03 October, 2008

आतंक में सुबहें

इधर कुछ दिनों से सुबहें कुछ अजीब सी होती हैं। बेड से उठ कर अखबार उठाने जाने तक सच में इश्वर से प्रार्थना करती हूँ, कि भगवान आज कहीं ब्लास्ट न हुआ हो। आज फ़िर से खून में रंगी तसवीरें न दिखें सुबह सुबह। मेरे जीजाजी दिल्ली पुलिस में हैं, तो मैं उनसे भी बात कर रही थी कि ये अचानक क्या हो हो गया है, हर रोज़ कहीं न कहीं क्यों ब्लास्ट कर रहे हैं। उनके पास भी कोई जवाब नहीं था।

मैं सोच रही थी कि मेरी तरह कितने लोग इस डर में सुबह उठते होंगे कि कहीं कोई बम न फटा हो, पर उनके डर की वजह कहीं और गहरे होती हैं। मैं एक खास धर्म को मानने वालों कि बात कर रही हूँ, जिनको हर ब्लास्ट के बाद लगता है की कुछ निगाहें बदल गई हैं, अचानक लोगों की बातें थोडी सर्द हो गई हैं। कितना मुश्किल होता होगा न ऐसे जीना, सब कुछ हमारे जैसा होते हुए भी सिर्फ़ इसलिए की कुछ आतंकवादी इस धर्म के हैं उन्हें कितना कुछ झेलना पड़ता है।

आतंकवादी का क्या सच में कोई इमां, कोई धर्म होता है...क्या ये सब सिफर राजनीति नहीं है, एक गहरी साजिश जिसमें पहले रूस अमेरिका और अब कई जगह छोटे देश भी समस्या से जूझ रहे हैं। कल रात एक फ़िल्म देख रही थी, नाम तो याद नहीं पर उसमें एक डायलोग था "one man's terrorist is another man's freedom fighter"। फ़िर लगा की क्रन्तिकारी और आतंकवादी में कितना अन्तर होता है। कौन सा क्रन्तिकारी अपने किसी भी मकसद के लिए निर्दोषों की जान लेना सही समझता है, अगर मासूम बच्चो को अनाथ करके किसी का कोई उद्देश्य पूरा होता भी है तो is it worth it.

बरहाल मैं मूल मुद्दे से भटक गई, काफ़ी दिनों से सोच रही हूँ...

क्या बात है कि मुस्लिम हमारे साथ घुल मिल नहीं पाये हैं अभी तक। मेरी दादी को कोई मुस्लिम छू लेता था तो वो सर से nahati थी। मुझे याद है पापा के एक बड़े अच्छे दोस्त थे मुकीम, एक बार वो और भट्टाचार्जी अंकल साथ में घर आए, तो जैसा होता है दोनों ने पैर छुए दादी के। जब दोनों चले गए तो दादी ने पुछा कि क्या नाम था, तो पापा ने कह दिया कि भट्टाचार्जी और उसका छोटा भाई था।

और ये आज से तकरीबन दस साल पुरानी बात है, मैं ऐसे कई घरों को जानती हूँ जहाँ उनके खाने का बर्तन अलग होता था। मैं उस वक्त बहुत छोटी थी और मुझे आश्चर्य होता था कि ये अछूत वाला व्यवहार क्यों होता है। उन्हें रहने के लिए मकान ढूँढने में दिक्कत होती होगी, मैं इसलिए कह रही हूँ क्योंकि मैं जानती हूँ कि उन्हें कोई किरायेदार नहीं banana चाहता है। और ये सब हाल कि बात है

