ज़िंदगी को बहुत गहराई से महसूसती हूँ। मेरे लिखने में और मेरे होने में चीज़ों की गंध और स्पर्श अक्सर हुआ करती है। मैं इन दिनों यादों से खंगाल कर स्पर्श के कुछ टुकड़े रख रही हूँ। एक बेतुकी सी डायरी की तरह। आपके वक़्त की क़ीमत ज़्यादा है तो इसे यहाँ जाया ना करें। ये बस यूँ ही लिखा गया है। इसका हासिल कुछ नहीं है। एक सफ़र है, जिसके कुछ पड़ाव हैं। बस
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मेरा बचपन देवघर में बीता है। सेंट फ़्रैन्सिस स्कूल, जसिडीह। इसके बाद देवघर में बारहवीं की पढ़ाई करने के लिए ढंग के स्कूल नहीं थे और पापा का ट्रान्स्फ़र हो गया और हम पटना आ गए। पटना में सेंट जोसेफ़्स कॉन्वेंट में मेरा अड्मिशन हो गया। अभी तक मैंने को-एड में पढ़ाई की, जहाँ लड़के लड़कियाँ सारे साथ में थे। मगर ये सिर्फ़ लड़कियों वाला स्कूल था। मुझे अभी भी मेरा पहला हफ़्ता याद है वहाँ का। चारों तरफ़ इतनी सारी लड़कियाँ। इतना शोर। एक तरह से कह सकते हैं, मैंने उम्र भर के लिए लड़कियों से कहीं मन ही मन में तौबा कर ली थी। मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगा था। लड़कियों की एक अलग क़िस्म की दुनिया थी, अलग क़िस्म की बातें जिनसे मैं एकदम अनभिज्ञ रही थी अभी तक।
इसी स्कूल में पहली बार ठीक ठीक तारीके से लेसबियन और गे के बारे में पहली पहली बार सुना था। हमारे बैच में दो लड़कियाँ थीं जो हमेशा एक दूसरे के साथ रहती थीं। ख़बर गरम थी कि उनके बीच कुछ चल रहा है। इस चलने का पता इससे चलता था कि वे हमेशा एक दूसरे से चिपकी हुयी चलती थीं। हाथ पकड़े रहती थीं। कभी एक दूसरे के बालों से खेलती रहती थीं। क्लास में भी हाथ पकड़ कर बैठी रहती थीं। इस स्कूल में आने के पहले मैंने ये जाना था कि किसी लड़के को छूना या उसके साथ ज़्यादा क्लोज़ होना बुरा है। कि इससे कह दिया जाएगा कि तुम बुरी लड़की हो, तुम्हारा किसी के साथ कुछ चक्कर चल रहा है। लड़कियों के साथ सटना घर परिवार या मुहल्ले में बुरा नहीं माना जाता था। लड़कियों के साथ बिस्तर में लेटे लेटे बात की जा सकती थी। उनकी गोद में सर रखा जा सकता था। वे आपके बालों को सहला सकती थीं। लेकिन ऐसा किसी लड़के के साथ करना गुनाह था। मगर स्कूल में देखा कि सिर्फ़ लड़के ही नहीं, किसी लड़के के साथ भी ज़्यादा टची होना ख़तरे से ख़ाली नहीं है। उस उम्र में हम चीज़ों को समझ रहे होते हैं। अपनी धारणाएँ बना रहे होते हैं। तो इस सिलसिले में जो चीज़ सबसे ज़्यादा आपत्तिजनक पायी गयी थी, वो था स्पर्श। आप मन ही मन में जो सोच लें आप उसे छू नहीं सकते हैं। स्पर्श की सीमारेखा खींची जा रही थी। पर्सनल स्पेस डिफ़ाइन हो रहा था।
