04 October, 2015

Let's begin from the end. अंत से शुरू करते हैं.

धूप की सुनहली गर्म उँगलियाँ गीले, उलझे बालों को सुलझाने में लगी हैं. आज गहरे लाल सूरज के डूब जाने के बहुत बाद तक भी ऐसा लगेगा जैसे धूप बालों में ठहरी रह गयी है. मुझे अब गिन लेना चाहिए कि तुम्हें गए कितने साल हुए हैं. मेरे शहर में ठंढ की दस्तक सुनाई नहीं देती है...मैं दिल्ली में रहती तो मुझे जरूरी याद रहता कि तुम्हारे जाने के मौसम बीते कितने दिन हुए हैं. धुंध इतनी गहरी नहीं होती कि कमरे में टंगा कैलेण्डर दिखाई न पड़े. अगर तुम्हारे जाने के मौसम को चेहरे की बारीक रेखाओं से गिना जा सके तो मैं कह सकती हूँ कि तुम्हारे जाने के सालों में मैं बूढ़ी हो गयी हूँ. आजकल मेरे जोड़ों में दर्द रहता है और मैं अपनी कलम में खुद से इंक नहीं भर सकती. यूं घर नाती पोतों से भरा पड़ा है लेकिन मेरी कलमों के बजाये वे मुझे कंप्यूटर पर टाइपिंग सिखाने में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं. अब सोच रही हूँ कि कार्टरिज का इस्तेमाल शुरू कर दूं. आखिर ख़त तो तुम्हें टाइप करके नहीं भेज सकती ना. पेन्सिल से लिखने में मिट जाने का डर लगता है. पेन्सिल यूं भी सालों के साथ फेड करती जाती है. अब ये न कहो कि हमारे साल ही कितने बचे हैं या फिर ये कि मैं अब तुम्हें ख़त नहीं लिखती. मैं तुम्हें बताना चाहती हूँ कि अब भी सुबह का पहला ख्याल तुम्हारे नाम की गुलाबी स्याही में डूबा ही उगता है. हाँ अब उम्र के इस दौर में चटख रंगों के प्रति मेरा रूझान कम हो गया है और मैं सोचने लगी हूँ कि काली स्याही दरअसल काफी डीसेंट दिखती है. हमारे उम्र के हिसाब से. नहीं? ग्लिटर वाली कलम से छोटे छोटे दिल बनाने का मौसम अब कभी नहीं आएगा.

पिछले साल मेरे पड़ोस में एक नया परिवार आया है. उनका बड़ा बेटा ऐनडीए में पढ़ता है. फिलेटली का शौक़ है उसे. जाने कहाँ कहाँ के डाक टिकट इकट्ठे कर रखे हैं उसने. मैं उसकी बात हरगिज़ नहीं मानती लेकिन हुआ यूं कि एक दोपहर मैं इसी तरह बाल सुखा रही थी धूप में...शॉल में छुपे हाथों मे लिफ़ाफ़े थे. वो बालकनी में आया और उसने पेस्ट्री का बौक्स बढ़ाया मेरी तरफ...लिफाफा हाथ से फिसल गया और ज़मीन पर गिर पड़ा. उसने लिफाफे पर लगे डाक टिकट को देख कर बता दिया कि ये हांगकांग का स्टैम्प है...तिरासी में लागू हुआ था. फिर हम बातें करने लगे. मैंने उसे किताबों का रैक दिखाया जहाँ तुम्हारे सारे ख़त रखे हुए हैं. यूं तो बहुत ही तमीजदार बच्चा है, अपनी सीमाएं जानता है मगर शायद उस जेनरेशन ने इतने ख़त देखे नहीं हैं तो उत्साह में पूछ लिया कि मैं आपके ख़त पढ़ सकता हूँ. मैंने भी क्या जाना था कि उसे ऐसा चस्का लग जाएगा...हाँ बोल दिया. मुझे जानना चाहिए था तुम्हारे खतों का जादू ही ऐसा है, एक जेनरेशन बाद भी असर बाकी रहेगा.

