01 November, 2024

ब्लैक कॉफ़ी मॉर्निंग्स



वो मेरे मन की रेल का टर्मिनस है। ये रेल शुरू चाहे जिस स्टेशन से हो, गुज़रे चाहे जिन भी पठारों, पहाड़ों से…अंततः इसे उसी स्टेशन पर रुकना होता है।
वहाँ से ट्रेन आगे नहीं जाती। रुकती है। लौटती है।

एक लंबी यात्रा के बाद ट्रेन की साफ़-सफ़ाई होती है, कंबल-चादरें धुलती हैं। फिर ट्रेन वहाँ से वापस चलती है, पुराने शहरों को देखने, नये यात्रियों को नयी जगह पहुँचाने। पुराने यात्रियों को गर्मी-छुट्टी के नास्टैल्जिया तक बार-बार उतारने।

त्योहारों की सुबह कैसा कच्चा-कच्चा सा मन होता है।
मैंने सपने में दोस्त को देखा। कई समंदर पार से वह देश आया हुआ है। मैंने दौड़ते हुए उसके पास जाती हूँ और उसे हग करते ही पिघल जाती हूँ। मोम। थोड़ी गर्मी और नरमाहट लिये हुए। यह मेरी जानी हुई जगह है। मैं यहाँ सुरक्षित हूँ। सेफ़। मैं यहाँ खुश हूँ। मेरा मन मीठा है। यहाँ से कहीं जाने की हड़बड़ी नहीं है। सपने की जगह पहचानी हुई नहीं है। लेकिन जाग में वो शहर मेरा अपना लगता है। मैं पूछती हूँ उससे, ‘तुम क्यों आए अभी?’, वो कहता है, ‘तुम्हारे लिए, पागल, और किसके लिये। मुझे लगा तुमको मेरी ज़रूरत है।’

मेरी ज़रूरत। आख़िर को तुम्हें क्या चाहिए। मैं देखती हूँ, भगवान परेशान बैठे हैं…ये लड़की मेरे हाथ से बाहर है…इसको सब कुछ दे दो फिर भी ऐसे टीसती, दुखती, मेरे मन पर बरसती रहती है। हम भगवान से बकझक कर रहे हैं…एक आपके मन पर एक बस मेरे कलपने से इतना असर काहे पड़ता है, भर दुनिया का चिंता है आपको…क्या फ़र्क़ पड़ता है हमसे…अब हम मन भर उदास भी ना रहें? भगवान कहते हैं, तुमको यक़ीन नहीं होता है बेवक़ूफ़ लड़की, लेकिन तुम हमारी बहुत प्यारी हो…तुम्हारे क़िस्मत से जितना ज़्यादा हो पाता है, तुम्हारे हिस्से में सुख रखते हैं…लेकिन तुमको जाने क्या चीज़ का दरकार है…ठीक ठीक बताओ तो लिख भी दें तुम्हारे लिए…हम हँसते हुए उठ जाते हैं…प्रभु, रहने दीजिए हमको क्या चाहिए…आपसे नहीं हो पाएगा…

पिछली बार बहुत दुखाया था तो भगवान से ही कहे थे, हमारे दिल में मुहब्बत थोड़ी कम कर दो…हम नहीं जानते इस आफ़त का क्या करें।

इस बार दीवाली अक्तूबर के आख़िरी दिन थी। घर में पिछले महीने ही श्राद्ध-कर्म पूरा हुआ था इसलिए मन पर त्योहार का उल्लास नहीं, जाने वाले की आख़िरी फीकी उदासी थी।

नवम्बर मेरे लिये साल का सबसे मुश्किल महीना होता है। इसी महीने माँ चली गई थी। अगले कुछ सालों में वह वक़्त जो मैंने इस दुनिया में उसके बिना बिताया, उस वक़्त से ज़्यादा हो जाएगा जो मैंने उसके साथ बिताया। 

