19 June, 2009

विदाई


अरसा बीता घर के आँगन में खेले
शीशम से आती हवाएँ बुलाती हैं बहुत
झूले की डाली पर टंगी रह गई हैं कुछ कहानियाँ

उस मिट्टी में जड़ें गहराती हैं
माँ के साथ रोपे गए नारियल की
सुना है कि पानी बहुत मीठा है उसका

हर मौसम कई बार बिछा है फूलों का कालीन
मेरे कमरे को हर बीती शाम महका देती है कामिनी
मेरे कहीं नहीं होने के बावजूद भी

आम के मंजर मेरे ख्वाबों में आते हैं
बौरायी सी सुबह संग लिए
कोयल कूकती रहती है फ़िर सारा दिन

हर साल आता है रक्षाबंधन
बस भाई नहीं आता परदेस में मिलने
यादें आती हैं, घर भर में उसको दौड़ा देने वालीं

नहीं जागती हूँ अब भोर के साढ़े तीन बजे
पापा की लायी मिठाई खाने के लिए
नींद से उठ कर बिना मुंह धोये

घर से, शहर से....यादों के हर मंजर से
मेरी विदाई हो गई है...

15 June, 2009

चंद अल्फाज़...



उसे उसकी हदें मालूम थीं
मुझे मेरी हदें मालूम थीं
जिन्दगी कमबख्त...एक लम्हे में सिमट गई

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उसकी मंजिलें और थीं
मेरे मंजिलें कहीं और थी
कमबख्त गलियां...जाने कब पैरों से लिपट गयीं
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13 June, 2009

किस्सा ऐ किताब...दिल्ली से बंगलोर

दिल्ली की यूँ तो बहुत सी बातें याद आती रहती हैं, पर जिस चीज़ के लिए दिल सबसे ज्यादा मचलता है, वो है सीपी में घूमते हुए किताबें खरीदना। जब भी किताबों का स्टॉक ख़तम हो जाता, हम सीपी की तरफ़ निकल पड़ते, फ़िर से खूब सारी किताबें खरीदने के लिए। और सैलरी आने के बाद तो सीपी जाना जैसे एक नियम सा हो गया था, जैसे कुछ लोग मंगलवार को हनुमान मन्दिर जाते हैं, हम महीने की पहली इतवार सीपी पहुँच जाते थे।

कितनी ही गुलज़ार की किताबें, कुछ दुष्यंत के संकलन और जाने कितने नामी गिरामी शायरों की किताबें खरीदते रहते थे...कहानियाँ भी बहुत पढ़ी थी यूँ ही खरीद कर। कई ऐसे भी शायरों के कलाम हाथ में आए जिनका कभी नाम भी नहीं सुना था पर पढने के बाद एक अजीब सा सुकून और अनजाना सा रिश्ता जुड़ते गया उनके साथ।

और देर शाम हरी घास पर बैठ कर जाने कितने सपने देखे...कितने सूरजों को डूबते देखा। मूंग की वादियाँ हरी चटनी के साथ खाएं...दोस्तों के साथ गप्पें मारीं... ६१५ पकड़ कर हॉस्टल आना बड़ा सुकून देता था, चाहे हाथ कितना भी दर्द कर जाएँ...किताबों का भारीपन कभी सालता नहीं था।

बंगलोर आने के बाद यही हिन्दी किताबें कहीं नहीं मिल रही थीं और हम अपना रोना सबके सामने रो चुके थे...फुरसतिया जी की एक पोस्ट पढ़ कर प्रकाशन के मेंबर बनने के बारे में भी सोच रहे थे, पर आलस के मारे apply ही नहीं किए। फ़िर ऑफिस में एक काम आया...बंगलोर के पुराने लैंडमार्क में एक है, गंगाराम बुक स्टोर, कहाँ कई पीढियां किताबें खरीदती और पढ़ती रही हैं। अब क्रॉसवर्ड और लैंडमार्क जैसी मॉल में खुले बड़े स्टोर्स के कारण गंगाराम जैसे पारंपरिक बुक स्टोर्स में कम लोग जाते हैं। और आजकल MG रोड पर मेट्रो का काम चल रहा है जो काफ़ी दिनों तक चलने वाला है...इस कारण स्टोर को कहीं और शिफ्ट करना होगा। हम इसी सिलसिले में काम कर रहे थे तो मैंने सोचा की एक बार जा के देख लिया जाए कैसी जगह है।

