20 August, 2011

इन्द्रधनुष के उस पार

दीदी बडबडा रही है...'रे टुनकी पगला गयी है क्या रे(हलकी हंसी)...आँखें बंद करके जाने किसके साथ तो नाच रही है, रे लड़की'...नाचने से दिक्कत नहीं है, दिक्कत है की वो आँख बंद किये हुए है और हाथों में किसी को तो पकड़े है. इसका पूरा मतलब है लड़की को कोई  पसंद आया है और उसके बारे में ही सोच रही होगी...और नहीं बिना गाना बजाये ऐसे पूरे घर में नाचते देखा है. 

घर के अहाता में अच्छा हुआ अभी कोई है नहीं...और वो पड़ोसी का लड़का भी ट्यूशन पर गया है तो फिर भी थोड़ा राहत का सांस है इसलिए दीदी परेशान तो हो रही है लेकिन टुनकी को ऐसे नाचते हुए देख कर उसको अच्छा लग रहा है. चिंता यही है की आखिर हुआ क्या है ऐसा...आजकल तो कॉलेज में पढ़ाई से ज्यादा बाकि खटकरम होता है, दीदी को टुनकी का चिंता होता है, उसके हिसाब से टुनकी एकदम भोली है. हालाँकि कई बार लगता है दीदी को की टुनकी को दीन दुनिया का समझ उससे ज्यादा है. उमर में भले छोटी है लेकिन दुनिया तो दीदी से बहुत ज्यादा देखी है...उसका क्या इंटर पास करने के अन्दर शादी हो गया और कितना तो अच्छा हुआ. लड़की सब का शादी बियाह जल्दी हो जाए तो अच्छे रहता है नहीं तो ई लड़की के तरह कभी पूरा अहाता नाचे तो नहीं. 

उ पड़ोसी का लड़का हमेशा इधरे घुरियाते रहता है, एकदम बेसरम है लुच्चा...घर में लड़की रहती है तो क्या दिन भर दीवाले पे लटके रहोगे चमगादड़ जैसन...घर में जवान लड़की बहुत बड़ा जिम्मेदारी होता है, इसका पूरा अहसास होता है दीदी को..लेकिन ये टुनकी तो पता नहीं कौन मिटटी की बनी हुयी है...वैसे तो किसी लड़के के साथ नहीं देखा...इतना भरोसा है दीदी को की टुनकी कोई लड़के उड़के के साथ नहीं घुमती होगी, लेकिन मन में थोड़ा शंका बने रहता है...जमाना ख़राब है न. उसपर टुनकी है भी तो कितनी सुन्दर, दीदी का रंग तो फिर भी थोड़ा गेंहुआ है लेकिन टुनकी तो एकदम जैसे दूध वाले आइसक्रीम रंग की है...दूरे से भकभकाती है...पता नहीं कैसे भगवान इसको इतना रंग दे दिए हैं...कोईयो रंग पहनती है फब जाता है. दीदी परेशान है की कॉलेज में कोई लड़का पीछे न पड़ा हो टुनकी के. वैसे टुनकी बहुत मानती है दीदी को, सब राज भी बतलाती है...लेकिन इधर कुछ दिन से थोड़ा चुप है...दीदी समझी की शायद एक्जाम आ रहा हो कौनो या फिर कोई प्रोग्राम होगा गीत संगीत का...पर आज का ड्रामेबाजी से थोड़ा परेशान हो गयी है दीदी. 

एक तो टुनकी का अंग्रेजी गाना...दीदी को कभी एक्को अक्षर नहीं बुझाता है लेकिन ये तो जनरल नोलेज है की अंग्रेजी गाना बिगड़ने का पहला लच्छन है, लेकिन दीदी का कलेजा नहीं होता है की टुनकी को मना करे...कित्ती तो खुश दिखती है न टुनकी...आँख बोलती है एकदम...गीत भी गाती है शादी बियाह में तो कैसे हुमक के उठाती है कि उसके गले का लोच पर सब्बे ताज्जुब करता है...कैसा गूंजता है. दीदी बहुत सोच रही है आज...ऐसे ही हुलस कर वो भी तो गाती थी, पिंकी फुआ के शादी में तब्बे तो ई देखे थे उसको...कैसे हाथ पकड़ लिया था अकेले में...की पायल तो बड़ी सुन्दर है तुमरा, कहाँ से खरीदी...कैसे भागी थी दीदी वहां से, कोइयो देख लेता तो बड़का बवाल हो जाता. उसके बाद तो ऐसे फटाफट मंगनी हुआ और फिर शादी की किसी को सोचने का भी टाइम नहीं मिला...सब्बे कहता था की उसका लगन बड़ी तेज है...बाउजी ऐसा लड़का कैसे जाने देते. 

दीदी जानती है ये उमर में टुनकी को खुद से प्यार हो रहा है...अपना आवाज, रंग, रूप...सब आँख में बस रहा है...दीदी उसे छुपा के रखना चाहती है, सात परदे में की एक दिन टुनकी को बाहर जा के दुनिया देखनी है, खूब सारा पढ़ना है...वो सब करना है जो दीदी नहीं कर पायी. 

