17 December, 2018

लौट आते चूम कर, दरगाह की चौखट, और शहज़ादे की स्याह उँगलियाँ।

ये बहुत साल पहले की बात है। ज़िंदा शब्दों के जादू और तिलिस्म में पहली बार गिरफ़्तार होने के समय की। इसके पहले हमने बेजान काग़ज़ पर छपे क़िस्से पढ़े थे। फिर भी ऐसा कभी ना हुआ था कि किसी लेखक से प्रेम हो जाए। कोई बहुत अच्छा लगा भी कभी तो ज़िंदगी से बहुत दूर जा चुका होता था।

उन दिनों हमारी दुनिया ही नयी नयी थी। बहुत सारा कुछ पढ़ना लिखना जारी था। लाइब्रेरी में कई तल्ले थे और इश्क़, दोस्ती और आवारगी के बाद भी हमारे पास पढ़ने के लिए बहुत वक़्त बच जाता था। मुझे जब पहली बार उन शब्दों से इश्क़ हुआ तो उनका कोई चेहरा नहीं था। यूँ भी वे शब्द ऐसे मायावी थे कि पढ़ते हुए लगता कि मैंने ही लिखे हैं। दोस्तों में बड़ी सरगर्मी थी। सब जानना चाहते थे इन शब्दों को लिखने वाले के हाथ कैसे हैं। उसका चेहरा कैसा, हँसी कैसी और उसकी उदासियाँ किस रंग की हैं। मैंने कभी नहीं जानने की कोशिश की। मेरे लिए वो काला जादू था। रात के स्याह अंधेरे से मेरे ही रूह के काले क़िस्से लिखता हुआ। वो मेरा अपना था कि उसका कोई चेहरा नहीं था। 

एक दूर से खींची हुयी तस्वीर थी जिसमें उसका चेहरा नहीं दिखता था। फिर एक रोज़ बड़ा हंगामा हुआ कि बात होते होते मुझ तक पहुँची कि किसी ने शब्दों के पीछे का चेहरा देखा है। उसने कहा मुझसे कि ये तिलिस्म रचने वाला कोई अय्यार नहीं, हमारे जैसा कोई शख़्स है। मैंने उस रोज़ नहीं माना कि वो हमारे जैसा कोई है। उसकी तस्वीर देखी। अच्छा लगा। वो भी अच्छा लगा, उसकी तस्वीर भी। फिर दिन, महीने, साल बीतते रहे, उसकी कई तस्वीरें आयीं। मैंने कई बार देखा मगर ख़्वाहिश बाक़ी रही कि उसकी एक तस्वीर मैं उतार सकूँ कभी। 

उससे पहली बार मिली तो उसके हाथों की तस्वीर उतारी। वो कुछ लिख रहा था। उसके हाथ में हरे रंग की क़लम थी। उसकी उँगलियाँ लम्बी, पतली, साँवली थीं। वो ख़ुद, क़यामत था। उसे देख कर वाक़ई मर जाने को जी चाहता था। मैंने जो पहली तस्वीरें उतारीं उनमें वो इतना ख़ूबसूरत था जितने उसके रचे गए किरदार। इतनी ख़ूबसूरत तस्वीरें कि डिलीट कर दीं। उन्हें देख कर ऐसा लगता था, तस्वीर खींचने वाली उस शब्दों के शहज़ादे से इश्क़ करती है। 

यूँ तो मेरे लिए ज़िंदा चीज़ों की तस्वीर खींचना मुश्किल है। इंसानों की तो और भी ज़्यादा। उसके ऊपर कोई ऐसा जिसके शब्दों के तिलिस्म में आपने सालों बिताए हों… नामुमकिन सा ही कुछ। कैमरा से देखती तो भूल जाने का मन करता कि क्लिक करना है। उसे देखते रहने का मन करता। देर तक धूप में। कोहरे में। उसपर सफ़ेद कुछ ज़्यादा खिलता। कोरे पन्ने जैसा। वो सफ़ेद पहनता तो गुनाह करने को जी चाहता। दरगाह में स्त्रियों को अंदर जाने की इजाज़त नहीं। हम दरगाह की चौखट चूम कर लौट आते और शहज़ादे की स्याह उँगलियाँ। हमारी ज़ुबान पर उनका नाम होता। 

