लकड़ियाँ हैं...आम सी लकड़ियाँ...नन्हे से बिरवे में उगीं, जवानी के दिनों में आसमान का सीना चूमा...हवाओं से यारी की...एक एक कोशिका में जीवन था. सेल्फ डिपेंडेंट...खुद के लिए खाना बनाने में सक्षम एक विशाल पेड़ बना था उनसे...गहरे जमीन में जाती जड़ें पानी का कतरा खोजती थीं...हर शाख तक पहुंचाती थीं. जैसे जैसे पेड़ की उम्र होती थी, इंसानी झुर्रियों जैसी परत दर परत उसका बाहरी हिस्सा बनते जाता था और नाखूनों जैसा मृत हो जाता था.
लकड़ियाँ ही थीं जब तक कि उन्हें काट कर खम्बे में परिवर्तित कर दिया गया...उनका नसीब कुछ भी हो सकता था...कुछ लकड़ियाँ लोगों की चौखटों में लगी...कुछ छकड़ों में...कुछ मंदिर, गिरजाघरों में...और कुछ बदनसीब लकड़ियाँ ऐसी भी होती थीं जिनसे फांसी का तख्ता बनाया जाता था. जिंदगी और मौत के बीच को महसूसने वाली लकड़ियाँ...कलेजा काठ का होता था उनका...पर कई बार होता था कि तख्ते में कच्ची लकड़ियाँ इस्तेमाल हो जाती थीं. इन लकड़ियों में चंद आखिरी सांसें रह जाती थीं. सहमी हुयीं. कई बार ऐसा भी होता था की बागियों को जिन्दा पेड़ों पर फांसी दे दी जाती थी...उन पेड़ों के पत्ते सहम जाते थे...कोटरों में रहने वाले पक्षी दूसरी जगह बसेरा ढूंढ लेते थे.
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मैं अब लिख नहीं सकती. मैं अब लिखना नहीं चाहती. सोचती रहती हूँ कि इन दोनों वाक्यों में से कौन सा सही है. मैं पढ़ नहीं सकती. कितनी तरह की किताबें पढ़ने की कोशिश की पर पूरी नहीं कर पायी. फिल्में भी नहीं देख पाती हूँ. गाने भी नहीं सुन पाती हूँ. बैंगलोर का मौसम अजीब हो रखा है...नवम्बर में बारिश...
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कुछ तो खींचे जिंदगी की ओर...ऐसे में क्या मिलूं किसी से और क्या बातें करूं...हमेशा की आदत...खुश रहती हूँ तो लोगों से मिलती हूँ...उदास रहती हूँ तो बंद कमरा. मगर अब ऐसा क्यूँ लगता है कि दीवारों को भी मेरी बातें सुनने में कोई दिलचस्पी नहीं है.
अजीब अजीब ख्याल आते हैं. किस किस उम्र में जा के लौट आती हूँ...किसी से प्यार करो तो सवाल ये नहीं होता है कि वो भी आपसे प्यार करता है या नहीं...सवाल सिर्फ एक होता है...उसकी दुनिया में आप हो भी या नहीं. सिर्फ इतना...डू यु इवन एक्जिस्ट...इन द सेम वर्ल्ड...या फिर आपकी एकदम अलग अलग दुनिया है. दिन भर में उसे कभी फुर्सत भी मिलती है आपके बारे में सोचने की. व्यस्त होने के कैसे पैरामीटर हैं.
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इसे जीना नहीं कहते हैं...जिंदगी जब तक एक ड्रग की तरह धमनियों में उत्तेजना पैदा नहीं करे जिंदगी नहीं होती...बहुत ख़ुशी और बहुत गम के बीच का सी-सॉ झूलते हुए बीच की स्थिति में जीना कभी आया ही नहीं. अभी सब ठहरा हुआ है. कहीं कुछ आगे नहीं बढ़ता...कहीं कुछ भूलता नहीं...कहीं कुछ याद नहीं आता...कहीं बारिश नहीं रूकती...कहीं नदी बाँध तोड़ कर नहीं बहती...कहीं मैं कह नहीं पाती हूँ तुमसे ही कि प्यार है कितना...कहीं से खुद को खोज कर ला नहीं सकती हूँ. नफरतों के ऐसे कांटे उग आये हैं कि लहूलुहान हुए बैठे हैं.