तो लगता है की इनमें रोष क्यों नहीं होगा, क्यों नहीं ये थोड़ा बरगलाने पर तैयार हो जाते होंगे. इन्हें सच में दिखता है की परायों की तरह हैं ये अपने देश में. नेता भी सिर्फ़ वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करते हैं उनको. एक आम राय में उन्हें भरोसेमंद नहीं माना जाता है...ऐसा क्यों है.मैं एक ब्राह्मण परिवार से हूँ, भागलपुर तरफ़ से, मध्यमवर्गीय, देवघर और पटना में रही हूँ, मुझे नहीं पता की देश के अन्य हिस्सों में उनके साथ कैसा सलूक किया जाता है. पर जिस समाज में मैं रही हूँ उसमे बहुत जगह भेद भाव है. हालाँकि बहुत बदलाव आया है, जैसे की पापा के दोस्त मुस्लिम भी थे, और मुझे तो इससे कभी कोई फर्क ही नहीं पड़ा. ईद पर की सेवई मैं कभी नहीं छोड़ती थी. तो क्या आने वाली जेनरेशन ज्यादा आसानी से एक्सेप्ट करेगी उन्हें.
पर फ़िर मुझे लगता है...कहीं ऐसा तो नहीं की बहुत देर हो चुकी है. वो हमसे इतनी दूर जा चुके हैं की लौट आना सम्भव नहीं. की ये ब्लास्ट हर दिन होते रहेंगे छोटे छोटे शहरों में मौत बेमोल सडकों पर चीखती चिल्लाती रहेगी और घेत्तो में बस जायेंगे लोग. हर धर्म की अलग बस्ती, हर जाति का अलग मोहल्ला.
कभी कभी डर जाती हूँ...

मैंने इस पोस्ट में सिर्फ़ अपने ख्याल व्यक्त किए हैं, ये मेरा अनुभव है जिंदगी का. कईयों का अलग होगा मुझसे पर ये मेरी जिंदगी का हिस्सा है. मालूम नहीं पर नाज़ुक विषय है अगर मेरी बात से किसी को दुःख पहुँचता है तो अग्रिम क्षमाप्रार्थी हूँ.

27 September, 2008

गलतियों की आदत

जाने क्यों मुझे कभी बाल पेन से लिखना अच्छा नहीं लगा
हमेशा स्याही वाली कलम या पेंसिल...
अधिकतर पेंसिल ही, और रबर तो हमेशा पास रहता था

याद है मुझे,
ग्लास में पानी भी ले कर बैठती थी
अगर कोई गलती हो जाए
एक बूँद पानी डाल देती थी
और स्याही धुल जाती थी

मुझे याद है कभी कभी ऐसा भी हुआ है
की पूरा पन्ना ले कर बाल्टी में डाल दिया
पता नहीं क्यों...पन्ने फाड़ती नहीं थी कभी मैं
धुल जाता था तो सुकून होता था

पेंसिल की भी अपनी कहानी है
उसकी नोक का स्वाद
कितने केमिस्ट्री के फोर्मुले में घुलता रहता था
कितने फिजिक्स के रहस्य में घिसता रहता था

रबर अक्सर खुशबू वाला लेती थी मैं
फलों वाला, अधिकतर स्ट्राबेरी
और अलग अलग आकार के
और एक मिटने के लिए नटराज का सफ़ेद

शायद बहुत पहले से ही
मैं जानती हूँ कि मुझसे गलतियाँ होंगी
इसलिए उन्हें ठीक करने का इंतजाम पहले करती हूँ


बचपन से गलतियाँ करती आ रही हूँ
अन्तर बस इतना है कि
अब लुत्फ़ आने लगा है...

24 September, 2008

इसलिए आज मैंने एक सिगरेट सुलगा ली


आज मैंने एक सिगरेट सुलगा कर

होठों पे रख ली

याद आयी वो शाम

जब पहली बार तुम्हारा नाम लिया था...


धुआं धुआं सा कोहरा था उस वक्त

दिसम्बर की सर्द रात में सोयी दिल्ली पर

और हम सड़कों पर भागे जा रहे थे...

कितनी दूर चले आए हैं
उस शाम से भागते भागते

बारिशों वाले इस शहर में...

जहाँ सिगरेट जलते ही बुझ जाती है।


फ़िर भी मैंने एक सिगरेट सुलगाई

भीगी आंखों से धुएं के पार देखा

हम दोनों कुछ ज्यादा साफ़ नज़र आ रहे थे...



एन एच ८ की वो सड़क

दूर तक सीधी दौड़ती हुयी

रात भर जागती थी हमारे साथ



ये शहर बड़ी जल्दी सो जाता है

मासूम बच्चे की मानिंद

और हम ढूँढ़ते रहते हैं

कहाँ जा के खेलें...


वो हवाईजहाज़ किस देश से आए हैं

मैं तुम्हें एक दिन पेरिस घुमाऊंगा

तुम कहा करते थे

यहाँ हवाई अड्डा शहर से दूर बना है


बहुत कुछ नहीं है यहाँ दिल्ली के जैसा

हम और तुम भी नहीं है



इसलिए आज मैंने एक सिगरेट सुलगा ली

यूँ लगा की हम फ़िर से वही हो गए हैं

दिल्ली की सड़कों पर भटकते हुए

रात के यायावर...बेफ़िकर...हमसफ़र

18 September, 2008

काँच की यादें

मैं तो बस टुकडों को समेट के रख रही थी
कि ऊँगली में चुभ गया एक लम्हा...

