गंध है कोई. रेंगते कीड़ों जैसी चढ़ती जा रही है पैरों पर. काली लताओं जैसी. किसी गौथ टैटू की तरह. शायद आज दोपहर Millenium series की किताब 'Girl in the spider's web' पढ़ी है इसलिए. ये पूरी सीरीज मुझे बहुत पसंद आई है. लिसबेथ वैसी हिरोइन है जैसा मैं रचना चाहती हूँ बहुत दिनों से...मगर शायद थोड़ा सा बचा जाती हूँ लिखते हुए 'प्लेयिंग सेफ' जैसा कुछ. मगर किसी दिन मैं अपनी कलम को पूरी तरह से निर्भीक बना सकूंगी और रच सकूंगी किसी ऐसी लड़की को जिस पर मुझे गर्व हो.
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मुझे शब्दों की प्यास लगती है. जिन्दा शब्दों की. जिन्हें किसी जीते जागते इंसान ने लिखा है. मैं शब्दों को पढ़ते हुए इमैजिन करना चाहती हूँ उसको. उसके चेहरे पर के भाव. उसके शहर का मौसम. मगर ऐसा सारे लेखकों के साथ नहीं है. कुछ हैं जो अपने लिखे में घुले-मिले हैं. कुछ आर्टिस्ट इसी तरह होते हैं. अपनी कला में घुलेमिले. उनकी कला उनके मर जाने के हज़ारों साल बाद भी ज़िंदा रहती है. क्यूंकि उन्होंने अपनी हर कलाकृति में अपनी रूह का एक हिस्सा रख दिया होता है. मैं जब किसी म्यूजियम में पेंटिंग्स देखती हूँ तो अकस्मात् किसी पेंटिंग के सामने बहुत देर तक ठहर जाती हूँ. ब्रश स्ट्रोक्स की ऊर्जा को महसूसती हूँ. पहली बार पिकासो की पेंटिंग देखी थी वियेना में तो महसूस किया था कि महान होना शायद इसी को कहते हैं. इतने साल बाद भी उसके ब्रश स्ट्रोक्स लगता था जैसे अभी अभी उकेरे गए हों. जैसे आर्टिस्ट एक गीला कैनवास यहीं रख कर हाथ साफ़ करने गया हो. मैं उसके लौट आने का इंतज़ार करती हूँ. उलझे हुए बिम्ब और प्रतीकों वाली उस पेंटिंग के पीछे उसकी मनोदशा को जानना चाहती हूँ. इस जान पहचान के पीछे इस बात का भी हाथ रहता है कि मैंने उस आर्टिस्ट के बारे में कितना जाना है. शायद कर्ट कोबेन की आवाज़ की मर्मान्तक पीड़ा मुझे इसलिए महसूस होती है कि मैं उसके डायरी के पन्नों से गुज़र चुकी हूँ. मगर फिर भी...कर्ट की आँखों में जो स्याह अँधेरा है...उसे लाइव सुनते हुए मैं जैसे जानती हूँ कि वो इस लम्हे नज़र उठा कर देखेगा...वो देखता है और फिर जैसे स्क्रीन नहीं रहती, यूट्यूब नहीं रहता, वक्त एक बिंदु हो जाता है...मैं ठीक सामने होती हूँ उसके...उस लम्हे. मैंने उसे वाकई तब सुना है जब वो गा रहा था...'माय गर्ल माय गर्ल'.
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कल मैं कब्रिस्तान गयी थी. पूरी दोपहर कब्रों पर लिखी इबारतें पढ़ती रही. लोगों के जन्म मरण की तारीखें. उनका काम. उनके नाम लिखे संदेसे. सोचती रही कि कैसा होता होगा मरने के बहुत सालों बाद भी जरा सी जमीन पर अपना अधिकार जमाये रखना.
कोई कब्रिस्तान होता है दिल. यूं ही दफन रहते हैं कितने लोग. नाम. तारीखें. इक आधी इबारत कोई. मगर कब्रिस्तान के बारे में डिटेल में फिर कभी. फिलहाल. कोई कहानी है. कुछेक पोस्टकार्ड्स हैं और खोये हुए स्टैम्प्स. इस बार स्याही की बोतल लेकर आई थी कि कम न पड़ जाए. मगर इस बार लिखा नहीं है कुछ. फिर किसी दिन. फिर किसी शाम के रंग में. घुलते. बहते. मिलेंगे खुद से. मुस्कुराएंगे उड़ते हुए हवाईजहाज़ को देख कर. कहेंगे अलविदा. और वाकई जा सकेंगे तुम्हारे दिल के इस कब्रिस्तान से बाहर. अपना कोई वजूद तलाशते हुए.
