29 November, 2012

जिसके खो जाने का डर तारी है...

मुझे नहीं मालूम कि ख़ास मेरे बॉस ने मुझे रिकोर्डिंग स्टूडियो क्यूँ जाने को कहा था...शाम के कुछ पहले का वक़्त था...स्टूडियो में एक बेहद अच्छे म्यूजिक डायरेक्टर आये हुए थे. उन्होंने बड़े लोगों के साथ रिकोर्डिंग की थी...कुछ उसने कहा कि चली जाओ, थोड़ा तुम भी गा देना...एक और आवाज़ जुड़ जायेगी...बस मस्ती करो थोड़ा ज्यादा सीरियसली मत लो.

ऑफिस से स्टूडियो बहुत पास नहीं था पर बैंगलोर में मुझे ऑटो वाले कहीं ले नहीं जाते हैं...पैदल चली ऑफिस से. रास्ते का थोड़ा बहुत आईडिया था...और मैं कभी रास्ते नहीं भटकती...सो मैं रास्ता भटक गयी. नेहा से पूछा कि उसे खाने को कुछ चाहिए तो उसने कहा कुछ भी लेते आना...उसके लिए एक डेरी मिल्क उठायी और अपने लिए पानी. जाते हुए गाने सुन रही थी...एक दोस्त को फोन भी किया था कि उसका बर्थडे था. बहुत दिनों बाद शाम देखने को मिली थी...ढलती हुयी शाम.

रिकोर्डिंग स्टूडियो बेसमेंट में है...स्टूडियो का पहला दरवाज़ा खोलते ही लगा जैसे समय में बहुत पीछे चली गयी हूँ...दोनों दरवाज़ों के बीच एक वैक्यूम ज़ोन होता है...ताकि कमरा पूरी तरह साउंड प्रूफ हो...ये बीच का हिस्सा...जैसे वर्तमान है...अन्दर का दरवाज़ा अतीत में खुलता था और बाहर का दरवाज़ा भविष्य में. पहली बार आकाशवाणी पटना के स्टूडियो गयी थी तो एक ख़ास गंध साथ में लिपटी चली आई थी...इस गंध में इको नहीं होता था...कभी कभी मुझे लगता है कि गंध के साथ शब्द का ख़ासा रिश्ता होता है...स्टूडियो की गंध में कोई आवाज़ नहीं होती...इको नहीं होता. दीवारें जो अक्यूट एंगल पर मिलती हैं...वाकई क्यूट होती हैं. स्टूडियो की मोटी दीवारें...उनपर लगे गत्ते के हिस्से...कार्डबोर्ड...भारी परदे. वहां ठहरी हुयी गंध आती है...जैसे जब से रेडियो स्टेशन बना था तब से कही गयी हर आवाज़ वहीँ ठहरी हुयी है.

स्टूडियो में मेरे पहुँचते रिकोर्डिंग लगभग ख़त्म हो गयी थी...ऑडियो की मिक्सिंग होने में वक़्त लगता तो सिर्फ क्लीन करने के बाद बेस ट्रैक के लिए रुकना था. कितने दिन बाद कोंसोल देखा था...नोट्रे डैम का रवि-भारती याद आया...आईआईएमसी का 'अपना रेडियो' भी.