और बहने लगे आंखों के कोरों से
पिछले कितने कहकहे...

कमरे में थिरकने लगे
आहटों के कितने साए...

खिड़की में आ के छुप गए
लुकाछिपी खेलते बच्चे...

जाने किस दिशा से बहने लगी
रजनीगंधा सी महकी पुरवाई...

और छत से बरसने लगे
हरसिंगार के फूल...

जाने क्यों लगा कि
कुछ कभी बीता नहीं था
बस...ठहर गया था।

16 September, 2008

ये मेरे ही साथ क्यों होता है?




अभी कुछ दिन पहले मैंने आईपॉड ख़रीदा, काले रंग का, क्योंकि सबसे अलग लग रहा था और वैसे भी काला मेरा फेवरेट रंग है। वैसे मुझे लाल बहुत पसंद था पर वो बस लिमिटेड एडिशन में आया था तो मिलने का कोई चांस नहीं था।


अभी १५ दिन भी नहीं हुए थे की एप्पल का मेल आ गया, ९ रंग में आईपॉड नानो, और कितने सारे फीचर्स के साथ। मैं उस दिन से उदास हूँ, दुखी हूँ, गुस्से में हूँ....ऐसा
mere साथ ही क्यों होता है :(


08 September, 2008

दास्तान ऐ दाँत दर्द

ऐसा है कि हमें बचपन से ही मीठा खास पसंद रहा है, मेरी पसंदीदा लाइन है "खाने कि किसी भी चीज़ में चीनी कभी ज्यादा नहीं हो सकती, मीठा जितना हो अच्छा है"।
दोस्तों के आँखें फाड़ फाड़ के देखने के बावजूद मैं काफ़ी में अक्सर दो तीन पैक चीनी तो डालती ही हूँ। डाईबीटीज़ से मरूंगी इसमे किसी को कोई शक नहीं है...खैर जब मरूंगी तब का तब देखेंगे फिलहाल तो मैं किसी और चीज़ से मरने वाली हूँ। हालांकि मेडिकल हिस्ट्री में कोई रिकॉर्ड नहीं होगा कि दाँत दर्द से किसी कि मौत हुयी हो, वैसे हाल में ये एक अजूबा केस होगा और मेरे बारे में माएँ कितने दिनों तक बच्चो को डरती रहेंगे, एक लड़की थी जो बहुत चॉकलेट खाती थी। किंवदंति बन जाउंगी मैं ...
खैर ये तो रही उटपटांग बातें...
मसला ये है कि कल मेरे हाथ में दाँत का एक टुकडा आ गया...अब मेरी उम्र दूध के दाँत वाली तो है नहीं कि खउष हो कर बगीचे में गाड़ने चल दूँ। तो घबरायी...मनिपाल हॉस्पिटल दौडी...
और आख़िर पता चला कि जिंदगी का सबसे भयावह सपना सच हो गया है...डॉक्टर ने कहा रूट कैनाल करना होगा। मैं ठहरी बहादुर लड़की, ऐसे थोड़े डर जाती...मैंने कहा दांत निकल दो पर लगता है इन लोगो ने अच्छे से पढ़ाई नहीं कि है, बोलने लगे क्यों उखाद्वाओगे, परमानेंट टूथ है, खाना कैसे खोज। आख़िर मैंने हथियार डाल दिए।
तो आज जाना है...हिम्मत जुटा रही हूँ।
भगवान करे मनिपाल के doctors बिना रिज़र्वेशन वाले हों, और उन्होंने बिना पर्ची पढ़े एक्साम पास किए हों।

05 September, 2008

to sir with love

Today i would like to say thank you to the teacher who has played the most important role in my evolution as a person who is sure of what she wants in life and dares to acheive it.
Frank sir this is for you.
You made us shed our inhibitions, you taught us to think free, you taught us to believe in ourselves.
I still remember looking up to you in awe coz you knew so many things, and those were the times when we didnt have internet with us, sir you were our search engine. I dont recall any instance when i asked you for information and you didnt give me a new insight on the subject alltogether.
I remember the radio production classes with you where we saw your amazing linguistic skills...and then all those times at Aasra when we saw movies listened to songs, played games and had so much fun.
Sir you have been like a very good freind whom i can confide and ask advice from...thank you so much sir for being what you are...
you played this song for us in aasra, and i still remember i got goosebumps...so sir today i dedicate this song to you...with love.