<इक गहरी साँस. जैसे अटका हुआ है कोई नाम. कोई किरदार. किसी कहानी का अंत>
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मुझे शब्दों की प्यास लगती है. जिन्दा शब्दों की. जिन्हें किसी जीते जागते इंसान ने लिखा है. मैं शब्दों को पढ़ते हुए इमैजिन करना चाहती हूँ उसको. उसके चेहरे पर के भाव. उसके शहर का मौसम. मगर ऐसा सारे लेखकों के साथ नहीं है. कुछ हैं जो अपने लिखे में घुले-मिले हैं. कुछ आर्टिस्ट इसी तरह होते हैं. अपनी कला में घुलेमिले. उनकी कला उनके मर जाने के हज़ारों साल बाद भी ज़िंदा रहती है. क्यूंकि उन्होंने अपनी हर कलाकृति में अपनी रूह का एक हिस्सा रख दिया होता है. मैं जब किसी म्यूजियम में पेंटिंग्स देखती हूँ तो अकस्मात् किसी पेंटिंग के सामने बहुत देर तक ठहर जाती हूँ. ब्रश स्ट्रोक्स की ऊर्जा को महसूसती हूँ. पहली बार पिकासो की पेंटिंग देखी थी वियेना में तो महसूस किया था कि महान होना शायद इसी को कहते हैं. इतने साल बाद भी उसके ब्रश स्ट्रोक्स लगता था जैसे अभी अभी उकेरे गए हों. जैसे आर्टिस्ट एक गीला कैनवास यहीं रख कर हाथ साफ़ करने गया हो. मैं उसके लौट आने का इंतज़ार करती हूँ. उलझे हुए बिम्ब और प्रतीकों वाली उस पेंटिंग के पीछे उसकी मनोदशा को जानना चाहती हूँ. इस जान पहचान के पीछे इस बात का भी हाथ रहता है कि मैंने उस आर्टिस्ट के बारे में कितना जाना है. शायद कर्ट कोबेन की आवाज़ की मर्मान्तक पीड़ा मुझे इसलिए महसूस होती है कि मैं उसके डायरी के पन्नों से गुज़र चुकी हूँ. मगर फिर भी...कर्ट की आँखों में जो स्याह अँधेरा है...उसे लाइव सुनते हुए मैं जैसे जानती हूँ कि वो इस लम्हे नज़र उठा कर देखेगा...वो देखता है और फिर जैसे स्क्रीन नहीं रहती, यूट्यूब नहीं रहता, वक्त एक बिंदु हो जाता है...मैं ठीक सामने होती हूँ उसके...उस लम्हे. मैंने उसे वाकई तब सुना है जब वो गा रहा था...'माय गर्ल माय गर्ल'.
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मैं उसके शब्दों को अपनी ऊँगली में लेकर मसलना चाहती हूँ. बचपन में चोट लगती थी तो गेंदा के पत्तों को यूं ही मसल कर उनका रस टपकाते थे हमारे स्पोर्ट्स टीचर. ताज़ा घाव से खून बह रहा होता था. रस उसमें घुलमिल जाता. वे फिर पत्तों से ही घाव को दबा देते और अपनी जेब से एकदम साफ़ रुमाल निकालते...सफ़ेद रंग का, और पट्टी बाँध देते. फिर पीठ ठोकते हुए कहते कि खिलाड़ी को गिरने से डर नहीं लगना चाहिए. उन दिनों हम लड़के और लड़कियों में बंटे हुए नहीं थे. हम बस अपने हिस्से का खेल ठीक से खेलना चाहते थे. मैं ४०० मीटर की धावक हुआ करती थी. मुझे उन दिनों लम्बी पारी का खेल समझ आता था. अपनी सारी एनर्जी शुरू में नहीं झोंकनी चाहिए. आखिर के लिए बचा कर रखनी चाहिए. उन दिनों ज़ख्मों पर मिटटी भी रगड़ दिया करते थे हम. मिट्टी से भी घाव भर जाया करते थे. या कि उम्र ऐसी थी. बिना किसी चीज़ के भी घाव भर जाते.
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मैं पढ़ती हूँ उसका लिखा एक वाक्य. कविता का एक टुकड़ा होता है. संजीवनी बूटी के दो बूँद टपकाए गए हों जीभ पर जैसे. मैं जी उठती हूँ.
