16 July, 2020

अचरज की चिड़िया का लौट आना

पिछले कुछ दिनों से मेरी दुनिया से अचरज नाम की ख़ूबसूरत चिड़िया गुम हो गयी थी। अचानक दिखी। और क़सम से, दिल बाग़ बाग़ हो गया। 


जो लोग मुझे मुझे जानते हैं, उन्हें पता है, मुझे साड़ियों का शौक़ है। मैं कई साल से लगभग फ़ैबइंडिया से ख़ूब साड़ी ख़रीदती और पहनती हूँ। पिछले कुछ साल में मैंने ऑनलाइन कुछ जगहों पर भी अच्छी साड़ियाँ देखीं। बैंगलोर में दुकान पर वैसी हैंडलूम की साड़ियाँ मिली नहींफिर मुझे बहुत जगहें भी नहीं मालूम है। मैं chidiyaa.com से बहुत साड़ियाँ ख़रीदती हूँ। इसके अलावा एक आध बार सूता और हथकरघा से भी ख़रीदी हैं। चिड़िया की साड़ियाँ मेरी सबसे पसंदीदा होती हैं। मुझे हैंडलूम साड़ियाँ पसंद हैं, मौसम के हिसाब से सूती या सिल्क। अधिकतर यही दो फ़ैब्रिक अच्छा लगता है। 


क़िस्सा एक गुलाबी साड़ी का है जो मुझे हथकरघा स्टोर पर बहुत पसंद आयी। वहाँ लिमिटेड एडिशन साड़ियाँ होती हैं जो तुरंत सोल्ड आउट हो जाती हैं। इन्स्टग्रैम पर मुझे बहुत से और बुटिक्स के मेसेज आते हैं कि मेरा कलेक्शन भी देखिए। कहीं कहीं अच्छी भी लगी हैं साड़ियाँ। तो इसी तरह एक गुलाबी साड़ी के बारे में मुझे मेसेज आया कि हमारे पास है, अगर आप चाहें तो हमसे ख़रीद सकती हैं। मैंने साड़ी देखी और पेमेंट कर दिया। फिर उनका मेसेज आया कि साड़ी मिली या नहींपर तब तक साड़ी आयी नहीं थी। 


मैं थोड़ी ओल्ड स्कूल हूँ। मुझे साड़ी पहनना, इंक पेन से लिखना, मेसेज की जगह फ़ोन करना पसंद है। 


आज दोपहर में साड़ी आयी। सेक्यूरिटी का फ़ोन आया था कि डाकिया इंडियापोस्ट का कुरियर दे गया है। मास्क लगा कर गेट पर गयी। पैकेट देख कर ही एकदम से पुराने दिन याद गए। मेरे पापा स्टेट बैंक औफ़ इंडिया में काम करते थे, अब रिटायर हो गए हैंपापा की सरकारी डाक ऐसे ही आती थी। बिलकुल क़रीने से की गयी पैकिंग। जैसे सीमेंट के बोरे होते हैं, उसी मटीरीयल में। रस्सी से सिलाई की गयी थी। टाँके सारे एक साइज़ के और एक दूसरे से बराबर की दूरी पे। ये साड़ी का पैकेट जिसने बनाया था, उसे इसकी काफ़ी साल से आदत थी, देख कर पता चलता था। हर थोड़ी दूर पर लाल लाख वाली मोहर भी लगी हुयी थी। दिल पिघल के मक्खन हो गया। पहली बार ऐसी कोई डाक मेरे लिए आयी थी। बहुत ख़ास सा महसूस हुआ। स्पेशल। पार्सल insured था, ऊपर पहली लाईन वही लिखी हुयी थी। ये professionalism था, पुराने ज़माने का। कुछ कुछ मेरी तरह। पार्सल बहुत अहतियात से खोला। अंदर साड़ी के डिब्बे में साड़ी थी और एक छोटा सा डिब्बा था। पहले मुझे लगा ब्लाउज पीस होगा। लेकिन फिर देखा कि छोटे से पारदर्शी डिब्बे में एक मुड़ा हुआ काग़ज़ है। काग़ज़ पर क़लम से लिखा गया था क्यूँकि इस पर तक स्याही दिख रही थी। चिट्ठी। मन मुसकाया। डिब्बा खोला तो अंदर छोटी सी, सादी सी, हाथ से लिखी गयी चिट्ठी थी। लिखा गया था कि एक छोटा सा तोहफ़ा हैकि उनके लिए कस्टमर परिवार जैसा होता हैसाथ में लकड़ी की बनी हुयीं मिनीयचर पुरी के जगन्नाथ, सुभद्रा और बालभद्र(बलराम) की मूर्तियाँ थीं। ईश्वर आपके परिवार की रक्षा करें। मूर्तियों को देखते हुए आँख डबडबा आयीं। दिल भर आया। कि amazon और फ्लिपकार्ट वाली इस -रीटेल की दुनिया में किसी शहर का कोई व्यापारी अपने काम को इतना पर्सनल बना सकता है। ये भी लगा कि लिखने वाले के शब्द ईमानदार रहे हैं। सच्चे, सादे, ईमानदार। किसी तरह भी दुनिया इतनी सी बची रहनी चाहिए। बहुत ख़ुशी हुयी। बहुत। अगर पर्फ़ेक्ट होने की कोई चेक्लिस्ट होती तो इसमें सब कुछ टिक कर दिया जाता। बात साड़ी की भी नहीं हैबात है कि अगर कोई चाहे तो किसी छोटी से छोटी चीज़ को भी इतने अच्छे से कर सकता है कि उसे भुलाना नामुमकिन हो। हर चीज़ को बेहतर बनाया जा सकता है। और कुछ चीज़ों को पर्फ़ेक्ट भी। 


उड़ीसा में पुरी की इस दुकान का नाम Bhimapatra है। तस्वीर और वेब्सायट से दिखता है कि 1911 से यह दुकान मौजूद है। मुझे इक्कत साड़ियाँ बहुत ज़्यादा पसंद हैं। आज जो साड़ी आयी वो खिली भी बहुत। इस कोरोना काल में अब साड़ियाँ ख़रीदना तो बंद ही है लगभग, लेकिन ये स्टोर मेरी पसंदीदा की लिस्ट में शामिल हो गया है। लिखते हुए सोच रही हूँ, वे ऐसी ही पैकिजिंग और ऐसी ही चिट्ठी अपने हर कस्टमर को भेजते होंगे...उनमें से क्या अधिकतर लोग, recieved थैंक्स ही कहते होंगे या उनमें से कईयों को ऐसा महसूस हुआ होगा...ख़ास, स्पेशल। ऐसे कितने कुरियर भेजने के बाद कोई सोचेगा, कि क्या फ़र्क़ पड़ता है...सिर्फ़ साड़ी ही भेज देते हैं। क्यूँ इतनी मेहनत करना। मुझे मालूम नहीं। ऑनलाइन बहुत कुछ सामान मँगवाया है...ऐसा अनुभव पहली बार हुआ है। 



इतने दिन से घर में जंगली बने घूम रहे हैं। वही कपड़े, बाल झाड़ना ना कुछ और। आज इस साड़ी को पहनने के लिए भर शैम्पू किए और ख़ुद से थोड़ी बहुत तस्वीर खींचे। बाद में फ़ोटोज़ देखती हूँ तो पाती हूँ, मैं कितने वक़्त बाद इतनी ख़ुश दिख रही हूँ। शुक्रिया आयुष पात्रा। ये कुरियर बहुत दिन तक याद रहेगा। 


24 May, 2020

खो गयी चीज़ें और उनके नाम

दिल के भीतर चाहे जैसे भी रंग भरे हों, दिल की आउट्लायन दुःख के सीले स्याह से ही बनायी गयी है। जाने कैसी उदासी है जो रिस रिस के आँख भर आती है। कुछ दिन पहले पापा से बात कर रही थी, उन चीज़ों के बारे में जिनका नाम सिर्फ़ उन्हें पता है जिनके बचपन में वो शामिल रही हों। कई सारे खिलौने। 

अभी जब सब कुछ ही प्लास्टिक का होता है और छूने में एक ही जैसा लगता है। तब के इस खिलौने में कितनी चीज़ों का इस्तेमाल था। सन की रस्सी। पतली चमकदार जूट जिसे हिंदी में सन कहते हैं… गाँव के रास्ते कई जगह देखती थी सन को धूप में सुखाया जा रहा होता था और फिर उसकी बट के रस्सी बनायी जाती थी। इसके लिए एक लोहे का खूँटा गाड़ा गया होता था जिसमें से लपेट कर सन को ख़ूब उमेठ उमेठ कर रस्सी बनायी जाती थी। कुएँ का पानी खींचने के लिए सन की ही रस्सी होती थी। कभी मजबूरी में नारियल वाली रस्सी का भी इस्तेमाल देखा है, पर उस रस्सी से हाथ छिल जाते थे। सन की रस्सी चिकनी होती थी, हाथ से सर्र करके फिसलती थी तो भी हाथ छिलते नहीं थे। 

एक खिलौने में मिट्टी का सिकोरा और पहिए होते थे। काग़ज़ होता था। बाँस होता था। सबका अलग अलग हिस्सा, अलग अलग तासीर…सब कुछ जल्दी टूट जाने वाला। रस्सी से खींची जाने वाली आवाज़ करने वाली एक गाड़ी होती थी। मिट्टी का एक छोटा सिकोरा, उसके ऊपर पतला काग़ज़ जूट की पतली रस्सी से बँधा होता था। इसके ऊपर दो छोटी छोटी तीलियाँ होती थीं। एक छोटा सा ढोल जैसा बन जाता था। इसके मिट्टी के दो छोटे छोटे गोल पहिए होते थे और बाँस की दो खपचियाँ लगी होती थीं, जैसे कि कोई छोटी सी छकड़ागाड़ी हो। इसके आगे धागा बँधा होता था। मेले में अक्सर मिलता था। कभी कभी टोकरी में लेकर खिलौने वाले इसे बेचने घर घर भी आते थे। इसकी रस्सी पकड़ कर चलने से दोनों तीलियाँ ढोल पर बजने लगती थीं। एक टक-टक-टक जैसी आवाज़। छोटे बच्चों को ये ख़ूब पसंद होता था। मिट्टी का होता था, बहुत ज़्यादा दिन नहीं चलता, कभी काग़ज़ फट जाता तो भी खिलौना बेकार हो जाता था। मेरे बचपन की याद में इस खिलौने की टिक-टिक-टिक-टिक भी है।