खुद से नफरत करने की भी एक हद होती है...कमसे कम इतनी तो होनी ही चाहिए कि उफनती गंगा में कूद कर जान दे सकें...इतनी होनी चाहिए कि ब्लेड से धमनियां काटते हुए सोचना न पड़े...इतनी होनी चाहिए कि तेज़ रफ़्तार आती हुयी किसी बस के आगे खुद को फ़ेंक सकें...इतनी होनी चाहिए कि किसी डॉक्टर को सही सही सिम्पटम्स बता सकें कि नींद नहीं आती...नींद की गोलियों को पानी में घोल कर पी जाने जितनी नफरत तो होनी ही चाहिए खुद से...इससे कम नफरत की भी तो क्या की...विरक्त भाव से जीना भी कोई जीना है.
आखिर कब तक काले साए मेरा पीछा करेंगे...हर रोज़ देखती हूँ, हर मोड़ पर चेहरा...हर खिड़की में आँखें...रिव्यू मिरर में कोई इंतज़ार करता हुआ. इतनी बार धोखा तो नहीं हो सकता ना...कोरी पड़ी कोपियों में कितनी चिट्ठियां लिख के फाड़ डाले कोई...कितना आग लगा दें कि काफी हो. क्यूँ न मर ही जाए एक बार इंसान कि रोज़ रोज़ का टंटा ख़त्म हो.
या खुदा! कहाँ रखी है क़यामत...आँखों से लहू बरसता है...अब तो भेज जलजले कि इस कमबख्त जिंदगी से पीछा छूटे...नहीं चाहिए मुझे गुनाहों की माफ़ी...नहीं चाहिए उम्रकैद...कहीं कोई सुनवाई घर है तेरे यहाँ तो भेज मौत के फ़रिश्ते को...कि चाहे फ़ेंक दे मुझे दोज़ख में...कहीं...खुदा...कितनी उम्र बची है मेरी?
लकड़ियाँ ही थीं जब तक कि उन्हें काट कर खम्बे में परिवर्तित कर दिया गया...उनका नसीब कुछ भी हो सकता था...कुछ लकड़ियाँ लोगों की चौखटों में लगी...कुछ छकड़ों में...कुछ मंदिर, गिरजाघरों में...और कुछ बदनसीब लकड़ियाँ ऐसी भी होती थीं जिनसे फांसी का तख्ता बनाया जाता था. जिंदगी और मौत के बीच को महसूसने वाली लकड़ियाँ...कलेजा काठ का होता था उनका...पर कई बार होता था कि तख्ते में कच्ची लकड़ियाँ इस्तेमाल हो जाती थीं. इन लकड़ियों में चंद आखिरी सांसें रह जाती थीं. सहमी हुयीं. कई बार ऐसा भी होता था की बागियों को जिन्दा पेड़ों पर फांसी दे दी जाती थी...उन पेड़ों के पत्ते सहम जाते थे...कोटरों में रहने वाले पक्षी दूसरी जगह बसेरा ढूंढ लेते थे.
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मैं अब लिख नहीं सकती. मैं अब लिखना नहीं चाहती. सोचती रहती हूँ कि इन दोनों वाक्यों में से कौन सा सही है. मैं पढ़ नहीं सकती. कितनी तरह की किताबें पढ़ने की कोशिश की पर पूरी नहीं कर पायी. फिल्में भी नहीं देख पाती हूँ. गाने भी नहीं सुन पाती हूँ. बैंगलोर का मौसम अजीब हो रखा है...नवम्बर में बारिश...