To Sir With Love.m...

lyrics

Those schoolgirl days

of telling tales and biting nails are gone

But in my mind I know they will still live on and on

But how do you thank someone

who has taken you from crayons to perfume?

It isn't easy, but I'll try

If you wanted the sky I would write across the sky in letters

That would soar a thousand feet high

'To Sir, With Love'

The time has come for closing books and long last looks must end

And as I leave I know that I am leaving my best friend

A friend who taught me right from wrong and weak from strong

That's a lot to learn, but what can I give you in return?

If you wanted the moon I would try to make a start

But I would rather you let me give my heart 'To Sir, With Love'

01 September, 2008

एक खूबसूरत गीत...

Chachi420-EkWohDin...

यहाँ की शामें यादों सी होती हैं...

खूबसूरत, और हर बार अलग ही रंग में बिखरी हुयी

वही चहचहाहट वही झुंड के झुंड लौटते पंछी

कभी कभी कमरे में बैठती हूँ तो लगता है वापस जेएनयू पहुँच गई हूँ...

अपने हॉस्टल के कमरे में...

जहाँ बालकनी से नर्म धूप कमरे तक आती थी

जाडों में आराम से बाल सुखाते हुए, जगजीत की कोई ग़ज़ल सुनते रहते थे

आँखें मूंदे हुए....आवारा ख्याल यूँ ही चहलकदमी करते रहते थे

वो भी क्या दिन थे..उफ्फ्फ

ख़ुद से मुहब्बत हुआ करती थी तब

और आइना कहता था...बा-अदब होशियार :)

तब मुझे काजल लगना बड़ा पसंद हुआ करता था

और कभी कभी शौक़ से बिंदी भी

अब तो जैसे वक्त भागता रहता है

जींस और टी शर्ट डाली और निकल गए

जाने आजकल आईने में कैसी दिखती हूँ

अब कहाँ हो पाती है गुफ्तगू

अब कहाँ वक्त मिलता है

की ढूंढ के एक मनपसंद गीत सुनूँ

फ़िर भी कभी कभी...

ये गीत सुनने का वक्त निकल लेती हूँ...मुझे बेहद पसंद है...

सोचा अकेले सुनने में क्या मज़ा आप भी सुनिए :)

एक शाम सा खुशनुमा और उदास गीत एक साथ।






25 August, 2008

कुछ ऐसे ही बिखरा हुआ सा

लहरों से बातें की...

खामोशी रेत पर लिखी

मैं और तुम तनहा

दूर दूर तक कोई नहीं

रंग भरा आसमान

शोर भरी शामें

चलते रहे साहिल पर

कितनी दूर...मालूम नहीं

कोई भी तो नहीं...

सीपियाँ चुनते हुए

घरोंदे बनते हुए

शामें गुजारते रहे

हम और तुम तनहा

जैसे कि समंदर...

लहरें पटकता हुआ

सीपियाँ फेंकता हुआ

और हम चुनते हुए

वो कुछ कहता हुआ

और हम सुनते हुए...

कुछ नहीं होता समंदर किनारे

बस...होना होता है

जिंदगी का एहसास

वक्त के बंधन के परे

बस होना...

हमारा...समंदर किनारे...

19 August, 2008

अब सवाल नहीं

ना पूरे होने वाले सपने भी तो देखती हूँ मैं
अनजाने...
सफ़ेद बादलों के बीच उड़ते हुए...
खूब सारी धूप और खिलखिलाहटों सा
इन्द्रधनुषी किरणों का

और नींद में ही मुस्कुराती हूँ
हाथ बढ़ा कर छूना चाहती हूँ
बर्फ के उस सफ़ेद नर्म गोले को...
उससे शायद एक घर बनाना चाहती हूँ

बर्फ का घर जिसमे अलाव जल रहा हो
खिड़कियों पे टंगे हो नीले परदे
खरगोश दौड़ रहे हों आसपास
और नन्ही नन्ही परियां हो

वहां कोई रोये ना
आंसू निकलते ही जम के आइसक्रीम बन जाएँ
छोटी छोटी घंटियाँ बजती रहे
और हाँ एक जलतरंग भी

जहाँ थिरकते फव्वारे हों
हवा में उड़ते फूल हों

सपने...ऐसे ही नहीं होते
ऐसे भी होते हैं

जहाँ मुझे कुछ भी करने के पहले
हर किसी को जवाब न देना पड़े
एक ऐसी भी जगह होती
जहाँ सवालों के कटघरे न होते

जहाँ मैं राजकुमारी होती
और मेरी हर ख्वाहिश यूँ ही पूरी होती
जहाँ तर्क नहीं होते
जहाँ गम नहीं होता
जहाँ समझौता नहीं करना पड़ता...