लास्ट टाइम डैलस आई थी तो आर्ट म्यूजियम लगभग रोज़ ही चली जाती थी. पहले दिन एक स्पेशल एक्जीबिशन लगा हुआ था, ''Between action and the unknown'. 'काजुओ शिरागा' एक जापानी आर्टिस्ट जो कि एक ख़ास ग्रुप 'गुटाई' के सदस्य थे. इसकी कहानी काफी रोचक थी. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जापान अपनी आइडेंटिटी क्राइसिस के दौर से गुज़र रहा था. कला और समाज में इसकी क्या जरूरत है...जब जीने के लिए बाकी चीज़ें ज्यादा जरूरी हों और समाज बहुत दिनों तक सिर्फ जीवन की बेसिक जरूरतों को किसी तरह पूरा करने में सक्षम रहा हो...जहाँ मौत और भूख चप्पे चप्पे पर दिखती हो ऐसे में कला सिर्फ साक्षी भाव से चीज़ों को देखना नहीं हो सकता...कला को भी कहीं न कहीं चीज़ों से जुड़ना होगा. चीज़ों से सिर्फ भावनात्मक जुड़ाव काफी नहीं है, इसके अलावा भी कई स्तरों पर एक कलाकार को कोशिश करनी होगी कि कला को बेहतर आत्मसात कर सके. अपनी सीमाओं से ऊपर उठ सके. अपने कैनवास से इतर सोच सके. ---
मैं पढ़ती हूँ उसका लिखा एक वाक्य. कविता का एक टुकड़ा होता है. संजीवनी बूटी के दो बूँद टपकाए गए हों जीभ पर जैसे. मैं जी उठती हूँ.
The artist काजुओ को जब उसके गुरु ने कहा कि पेंटिंग को उसके माध्यम से इतर होकर कुछ नया देखना और सोचना होगा...सिर्फ ब्रश उठा कर कैनवास पर किसी दृश्य को उतार देने से बढ़ कर भी कुछ होना चाहिए कला में. तो काजुओ ने 'गति' को पेंटिंग का केंद्र बनाया. उसने कैनवास को ज़मीन पर रखा और छत से एक रस्सी लटकाई...कैनवास पर जगह जगह पेंट उड़ेला और नंगे पांवों से पेंट करना शुरू किया. ये पेंट एक नृत्य सरीखा था. काजुओ का कहना था कि उन्हें पेटिंग एक मूवमेंट की तरह महसूस होती है और वे उसकी लय में कैनवास पर झूमते जाते हैं...उनका पेंट करना बहुत हद तक गति को माध्यम देने जैसा था. पेंटिंग की इस शैली को 'एक्शन पेंटिंग' या 'काइनेटिक पेंटिंग' भी कहते हैं. काजुओ को इन पेंटिंग्स को बनाते हुए आध्यात्मिक अनुभव हुए थे. कला दीर्घा में इन पेंटिंग्स को देखते हुए मैं इनके सम्मोहन में खो जाती हूँ. अधिकतर पेंटिंग्स अपने आप में एक पूरी दुनिया हैं...एक गहन भाव जो पेंटिंग्स से रिसता हुआ महसूस होता है...आत्मा को संतृप्त करता हुआ. उन्हें छूने का मन करता है. हर पेंटिंग एक सान्द्र विलयन है. किसी दूसरी दुनिया का दरवाज़ा. कैनवास गीला लगता है. जैसे छूने से रंग उतर आयेंगे जिंदगी में. मैं देर तक सोचती हूँ. अगर कोई मुझे कहे कि ऐसी कहानी लिखो जिसमें शब्द न हों...ऐसी कविता जिसमें लय न हो...ऐसा अनुभव जिसमें कुछ भी पहले जैसा नहीं हो तो मैं क्या करूंगी. क्या कोई नया माध्यम बना पाऊँगी. नया. घबराहट होती है. शब्दों की प्यास लगती है. फिर.
कल मैं कब्रिस्तान गयी थी. पूरी दोपहर कब्रों पर लिखी इबारतें पढ़ती रही. लोगों के जन्म मरण की तारीखें. उनका काम. उनके नाम लिखे संदेसे. सोचती रही कि कैसा होता होगा मरने के बहुत सालों बाद भी जरा सी जमीन पर अपना अधिकार जमाये रखना.
कोई कब्रिस्तान होता है दिल. यूं ही दफन रहते हैं कितने लोग. नाम. तारीखें. इक आधी इबारत कोई. मगर कब्रिस्तान के बारे में डिटेल में फिर कभी. फिलहाल. कोई कहानी है. कुछेक पोस्टकार्ड्स हैं और खोये हुए स्टैम्प्स. इस बार स्याही की बोतल लेकर आई थी कि कम न पड़ जाए. मगर इस बार लिखा नहीं है कुछ. फिर किसी दिन. फिर किसी शाम के रंग में. घुलते. बहते. मिलेंगे खुद से. मुस्कुराएंगे उड़ते हुए हवाईजहाज़ को देख कर. कहेंगे अलविदा. और वाकई जा सकेंगे तुम्हारे दिल के इस कब्रिस्तान से बाहर. अपना कोई वजूद तलाशते हुए.
<इक गहरी साँस. जैसे अटका हुआ है कोई नाम. कोई किरदार. किसी कहानी का अंत>