दृश्यों का एक पैटर्न वौंग कार वाई की कई फ़िल्मों में होता है। टैक्सी वाला सीन। बालकनी से नीचे दिखता दृश्य। और अकेला सिगरेट पीता हुआ आदमी। 


हर बार वे रिश्ता तोड़ते और एक कहता, हम फिर से शुरू करते हैं। एक वक़्त के बाद, दूसरा इस शुरुआत से उकता गया होता है। वो अब लौट कर हॉंकांग जाना चाहता है, अपने घर। ऐसे ही बोर होने के बाद रिश्ता तोड़ कर एक जा चुका है और बहुत दिन बाद फिर लौट कर आया है। उसके के दोनों हथेलियों पर प्लास्टर है। वे दोनों जब टैक्सी में बैठे होते हैं तो एक सिगरेट पी रहा होता है और दूसरे के होठों पर भी लगा रहा होता है क्यूँकि वो ख़ुद सिगरेट पकड़ नहीं सकता। उसके चेहरे पर विरक्ति है। दुःख के लूप में जीने का भय है। ख़ुशी का अंदेशा है। पीली रोशनी में टोनी के चेहरे पर आते जाते भावों में लय है। वह कितना कुछ  अपने चेहरे पर दर्शा सकते हैं, यह अपने आप में कविता है।   


उसका एक मित्र उसे एक वॉकमैन देता है कि मेरे लिए कुछ रेकर्ड कर दो। भले कोई उदास बात सही। मैं तुम्हारी उदासी को दुनिया के आख़िरी छोर पर बने लाइटहाउस में छोड़ आऊँगा। शोर-शराबे वाले उस बार में वह लड़का वॉकमैन पकड़े धीमे धीमे रोने लगता है। हम इन मूड फ़ॉर लव में ऐसा ही एक दृश्य देखते हैं जिसमें अपना दुःख, अपना राज़, अपना प्रेमसब एक पेड़ की खोह में कह रहा होता है। इस दृश्य से बिलकुल उसी दृश्य की याद आती है। ऐसी चुप्पी वाला रोना लेकिन इसे सब लोग समझ नहीं सकते। वो लड़का जो बचपन में कम देख सकता था, इसलिए ज़्यादा सुनता था। वो जब वॉकमैन को प्ले करता है तो उसे लगता है रिकॉर्डर ख़राब हो गया था और उसमें किसी के रोने जैसी  आवाज़ आती है। 


फ़िल्म ब्लैक ऐंड वाइट और कलर के बीच घटती है। कल इसे पहली बार देखा। अभी कुछ और बार  देखूँगी बेहतर समझने के लिए। कुछ दृश्य बार-बार देखने लायक़ हैं। इसमें एक में उसने सिगरेट माँगी है। फिर लाइटर। लाइटर नहीं है, सिगरेट से सिगरेट जलानी है। वो मुस्कुराते हुए उसका हाथ पकड़ता है जिसमें सिगरेट थमी है। उसकी अनिच्छा और ग़ुस्से के बीच धुआँ है। एक उलझा हुआ रिश्ता है। अजीब सी  तन्हाई है। ख़ुशी और उदासी को साथ गूँथती हुयी धुनें हैं। जीने का सामान है। नेस्तनाबूद हो जाने  का भी। 

31 March, 2021

'96 not a review... but the feels, जानलेवा.

हर चीज़ की एक क़ीमत होगी। ये रुपयों में हो, ज़रूरी नहीं, कभी कभी समय भी बहुत मुश्किल से मिलता है। और कुछ चीजें समय माँगती हैं। होली के दो दिन पहले, मैंने बहुत दिन बाद एक फ़िल्म देखी। वो भी पूरी एक सिटिंग में। सुबह के पाँच साढ़े पाँच बज गए सोते सोते। फ़िल्म देखना तो बहुत अच्छा लगा लेकिन अगला दिन पूरा ही लगभग बर्बाद हो गया। मैं इतनी थकी हुई थी कि कुछ और कर नहीं साक़ी। रंग ख़रीदने थे, पिचकारी। होली के लिए और भी कुछ घर का राशन वग़ैरह लाना था।