काश
ऐसी जगह होती
जहाँ मैं...बस मैं होती



18 August, 2008

दुविधा...pleasure या flyte की




सबसे पहले तो इस मुसीबत से बाहर आई कि बाईक चलाऊँगी...सोचा अच्छे बच्चों की तरह छोटी सी चीज़ चलाती हूँ, कल को कहीं किसी को ठोक भी दिया तो सब मेरे सर पे नहीं चढेंगे कि "मैंने तो पहले ही कहा था...तुम किसी को सुनती कहाँ हो"
अब मुझे पसंद आए दो ऑप्शन्स...hero honda pleasure(left,red) और kinetic flyte(right,green)
red pleasure तो देखते ही दिल आ गया...its stunning!! बाकी फीचर्स भी अच्छे हैं...पर एक समस्या आई...हमारे यहाँ लाल रंग को गाड़ी को थोड़ा अपशगुनी माना जाता है, मैं तो खैर इन चीज़ों से कोसों ऊपर हूँ...पर नहीं चाहती को ऐसा कुछ करूँ जिससे किसी का दिल दुखे...और उनको लगे को मैं उनकी इज्ज़त नहीं करती हूँ या प्यार नहीं करती हूँ। अन्धविश्वास के बारे में कुछ किया नहीं जा सकता है, ये हर तर्क के परे होता है, कभी कभी मैं भी कुछ चीजों को लेकर ऐसा सोचती हूँ को कोई वजह नहीं होती...
pleasure के ग्राफिक्स भी बहुत अच्छे लगे मुझे...पर मैंने इसका सिल्वर, ब्लू और कला रंग देखा...वो मुझे बिल्कुल अच्छे नहीं लगे। अब मुझे देखना बाकी है ग्रीन और light purple। पर मेरे ख्याल से अगर मैं pleasure लुंगी तो सिर्फ़ इसलिए की ये दिखने में सबसे अच्छा है, और इस लिहाज से अगर रेड नहीं लेती हूँ तो लेने का कोई खास मन नहीं है...so to conclude...pleasure is all about the looks...and falling in love with it at the first glance...a head turner when you burn the roads etc etc...and no doubt i am the one most of the time. i just cannot take something common.
अब आते हैं मेरी दूसरी पसंद...kinetic flyte पर...ये मैंने लाइट ग्रीन रंग में देखी और मुझे अच्छी लगी, टेस्ट ड्राइव भी किया। एक अच्छी सोबर बाईक जिसमे बहुत से अच्छे फीचर्स हैं. जैसे front fuelling, underseat lighting, खूब sari जगह और इसका front wheel suspension इतना अच्छा है की बाईक जैसा लगता है(ऐसा मैंने पढ़ा है). सोचती हूँ इसे लेना एक समझदारी वाला फ़ैसला होगा. और लंबे टाइम तक सही रहेगा. इसमें सबसे अच्छी बात है की ये एक १२५ सीसी स्कूटर है, जो की अभी के मार्केट में सिर्फ़ सुजुकी एक्सेस है (जो की बहुत ही बोरिंग स्टाइल वाला है). मुझे वैसे भी इन गाड़ियों से यही प्रॉब्लम थी की इनमें इंजन में पॉवर नहीं होती. कितना भी कुछ कर लो १०० सीसी में वो बात नहीं आ पाती, पीछे बिठा के चलाना तो अच्छा खासा सरदर्द है. १२५ में स्पीड में कोई ज्यादा प्रॉब्लम नहीं होती है.इसमें वो glamour नहीं है या हो सकता है मैंने अभी इसका रेड नहीं देखा है...pleasure के भी तो बाकी रंग अच्छे नहीं लगे थे.
so its time to choose in looks vs power
and passion vs practicality

कल मैं pleasure का ग्रीन देखने जा रही हूँ और किनेटिक का रेड. उसके बाद decide करुँगी की क्या लेना है. अगर मुझे kinetic का रेड पसंद आ गया, pleasure के जितना ही तब तो बेस्ट रहेगा. हालाँकि हीरो होंडा के साथ एक ट्रस्ट फैक्टर होता है, पर किनेटिक के इतने फीचर्स हैं की बरबस मन मोह लेता है.
the D day tommorow :D
और यूँ ही ख्याल आया छोटी छोटी चीज़ों में इतना वक़्त जाया कर रही हूँ
इतनी बड़ी बात तो नहीं...
शायद?!?!?!?!?!?!?!
i am literally confused

15 August, 2008

जलेबियों के दिन...