इसी तरह हाथ में पकड़ कर गोल गोल घुमाने वाला एक खिलौना होता था। उसमें गहरे गुलाबी रंग की प्लास्टिक की पन्नी लगी होती थी। जिसे हम रानीकलर कहते थे। इसे हाथ में लेकर बजाते थे। वही दो तीलियाँ होती थीं, एक लोहे का महीन तार होता था और कड़-कड़-कड़ जैसी आवाज़ होती थी।

गाँव में एक बड़ी सी अलमारी थी। गोदरेज की। उसमें जाने क्या क्या रखा रहता था। कभी कभी तो दही और दूध की हांडियाँ भी। बिल्ली से बचने की इकलौती महफ़ूज़ जगह होती होगी, शायद। मेरा कच्चा मकान था वहाँ, दो तल्लों का। पहले फ़्लोर पर जाने को मिट्टी की सीढ़ियाँ थीं। हम उन सीढ़ियों पर कितनी बार फिसल कर गिरे, लेकिन कभी भी चोट नहीं आयी। मिट्टी का आँगन गोबर से लीपा जाता, उसपर भी फिसल कर कई बार, कई लोग गिरे थे। हमारे चारों तरफ़ मिट्टी ही मिट्टी होती। पेड़ों पर, घरों की बाउंड्री वाल एक आसपास, खेत, गोहाल, घर…हम जहाँ भी गिरते, वहाँ मिट्टी ही होती अक्सर। मिट्टी में कभी ज़्यादा चोट नहीं आती। छिले घुटने और एड़ियों पर मिट्टी रगड़ ली जाती या हद से हद गेंदे के पत्तों को मसल कर उनका रस लगा लिया जाता। गिरने पड़ने की शिकायत घर पर नहीं की जाती, दर्द से ज़्यादा डाँट का डर होता। 

धान रखने के लिए मिट्टी की बनी ऊँची सी कोठी होती थी जिसके तीन पाए होते थे, जिसमें कई बार एक टूटा होता था। वहाँ धान निकालने के लिए जो छेद होता था उसमें कपड़े ठूँसे रहते थे। ताखे पर रखा छोटा सा आइना होता था जिसमें देख कर अक्सर बच्चे माँग निकालना सीखते थे या नयी बहुएँ बिंदी ठीक माथे के बीच लगाना। मैंने कभी चाची या दादी को आइना देखते नहीं देखा। वे बिना आइना देखे ठीक सीधी बीच माँग निकाल लेतीं, सिंदूर टीक लेतीं, बिंदी लगा लेतीं। उन्हें अपना चेहरा देखने की कोई ऐसी हुलस नहीं होतीं। आँगन के एक कोने में तुलसी चौरा था, भंसा के पास। मैं छोटी थी तो मुझे लगता था इसके ताखे के अंदर किसी भगवान की मूर्ति होगी। मेरी हाइट से दिखता नहीं था कि अंदर क्या है। 

शाम होते चूल्हा लगा दिया जाता। पूरे गाँव में कहीं से गुज़रने पर धुएँ की गंध आने लगती। कहीं लकड़ी तो कहीं कोयले पर खाना बनता। बोरे में कोयला रखा रहता और उसे तोड़ने के लिए एक हथौड़ा भी। खाने की दो तरह की अनाउन्स्मेंट होती। पहला हरकारा जाता कि पीढ़ा लग गया है। इसमें लकड़ी का पीढ़ा और पानी का गिलास भर के रख दिया जाता था। इस हरकारे को सुन कर खाने वाले लोग कुआँ पर हाथ मुँह धोने चले जाते थे। फिर दूसरा हरकारा जाता था कि खाना लग गया है, मतलब कि थाली लग गयी है और उसमें एक रोटी रख दी गयी है। तब लोग पीढ़ा पर आ के बैठते थे और खाना खाते थे। चाची वहीं चुक्कु मुक्कु बैठी मिट्टी वाले चूल्हे में गर्म गर्म रोटी बनाती जाती और देती जाती। एक आध लेफ़्टिनेंट बच्चा रहता नमक या मिर्ची का डिमांड पूरा करने के लिए। चाची के माथे तक खिंचा साड़ी का घूँघट रहता, कोयले की लाल दहक में तपा हुआ चेहरा। रोटी की गंध हवा में तैरती रहती।

गाँव में अब पक्का मकान बन गया है। खाना भी गैस पर बनता है। चाची अब नीचे बैठ कर नहीं बना सकती तो एक चौकी पर गैस रखा है और वो कुर्सी या स्टूल पर बैठ कर खाना बनाती हैं। तुलसी चौरा पर हनुमान जी की ध्वजा तो अब भी लगती है लेकिन परिवार में किसी की मृत्यु हो जाने के कारण अब रामनवमी का त्योहार हमारे यहाँ नहीं मनाया जाता। मैं गाँव का मेला देखना चाहती हूँ। इन अकेले दिनों में। किसी बचपन में लौट कर।

27 April, 2020

लड़कियाँ जिनसे मुहब्बत हो तो उनका बदन उतार कर किसी खूँटी पर टांगना ना पड़े

#rant

कुछ दिन पहले 'रहना है तेरे दिल में' देख रही थी। बहुत साल बाद हम चीज़ें देखते हैं तो हम बदल चुके होते हैं और दुनिया को एक नए नज़रिए से देखते हैं। जो चीज़ें पहले बहुत सामान्य सी लगती थीं, अब बुरी लगती हैं या बेहद शर्मनाक भी लगती हैं। ख़ास तौर से औरतों को जिस तरह दिखाया जाता है। वो देख कर अब तो सर पीट लेने का मन करता है।

काश हिंदी फ़िल्मों का रोमैन्स इतना ज़्यादा फ़िल्मी न होकर थोड़ा बहुत सच्चाई से जुड़ा हुआ होता। मुहब्बत की पूरी टाइमलाइन उलझा दी है कमबख़्तों ने।

लड़के लड़की का एक दूसरे को अप्रोच करना इतना मुश्किल बना दिया है कि समझ नहीं आता कि आपको कोई अच्छा लगता है तो आप सीधे सीधे उससे जा कर ये बात कह क्यूँ नहीं सकते। इतनी तिकड़म भिड़ाने की क्या ज़रूरत है। फिर कहने के बाद हाँ, ना जो भी हो, उसकी रेस्पेक्ट करते हुए उसके फ़ैसले को ऐक्सेप्ट कर के बात ख़त्म क्यूँ नहीं करते। ना सुनने में इन्सल्ट कैसे हो जाती है।

ख़ैर। आज मैं सिर्फ़ दूसरी दिक्कत पर अटकी हूँ।

RHTDM में मैडी कहता है कि मैं तुमसे प्यार करता था तो तुम्हारे साथ कोई ऐसी वैसी हरकत की मैंने। नहीं।

अब दिक्कत ये है कि अगर मैडी उससे सच में प्यार करता था तो उसे चूमना या उसे छूने की इच्छा अगर ग़लत है तो फिर सही क्या है। और इतना ही अलग है तो 'ज़रा ज़रा महकता है' वाला गाना क्या था, क्यूँ था?

मतलब लड़कियाँ हमेशा दो तरह की होती हैं... प्यार करने वाली जिनके साथ सोया नहीं जा सकता और सिर्फ़ सोए जा सकने वालीं, जिनसे प्यार नहीं किया जा सकता। ये प्रॉपगैंडा इतने सालों से चलता अभी तक चल रहा है। देखिए ऊबर कूल फ़िल्म, 'ये जवानी है दीवानी' में कबीर कहता है, तुम्हारे जैसी लड़की इश्क़ के लिए बनी है। कोई किसी लड़की को कभी भी कहेगा कि तुम सिर्फ़ इस्तेमाल के लिए बनी हो। और अगर दोनों ने अपनी मर्ज़ी से एक दूसरे को चुना है तो किसने किसे इस्तेमाल किया?

ये कैसे लोग हैं जो ये सब लिखते हैं। इन्होंने कभी किसी से सच का प्यार व्यार कभी नहीं किया क्या?! कोई अच्छा लगता है तो चूमना उसे चाहेंगे ना, या कोई दूसरा ढूँढेंगे जिसके साथ सोया तो जा सकता है लेकिन पूरी रात जाग के बातें नहीं की जा सकतीं। ये mutually exclusive नहीं होता है।

बॉलीवुड कहता है कि ये दो लोग कभी एक नहीं हो सकते। अब आप बेचारे आम लोगों का सोचिए। किसी को एक कोई पसंद आए और बात दोतरफा हो ये क्या कम चमत्कार है कि वो अब किसी और को तलाशे जो सिर्फ़ शरीर तक बात रखे। मतलब प्यार के लिए एक लड़की/लड़का और प्यार करने के लिए दूसरी/दूसरा! इतने लोग मिलेंगे कहाँ?

मतलब क्या *तियाप है रे बाबा!