तो पिछले सन्डे हम abhiyaan par निकल पड़े, दिल में ये उम्मीद भी थी की शायद कहीं हिन्दी की किताबें मिल जायें...क्योंकि अगर यहाँ नहीं मिली तो पूरे बंगलोर में कहीं मिलने की उम्मीद नहीं है। शाम के पाँच बज रहे होंगे, पर स्टोर बंद था...शायद कुछ काम रहा हो शिफ्टिंग वगैरह का...ham बगल वाले bookstore में चले गये...higgin bothams naam ka store tha...कुछ कुछ कॉलेज लाइब्रेरी की याद आ रही थी वहां किताबें देख कर...

और हमें आख़िर वो मिल ही गया जो इतने दिनों से ढूंढ रहे थे बंगलोर में...एक रैक पर खूब सारी हिन्दी किताबें, मैंने बहुत सारी खरीद लीं...अब उनके पास जिनता है उसमें मेरे खरीदने लायक कुछ नहीं बहका है...पर मेरे ख्याल से अगर मेरे जैसी लड़की हर वीकएंड जा के परेशां करना शुरू कर दे तो वो अपने हिन्दी किताबों का संकलन भी बढाएँगे। तो देर किस बात की है...बंगलोर में जो भी हैं, higgin bothams पहुँच जाइए और हिन्दी की किताबें खरीद लीजिये...हमारे जैसे कुछ और खुराफाती लोग इकट्ठे हो जाएँ तो यहाँ आया हुआ हिन्दी किताबों का अकाल जरूर समाप्त हो जाएगा :)

हमें यकीं हो गया है ढूँढने से कुछ भी मिल सकता है :)

10 June, 2009

२६ कि उमर...१६ का दिल( काश ६२ कि अकल भी होती :) )

२५ साल से २६ साल का होने में कितना अन्तर होता है? पूरी जिंदगी के हिसाब से देखें तो शायद कुछ भी नहीं, ये भी बाकी सालों की तरह एक उम्र की गिनती है। मगर महसूस होता है, की जिंदगी अब एक अलग राह पर चल पड़ी है।

मैंने जाने कब तो तय कर लिया था...की २५ पर बचपन को अलविदा कह दूँगी...यूँ तो बचपन उसी दिन विदा हो गया था जब माँ छोड़ कर गई थी...पर आज जब मैं २६ साल की हो गई तो वाकई लगा कि अब बचपन विदा ले चुका है।

और आप मानें या न मानें, हमें लगता है कि हम अब थोड़े ज्ञानी हो गए हैं :) (सुबह ताऊ की पोस्ट भी तो पढ़ी थी)।
जिंदगी बहुत कुछ सिखा देती है और मुझे लगता है कि जब से ब्लॉग पर लिखना और पढ़ना नियमित किया है, बहुत कुछ जानने सीखने को मिला है। ब्लॉग अक्सर लोग दिल से लिखते हैं, बिना काट छाँट के इसलिए ब्लॉग पढ़ना बिना किसी को जाने एक रिश्ता कायम करने जैसा है...आप किसी की खुशी, गम, जन्मदिन, बरसी सबमें शामिल होते हैं...कोई आपको अपना समझ कर लिखता है...आभासी ही सही, पर ब्लॉग के लोग भी परिवार जैसे हो जाते हैं। मैं कुछ ही लोगों से बात करती हूँ...पर रिश्ता तो उन सबसे है जिनका ब्लॉग मैं पढ़ती हूँ, या वो मेरा ब्लॉग पढ़ते हैं।

जिंदगी में ज्यादा जोड़ घटाव नहीं किया, लगा कि यही सब करती रही तो जीने का वक्त कहाँ मिलेगा...पर आँखें बंद कर के जिंदगी के कुछ बेहतरीन लम्हों को यार करती हूँ तो लगता है...मैंने जिंदगी जी है और बेहद खूबसूरती से जी है। शिकायत है तो बस खुदा से, बस इतनी छोटी सी शिकायत कि मेरे साथ मेरी खुशियों में मेरी माँ क्यों नहीं है...अभी जब मेरी जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण दौर शुरू हुआ है तो लगता है कि अपनी खुशियों को बाँटने के लिए उसको होना चाहिए था मेरे साथ।