१५ अगस्त का हमें साल भर बड़े बेसब्री से इंतज़ार रहता था...उस दिन स्कूल में परेड होती थी, और मैं अपनी बटालियन की कैप्टेन थी, झंडे को सलामी देना, सावधान,विश्राम...और जब प्रिसिपल चेकिंग करती थी, बिल्कुल स्थिर खड़े होना।
और सबसे बेहतरीन बात होती थी कि पापा हमेशा जलेबी ले के आते थे। तो हम जैसे ही घर पहुँचते सीधे किचन की तरफ़ भागते, और ठोंगा में जलेबी मिलता, इसके साथ सेव भी रहता था, जो तीता होता था इसलिए हम नहीं खाते थे।
इसके बाद शाम में हम घूमने जाते थे, और मैं और भाई सारे रस्ते गिनते रहते थे कि कितने झंडे देखे, जो झंडा मैंने देखा उसे वो नहीं गिन सकता था...इसलिए हम सारे टाइम ध्यान से देखते रहते थे कि किसने ज्यादा झंडे गिने। अब सोचती हूँ तो मुस्कुरा देती हूँ।
इसके अलावा कुछ और भी १५ अगस्त थे जब सुबह उठ कर तैयार हो जाते थे, मेरे पापा स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया में काम करते हैं...तो उसदिन सफेत शर्ट और पन्त पहन के जाते थे पापा, और हम भी उनके साथ। बैंक में झंडा फहरते देखना और फ़िर जलेबी, सेव और एक रसगुल्ला...वैसे हम जितना चाहे रसगुल्ला मिलता था। फ़िर आस पास के बच्चो में टाफी बाँटी जाती थी, उसके लिए बड़ी मारा मारी मचती थी। पापा या जो भी अंकल बांटते थे, कहते रहते थे कि झगडा मत करो ,सबको मिलेगा...पर नहीं
वापस जीप में आना भी एक सुखद सफर होता था, पापा के collegues, यानि बाकि अन्क्ले लोगो के बच्चे भी लगभग हमउम्र होने के कारण ,अच्छी दोस्ती थी सारे रास्ते हम देशभक्ति के गीत गाते आते थे...उस दिन मेरी बड़ी पूछ होती थी, एक तो अच्छा गाती थी और सबसे ज्यादा गाने भी मुझको याद रहते थे, वो भी पूरे पूरे।
घर में मम्मी हमेशा कुछ अच्छा बनती थी, पूडी और कोई बढ़िया सब्जी, खीर या सेवई वगैरह।
जब भी हॉल में फ़िल्म के पहले जन गण मन सुनती हूँ तो अनायास ही रोयें खड़े हो जाते हैं, कुछ तो है कि जब भी सुनती हूँ...अजीब सा फील होता है। और कुछ ऐसा ही आनंद मठ के वंदे मातरम को सुन के लगता है...
आज मैंने भी सफ़ेद सूट और केसरिया दुपट्टा ओढा है...
मोरा रंग दे बसंती चोला माई रंग दे....रंग दे बसंती चोला
और अंत में मेरा फवोरिते कुछ शेर
shaheedon ki चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पे मरने वालों का यही बाकी निशां होगा
और कश्मीर के लिए
है लिए हथियार दुश्मन ताक में बैठा इधर
और हम तैयार हैं सीना लिए अपना इधर
खून से खेलेंगे होली जब वतन मुश्किल में है
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है...

08 August, 2008

और भी गम हैं ज़माने में...