वो रूह है। उसे तस्वीर में क़ैद करना मुश्किल है। बहुत साल पहले मैं सिर्फ़ फ़ोटो खींचना चाहती थी। मुझे लगता था रोशनी सही हुयी तो फ़्रेम में कैप्चर हो जाएँगी उसकी स्याह उँगलियाँ... उसकी पसंद की क़लम... उसके शहर का मौसम। लेकिन कैमरा में इतनी जान नहीं कि ज़िंदा रख सके तस्वीरों को। फिर जब ऐसी ख़्वाहिशें होती थीं तो Monet और पिकासो की पेंटिंग्स कहाँ देखी थीं। ना जैक्सन पौलक को जानती थी कि समझ पाऊँ, रूह को पेंटिंग में कैप्चर किया जाता है। पौलक को पहली बार देखा था तो वो अपनी एक पेंटिंग के सामने खड़ा था। उसने जींस पहन रखी थी जिसकी पीछे वाली जेब में एक हथौड़ी थी। उसकी पेंटिंग्स में कहीं कहीं सिगरेट के टुकड़े भी हैं। खोजने से मिलते हैं। बहुत ज़िंदा होती है उसकी पेंटिंग। एकदम तुम्हारे शब्दों जैसी। छुओ तो आज भी आत्मा को दुःख होता है। 

मैं उसकी पेंटिंग बनाना चाहती हूँ अब। एक लकड़ी की नक्काशीदार मेज़ हो। किनारे पर सफ़ेद इन्ले वर्क। खिड़की के पास रखी हो और खिड़की के बाहर धूप हो। वो मेज़ पर बैठ कर काग़ज़ पर कुछ लिख रहा हो। दाएँ हाथ में क़लम और ऊँगली में फ़िरोज़ी स्याही लगी हो कि क़लम मेरी है। उसे किसी भी क़लम से फ़र्क़ नहीं पड़ता। बाएँ हाथ में सिगरेट, धुँधलाता हुआ काग़ज़ का पन्ना। मैं चाहती हूँ कि एक ही पेंटिंग में आ जाए उसका सफ़ेद कुर्ता, उसका स्याह दिल, उसके रेत के शहर, उसके सपनों का समंदर, उसकी कहानियों वाली प्रेमिकाएँ भी। 

इस चाह में और कुछ नहीं, बात इतनी सी है। किसी ख़ूबसूरत शहर का स्टूडीओ हो जिसमें अच्छी धूप आए। जितनी देर भर में उसकी पेंटिंग बने, वो मेरी नज़रों के सामने रहे। मेरा रहे। बस। शब्दों से तिलिस्म रचने वाले को रंगों में रख सकूँ, ये ख़याल कितना विम्ज़िकल है...सोचना भी जैसे मुश्किल हो। 'वे दिन' में उसका एक शब्द है पसंदीदा, 'विविड'। वैसी ही कोई विविड पेंटिंग हो। उसके हाथ देखो तो कविता लिखने को जी चाहे। या कि प्रेम पत्र लिखने को। 

और काग़ज़ कोरा छोड़, देर रात अपनी कलाइयाँ सूँघते हुए, उसके नाम के अत्तर को याद करने को भी तो। वो जो छूने में ख़्वाब जैसा हो, उसके जैसा, कोई, वहम। 

2 comments:

  1. जय मां हाटेशवरी...
    अनेक रचनाएं पढ़ी...
    पर आप की रचना पसंद आयी...
    हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
    इस लिये आप की रचना...
    दिनांक 18/12/2018
    को
    पांच लिंकों का आनंद
    पर लिंक की गयी है...
    इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।

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  2. जबरदस्त रचनात्मकता दमदार लेखन अप्रतिम भावाभिव्यक्ति

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