PTSD - पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर को कहते हैं। मुझे बहुत साल बाद समझ आया कि मुझमें इस ट्रामा के कारण उपजे स्ट्रेस से कुछ ख़ास डिसऑर्डर हो गये हैं और मुझे ख़ुद की रक्षा के लिए एहतियात बरतनी होगी। जैसे कि मुझे बाउंड्री/boundaries/सीमा-रेखा खींचनी नहीं आती। इंतज़ार किस लम्हे जा कर घातक हो जाता है, मुझे नहीं समझ में आता। इंतज़ार में मेरी जान जा सकती है, यह अतिशयोक्ति नहीं है। मुझे इंतज़ार से बेतरह घबराहट होती है। “The fatal definition of a lover is precisely this, I am the one who waits. - Roland Barthes” प्रेमी की यह परिभाषा मुझ पर एकदम सटीक बैठती है। हम बार बार इस fatal पर अटकते हैं, सोचते हैं कि यह कुछ और भी हो सकता था…लेकिन यह फेटल ही है…अच्छा पढ़ना हमें ख़ुद को बेहतर समझने में मदद करता है। और अच्छे दोस्त हम तक ऐसी किताबें पहुँचा देते हैं। दोस्त चाराग़र होते हैं। वे हमें जिलाये रखते हैं।
इंतज़ार के साथ दिक़्क़त ये भी है कि मेरे भीतर कोई घड़ी नहीं चलती। मुझे समय सच में एकदम समझ नहीं आता - किसी फाइनाइट टर्म में तो बिलकुल ही नहीं। हम ख़ुद किसी को कहेंगे कि बारह बजे मिलते हैं और हम उससे मिलने किसी भी समय जा सकते हैं…सुबह के दस बजे से लेकर शाम के चार बजे तक - होगा ये कि हम इस बीच के समय में बार-बार फ़ोन पर बताते रहेंगे कि हमको देर क्यों हो रही है…कारण कुछ भी हो सकता है…कौन सी साड़ी पहनें समझ नहीं आ रहा, समझ आने पर मैचिंग झुमका नहीं मिल रहा…कुछ भी अलाय-बलाय। 

हमें ख़ुद के लिए समझना पड़ता है कि हम नॉर्मल हैं नहीं, ऊपर से भले दिखते हों…लेकिन हमारी भीतरी बनावट में कुछ टूटा हुआ है। कि हमारे भीतर एक कच्चा ज़ख़्म है जो किसी और व्यक्ति को नहीं दिखता। इस चोटिल जगह पर हमें बार-बार चोट न लगे, इसलिए हमें एक काला धागा बाँधना होता है। हम यह भी समझते हैं कि कभी-कभी सिर्फ़ काले धागे से काम नहीं चलेगा तो हम एक जिरहबख्तर भी बाँध लेते हैं।
इक severe क़िस्म का दुखता हुआ इंतज़ार। एक बीमारी जैसा। एक फिजिकल ऐल्मेंट। हम कितना भी चाहें ख़ुद के भीतर चलते इस टाईम बम को रोक नहीं सकते। यह टिकटिक करते रहता है, उल्टी गिनती में। बेहिसाब…जब हम इंतज़ार करते हैं तो हमसे कुछ भी और नहीं होता। साँस लेना न भूल जाएँ, इस बात का डर लगता है। खाना नहीं खा सकते, नहा नहीं सकते, बाल नहीं झाड़ सकते तरतीब से। ऐसे बौखलाए, बौराये चलते हैं कि कोई देखे तो सीधे पागलखाने में भर्ती कर दे।
ये भी नहीं कि जिसका इंतज़ार है, उसको फ़ोन कर कर के हलकान कर दें…लेकिन जो बहुत प्यारे दोस्त हो गये हैं वे अब मुझे इंतज़ार करने को नहीं कहते। उन्हें पता है मैं मर जाऊँगी ऐसे किसी दिन, इस एंजाइटी में। लेकिन ये बता पाना भी तो मुश्किल है। क्या कहें, हमको इंतज़ार की बीमारी है…हो सके तो हमको इंतज़ार मत कराना।

मुझे बचपन से मीठा बहुत पसंद रहा है। आदतन हाथ मीठे की ओर बढ़ जाता है। लेकिन ज़ुबान को अब मीठा अच्छा नहीं लगता। आदत ब्लैक कॉफ़ी भी बना लेते हैं पीने के लिए। उसकी मीठी कड़वाहट ज़ुबान को अच्छी लगती है। यह इन दिनों मेरा फ़ेवरिट स्वाद है…उम्र के इस दौर में मुहब्बत ऐसी ही है, थोड़ी मीठी कड़वाहट लिए…ब्लैक कॉफ़ी।

वे दिन अच्छे होते हैं जब बेवजह का कोई दुख नहीं होता, जब सुबह सुबह सिर में दर्द नहीं होता। जब हम उठ कर परिवार के बीच सुबह की चाय बना कर की पाते हैं। ये नहीं कि हेडफ़ोन लगा लिये। काली कॉफ़ी बना लिये। और लॉन में आ के बैठ गये कि दिमाग़ में चटाई बम लगा हुआ है। जब तक लड़ी का सारा पटाखा फूट न जाये, कहीं चैन नहीं आएगा।

डियर ईश्वर, अपनी इस पागल लड़की पर थोड़ा प्यार ज़्यादा बरसाना।
अगली कहानी लिखने के पहले से मन दुख रहा है।

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