कुछ लोगो के ऊपर हमेशा किसी न किसी चीज़ का भार रहता है...
आजकल लगने लगा की मैं ऐसे ही कुछ लोगो में से हूँ शायद। पहले घर ढूँढने की आफत, अब घर मिल गया है तो दूसरी समस्या खड़ी है। अगर देखा जाए तो समस्या है नहीं, ये मेरी बनाई हुयी समस्या है।

मैं एक लड़की हूँ...और मेरे लड़की होने में मेरी पसंद नापसंद नहीं पूछी गई, पर इसके बाद जो चीज़ें मेरे सामने आती हैं उनमे मेरा लड़की होना बहुत बड़ा माद्दा बन जाता है। मुझे मोटरसायकिल चलने का मन करता है। मुझे बहुत अच्छा लगता था चलाना, पर पहले भी चूँकि कोई और नहीं चलाती थी तो मम्मी पापा मुझे भी नहीं चलाने देते थे। अब जब मुझे लगता है मैं वो कर सकती हूँ जो मेरा मन करता है...मैं देखती हूँ की समस्या अब भी वहीँ है।
और जो मेरे अपने थे वो भी मेरे इस शौक़ को बेवकूफी बोलते हैं। मैं सच में सवाल करना चाहती हूँ की इसमे बेvakufi क्या है, सिर्फ़ इसलिए की बाकी लड़कियां नहीं चलाती, मैं शायद बंगलओर में एकलौती लड़की होउंगी जो bike चलाती है so what...big deal.
mera कुछ करना इसपर dependent क्यों हो की बाकी लोग ऐसा कर रहे हैं कि नहीं, उनका मन, न करें मेरी बाला से। मैं क्यों इसके कारण दुखी होऊं। इतना दिमाग ख़राब करने के बाद कुछ पसंद आया था...honda aviator , तो पता चला कि वो ५"७ से कम के लोगो के लिए नहीं है। अब भाई साईकिल तो नहीं है न कि हाफ पैडल चला लेंगे, सड़क पर आधे वक्त तो पैर नीचे ही रहते हैं। तो ये आप्शन भी आउट हो गया।
अब मैं सोच रही हूँ कि कौन सा मॉडल खरीदूं। ये कम स्पीड वाली चीज़ें ऐसे ही मुझे एकचइ नहीं लगती, अधिकतर में सिर्फ़ १०० सीसी का इंजन है, उसमे क्या होगा। बस एक सुजुकी access में १२५ सीसी इंजन है और मैंने अभी तक गौर से देखा नहीं है उसे, शायद वो एकदम स्कूटर टाइप है,जैसा कि फोटो में दिखता है।
शायद मैं "pleasure" confirm karun...why should boys have all the fun।

खैर
और भी गम हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
रातें और भी हैं वस्ल की रहत के सिवा
मुझसे पहली सी मुहब्बत (enticer) मेरे महबूब न मांग..

05 August, 2008

मुझे मुहब्बत है...

















i absolutely love my new home...if love can be absolute in any वे


























मेरे नए घर की हर चीज़ मुझे बेहद पसंद है...एक एक कर के बताती हूँ













मेरे घर आने का रास्ता इस इस इस के पेड़ों से ढका हुआ है, दोनों तरफ़ गुलमोहर के पेड़ और रास्ते पर आती हलकी धूप छाँव, जैसे चलते हुए ही महसूस होने लगता है कि मंजिल बाहें फैलाये इन्तेज़ार कर रही है।













वैसे रास्ता इतना खूबसूरत हो तो मंजिल न भी मिले अफ़सोस नहीं होता...






मेरे घर के ठीक पीछे एक मन्दिर है, और हर shaa जब साँझ देती हूँ तो वहां से आती घंटियों की आवाज़ ऐसे लगती है जैसे मेरे कमरे में ही आरती हो रही हो...आंख बंद करती हूँ तो जैसे मन्दिर में ही पहुँच जाती हूँ। उसपर बालकनी में चिडियों के वापस लौटने का शोर...बादलों के कई रंगों में रंगी शाम, जैसे जिंदगी इसी को कहते हैं।







और is के बाद होती रहती है मेरी खुराफात, किचन में...तो मैंने दिखाती हूँ की मैंने क्या बनाया कलlको