पाने खोने का अजीब गणित होता है भगवान् का...इसके पचड़े में पढ़ने से कोई फायदा नहीं है...पिछले साल कुछ लोगों से फ़ोन पर बात हुयी मेरी, गाहे बगाहे होती भी रहती है, जैसे पीडी, कुश, डॉक्टर अनुराग, अपने फुरसतिया जी, ताऊ...और कुछ बेहतरीन लोगों से बात हुयी मेल पर...बेजी, सुब्रमनियम जी, गौतम जी, महेन जी...लगा कि अपने जैसे लोगों का दायरा उतना भी छोटा नहीं है जितना मैं हमेशा समझती आई थी। लम्हों के इस सफर में अगर घड़ी भर को भी कुछ दिल को छू जाता है तो अक्सर घंटों तक होठों पर मुस्कराहट रहती है। आप सब का शुक्रिया...कहीं कहीं आपको पढ़कर, समझ कर जिंदगी थोड़ी आसान और खूबसूरत महसूस हुयी है।



सुबह आँखें खोली मैंने
आसमान रंगों से लिख रहा था
जन्मदिन मुबारक...

हवायें गुनगुना रही थीं
सूरज थिरक रहा था उनकी धुन पर
खिड़की पर खड़ा था एक बादल
बाहर घूमने की गुज़ारिश लिए

इतरा के ओढ़ा मैंने
खुशबू में भीगा दुपट्टा
हाथों में पहनी इन्द्रधनुषी चूड़ियाँ
बालों को छोड़ दिया ऐसे ही बेलौस

ऑफिस वाले खींच कर
ले गए पार्टी मनाने
काम को बंक मारा
(भगवान् ऐसा बॉस सबको दे ;) )

तभी खिड़की से आया
कुश का बधाइयों का टोकरा
और अनुराग जी का भेजा बादल
दोनों के कहा...बाहर घूम के आओ

प्लान बन गया शाम को
लॉन्ग ड्राइव पर जाने का
थोड़ी आइसक्रीम, थोड़ा भुट्टा खाने का
और थोड़ा ज्यादा वक्त 'उनके' साथ बिताने का

२६ की उमर में आँखें ऐसे चमक रही है
जैसे १६ में चमकती थी
जिंदगी ने देखा मुस्कान को
काला टीका लगा के कहा "चश्मे बद्दूर"

07 June, 2009

ऐसा भी एक दिन ऑफिस का...


कमबख्त बादल
यादों का एक गट्ठर फेंक कर चल दिया है
मेरी ऑफिस टेबल पर

रिसने लगा है किसी शाम का भीगा आसमान
अफरा तफरी मच गई है
बिखरे हुए कागज़ातों में

डेडलाईनें हंटर लिए हड़का रही हैं
कुछ नज्में सहम कर कोने में खड़ी हैं
डस्टबिन ढक्कन की ओट से झांक रहा है

कम्प्यूटर भी आज बगावत के मूड में हैं
एक तस्वीर पर हैंग कर गया है
कलम-कॉपी काना फूसी कर रहे हैं

तभी अचानक खुल गई गाँठ
कितनी जिद्दी यादें भागा-दौड़ी करने लगीं
पूरा ऑफिस सर पर उठा लिया

मेरी यादों की हमशक्लें
सबकी दराजों में बंद थीं
सारी यादें हँसने लगी हैं बचपन वाली हँसी

एक क्षण में बाहर आ गया है
हमारे अन्दर का शैतान बच्चा
और हम सबने मिलकर...ऑफिस बंक कर दिया :)

04 June, 2009

इश्क की उम्र...



सदियों पुराने खंडहरों में
अक्सर अपनी रूह के हिस्से मिल जाते हैं
दीवारों में चिने हुए, चट्टानों पर खुदे हुए

कब के बिसराए हुए गीत
हवा की सरसराहट पर चले आते हैं
और धूल के गुबार में थिरकने लगते हैं


उभरने लगते हैं कुछ पुराने रंग
यादों को छेड़ते हैं अनजान चेहरे
टीसने लगता है जाने किस जन्म का इश्क

उजाड़ मंदिरों में होने लगता है शंखनाद
याद आने लगती हैं दुआएँ मज़ारों पर
साथ बैठा महसूस होता है इश्वर सा कोई

महसूस करती हूँ कि एक जिंदगी से
कहीं ज्यादा होती है इश्क की उम्र
तुमसे बिछड़ने का दर्द कुछ कम हो जाता है

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