इश्क़ वाली लड़की स्टिरीयोटाइप, इंटेलिजेंट, भली, भोली लड़की। माँ-बाप की इच्छा माने वाली, अरेंज मैरज करने वाली। ट्रेडिशनल कपड़े पहनने वाली। चश्मिश। ट्रेडिशनल लेकिन बोरिंग नहीं, सेक्सी। बहुत ज़्यादा बग़ावत करनी है तो लव मैरिज करेगी या सिगरेट शराब पी लेगी। कोई ढंग का कैरियर चुन कर कुछ बनेगी नहीं, अपने फ़ैसले करके के उसकी ज़िम्मेदारी नहीं लेगी।

नॉन-इश्क़ वाली बुरी लड़की। छोटे कपड़े पहनने वाली(ये ज़रूरी है)। सिगरेट शराब, तो ख़ैर ज़रूरी है ही। अक्सर बेवक़ूफ़ भी। बेहद ख़ूबसूरत। लड़की नहीं, गुड़िया। कि जिसकी कोई फ़ीलिंज़ होती ही नहीं हैं। इस्तेमाल करो, फेंको, आगे बढ़ो।

और लड़का लड़की के बीच में 'कुछ' ऊँच नीच हो गयी तो तौबा तौबा। फ़िल्म का टर्निंग पोईंट हो जाता है। बवाल मच जाता है। pre-sex और post-sex के बीच बँट जाते हैं हमारे मुख्य किरदार।

रियल ज़िंदगी में इसलिए लोग अपराधबोध से घिरे होते हैं, कि हम उससे प्यार करते हैं तो उसको वैसी नज़र से कैसे देख सकते हैं। मेरी किताब, तीन रोज़ इश्क़ में एक कहानी है, मेरी उँगलियों में तुम्हारा लम्स न सही, तुम्हारे बदन की खुशबू तो है। इसमें ख़स की ख़ुशबू वाला ग्लिसरिन साबुन है जो लड़की स्कार्फ़ में लपेट कर लड़के को कुरियर कर देती है। तब जा के लड़का उसे 'उस' नज़र से देखने के अपराधबोध से मुक्त होता है। मुझे ऐसी कहानियाँ अच्छी लगती हैं। मुझे ऐसी लड़कियाँ अच्छी लगती हैं जो एक क़दम आगे बढ़ कर माँग लेती हैं जो उन्हें चाहिए। 

इन चीज़ों पर जो सोचते हैं कई बार उसे भी सवालों के कटघरे में खड़ा करते हैं कि हम ये सब सोच क्यूँ रहे हैं। कुछ ऐसा लिखना भी बेहद ख़तरनाक है कि कौन अपना इम्प्रेशन ख़राब करे। लेकिन इतने साल से यही सब देख-सुन के पक गए हैं। कुछ नया चाहिए। ताज़गी भरा। वे लड़कियाँ चाहिए जो ख़ुद से फ़ैसला करें, लड़के - नौकरी - सिगरेट का ब्राण्ड - शाम को घर लौटने का सही वक़्त। वे लड़कियाँ जिनसे मुहब्बत हो तो उनका बदन उतार कर किसी खूँटी पर टांगना ना पड़े। जिनकी आत्मा से ही नहीं, उनके शरीर से भी प्यार किया जा सके।


बस। आज के लिए इतना काफ़ी है। मूड हुआ तो इसपर और लिखेंगे।

19 April, 2020

looping in audio

लिखना मुझे सबसे आसान लगता है। वक़्त की क़िल्लत कुछ उम्र भर रही है, ऐसा भी लगता है। क्रीएटिव काम की बात करें तो लिखने की आदत भी इतने साल से बनी हुयी है कि आइडिया आया तो लिखने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगता। टाइपिंग स्पीड भी काफ़ी अच्छी है।

कॉलेज में बेसिक विडीओ एडिटिंग का कोर्स किया था। उन दिनों vhs टेप इस्तेमाल होते थे। सीखते हुए थ्योरी में सिनेमा की रील को कैसे एडिट करते हैं वो भी सीखा था और सर ने कर के दिखाया भी था। फ़िल्में बनाऊँगी, ऐसा सोचा था, ज़िंदगी के बारे में। 

मगर कुछ ऐसा कुयोग होता रहा हमेशा कि फ़िल्म्ज़ ठीक से बन नहीं पायी। विडीओ कैमरा ख़रीदा था तो उसके पहले महीने में ही चोरी हो गया, उसके छह महीने बाद तक मैंने उसकी मासिक किश्त भरी। बैंगलोर में एक आध बारी कुछ ग्रूप्स के साथ फ़िल्म बनाने का वर्कशॉप किया, सिर्फ़ इसलिए कि कोई तो मिलेगा जिसके साथ काम करने में अच्छा लगे... लेकिन एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जिससे मेंटल लेवल मैच करे। इसके बाद कई दिनों तक सोचती रही कि मैं मेंटल ही हूँ। 

मैकबुक इस्तेमाल करना शुरू किया तो देखा कि बेसिक एडिटिंग के लिए iMovie बहुत अच्छा है। इसमें विडीओ और ऑडीओ एडिटिंग के लिए आसान टाइमलाइंज़ हैं। साथ में गराज़ बैंड भी इस्तेमाल किया। ये एक बहुत ही अच्छा ऑडीओ एडिटिंग सॉफ़्ट्वेर है जिसमें पहले से कई ट्रैक्स लोडेड हैं। इन्हें ऐपल लूप्स कहते हैं। जब पहली बार देखा था तब कभी कभार एडिटिंग की थी।

विडीओ एडिटिंग का सबसे मुश्किल हिस्सा होता है म्यूज़िक। बीट्स सही जगह होनी चाहिए, संगीत का उतार चढ़ाव एक पूरी पूरी कहानी कहता है। विडीओ के साथ इसे तरतीब का होना ज़रूरी होता है। स्ट्रेंज्ली, बहुत कम एडिटर्ज़ को संगीत की बहुत अच्छी समझ होती है। मैंने ज़ाहिर है, बहुत अच्छे एडिटर्ज़ के साथ काम नहीं किया है। इवेंट मैनज्मेंट के दौरान जो छोटे विडीओज़ बनते थे या फिर इंडिपेंडेंट फ़िल्म बनाते हुए मैंने देखा है कि वे बीट्स का या संगीत के उतार चढ़ाव का ठीक ख़याल नहीं रख रहे। मैंने शास्त्रीय संगीत सात साल सीखा है जिसका कुछ भी याद नहीं लेकिन ताल की समझ कुछ ingrained सी हो गयी है। जैसे कि ग्रामर की समझ। मैं नियम नहीं बता सकूँगी कि कोई वाक्य क्यूँ ग़लत है…लेकिन दावे के साथ कह सकती हूँ कि ग़लत फ़ील हो रहा है तो ग़लत होगा… यही बात संगीत के साथ है। महसूस होता है कि गड़बड़ है। लेकिन ऐसा कोई ऑडीओ मिक्सिंग का कोर्स नहीं किया है तो इसमें ज़्यादा चूँ चपड़ नहीं करती। 

हमारे पास जो नहीं होता है, उसका आकर्षण कमाल होता है। मैं बचपन से बहुत तेज़ बोलती आयी हूँ और आवाज़ की पिच थोड़ी ऊँची रहती है। ठहराव नहीं रहा बिलकुल भी। तो मुझे रेडीओ की ठहरी हुयी, गम्भीर आवाज़ें बहुत पसंद रहीं हमेशा। वे लोग जो अपनी आवाज़ का सही इस्तेमाल जानते थे वो भी। मुझे हमेशा आवाज़ों का क्रेज़ होता। कोई पसंद आता तो उसकी आवाज़ पे मर मिटे रहते। उसे देखने की वैसी उत्कंठा नहीं होती, लेकिन आवाज़ सुने बिना मर जाती मैं। 

पाड्कैस्ट पहली बार बनाया था तो ब्लॉग के दोस्तों ने बहुत चिढ़ाया था। इतना कि फिर सालों अपनी आवाज़ रेकर्ड नहीं की… आवाज़ पर काम नहीं किया। ये कोई दस साल पहले की बात रही होगी। हम जो भी काम नियमित करते हैं, उसमें बेहतर होते जाते हैं। इतने साल अगर कहानी पढ़ना या सुनाना किया होता, तो बेहतर सुनाती या पढ़ती। फिर मैंने अंकित चड्डा को सुना… और लगा कि नहीं, कहानियाँ सुनाने में जो जादू होता है, वो शायद लिखने में भी नहीं होता। पर्सनली मैंने कई बार लोगों को कहानी सुनायी है, क्यूँकि वे अक्सर कहते हैं कि मेरी किताब या मेरी कहानियाँ उन्हें समझ नहीं आतीं। कुछेक स्टोरीटेलिंग सेशन किए बैंगलोर में और लोगों को बहुत पसंद आए। मेरा आत्मविश्वास बढ़ा और सोचा कि इसपर थोड़ा बारीकी से काम करूँगी। लेकिन फिर मूड, मन, मिज़ाज और इस शहर में वैसा ऑडीयन्स नहीं मिला जो मैं तलाश रही थी। मन नहीं किया आगे कहानी सुनाने का… फिर कुछ जिंदगी की उलझनें रहीं।

अब फिर से कहानी सुनाने का मन करता है। कहानियों की विडीओ रिकॉर्डिंग करके उन्हें चैनल पर पोस्ट करने का भी। सबसे मुश्किल होता है म्यूज़िक। कि ख़रीदने पर म्यूज़िक काफ़ी महँगा मिलता है और समझ भी नहीं आता कौन सा म्यूज़िक ख़रीदें। आज यूट्यूब पर गयी तो देखा कि बहुत सारा म्यूज़िक फ़्री अवेलबल है। साउंड्ज़ के नाम और genre भी थे तो चुनना आसान है। 