मैं उस स्कूल में बिलकुल अजस्ट नहीं कर पायी थी। सिर्फ़ दोस्तों के हिसाब से ही नहीं, पढ़ाई के हिसाब से भी। जहाँ अब तक मैं टॉपर रही थी, यहाँ की पढ़ाई समझ नहीं आ रही थी उसपर क्लास में कोई दोस्त नहीं थी जिससे कुछ मदद भी मिले। हाँ, यहाँ हमारी लाइब्रेरी बहुत अच्छी थी। मैंने पहली बार रोमैन्स नावल्ज़ पढ़े। मिल्स ऐंड बून बहुत सी लड़कियाँ पढ़ती रहती थीं और हरलेक्विन रोमैन्सेज़। मुझे मिल्स एंड बून बहुत ही हल्का और सतही लगा लेकिन हरलेक्विन पढ़ना मुझे पसंद था। ये इरॉटिका की कैटेगरी के नॉवल थे। घर में मेरी मम्मी मेरी लाइब्रेरी की सारी किताबें पढ़ जाती थी। अब उसे जब रोमैन्स उठाए तो डांट पढ़ी कि ये क्या सब घटिया किताब पढ़ती रहती हो। यहाँ पर स्कूल मेरी मदद को आया कि घटिया है तो स्कूल लाइब्रेरी में क्यूँ रखा है? ये सब भी पढ़ना चाहिए। लाइफ़ का हिस्सा है, वग़ैरह वग़ैरह। एक लेखक के हिसाब से कहें तो उन किताबों ने मुझे दो चीज़ें सिखायीं, स्पर्श को समझना और इंसान की प्रोफ़ायलिंग। आज भी किसी हीरो का डिस्क्रिप्शन उन रोमैन्स नावल्ज़ में जैसा देखा था वैसा कहीं नहीं देखा। उन्हीं नावल्ज़ ने स्पर्श को मेरे लिए डिफ़ाइन भी किया। वहाँ स्पर्श के कई हज़ार रंग थे। एक तरह की डिक्शनेरी कि जिसमें बदन के हर हिस्से के टच का वर्णन था। फिर यहाँ असल ज़िंदगी थी जहाँ हम किसी को भी नहीं छू सकते थे...हर तरह का स्पर्श वर्जित स्पर्श था।
गर्ल्ज़ स्कूल में होने के कारण बहुत सी और चीज़ें शामिल होने के लिए लड़ाई कर रही थीं। इनमें से पहली चीज़ थी वैक्सिंग। ११वीं में पढ़ने वाली लड़कियाँ अपने हाथ और पैर वैक्स कराती थीं। स्कूल की ड्रेस घुटने से चार इंच ऊपर की छोटी स्कर्ट और शर्ट हुआ करती थी। मुझे घर से कभी उतनी छोटी स्कर्ट की परमिशन नहीं मिली लेकिन फिर भी मुझे अपनी ड्रेस काफ़ी पसंद थी। नीले रंग की चेक्स थी। स्कूल की बाक़ी लड़कियाँ अपने वैक्स की हुयी टांगों और छोटी स्कर्ट्स में बहुत सुंदर लगती थीं। मैंने अपनी ज़िंदगी में उससे ज़्यादा ख़ूबसूरत पैर कभी नहीं देखे। काले जूते और सफ़ेद सॉक्स कि जो फ़ोल्ड कर एकदम नीचे कर दिए जाते थे। उन दिनों पटना में ऐंकल सॉक्स नहीं बिकते थे। नोर्मल मोजों को बेहद क़रीने से फ़ोल्ड करके नीचे कर दिया जाता था। हाईजीन पर भी डिस्कशन उन दिनों का हिस्सा था। जो लड़कियाँ वैक्स करती थीं उन्हें बाक़ी लड़कियाँ जो कि वैक्स नहीं करती थीं उनके हाथ खुरदरे लगते थे। पैरों की तो बात ना ही करें तो बेहतर। वैक्सिंग में होने वाले दर्द का सोच कर ही रौंगटे खड़े हो जाते थे। मैंने कभी वैक्स नहीं किया और हमेशा लगता रहा कि मेरे हाथ चिकने नहीं हैं, खुरदरे हैं...ये बाल किसी को बुरे लगेंगे। जबकि मैं इतनी गोरी थी कि मेरे हाथों पर सिर्फ़ हल्के सुनहरे रोएँ थे। मगर उन दिनों लगने लगा था कि सबको सिर्फ़ वैक्स किए हाथों वाली लड़कियाँ अच्छी लगती होंगी। इतना सुंदर अपना चेहरा नहीं दिखता था मुझे भी। कोम्पलेक्स होती जा रही थी मैं। उलझी हुयी। कहाँ कौन मिलता कि जिससे पूछती कि हाथ वैक्स किए बिना तुम्हें अच्छे लगते हैं या नहीं।