और इसके बाद होती रहती है मेरी खुराफात, किचन में...तो मैंने दिखाती हूँ की मैंने क्या बनाया कल रात को...इसे हमारे यहाँ चितवा कहते हैं, कई जगह चिल्का या चिल्ला भी कहा जाता है. इसे बनाना आसन है, बस बेसन में थोड़ा प्याज, हरी मिर्च, टमाटर, बंधगोभी टाइप चीज़ बारीक काट के डालो, अजवाइन, जीरा, थोड़ा सा लाल मिर्च पाउडर, जीरा पाउडर डालो, पानी दल ke मिक्स करो और बस, तवा पर डोसा टाइप फैलाते जाओ. दो मिनट में awesome खाना तैयार इसको कोई भी प्राणी सिर्फ़ अचार के साथ चट कर सकता है...लेकिन कुछ भुक्खड़ लोग हल्ला कर के सब्जी भी बनवाते हैं जैसा कि आप देख रहे हैं. खुशनसीब लोगो को हमारे हाथ का खाना खाने मिलता है. :D






aur khushnaseeb logo ko milti hai aisi neend








04 August, 2008

फिल्में और हम

इस वीकएंड दो फिल्में देखीं घर पर ही, और कोई उपाय भी नहीं था। २ अकेडमी अवार्ड विनर "crash", मुझे काफ़ी पसंद आई, खास तौर से इसकी पटकथा और डायलॉग बहुत अच्छे लगे मुझे। मेरा फेवरिट है "you think you know who you are, you have no idea", यह डायलॉग एक पुलिस ऑफिसर अपने जूनियर को कहता है और जैसे जैसे फ़िल्म आगे बढती है हम देखते हैं वही जूनियर ऑफिसर एक नीग्रो की मदद तो करता है उसका आत्मसम्मान बचने के लिए और उसका भरोसा जीतने के लिए मगर एक दूसरे नीग्रो को अपने अविश्वास के कारन गोली मार देता है।

फ़िल्म में जिस तरह समाज के अलग अलग हिस्सों की सोच और एक खास तरह के हालात में उनका व्यवहार दिखाया है, वह वाकई आपको सोचने पर मजबूर कर देता है कई जगह व्यथित भी करता है। जिस तरह हमारे समाज में भी कई पूर्वाग्रहों से बंधे होने के कारण हमारी सोच प्रभावित होती है वैसा ही ताना बना बुना गया है और अंत में बड़े कौशल से सारी घटनाओं का आपस में जुडाव दिखाया गया है। मुझे फ़िल्म अच्छी लगी...a very different kind of cinema

अभी अभी दूसरी फ़िल्म ख़त्म हुयी है..."परजानिया", कहानी अहमदाबाद की है दंगों के सन्दर्भ में बनाई गई है। फ़िल्म अच्छी है पर मुझे सिर्फ़ एक चीज़ समझ नहीं आती, ऐसी फिल्मो को ये डॉक्युमेंटरी टाइप फीलिंग देने के लिए इंग्लिश में क्यों बनाया जाता है। अगर इसमे दंगो का सच ही दिखाया गया था तो क्या ये और जरूरी नहीं था की इसे हिन्दी में बनाया जाए ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक बात पहुंचे, और अगर नहीं तो कम से कम गुजराती में बनाया जाता ताकि वहां के लोगों को ये फ़िल्म देखने को मिलती। हमारे लिए इंग्लिश में subtitles दे दिए जाते। औरतें आपस में घरेलू बातें भी अंग्रेजी में कर रही हों तो फ़िल्म चुभने लगती है और सच्चाई(वही सच्चाई जिसे दिखने के लिए ये फ़िल्म बनाई गई है) से दूर लगने लगती है।

its in being able to strike a fine balance. कुछ फिल्में जैसे Mr & Mrs Iyer में उनका इंग्लिश में बोलना पूरी तरह सही लगता था, क्योंकि एक साउथ इंडियन और एक कोलकाता का रहने वाला युवक इसी भाषा में बात करेंगे यही नहीं फ़िल्म में जहाँ जरूरत रही लोग हिन्दी में भी बोलते हैं। हमारे यहाँ फिल्मो की भाषा बहुत जरूरी है अगर कोई multiplex के लिए फ़िल्म बन रही है जिसकी विषयवस्तु कुछ ऐसा डिमांड करती है तब तो ठीक है, नहीं तो मुझे औचित्य समझ नहीं आता इंग्लिश में बनाने का. ये मेरा अपना नज़रिया है और मुझे लगता है की हमारी फिल्में हमारी भाषा में हो तो बेहतर, किसी को भी ऐसी भाषा बोलते दिखाना जो वो आम जिंदगी में प्रयोग नहीं करता हो सिवाए बेवकूफी के और क्या है. अब आज रात ममी पार्ट ३ देखने का मन है...देखीं क्या होता है.

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