एक सिम्पल सा डेढ़ दो मिनट का विडीओ बनाने में भी लगभग चार से पाँच घंटे तो लगते ही हैं। फिर ये भी लगता है कि किसी से कलैबरेट कर लेना बेहतर होगा। कि हम बाक़ी काम करें, कोई ऑडीओ एडिट कर दे, बस। मगर तब तक, ये गराज़ बैंड के ऑडीओ लूप्स अच्छे हैं और youtube पर के ये साउंड क्लिप्स भी। 

बाक़ी देखें। कुछ शुरू करके अधूरा छोड़ देने के एक्स्पर्ट हैं हम। 

इसलिए उन लोगों के लिए डर लगता है जिनसे मुहब्बत होती है हमें। कि शुरू करके छोड़ जाने के बाद वो कितने अधूरे रह जाते होंगे, पता नहीं।

मैं अपनी आवाज़ तक लौट रही हूँ, आप मुझे यहाँ सुन सकते हैं।


27 January, 2020

मझोली सी उदासी

‘उदासी ले लो! उदासी ले लो…हर रंग की उदासी मिलेगी… फीकी, पीली, गहरी नीली… दिल दुखाने वाली, दिल तोड़ने वाली, जानलेवा उदासी… आओ आओ, जो तुम्हें पसंद आए, ख़ुद देख कर छान-बीन कर ले लो, सब माल बिकाऊ है… सब बिका हुआ सामान वापस हो जाएगा, ट्राई कर के देखो… आओ आओ’

सुबह के सात बजे थे और शहर एकदम ख़ामोश था। सड़क चौड़ीकरण में सारे पेड़ काट दिए गए थे तो इस मुहल्ले में चिड़ियों का शोर नहीं होता था अब। वे कुछ महीनों के इंतज़ार के बाद शायद कहीं और चली गयीं, या मर गयीं, मुझे नहीं मालूम। सन्नाटे में कभी कभार कोई गाड़ी तेज़ी से गुज़रती थी….अक्सर काले शीशे चढ़ी हुयी कोई काली रंग की गाड़ी ही। मुझे हमेशा लगता था जैसे कि फिरौती के पैसे मिलने के बाद छोड़ा गया कोई व्यक्ति भाग कर उनसे दूर और अपने परिवार के पास जल्दी पहुँचने की हड़बड़ी में है। 

ग़ज़ब मीठी आवाज़ थी। चुप्पी में उस आवाज़ का आकर्षण और निखर गया था। ज़ाहिर है दिन के शोर में सुनायी भी नहीं पड़ता कि सड़क पर कोई फेरीवाला घूम रहा है। मैंने दो तीन बार ध्यान से सुना कि वो क्या बेच रहा है क्यूँकि अनजान भाषा के इस शहर में अक्सर मैं कुछ और ही समझती हूँ और ख़रीदने को कुछ और ही उतर जाती हूँ ग़लती से। अक्सर बालकनी से झाँक के देख लेना सही रहता है। मैं बालकनी में गयी और नीचे झाँका… ठीक उसी समय उस फेरी वाले ने भी ऊपर देखा, और हालाँकि मुमकिन नहीं था, लेकिन ऐसा लगा कि उसकी आँखें सीधे मेरी आँखों में ही झाँक रही हैं। शायद उसने बड़ी उम्मीद से हर बालकनी की ओर देखा होगा और मेरे सिवा किसी में कोई व्यक्ति न दिखा हो उसे। उसने फिर अपनी टेर लगायी। इस बार मैं कन्फ़र्म थी कि वो ‘उदासी’ ही बेच रहा है और बोली भी हिंदी में ही लगा रहा है। मैंने हल्की सी शॉल डाली और कमरे का ताला बंद करते हुए सोचने लगी, ये अमीरों के इतने पॉश मुहल्ले में हिंदी में क्यूँ बेच रहा है कुछ…अंग्रेज़ी में बेचता तो शायद ज़्यादा लोग ख़रीदने भी आते।

‘क्या बेच रहे हो भैय्या?’
‘उदासी है दीदी, आपको चाहिए?’

मुझे नहीं चाहिए थी…लेकिन उसकी कातर आवाज़ ऐसी थी कि ना नहीं बोला गया। कई बार हम बेमतलब की चीज़ें ख़रीद लेते हैं कि बेचने वाले को शायद उस ख़रीद-फ़रोख़्त की दरकार थी। 

‘चलो, दिखाओ…’
‘दीदी हमारे पास हर रंग की उदासी है…आपको कितनी गहरी चाहिए, ये आप ख़ुद चुन लेना’
‘कौन ख़रीदता है उदासी, तुम्हारे घर का ख़र्च चल जाता है इससे?’
‘आपके जैसा कोई न कोई मिल ही जाता है दीदी… रोज़ रोज़ तो बिक्री नहीं है। लेकिन ये पैसे का खेल तो है नहीं, ये दुआओं का कारोबार है। आपने कोई उदासी ख़रीदी तो उस परिवार के लोग आपको और मुझे दुआ देंगे। दुआ मिलेगी तो ज़िंदगी की टेढ़ी मेढ़ी उलझन सुलझ जाएगी। उपरवाला सब कुछ देखता है दीदी, उसका हिसाब कभी गड़बड़ नहीं होता’।
‘मेरे जैसा मतलब कैसा?’
‘ऐसे बड़े शहरों में रहने वाले, उदासी को सिर्फ़ दूर से देखने वाले लोग। आपने दुःख - माने ग़रीबी, भुखमरी, अकाल, बीमारी, अस्पताल में मरते बच्चे, शमशान में बेकफ़न लाश… आपने असल दुःख सिर्फ़ दूर से देखा है। टीवी में, अख़बार में, मोबाइल पर whatsapp फ़ॉर्वर्ड में। आपके पास ज़बरन उगाया हुआ कृत्रिम दुःख है। आपकी उदासी टिकाऊ नहीं है, एक ग्लास बीयर में घुल के ग़ायब हो जाती है। लेकिन हमारा दुःख ख़ालिस है…इसमें कोई मिलावट नहीं, ये आत्मा की चीख़ से उपजा हुआ है, बदन की टीस से।
‘मैं क्यूँ ख़रीदूँ तुम्हारी उदासी?’
‘आप पर उदासी बहुत फबेगी दीदी… हर किसी पर उदासी ख़ूबसूरत नहीं लगती। इस दुःख को छू कर देखिए, उदासी कैसे बदन का लिबास बनती है और कितने रंग उभरते हैं आपकी आँखों में। मेरी उदासी पहन कर आप जिससे जो चाहें करवा सकती हैं, उदासी का आकर्षण अकाट्य है। इसे ओढ़ कर आप किसी से जो भी माँगेगी, मिलेगा, फिर आपको ना कहना नामुमकिन होगा। यही नहीं। ये पूरी तरह नॉन-स्टिक है। जब जी करे, उतार कर रख दीजिएगा। कोई भी एक उदासी ले लो दीदी… बहुत दिन से बिक्री नहीं हुयी है। सुबह सुबह बोहनी हो जाएगी, मेरे बच्चे आपको दुआ देंगे’
‘कहाँ से लाते हो उदासी?’
‘आप भी दीदी, मज़ाक़ करती हैं। इस दुनिया में उदासी की कमी है? देखने वाली नज़र चाहिए… ठहरने को जिगरा और उदासी को ठीक ठीक रखने के लिए दिल में बहुत सी जगह। यूँ ही कोई उदासी का कारोबार नहीं करने लगता’
‘ठीक है…तुम्हारी पास जो सबसे गहरी, सबसे स्याह उदासी है, वो दिखाओ’
‘अरे नहीं दीदी, वो उदासी आप मत लो… उसे बर्दाश्त करने लायक़ ख़ुशी नहीं है आपके पूरे वजूद में। वो उदासी आपने ख़रीद ली तो मैं ख़ुद को कभी माफ़ नहीं कर पाउँगा। आप एक काम करो, ये मझोली वाली उदासी अपने पास रख लो। ये उन बच्चों की उदासी है जो स्कूल नहीं जा पाए और बर्तन माँजने लगे। इसे ख़रीदना सबसे आसान भी है। आप कुछ पैसे में इसे ख़रीद सकती हैं। आपको ठीक लगे तो बताओ…मैं शुरू करता हूँ’
‘ठीक है…तुम्हें बेहतर पता होगा, किसे कौन सी उदासी सही रहेगी, तुम जो कहते हो, वही सही’

फिर उसने कहानी सुनानी शुरू की…गाँव, शहर, क़स्बा… कई कई परिवारों की एक ही कहानी… बच्चे जो इतने समझदार थे कि शिकायत भी नहीं करते। बच्चे जो कि इतने होशियार थे कि आगे जा कर डॉक्टर इंजीनियर बनते। बच्चे जो कि इतने होनहार थे कि ढाबे पर बर्तन धोने का काम शुरू किया और खाना बनाना सीख कर ठेला लगाने लगे। उदासी की हर कहानी उम्मीद पर आ कर रूकती थी। उसके पास जितनी उदासी मिली, मेरे पास जितने पैसे थे, मैंने सारी ख़रीद ली। उसने हर ख़रीद की रसीद दी, पक्की रसीद। बच्चे का नाम, उसके स्कूल का ख़र्चा, उसके घर का पता… सब कुछ।

मुझे साल में हर त्योहार पर तस्वीरें और थैंक यू कार्ड आते हैं। जाने ये कौन से बच्चे हैं… लेकिन कहते हैं कि दीदी आपके कारण ही हम स्कूल जा पा रहे हैं। उनकी टेढ़ी मेढ़ी हैंडराइटिंग में उनके क़िस्से होते हैं जिन्हें पढ़ कर मेरी सारी उदासी धुल जाती है, कृत्रिम उदासी, जैसा कि वो कहता था। 