स्कूल में लेस्बो कह दिया जाना इतनी बड़ी गाली थी कि लड़कियों का भी आपस में गले मिलना हाथ मिलाना या हाथ पकड़ के बैठे रहना कम होता गया था। जो नोर्मल सी आदत थी कि किसी ने शैंपू किया है तो पास जा के उसके बाल सूंघ कर कह सकूँ बहुत अच्छी ख़ुशबू आ रही है वो भी बंद हो रहा था। ये दो साल ऐसे ही बीते। फिर एक साल मेडिकल की कोचिंग के लिए ड्रॉप किया। यहाँ एक साल थोड़ी जान आयी कि कोचिंग में लड़के थे। जिनसे पढ़ाई लिखाई की बात हो सकती थी। डॉक्टर बन कर हम क्या करेंगे की बात। फ़िज़िक्स की केमिस्ट्री की बात। वे ज़िंदगी में क्या करना चाहते हैं वग़ैरह की बातें। एक नयी चीज़ यहाँ की दोस्ती की थी कि हाथ पकड़ के चलना नोर्मल माना जाता था। मुझे ठीक ठीक मालूम नहीं क्यूँ या कैसे। लड़के लड़कियाँ साथ में कभी कभार सिंघाड़ा खाने जाते थे तो किसी का हाथ पकड़ कर चल सकते थे। उन दिनों ये आवारगर्दी में गिना जाता था। मगर ये आवारगर्दी मुझे ख़ूब रास आती थी।
इस बीच ये भी हुआ कि कोई लड़का बहुत पसंद आने लगा। क्लास में डेस्क में किताबें रखने वाली जगह पर हम हाथ पकड़े बैठे रहते थे। उसने मेरा हाथ इतनी ज़ोर से पकड़ा होता था कि अँगूठी के निशान पड़ जाता था। कभी कभी तो लगता था नील पड़ जाएगा। ज़िंदगी में पहली बार स्पर्श के रोमांच को महसूस किया। उसके साथ चलते हुए हाथ ग़लती से छू भी जाते थे तो जैसे करंट लगता था। उन दिनों इसे स्टैटिक इलेक्ट्रिसिटी का नाम देते थे हम। लेकिन बात ये कुछ केमिस्ट्री की होती थी। उन्हीं दिनों पहली बार ध्यान गया था कि स्पर्श कितना ज़रूरी होता है। उससे अलग रहना कितना तकलीफ़देह होता था। हम उन दिनों भी मिलते थे तो सिर्फ़ हाथ मिलाते थे। पटना जैसे शहर में ऐसी कोई जगह नहीं थी जहाँ एक लड़की एक लड़के से गले मिल सकती हो। ये सबकी नज़र में आता था और फिर बस, बदनामी आपके पहले घर पहुँच जाती। उन दिनों पहली बार महसूस किया कि ऐसी कोई जगह हो जहाँ उससे एक बार गले मिल सकें। एक बार चूम सकें उसको। उसके काँधे पर सर टिका कर बैठे रहें कुछ देर। हम जिस टच फोबिक दुनिया में रहते थे, वहाँ उसे चूम लेने का ख़याल गुनाह था। गुनाह।
और हमने इस गुनाह की सिर्फ़ कल्पना की...अफ़सोस के खाते में दर्ज हुआ कि बेपनाह मुहब्बत होने के बावजूद हमने कभी उसे चूमा नहीं। जिस दिन ब्रेक ऑफ़ हुआ और वो आख़िरी बार मिल कर जा रहा था, उसने मेरा हाथ चूमा था। उसके चले जाने के बाद हमने अपने हाथ को ठीक वहीं चूमा...और थरथरा गए। एक सिहरन बहुत देर तक गहरे दुःख और आँसू में महसूस होती रही। उन्हीं दिनों सोनू निगम का गाना ख़ूब सुने, 'तुझे छूने को दिल करे...'