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कुछ तो खींचे जिंदगी की ओर...ऐसे में क्या मिलूं किसी से और क्या बातें करूं...हमेशा की आदत...खुश रहती हूँ तो लोगों से मिलती हूँ...उदास रहती हूँ तो बंद कमरा. मगर अब ऐसा क्यूँ लगता है कि दीवारों को भी मेरी बातें सुनने में कोई दिलचस्पी नहीं है.
अजीब अजीब ख्याल आते हैं. किस किस उम्र में जा के लौट आती हूँ...किसी से प्यार करो तो सवाल ये नहीं होता है कि वो भी आपसे प्यार करता है या नहीं...सवाल सिर्फ एक होता है...उसकी दुनिया में आप हो भी या नहीं. सिर्फ इतना...डू यु इवन एक्जिस्ट...इन द सेम वर्ल्ड...या फिर आपकी एकदम अलग अलग दुनिया है. दिन भर में उसे कभी फुर्सत भी मिलती है आपके बारे में सोचने की. व्यस्त होने के कैसे पैरामीटर हैं.
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इसे जीना नहीं कहते हैं...जिंदगी जब तक एक ड्रग की तरह धमनियों में उत्तेजना पैदा नहीं करे जिंदगी नहीं होती...बहुत ख़ुशी और बहुत गम के बीच का सी-सॉ झूलते हुए बीच की स्थिति में जीना कभी आया ही नहीं. अभी सब ठहरा हुआ है. कहीं कुछ आगे नहीं बढ़ता...कहीं कुछ भूलता नहीं...कहीं कुछ याद नहीं आता...कहीं बारिश नहीं रूकती...कहीं नदी बाँध तोड़ कर नहीं बहती...कहीं मैं कह नहीं पाती हूँ तुमसे ही कि प्यार है कितना...कहीं से खुद को खोज कर ला नहीं सकती हूँ. नफरतों के ऐसे कांटे उग आये हैं कि लहूलुहान हुए बैठे हैं.
खुद से नफरत करने की भी एक हद होती है...कमसे कम इतनी तो होनी ही चाहिए कि उफनती गंगा में कूद कर जान दे सकें...इतनी होनी चाहिए कि ब्लेड से धमनियां काटते हुए सोचना न पड़े...इतनी होनी चाहिए कि तेज़ रफ़्तार आती हुयी किसी बस के आगे खुद को फ़ेंक सकें...इतनी होनी चाहिए कि किसी डॉक्टर को सही सही सिम्पटम्स बता सकें कि नींद नहीं आती...नींद की गोलियों को पानी में घोल कर पी जाने जितनी नफरत तो होनी ही चाहिए खुद से...इससे कम नफरत की भी तो क्या की...विरक्त भाव से जीना भी कोई जीना है.
आखिर कब तक काले साए मेरा पीछा करेंगे...हर रोज़ देखती हूँ, हर मोड़ पर चेहरा...हर खिड़की में आँखें...रिव्यू मिरर में कोई इंतज़ार करता हुआ. इतनी बार धोखा तो नहीं हो सकता ना...कोरी पड़ी कोपियों में कितनी चिट्ठियां लिख के फाड़ डाले कोई...कितना आग लगा दें कि काफी हो. क्यूँ न मर ही जाए एक बार इंसान कि रोज़ रोज़ का टंटा ख़त्म हो.
या खुदा! कहाँ रखी है क़यामत...आँखों से लहू बरसता है...अब तो भेज जलजले कि इस कमबख्त जिंदगी से पीछा छूटे...नहीं चाहिए मुझे गुनाहों की माफ़ी...नहीं चाहिए उम्रकैद...कहीं कोई सुनवाई घर है तेरे यहाँ तो भेज मौत के फ़रिश्ते को...कि चाहे फ़ेंक दे मुझे दोज़ख में...कहीं...खुदा...कितनी उम्र बची है मेरी?