मेरे दोस्त कहते हैं, वो मुझे बेवक़ूफ़ बना कर चला गया। मैंने किसी की कहानी सुन कर फ़ालतू में बहुत पैसे दे दिए… इस तरह का स्कैम ख़ूब हो रहा शहर में। डोनेशन पाने के लिए कुछ भी करते हैं। इन पैसों का मैं बहुत कुछ कर सकती थी। बहुत दिन मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की लेकिन आख़िर छोड़ दिया। 

इन दिनों सुबह गौरैय्या दिखती है। बालकनी के टूटे गमले में उसने घोंसला बनाया है। मैं उसके लिए रोज कटोरी में थोड़े दाने और पानी रखती हूँ। कभी कभी लगता है, वो फेरीवाला फिर से आएगा तो इस बार कोई और उदासी मोलाऊँगी।

24 November, 2019

कभी न मिल सकने वाले लोगों की बातों से बनी धुन्ध

मैं अपनी माँ और बेटियों के बीच एक अदृश्य झूलने वाला पुल हूँ। हैंगिंग ब्रिज। जिसके दो ओर छोर होकर वे एक दूसरे को देखती हैं। सोचती हैं कि मिल लें, लेकिन पुल उन्हें दिखायी नहीं देता। सिर्फ़ मैं उन्हें देख पाती हूँ, पुल के दोनों छोर पर और कलेजे में एक टीस उठती है। एक सिसकारी जो हवा में घुली आती है और हमेशा धुन्ध भरे दिनों की याद दिलाती है। छुट्टियों में किसी अनजान शहर से गुज़रते हुए रेल की खिड़की पर दिखती है, पीछा करती हुयी, दूर तक। खेतों के ऊपर ऊपर। शहरों, गाँवों की बत्तियों में टिमकती हैं कुछ पुरानी बातें जो शायद मेरी दादी ने याद कर रखी थीं और उनके साथ ही चली गयीं। कुछ लोकगीत, कुछ उनकी ज़िंदगी के क़िस्से…कुछ हमारे गाँव के बारे में कहानियाँ।

कभी न मिल सकने वाले लोगों की बातों से बनी है धुन्ध … कभी कभी इसमें बाक़ी पितर भी दिखते हैं। मेरे बाबा, मेरी दादी, नानाजी, दीदिमा… कभी कभी बड़े पापा भी। आने वाली पीढ़ी के लिए आशीर्वाद के मंत्र गुनगुनाते हुए। मैं सोचती हूँ, मेरे पितरों ने भी मुझे ऐसे ही असीसा होगा। किसी अदृश्य पुल के इर्द गिर्द ठहरी हुयी फुसफुसाती धुन्ध में। वो सारा प्रेम जो हमारे हिस्से पीढ़ी दर पीढ़ी संचित होता आता है। पहाड़ों के बीच सदियों के मंत्र। काली, गहरी, डरावनी रातों को संबल क्या इन्हीं प्रार्थनाओं से आता है?

कभी कभी हमें लगता है, हम अकेले नहीं हैं। जुड़े हुए हैं। इस सृष्टि के ताने-बाने में हर धागा दूसरे धागे से जुड़ता जाता है। जुड़ने की जगह जो थोड़ी सी बारीकी आ जाती है, उसे सब लोग नहीं महसूस कर पाते। हैंडलूम की साड़ियाँ पहनने से इतना हुआ है कि इस तरह की बारिकियाँ नज़र में कुछ ज़्यादा आती हैं। कहीं धागे के ऊपर दूसरा धागा लिपटा हुआ। मैं बुनकर की उँगलियों के बारे में सोचते हुए ईश्वर के बारे में सोचती हूँ।

मैंने एक लोरी गुनगुनानी शुरू कर दी एक रात। उसके बोल, उसकी धुन, और गाते हुए बाँस के झुरमुट में सरसराती हवा की सनसन…सब एक साथ गुँथे ऐसे हैं कि किसी और के सामने गाते हुए मेरा गला अक्सर भर्रा जाता। मैं उसे बिल्कुल अकेले में गाती हूँ। मुझे याद नहीं है, पर लगता है, शायद ये लोरी मेरी माँ मुझे गा के सुनाती थी। एक ऐसे बचपन में जिसका सब कुछ याद्दाश्त से धुल चुका है। माँ के जाने के साथ वो कहानियाँ हमेशा के लिए चली जाती हैं जो हमारे बचपन को ज़िंदा रखतीं।
आधी नींद की किनार पर धूप चुभती है। मैं सोचती हूँ प्रेम भी बिना कहे विदा लेता है। किसी अदृश्य पुल के दूसरी तरफ़ प्रेम भी इंतज़ार में होता है कि किसी को नाव चलानी आए तो जा सके उस पर। कभी कभी प्रेम बीच दरिया में डूब जाना चाहता है। इतरां को लिखना ख़ुद को ख़ाली करना है। उन रंगों और गंधों को तलाशना है जो मेरे अवचेतन में तो हैं, पर लिखते हुए लगता है किसी और जन्म का जिया हुआ लिख रही हूँ।
इतरां। ऐसा गुमशुदा सा नाम क्यूँ रखा मैंने उसका। क्या वो भी खो जाएगी मेरी बाक़ी कहानियों की तरह? मैं उसका अंतिम अलविदा लिखने के पहले इतना हिचक क्यूँ रही हूँ। क्या वो भी मुझे फिर किसी पुल के पार दिखेगी और हमारे बीच कई शहर गुज़रते जाएँगे। मैं सिक्का फेंक कर कोई मन्नत माँग लेना चाहूँगी, उसके वापस लौटा लाने के लिए? क्या मैंने इतने पूजास्थल देख लिए कि हर जगह मनौती का धागा बाँधने का अब मन नहीं करता? मैंने अपने हाथ की लकीरें आख़िरी बार कब देखी थीं? कोई मेरा गाल थपथपाता है, आधी नींद में, जगाता है…कि हर कुछ सपना नहीं होगा एक रोज़। अपने किरदारों से इश्क़ नहीं करना चाहिए। उनसे थोड़ी दूरी बना के रखना जीने की जगह और वजह दोनों देता है। मैं इक रोज़ समझदारी की बातें करने के साथ साथ समझ में भी आने लगेंगीं।

वो जो लगता था, कोई दुःख आत्मा को लगा है। वो असल में, वो, वो ही सच में...सुख था। 
मेरे दिल में आज भी बहुत प्रेम है। किसी के हिस्से का नाम लिखे बग़ैर। 

19 November, 2019

देर रात के राग

हम अगर अपने जीवन को देखें तो पाते हैं कि हम एक तलाश में होते हैं। हमारे अलग अलग हिस्सों को अलग अलग चीज़ें पुकारती हैं। मन, प्राण, शरीर, सब कुछ अपने लिए कुछ ना कुछ खोज रहा होता है। 

पैरों को कभी कच्ची मिट्टी की तलाश होती है, कभी समंदर किनारे की बालू और कभी कभी ही सही, ट्रेड्मिल की पट्टी की। पैर कभी कभी नए शहरों की ज़मीन भी तलाश रहे होते हैं। हम अगर पाँव ना बाँधें और उन्हें जहाँ जाने की इच्छा हो, जाने दें तो ज़िंदगी एक ख़ूबसूरत नृत्य सी होगी, जिसमें सुर होंगे, लय होगी, ताल होगी। उस झूम में हमें दुनिया से थोड़ी कम शिकायत होगी, हम ख़ुद के प्रति थोड़े ज़्यादा उदार होंगे। 

इसी तरह हाथों को भी कई चीज़ों की दरकार होती है। अलग अलग समय में इन हाथों ने कभी सिगरेट के लिए ज़िद मचायी है तो कभी पुराने क़िले के पुराने पत्थरों की गरमी को अपने अंदर आत्मसात करने की। कभी कभी जब कुछ ऐसे लोगों से मिले हैं कि जो न दोस्त हैं न महबूब और जिनके लिए कोई परिभाषा हमने गढ़ी नहीं है अभी, ये हाथ कभी कभी उन नालायक़ लोगों के हाथों को थामने के लिए भी मचल उठते हैं। हर कुछ समझदारी से इतर, मेरे हाथों ने कुछ हमेशा चाहा है तो वो सिर्फ़ क़लम और काग़ज़ है। ज़िंदगी के अधिकतर हिस्से में मैंने ख़ुद को लिखते हुए पाया है। सुख में, दुःख में, विरक्ति में, वितृष्णा में, प्रेम में, विरह में…लगभग हर मन:स्थिति में मैंने अपने हाथों को क़लम तलाशते पाया है और ज़रा सा भी एक टुकड़ा काग़ज़। मेरे लिए लिखना सिर्फ़ राहत ही नहीं, उत्सव भी है। मैं अपने होने को अपने लिखे में सहेजती हूँ। एक एक चीज़ है जो उम्र भर मेरे लिए कॉन्स्टंट रही है। मेरे पास हमेशा काग़ज़ रहता है, क़लम रहती है। किताब शायद कभी हो भी सकता है कि बैग में न हो, लेकिन बिना एक छोटी सी नोट्बुक और पेन के मैं कहीं नहीं जाती। मन के अंधेरे में क़लम का होना मशाल से कम नहीं होता। इससे रास्ता छोटा नहीं होता लेकिन उसका दुरूह होना अगर दिख जाता है तो मैं ख़ुद को बेहतर तैय्यार कर पाती हूँ। 

किसी सूरजमुखी के फूल की तरह मेरा चेहरा धूप तलाशता है और जेठ की मिट्टी की तरह बारिश। अपने इर्द गिर्द लपेटने को बदन कोहरा तलाशता है। 