वो हँसते हुए टुनकी का हाथ पकड़ लेती है और दोनों बहनें उस लिपे हुए अहाते में किसी अनहद नाद को सुनते हुए एक ताल में नाचने लगती हैं. इस समय दोनों में कौन ज्यादा सुन्दर है बताना बहुत मुश्किल है.

19 August, 2011

शोर...

जिंदगी के सबसे खुशहाल दिनों में
कहीं, एक नदी सी खिलखिलाती है
सुनहरी धूपों में 

गिरती रहती है मन के किसी गहरे ताल में
झूमती है अपने साथ लेकर सब
नयी पायल की तरह 

कहीं तुम्हारी आँखों में संवरती हूँ तो  
मन का रीता कोना भरने लगता है 
धान के खेत की गंध से 

पल याद बहती है, माँ की लोरी जैसी
पोंछ दिया करती है गीली कोर
टूटता है एक बूँद आँसू

उलीचती हूँ अंजुली भर भर उदासियाँ 
मन का ताल मगर खाली नहीं होता 
मेरी हथेलियाँ छोटी हैं 

लिखने को कितनी तो कहानियां 
सुनाने को कितनी खामोशियाँ
पर, मेरी आवाज़ अच्छी नहीं है 

11 August, 2011

निर्मोही रे

निर्मोही रे
तन जोगी रे
मन का आँगन 
अँधियारा

निर्मोही रे
लहरों डूबे 
सागर ढूंढें 
हरकारा 

निर्मोही रे
आस जगाये
सांस बुझाए 
इकतारा 

निर्मोही रे
रीत निभाए
प्रीत भुलाए
आवारा 

निर्मोही रे
गंगा तीरे  
बहता जाए 
बंजारा

देर रात की कोरी चिट्ठी

बावरा मन
बावरा बन
ढूंढें किसको
जाने कैसे 

रात बाकी
दर्द हल्का
चुप कहानी
गुन रहा 

नींद छपके
चाँद बनके
आँख झीलें
डूब जा

याद लौटी
अंजुरी भर
आचमन कर
हीर गा 

भोर टटका 
राह भटका
रे मुसाफिर
लौट आ 

05 August, 2011

आवारगी...

Lake Geneva, Lausanne
किसी शहर को आप कैसे पहचानते हैं? 
अगर किसी की शहर की आत्मा से मिलना हो तो उसे कैसे ढूँढा जाए...तलाश कहाँ से शुरू की जाए? सड़कों, भीड़-बाजार, रेलवे स्टेशन...इमारतों से...या फिर वहां के लोगों से? किसी नए शहर में आते साथ कभी लगा है की बरसों से बिछड़े किसी दोस्त से मिले हों...या कि बरसों से बिछड़े किसी दुश्मन से. शहर में वो क्या होता है जो पहली सांस में अपना बना लेता है. 

मैं हमेशा शहरों के मिलने को प्यार से कम्पेयर करती हूँ...दिल्ली मेरे लिए पहले प्यार जैसा है...और बंगलोर अरेंज मैरेज के प्यार जैसा. इधर पिछले पंद्रह दिनों में बहुत से और शहर घूमी...कुछ से दोस्ती की...कुछ से इश्क तो कुछ से सदियों पुराना बैर मिटाया...कभी भागते भागते मिली तो कभी ठहर कर उसकी आत्मा को महसूस किया. 

मैंने कभी नहीं सोचा था की इतने कम अंतराल में मैं इतने शहर घूम जाउंगी...पिछले दो हफ़्तों से स्विट्जरलैंड में हूँ. जैसे अचानक से मेरे अन्दर के भटकते यायावर को पंख लग गए हों...एक शहर से दूसरे शहर...से गाँव से बस्ती से पहाड़ से जंगल से नदी से नाव...झील...बर्फ...क्या क्या नहीं घूमी हूँ...यहाँ एक बेहतरीन सी चीज़ होती है...स्विस पास...ये ट्रेन स्टेशन पर मिलने वाला एक जादुई पन्ना होता है...एक बार ये हाथ में आया तो पूरे देश के अन्दर चलने वाली हर चीज़ पर आप मुफ्त सफ़र कर सकते हैं. 

मेरे पास घूमने के लिए बहुत सा समय और मीलों बिछते रास्ते थे...आई-पॉड पर कुछ सबसे पसंदीदा धुनें/गीत/गजलें. लिस्ट में हमेशा पहला गाना होता था 'devil's highway' ये गीत अपूर्व के रस्ते मुझ तक पहुंचा था...तब कहाँ पता था कि कितने हाइवे से गुजरूंगी इस गीत को सुनते हुए और कितने शहरों की हवा में इस गीत के बोल घुल जायेंगे. सुबह कुणाल का ऑफिस शुरू और साथ शुरू मेरी आवारगी...

अनगिन किस्से इकट्ठे हो गए हैं...आज ज्यूरिक में आखिरी दिन है...शाम ढल रही है और चौराहों पर लोग इकठ्ठा हो रहे हैं...मैं जरा अलविदा कह कर आती हूँ. फिर फुर्सत में आपको किस्से सुनाउंगी. 

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