कुछ देर रुकने के बाद लगा कि बहुत देरी होगी...फिर सुबह की शूट भी थी आठ बजे से...तो घर के लिए निकल पड़ी. मेरी थिंग्स टू डू की लिस्ट में एक चीज़ थी फ़्लाइओवेर पर पैदल चलना. यूँ तो सड़क पर किनारे चलना चाहिए...लेकिन डोमलूर फ़्लाइओवेर के बीचोबीच मीडियन है. जैसा कि आमतौर पर होता है...आम तौर पर करने वाला कोई काम हम करते नहीं है. तो मीडियन पर चल रहे थे. गाने सुनते हुए...रात शुरू हो चुकी थी...दोनों तरफ से तेजी से भागती हुयी गाड़ियाँ...पूरी रौशनी आँखों पर पड़ती हुयी...और फिर बीच फ़्लाइओवेर पर फिर से सब पौज...सब ठहरा हुआ...नीचे गाड़ियाँ भागती हुयीं...ऊपर शहर दौड़ता हुआ...होर्डिंग पर मुस्कुराते लोग...भागते लोग...और ठहरी हुयी बस मैं या फिर आसमान में अटका हुआ चाँद. याद आती है शायद IQ84 में पढ़ी हुयी कोई लाइन...It's just a paper moon. फ्लाईओवर बहुत से लोग क्रोस करते होंगे...मगर सिर्फ फ्लेवर क्रोस करने पर इतना खुश हो जाना...कभी कभी सोचती हूँ कि छोटी छोटी चीज़ों पर खुश हो जाना कितना जरूरी है जिंदगी में कि बात चाहे सिर्फ पहली बार फ़्लाइओवेर क्रोस करने की ही क्यूँ न हो.

शूट पर इतने लोगों से बात की, इतने लोगों को देखा...इतने लोगों को रिकोर्ड किया कि शाम होते होते मिक्स सा कोई कोलाज बन गया...बेहद व्यस्त दिन रहा...भागना, दौड़ना, लोगों को शूट के लिए तैयार करना...शुरुआत कुछ ऐसे करना कि बस कैमरा के सामने खड़े होकर मुस्कुराना है और वहां से शुरू करके आम लोगों से गाने गवाना, डांस के स्टेप्स करना और कैमरे की ओर देख कर मुस्कुराना...ये सब एक साथ करवा लेना...डाइरेक्टर...कैमरामैन...नेहा पहली बार डाइरेक्ट कर रही थी...और मैं पहली बार देख रही थी. वैसे तो शूट पहले किया है पर इतने चेहरों में कोई एक चेहरा अलग सा दिखा. सोच रही थी कि ऐसा क्यूँ होता है कि कोई शख्स बड़ा जाना-पहचाना सा लगता है.

रात को सपना देखा कि कोई है...ठीक ठीक याद नहीं...पर कोई दोस्त है...बहुत करीबी...मुझसे मिलने आया है...मैं उसे अपने हेडफोन्स देती हूँ कि देखो मैं कितना अच्छा गाना सुन रही हूँ...पर वो कहता है कि उसके साथ बस कुछ देर चुप -चाप बैठूं...मैं चौथे महले की सीढ़ियों पर बैठी हूँ उसके साथ...कितनी देर, बिना कुछ कहे. फिर अगला दिन होता है और मुझे पता चलता है कि उसे फांसी हुयी है. इतने में नींद खुलती है...कितना भी याद करती हूँ याद नहीं आता कि सपने में कौन था...घबराहट लगती है...लोगों को खो देने का डर. कारण खोजती हूँ तो पाती हूँ कि कल अचानक से शूट के दौरान ही एक कलीग के घर से फोन आया था कि उसकी दादी को हार्ट अटैक आया है और वो घबरा के हॉस्पिटल भागी थी. हॉस्पिटल की इमरजेंसी और ऐसी चीज़ें दिमाग में रह गयी होंगी शायद.
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उसके खो जाने का डर तारी है...और मालूम भी नहीं है कि वो है कौन जो खो गया है.
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4 comments:

  1. spne kabhi behad uljhaa dete hai..agar adhore yaad rah jaaye to jyaada

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  2. जुलाहा जैसे बुनता है चादर ...ऐसे ही बुनती हैं आप लेखनी मे आलेख .....जहां आप जातीं हैं पाठक भी आप के साथ साथ होता है .......दमदार लेखनी है आपकी .....
    बहुत सुंदर आलेख ....कई बार पढ़ा .....

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  3. सपना जब सामने दिखता है तो ऐसा ही लगता है..

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  4. :( kavita banti zindagi, choti choti baatein, kabhi na khatam hone waali conversations khud ke saath

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