मैं जिन लोगों से बहुत प्यार करती हूँ, मुझे उनकी आवाज़ से मोह हो जाता है। ज़िंदगी में ज़रूरत से ज़्यादा माँगने या चाहने की आदत नहीं रही कभी तो बहुत ज़्यादा बात करने की गुज़ारिश भी किसी से की हो, मुश्किल है। लेकिन कभी कभी, जब ज़रूरत हो, उस वक़्त आवाज़ का एक क़तरा मुहैय्या हो जाए, इतना तो चाहिए ही होता है।

कुछ दिन पहले ब्लड प्रेशर बहुत ज़्यादा स्पाइक कर गया था। या मशीन ख़राब रही होगी। कुछ भी हो सकता है। दोस्तों ने मेडिटेशन करने की सलाह दी। हम नौ बजे उठने वाले प्राणी उस दिन सात बजे उठ गए। घर में पूरब की ऊनींदी धूप आ रही थी। हल्की गुमसुम, ठंडी हवा चल रही थी, जैसे कोई पीछे छूट गया हो। बालकनी में फूल खिले थे। एक तरह की लिली, गेंदा, सफ़ेद अपराजिता, वैजंति। मैं आसानी पर बैठी मन्त्र पाठ कर रही थी। कुछ ही मंत्र हैं, जिनसे ध्यान करने में भी गहरा जुड़ाव होता है। इसमें से एक है, महामृत्युंजय मंत्र। सुबह को मन शांत करके, गहरी गहरी साँस लेते हुए मंत्र पढ़े। बहुत कुछ बचपन का झाँक के चला गया बालकनी से, मुझे छेड़े बिना। 

इतनी रात गए हज़ार बातों में में एक अजीब बात सोच रही हूँ। महामृतुंजय मंत्र मृत्यु से बचने का मंत्र नहीं है, ये मृत्यु के भय से मुक्त करने का मंत्र है। ये इतनी ही छोटी और इतनी ही गहरी बात है कि मैं इसमें उलझ गयी हूँ। आज के पहले इस बात पर मेरा ध्यान कैसे नहीं गया। कि वाक़ई, हमें मुक्ति भय से ही चाहिए…कि मृत्यु तो शाश्वत सत्य है, उसे दूर करने का कोई मंत्र हो भी क्यूँ। यह सोचना मेरे मन को थोड़ा शांत करता है। कि मैं जाने क्या तलाश रही थी, लेकिन आज जहाँ हूँ, ये जगह अच्छी है। ये लोग जो हैं, अच्छे हैं। कि दुनिया अभी भी जीने लायक़ ख़ूबसूरत है।

24 October, 2019

इतना काहे मुसकिया रही हो मोना लीसा?

मोना लीसा। दुनिया की सबसे प्रसिद्ध तस्वीर। इतिहास की किताब में यूरोप के रेनिसां के बारे में पढ़ते हुए कुछ तस्वीरों को देखा था। उस समय की उसकी मुस्कान में ऐसा कुछ ख़ास दिखा नहीं कि जिसके पीछे दुनिया पागल हो जाए। ख़ूबसूरती के पैमाने पर भी मोना लीसा कोई बहुत ज़्यादा ख़ूबसूरत नहीं थी। कमानीदार तो क्या, नॉर्मल भवें भी नहीं थी उसकी कि उस समय के फ़ैशन में भवें शेव कर लेना था। हमारी ख़ूबसूरती की परिभाषा से बिलकुल अलग मोना लीसा। हमारे लिए ख़ूबसूरती का पैमाना हमारी अपनी बणी-ठनी थी। क्या ही तीखी नाक, कमानिदार भवें, बड़ी बड़ी आँखें (साइड प्रोफ़ायल है, तो एक ही आँख दिख रही है), मेहंदी रचे हाथ, चूड़ियाँ, ऋंगार…माथे पर से घूँघट। ओह, कितनी ही सुंदर।

बाद के साल में भी कभी ना कभी न्यूज़ में मोना लीसा दिखती ही रही। किताब आयी, दा विंची कोड, इसने फिर से मोना लीसा को ख़बर में ला खड़ा किया। कितनी सारी थ्योरी भी पढ़ी, जिसमें एक ये भी थी कि मोना लीसा असल में लीयनार्डो का सेल्फ़ पोर्ट्रेट है। तब तक कुछ ऐसे लोगों से भी मिलना हो रखा था जिन्होंने मोना लीसा की पेंटिंग को प्रत्यक्ष देखा था। उन्होंने बताया कि पेंटिंग का आकार छोटा सा है और पेरिस के लूव्रे म्यूज़ीयम में सबसे ज़्यादा भीड़ उसी कमरे में होती है। उतने सारे लोगों के बीच, भीड़ में धक्का मुक्की करते हुए, कोई पाँच फ़ीट की दूरी से काँच की दीवार के पीछे लगे मोना लीसा के चित्र में कोई जादू, या कि मुस्कान में कोई रहस्य नहीं नज़र आता है। वे काफ़ी निराश हुए थे उसे देख कर।

मैं पिछले साल लूव्रे म्यूज़ीयम गयी थी। वाक़ई मोना लीसा की पेंटिंग आकार में छोटी थी और कमरे में कई कई लोग थे। अधिकतर लोग मोना लीसा को देखने से ज़्यादा अपनी सेल्फ़ी लेने में बिजी थे। मैं भी भीड़ में शामिल हुयी और लोगों के हटते हटते इंतज़ार किया कि सबसे आगे जा के देख सकूँ। वहाँ से मुझे तस्वीर लेने की नहीं, वाक़ई मोना लीसा को देखने की उत्कंठा थी। उसे सामने देखना वाक़ई जादू है। उसकी आँखें बहुत जीवंत हैं और मुस्कान वाक़ई सम्मोहित करने वाली। उसे देख कर हम वाक़ई जानना चाहते हैं कि आख़िर क्यूँ मुस्कुरा रही है वो ऐसे कि इतने सौ साल में भी उसकी मुस्कान का रंग फीका नहीं पड़ा। वो कैसी ख़ुशी है।

मोना लीसा के बारे में थ्योरी ये है कि जब ये पेंटिंग बनायी गयी, मोना लीसा गर्भवती थी। उसकी सूजी हुयी उँगलियों से ये अंदाज़ा लगाया जाता है, इससे भी कि उसने हाथ में अपने विवाह की अँगूठी नहीं पहनी हुयी है। कुछ तथ्यों के मुताबिक़ ये सही अनुमान है। उसकी मुस्कान के इतने शेड्स इसलिए हैं कि वो अपने अजन्मे बच्चे के बारे में सोच रही है। कई सारी बातें। उसके भविष्य के सपने देख रही है। अपने प्रसव को लेकर चिंतित है। शायद कुछ शारीरिक कष्ट में भी हो। मन में ही ईश्वर से प्रार्थना कर रही है कि सब कुछ अच्छा हो। कई सारी बातों को सोचती हुयी मोना लीसा मुस्कुरा रही है। उसके चेहरे पर दो लोगों - दो आत्माओं के होने की मुस्कान भी है, मोना लीसा और उसके अजन्मे बच्चे की। लीयनार्डो ने इन सारी बातों में खिलती हुयी मुस्कान को उसी रहस्य के साथ अजर - अमर कर दिया है।

मोना लीसा को देख कर मैं भूल नहीं पायी। मैं उतनी देर पेंटिंग के सामने खड़ी रही, जितनी देर के बाद बाक़ी लोगों को दिक्कत होने लगती। वहाँ से जाने का मन नहीं कर रहा था। उस पेंटिंग की अपनी आत्मा थी। अपना जादू, अपना तिलिस्म जो बाँध लेता था। लेकिन जैसे कि कोई आपसे बात करना चाह रहा हो और आप अपने में ही खोए या व्यस्त हों तो आप पर उसकी बात का क्या असर होगा…फिर वो व्यक्ति भी तो आपसे बात करने में इंट्रेस्टेड नहीं होगा। मोना लीसा के रहस्य को सुनने के लिए नोट्बुक का ख़ाली पन्ना खुला रखना होता है। वो कहती है कई कहानियाँ। खुली खिड़की के पीछे नज़र आते शहर की, अपनी ख़ूबसूरती की, अपने होने वाले बच्चे के सोचे हुए नाम भी बता देगी आपको … हो सकता है पूछ भी ले, कि कोई नाम तुम भी बताते जाओ मुसाफ़िर।

उस हॉल में अजीब उदासी फ़ील होती है। जैसे मोना लीसा तन्हा हो। इस भीड़ में सब उसे देखते हैं, अपने अपने पैमाने पर नापते हैं कि कितनी सुंदर है, कैसी मुस्कान है…कुछ लोगों को विजयी भी फ़ील होता है कि मोना लीसा की स्माइल उन्हें अफ़ेक्ट नहीं कर पायी। मुझे ऐसे लोगों पर तरस आता है। ये वही लोग हैं जो अपनी ज़िंदगी में मौजूदा प्यार को या कि ख़ूबसूरती को देख नहीं पाते। जिन्हें शाम देखे ज़माने गुज़र गए हैं। जो गुनगुनाना भूल गए हैं। मोना लीसा हमें याद दिलाती है कि ख़ूबसूरती ज़िंदगी का कितना ज़रूरी हिस्सा है। समझ नहीं आने के बावजूद। जैसे गार्डेंज़ में लगे हुए ट्युलिप… उनकी ख़ूबसूरती और रंग देख कर हम सवाल थोड़े करते हैं कि इसका क्या मतलब है। बस रंग के उस रक़्स में खड़े सोचते हैं, दुनिया कितनी ख़ूबसूरत है। अपने दिल में थोड़े रंग भर लेते हैं। थोड़ी ख़ुशी। कि कई कई साल बाद भी पेंटिंग के रंग जस के तस रहेंगे। उस मुस्कान का जादू भी।