फ़िल्म का नाम है ‘96। सिम्पल सी फ़िल्म है। लेकिन ऐसे लम्हे जुड़े हैं कि एक के बाद एक सीधे दिल पर चोट लगती जी जाती है। बाद के समय में मैं जितनी मुखर रही प्रेम को लेकर, ये इमैजिन करना मुश्किल होता है कि पहली बार कोई अच्छा लगा था तो उससे कुछ भी कहना कितना मुश्किल था। फिर छोटे शहरों में किसी के प्रति कुछ महसूस करना यानी आपके बिगड़ने के दिन आ गए। चाहे कितने भी अच्छे मार्क्स आ जाएँ, डाँट तो खूब पड़ेगी ही अगर घर में बात पता चली तो। स्कूल में बाक़ी बच्चे चिढ़ाएँगे, सो अलग। पहली बार कोई अच्छा लगता है तो हम बहुत कमजोर सा महसूस करते हैं, क्यूँकि चीजें हमारे हाथ से एकदम निकल जाती हैं। उसका एक नज़र देखना, उसका राह चलते मिल जाना या कि कभी क्लास में कॉपी देते हुए ज़रा सा हाथ छू भर जाना। कितना मुश्किल होता है उससे कुछ भी कहना।
उन दिनों कहाँ सोचा था कि फ़ेस्बुक या Orkut जैसी कोई चीज होगी और हम बाद में मिलेंगे भी। तब तो ऐसा ही लगा था कि अब शायद ज़िंदगी में फिर कभी भी नहीं मिलेंगे। गर्मी की छुट्टियाँ कितनी बुरी लगती थीं। सारी छुट्टियाँ बुरी लगती थीं। लेकिन सबसे बुरा लगता था कि जो हमें इतना पसंद है, उसे हम रत्ती भर भी नहीं पसंद। उस समय का हिला हुआ कॉन्फ़िडेन्स वापस आने में कितना वक़्त लग गया।
फ़िल्म देखते हुए मुझे खूब रोना आया। लगभग पूरी फ़िल्म में ही। इस तरह किसी के लिए कुछ महसूस करना और न कह पाना। उस उम्र में कितना दुखता है, जिसपर बीती है, उसे ही मालूम होगा। तब तो ये भी नहीं समझ में आता है कि प्यार अभी कई बार और होगा। इतनी समझ होती तो फिर भी कम दुखता, उस वक्त भी। फ़िल्म देखते हुए मैं एकदम से उस चौदह पंद्रह साल की उम्र में थी और शायद इसलिए इतना रोना आया कि आयडेंटिफ़ाई कर पा रही थी किरदार से। छोटी छोटी चीजों से बुनी हुई फ़िल्म है। डिटेलिंग कमाल की है। पानी के नल के नीचे हाथ लगा कर पानी पीना, पानी पीने के बाद नल को धोना ऐसी चीजें हैं जो हम सबने की हैं, अपने 90s में।
फ़िल्म में गाने भी बहुत सुंदर हैं। बैक्ग्राउंड म्यूज़िक भी। फ़िल्म देखने के बाद तमिल थोड़ा सीखने का भी मन किया। हालाँकि तमिल या कभी कभी मलयालम देखते हुए भी, कुछ शब्द तो समझ आ ही जाते हैं क्यूँकि संस्कृत के शब्द होते हैं। जैसे कि कन्नड़ में पानी को नीर बोलते हैं। कुछ मोमेंट्स पर ऐसे शब्द भी आए, ऐसे मोमेंट्स भी आए कि लगा कि इतना सीधे असर कैसे कर सकती है कोई चीज़। किसी के गले तक न लगना। किसी का हाथ तक न पकड़ना। और फिर भी इतना प्यार करना। क्या पागलपन है। क्या बेवक़ूफ़ी है। बचपना इसी को कहते हैं।
कुछ साल पहले अपने पहले क्रश से मिली थी। एक कॉफ़ी शॉप में। यूँ उसे बैंगलोर आए हुए काफ़ी टाइम भी हो गया था, उसने एक आध बार बोला भी मिलने को। लेकिन मैंने कभी हाँ नहीं कहा। उस दिन पता नहीं क्या मूड हुआ, उसको बोले कि मिलते हैं। बोलने के दस मिनट बाद ही लगा कि बेकार बोल दिए। फिर फ़ोन करके बोले कि रहने दो, तो बोला कि अब तो हम आधे रास्ते आ गए हैं। हम उसको बोले कि मिलते हैं, उसी समय सीधे लैप्टॉप बंद किया, बॉस को बोला कुछ ज़रूरी काम है और निकल गया। हम हड़बड़ में जींस टी शर्ट पहन के नहीं चले गए। साड़ी पहने। एक सुंदर सी फूलों वाले प्रिंट की ऑफ़ वाइट साड़ी थी। जूड़ा बनाया, घर से निकलते हुए दरवाज़े पर खिले फूल दिखे, तोड़ कर बाल में बोगनविला के फूल लगा लिए।
वो सर्प्राइज़्ड था। उसने सोचा नहीं था मैं साड़ी पहनूँगी। उन दिनों मैं अक्सर साड़ी पहना करती थी। घर से बाहर जाने के लिए तो अधिकतर ही। उसे कॉफ़ी नहीं पसंद थी, लेकिन बोला तुम्हारे पसंद की पी लेते हैं। दालचीनी वाली कॉफ़ी। पी कर बोला, कॉफ़ी नहीं अच्छी लगती है, पर ये वाली लग रही है। हम काफ़ी देर बात करते रहे। उस दिन पहली बार रियलाइज हुआ कि हम अच्छे दोस्त हुआ करते थे एक टाइम, लेकिन जब से उसपर क्रश हुआ था, हमारी बातचीत तक़रीबन कभी नहीं हुई। उसके बाद सीधे उस दिन मिले और बात कर रहे थे। खूब सारी बातें। ज़िंदगी, मुश्किलें, यार-दोस्त। बहुत कुछ। लगा कि प्यार के कारण एक अच्छा दोस्त खो गया था। लेकिन मालूम तब भी था कि प्यार में होने के कारण आगे कभी दोस्ती हो भी नहीं पाएगी। दिल जो होता है कमबख़्त, कभी नॉर्मल नहीं होता है पूरा पूरा। हमेशा उसके होने पर थोड़ा सा तेज धड़कता ही है।
प्यार में होने की क़ीमत अक्सर दोस्ती होती है। हमारे यहाँ इसलिए अधिकतर लोग डरते हैं। कि एक अच्छा दोस्त खो बैठेंगे। लेकिन उसके लिए जिस तरह से हम सोचते हैं, बिना उसकी ज़िंदगी में मौजूद रहे भी, उसकी कोई क़ीमत तो नहीं होती। किसी को दुआ में हमेशा रखते हैं...
'96 ग़ज़ब फ़िल्म है। आप देखिए। शायद आपको पसंद आएगी। बाक़ी हमारा क्या है, ऐसा कुछ होता है जिसका क़िस्सा न बनता हो हमारी ज़िंदगी में। हाँ हो सके तो तमिल में देखिएगा, अंग्रेज़ी सब्टायटल्ज़ के साथ। हिंदी में डबिंग में कई सारी बारीकियाँ ग़ायब हो गयी हैं।
🙂 समय मिले तो फिर सुनाएँगे।


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