कि सबकी ज़िंदगी में कोई ऐसी मोना लीसा हो। जो किसी शाम आपको देख कर मुस्कुराए तो आप भारी कन्फ़्यूज़ हुए जाएँ कि अब मैंने क्या ग़लती कर दी। और अगर आप शादी शुदा हैं और आपकी बीवी आपको देख कर ऐसे रहस्यमयी मुस्कान मुस्कुरा रही है तो समझ जाएँ, कि इन दिनों इसका एक ही मतलब है। चुपचाप झाड़ू या कि डस्टर उठाएँ और साफ़ सफ़ाई करने चल दें। दुनिया की सारी ख़ुशी एक साफ़ सुथरे घर में बसती है। या कि अगर आप लतख़ोर क़िस्म के इंसान हैं और मम्मी दो हफ़्ते से धमका रही है तो अब दिवाली बस आ ही गयी है, अब भी रूम साफ़ नहीं करने पर कुटाई होने का घनघोर चांस है। मोना लीसा आपको हरगिज़ नहीं बचा पाएगी। और जो कहीं अगर आप दीदी के साथ रूम शेयर करते हैं तब तो सोच लीजिए, दीदी ग़ुस्सा हुयी तो साल भर की सारी सीक्रेट्स की पोल-पट्टी खोल देगी। भले आदमी बनिए। मौसम सफ़ाई का है, सफ़ाई कीजिए। पढ़ना लिखना और कम्प्यूटर के सामने बैठ कर किटिर-पिटिर तो साल भर चलता ही रहता है।

PS: वैसे एक ज़रूरी बात बता दें। एक फ़्रेंच एंजिनियर ने बहुत रिसर्च करके पता लगाया कि पहले पेंटिंग में भवें थीं। लेकिन ज़्यादा साफ़ सफ़ाई के कारण वे मिट गयीं। फ़ालतू का ट्रिविया ऐसे ही। जाइए जाइए। इसके पहले कि मम्मी या कि बीवी या कि बहन की भवें तनें, सफ़ाई में जुटिए। 

20 October, 2019

नॉन रेप्लेसबल किताबें

Everything is replaceable. Well, almost.

Heisenberg uncertainty principle में एक बिल्ली होती है जो एक ही समय पर मरी हुयी या ज़िंदा दोनों हो सकती है। दो सम्भावनाएँ होती हैं। इसी दुनिया में। एक किताब दो जगह हो सकती है एक साथ? या एक लड़की?

लिखते हुए एक शहर में जा रही मेट्रो होती है। मेट्रो दिल्ली की जगह पेरिस में भी हो सकती है और इससे लगभग कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। लड़का-लड़की फिर भी मिलेंगे और खिड़की से बाहर दिखते किसी बिल्डिंग पर कुछ कह सकेंगे। कि जैसे अक्षरधाम कितना बदसूरत बनाया है इन लोगों ने, डिटेल पर बिलकुल ही ध्यान नहीं दिया है। या कि एफ़िल टावर और किसी मोबाइल टावर में क्या ही अंतर है। लोहे का जंजाल खड़ा कर दिया है और दुनिया भर के प्रेमी मरे जा रहे हैं उस नाम से। बात में हल्का सा व्यंग्य। लड़का-लड़की हो सकता है इसलिए क़रीब आएँ कि दोनों ठीक वैसा ही सोचते हैं, या इसलिए क़रीब आएँ कि दोनों एकदम अलग अलग सोचते हैं और लगभग लड़ पड़ें कि कोई ऐसा सोच भी कैसे सकता है। 

कुछ लोगों को जगह से जुड़ाव होता है। उनके दिमाग़ में एक जीपीऐस पिन ड्रॉप जैसी कोई सुविधा/असुविधा/दुविधा होती है। वे कॉफ़ी शॉप्स में अपनी नियत टेबल पर बैठेंगे। मेट्रो या बस में एक फ़िक्स जगह खड़े होंगे। सिनेमा हॉल में कोई एक सीट ही बुक करेंगे। उनके अकेलेपन में ऐसी कई हज़ार छोटी छोटी चीज़ें मिल जाएँगी। 

ऐसी एक लड़की थी। जिसे एक लड़का पसंद था। दिल्ली मेट्रो में लड़की का स्टेशन लड़के के स्टेशन से पहले आता था। तीन स्टेशन पहले। इस लड़के के कारण लड़की ने एक बार मेट्रो में अपनी जगह बदली थी। लड़की हमेशा लेडीज़ कोच में आख़िरी वाली दीवार पर टिक कर खड़ी होती थी और कोई किताब पढ़ते मेट्रो में सफ़र करती थी। एक बार अपने किसी दोस्त से साथ मेट्रो में चढ़ी तो जेनरल डब्बे में चढ़ना पड़ा। आगे से दूसरा डिब्बा। भीड़ में उसे जो जगह मिली वो पहले और दूसरे डब्बे के बीच वाली प्लेट्स पर मिली। यहाँ पकड़ने के लिए हैंड रेल्स थे और खड़े रहना ज़्यादा आसान था। किताब पढ़ते हुए उसने देखा कि गेट के पास एक लड़का खड़ा है और उसने न हेड्फ़ोंज़ लगा रखे हैं, न उसके हाथ में कोई किताब है। वो कौतूहल से दरवाज़े के काँच के बाहर देख रहा है। उसके चेहरे पर इतनी ख़ुशी थी कि लड़की का उसकी नज़र से दिल्ली देखने का मन किया। 

अगली रोज़ लड़की लेडीज़ कोच में नहीं चढ़ी। जेनरल में उसी डिब्बे में चढ़ी। यहाँ भीड़ थोड़ी कम होती थी तो उसे उसकी जगह आराम से मिल गयी। तीन स्टेशन बाद वो लड़का चढ़ा और ठीक दरवाज़े से टिक कर खड़ा हो गया। आज उसने काँधे पर एक छोटा सा बैग टांगा हुआ था। जिसमें एक किताब आ सकती थी और कुछ ज़रूरी सामान। उसके हाथ में एक किताब थी। लड़की को लगा कि आज ये किताब पढ़ेगा। लड़के ने लेकिन किताब को खोला और बुक्मार्क क़रीने से रख कर बंद कर दिया और बैग में रख दिया। लड़की इस किताब को पहचानती थी। ये निर्मल वर्मा की ‘धुँध से उठती धुन’ थी। नीले कवर में। कई साल से प्रकाशित नहीं हुयी थी, इसकी कॉपी कहीं नहीं मिलती। जिनके पास होती भी, वे किसी को इस बारे में बताते नहीं। लड़का बाहर देख रहा था। कल की तरह ही, बेहद ख़ुश। 

कमोबेश हफ़्ते भर लड़की उसी जगह खड़ी रहती। लड़का बाहर देखता रहता। लड़की लड़के को देखती रहती। कई सालों में पहली बार ऐसा हुआ कि मेट्रो में पढ़ने वाली किताब हफ़्ते भर तक पढ़ी नहीं गयी। वो हाथ में किताब लिए चढ़ती ज़रूर लेकिन कुछ था उस लड़के में कि उसे देखना टीवी देखने से ज़्यादा रोचक था। इक रोज़ लड़की ने उससे धुन्ध से उठती धुन के बारे में पूछा। लड़के ने कहा कि उसे निर्मल ख़ास पसंद नहीं आए। ये उनकी आख़िरी किताब पढ़ रहा है, फिर कुछ और पढ़ेगा। किताब रेयर थी। मतलब बहुत रेयर भी नहीं कि उसके हज़ारों लाखों दिए जाएँ। लेकिन उस समय किताब आउट औफ़ प्रिंट थी और किताब का देख लेना भी कोई जादू जैसा ही था। 

लड़के ने उसका नाम पूछा, और फिर बैग से क़लम निकाल कर एक कोने में लिख दिया। लड़के ने लड़की की दीवानगी को देखते हुए ये किताब उसे गिफ़्ट कर दी। कि उसे वो निर्मल उतना पसंद नहीं आए थे और लड़की उन पे मरती थी। वे किताब के बारे में बात करते हुए कनाट प्लेस के घास वाली लॉन पर देर तक बैठे रहे थे। लड़के को पढ़ना बहुत पसंद था। बहुत तरह की और बहुत सी किताबें पढ़ता था। उसे किताबों को क़रीने से रखने का शौक़ भी था, लेकिन उसे वो करीना आता नहीं था। उसने एक दिन लड़की को अपने घर की कुछ तस्वीरें दिखायीं। लड़की ने कहा वो उसकी किताबों को ज़्यादा सुंदर तरीक़े से रखना सिखा देगी। लड़की ने अपने घर की तस्वीरें दिखायीं, अपनी बुकरैक की…लड़की ने घर में कई रीडिंग कॉर्नर्ज़ बना रखे थे और मूड के हिसाब से कहीं भी बैठ कर पढ़ा करती थी। उसने लड़के को घर बुलाया कि वो देख सके, कितना अच्छा लगता है क़रीने के घर में। लड़का उसका घर देखने तो गया लेकिन किताबों, रीडिंग कॉर्नर्ज़, सुंदर लाइट्स और इंडोर प्लैंट्स के होने के बावजूद उसकी दिलचस्पी लड़की में ज़्यादा बन गयी। उसे बार बार लगा कि ये लड़की उसके कमरे ही नहीं, ज़िंदगी में भी होनी चाहिए। ख़ुद से ज़्यादा उसकी किताबों को एक ऐसी लड़की की ज़रूरत थी। 

उसे ख़ुद भी उस लड़की की ज़रूरत और आदत लगने लगी थी धीरे धीरे। पढ़ते या लिखते हुए उसके आसपास मौसम के मुताबिक़ हाथ की दूरी पर कभी गर्म चाय कभी शिकंजी जैसी चीज़ें होने लगी थीं। पास वो लड़की नहीं होती थी, मालूम नहीं कैसे। लड़की किसी दूसरे कोने में चुपचाप बैठ कर अपनी किताब पढ़ रही होती थी। उनका ऑफ़िस का टाइम एक ही था तो वे साथ ही निकलते थे और अक्सर किसी किताब के बारे में बात करते ही निकलते थे। लड़के को ऐसा लगता था वो एक साथ कई दुनियाओं में जी रहा है। उसके दोस्तों को उसकी क़िस्मत से ईर्ष्या होती थी। कई बार मेट्रो के दरवाज़े के दोनों ओर खड़े वे बस दिल्ली शहर को देख रहे होते थे। पुरानी इमारतों के बीच से गुज़रते हुए। कभी कभी वे साथ घूमने भी निकल जाते थे। पुराना क़िला, जामा मस्जिद, हौज़ ख़ास। लड़का अतीत में जीता था। किताबों के घट चुके क़िस्से की तरह। लड़की जानती थी कि वो हुमायूँ के मक़बरे को देख कर नहीं मुस्कुरा रहा, उस शाम को याद कर के मुस्कुरा रहा था जब साथ चलते हुए उन्होंने पहली बार एक दूसरे का हाथ पकड़ा था। 

वे बिल्कुल अलग अलग क़िस्म की किताबें पढ़ते। लड़की को जासूसी उपन्यास और छद्मयुद्ध की कहानियाँ पसंद थीं। उसकी रैक में विश्व युद्ध के बारे में कई किताबें होतीं। रोमैन्स या कविताएँ उसे कम पसंद आतीं, पर जब आतीं तो दीवानों की तरह पसंद आतीं। फिर सब जगह बस वही कवि या लेखक होता। उसके फ़ेस्बुक, इन्स्टग्रैम और ट्विटर पर भी और घर के बुलेटिन बोर्ड, किचन, फ्रिज पर भी। लड़के को धीरे धीरे इन युद्ध की किताबों से कोफ़्त होने लगी थी। नाज़ुक मिज़ाज लड़का इतनी भयावह कहानियाँ सुन कर परेशान हो जाता। लड़की उसे बताती रहती हिटलर ने यहूदियों पर कितने अत्याचार किए। जापानी सेना ने किस तरह चीन में गाँव के गाँव जला दिए। लड़के को दुस्वप्न आने लगे थे। उसे आतंकवादी हमलों से डर लगने लगा था, कि कहीं अचानक से ऐसा कोई हमला हो गया तो वो क्या करेगा। वो नींद में अपनी अधजली फ़ेवरिट किताबों के बारे में बड़बड़ाता रहता। 

कुछ दिन बाद दोनों ने महसूस किया कि किताबें ही उन्हें अलग भी कर रही हैं। उनके होने में किताबों का प्रतिशत इतना ज़्यादा है कि एक दूसरे के साथ रहने का आकर्षण भी उन्हें अपनी पसंद की किताबों से दूर नहीं कर सकता। लड़की उदास होती, कि लड़के के दोस्तों ने नज़र लगा दी। पर दोनों जानते थे कि ये ज़िंदगी है और यहाँ क़िस्से ऐसे ही आधे अधूरे होने पर भी छोड़ देने पड़ते हैं। लड़की ने घर तलाशना शुरू किया। अपने ऑफ़िस के एकदम पास, कि मेट्रो लेने की ज़रूरत ही न पड़े। लड़के ने घर शिफ़्टिंग में सारी मदद की। जाने के पहले लड़की ने एक बार ठीक से लड़के के कमरे में सारी किताबें जमा दीं। चादरें, परदे सब हिसाब से आधे आधे कर लिए। किचन के सामान में से अपनी पसंद की क्रॉकरी वहीं रहने दी कि लड़के को भी अब ख़ूबसूरत मग्स में चाय पीने की आदत लग गयी थी। 

अपने घर में शिफ़्ट होने के बाद कुछ दिन लड़की इतनी उदास रही कि उसने किताबें पढ़नी एकदम बंद कर दीं। ऑफ़िस में उसकी एडिटिंग की डेस्क जॉब थी। बस अपनी सीट पर बैठो और दुनिया जहान के बारे में रीसर्च करके आर्टिकल लिखो। उसने बॉस से फ़ील्ड प्लेस्मेंट माँगी। वो कश्मीर की मौजूदा स्थिति पर वहाँ जा के रिपोर्टिंग करना चाहती थी। बॉस ने उसका डिपार्टमेंट शिफ़्ट कर दिया। अगले कई महीने वो घूमती और रिपोर्टिंग करती रही। अपनी जगह से अलग होना चीज़ें भूलना आसान करता है। जब उसे लगा कि अब दिल्ली में रहना शायद उतना न दुखे, तब उसने वापसी की अर्ज़ी डाली। युद्ध के बारे में इतना ज़्यादा कुछ पढ़ना काम आया था। उसके लिखे में संवेदनशीलता थी और स्थिति की बारीकियों पर अच्छी पकड़। बहुत कम वक़्त में उसने बहुत क्रेडिबिलिटी बना ली थी। लोग उसकी रिपोर्ट्स का इंतज़ार करते थे। 

लौट कर आयी तो उसे किताब पढ़ने की तलब हुयी। कविताओं की रैक के आगे देर तक खड़ी रही। कॉन्फ़्लिक्ट एरिया में ग्राउंड रिपोर्टिंग ज़िंदगी की प्राथमिकताओं के बारे में बहुत कुछ सिखाती है। अपनी मर्ज़ी से घूमने फिरने खाने की आज़ादी। बात करने और कहने की आज़ादी। हम किसके साथ हैं और किसके साथ नहीं होना चाहते हैं, ये चुनने की आज़ादी। उसने कभी इन चीज़ों पर सोचा नहीं था। मौत को क़रीब से देखना ये भी सिखा देता था कि ज़िंदगी इतनी लम्बी नहीं है जितनी हमें लगती है। कि लोग कभी भी छिन सकते हैं।  इस बीच उसे लड़के की कई बार याद आयी। लेकिन फिर हर बार उसे लगता था कि जिसे किताबों से दिक्कत हो रही है, वो उसकी सच की कहानियाँ सुनेगा तो शायद उसे कहीं जगह न दे। लड़के के सोशल मीडिया से पता चलता था कि वो अक्सर अपने घर की रीमाडलिंग करता रहता था। ख़ुश भी था शायद। और अकेला और उदास तो बिलकुल नहीं था। यूँ भी पढ़ने लिखने वाले लोग थोड़ी सी उदासी तो फ़ितरत में लेकर चलते हैं, उदासी और तन्हाई थोड़ी ज़्यादा हो जाए तो उसके साथ जीना भी उन्हें आता है। 

लड़की इसके बाद लगभग हर महीने ही रिपोर्टिंग के लिए बाहर पोस्टेड रहती। उसका कमरा, उसकी किताबें, उसके रीडिंग कॉर्नर्ज़, सब उसका इंतज़ार करते रहते। उसे अब बाहर की कहानी ज़्यादा अच्छी लगने लगी थी। ज़िंदा - सामने घटती हुयी। लोग, कि जो किताबों से बिल्कुल अलग थे। उनकी कहानियाँ, उनके डर, उनकी उम्मीदें और सपने… सब किताबों से ज़्यादा रियल था। लड़का मेट्रो पर जाता हुआ अक्सर लड़की को तलाशता रहता। जब कि अख़बार में स्पेशल कोर्रोसपोंडेंट के नाम से जो ख़बर छपती थी, और बाद में लड़की की बायलाइन के साथ भी, तो उसे मालूम रहता था कि लड़की शहर से बाहर है। 

लड़की को लगता था कि सबकी अपनी एक नियत जगह होती है। लेकिन इन दिनों वो अपनी बदलती हुयी जगह की आदी हो गयी थी। कुछ भी एक जैसा नहीं रहता था। रोज़ अलग शहर, अलग लोग, अलग होटेल, अलग बिस्तर...और फिर भी थकान के कारण अच्छी आती थी। 

लेकिन घर लौटना होता था हर कुछ दिन में। ऐसे एक लौटने के दर्मयान लड़की को याद आया, कि  एक रेयर किताब के पहले पन्ने पर उस का नाम लिखा हुआ था, लड़के की हैंड्रायटिंग में। 'था'। पता नहीं किताब थी कहाँ। लड़की उस जगह जाना चाह रही थी दुबारा। जब वो उस लड़के से पहली बार मिली थी और उन्होंने बात शुरू की थी। वो अक्सर सोचती, अगर किताबें न होतीं तो शायद वे साथ होते। एक दूसरे को अपनी ज़िंदगी की कहानियाँ सुनाते हुए। कि अगर किसी और शहर में, कोई और मेट्रो में वो लोग मिले होते तो शायद बात कुछ और होतीं। किसी शहर के आर्किटेक्चर के बारे में। या शायद नदियों, झीलों के बारे में… फिर शायद वो साथ होते। 

लड़का लड़की कोई भी हो सकते हैं। पर होते नहीं। किताबें कई क़िस्म की होती हैं। लेकिन वो ख़ास होती हैं जो घर के किसी खोए हुए कोने में पड़ी होती हैं। जिन पर किसी का नाम लिखा होता है। जिनके साथ सफ़र शुरू होता है। ये किताबें रिप्लेस नहीं की जा सकतीं। लड़के को कभी कभी गिल्ट होता था कि उसे वो किताब लड़की को दे देनी चाहिए थी। लेकिन फिर ख़ुद को समझा लेता था कि किताब थी तो उसकी अपनी ही, उसी ने लड़की को दी थी...वो वापस ले लेने का हक़ तो उसका था ही। 

लड़की को लगता रहा किताब कहीं खो गयी है। लड़के के घर में रखी किताब को भी लगता रहा, लड़की कहीं खो गयी है। 

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