मुझे डर ये लगता है कि बार बार खोलने बंद करने से कहीं बर्बाद न हो जाएँ तुम्हारे ख़त. इस बार दीवाली में बड़ी बहू जब घर की सफाई कर रही थी तो उसे आईडिया आया था कि खतों को लैमिनेट करा देते हैं. कोई गलत बात नहीं कही थी उसने मगर ऐसा सोच कर भी मुझे ऐसी घबराहट हुयी कि क्या बताऊँ. जैसे जीते जी अनारकली को जिंदा दीवार में चिन दिया हो. तुम्हारे ख़त तो जिंदा हैं...सांस लेते हैं...उन्हें छूती हूँ तो तुम्हारी उँगलियों की खुशबू रह जाती है पोरों में...वो शामें याद आती हैं जब दिल्ली के सर्द कोहरे में तुम्हारा एक हाथ अपनी दोनों हथेलियों के बीच लिए रहती थी देर तक...सूरज डूब जाने तक. पता है, जाड़े के दिनों में शॉल में हाथ छुपे रहते हैं तो कई दोपहरों में मैं कोई न कोई लिफाफा लिए धूप में बैठी रहती हूँ. यूँ लगता है तुम पास हो और मैंने थाम रखा है तुम्हारा हाथ. सिगड़ी की गर्माहट होती है तुम्हारे लिफाफों में. इसलिए मुझे गर्मियां पसंद नहीं आती हैं. मैं हर साल जाड़ों का इंतज़ार करती हूँ.

उसका नाम अंकुर है. बड़ा ही प्यारा बच्चा है. छुट्टियों में घर आता है तो पूरा मोहल्ला गुलज़ार हो जाता है. आये दिन पार्टियाँ होती हैं. ठहाके मेरे कमरे तक सुनाई देते हैं. वो सबका हीरो है. लड़के उसके साथ क्रिकेट खेलने के लिए जान दिए रहते हैं और लड़कियों का तो पूछो मत. मेरी बड़ी पोती भी उन दिनों बड़े चाव से सजने लगती है. हर ओर रंग गुलाबी यूं होता है कि मुझे इस उम्र में भी अपने दिन याद आने लगते हैं कि जब तुम छुट्टियों में शहर आते थे. मैं कुछ कांच की चूड़ियाँ पहन लेती थी, कि गोरी कलाइयों में सारे रंग फबते थे. चूड़ियों से ये भी तो होता था कि मेरे आने जाने से तुम्हें आहट सुनाई पड़ जाए और तुम बालकनी से झाँक लो. इक रोज़ अचानक तुम्हें सामने पा कर कितना घबरा गयी थी...दरवाज़ा हाथ पर ही बंद कर दिया था. वो तो चूड़ियाँ थीं, वरना कलाई टूट जाती. उफ़. किस अदा से तुमने गिरे हुए कांच के टुकड़े उठाये थे कि बुकमार्क बनाओगे. तुम्हारी किताबों में मेरी चूड़ियों की खनखनाहट भर गयी थी. मेरी खिलखिलाहटें भी तो. तुम शहर में होते थे तो मैं काजल लगाती थी...के आँखें सुन्दर दिखें और इसलिए भी कि मेरी इन चमकती आँखों को नज़र ना लगे किसी की. मैं जो अधिकतर गले में मफलरनुमा दुपट्टा डाले मोहल्ले में मवालियों की तरह डोला करती थी, तुम्हारे आने से झीने दुपट्टे ओढ़ने लगती थी. काँधे से कलाइयों तक कि दुपट्टे की खूबसूरती नुमाया हो. तुम शहर में होते थे तो लगता था कि दिन को सूरज इसलिए उगता है कि तुम किसी बहाने घर से बाहर निकलो और मैं तुम्हें देख सकूं. उन दिनों में तुम्हारे घर की हर चीज़ के ख़त्म हो जाने की मन्नतें माँगा करती थी. कभी चायपत्ती, कभी चीनी, कभी सब्जियां...तुम और तुम्हारी वो साइकिल. उफ़. तुम्हारी मम्मी अक्सर तुम्हें पूछ लेने बोलती थी मेरे घर में कि कोई सामान ख़त्म तो नहीं है. मेरा बस चलता तो उन दिनों घर की सारी रसद चूल्हे में झोंक आती. महज़ तुमसे एक लाइन ज्यादा बात करने के लिए.

गर्मी की बेदर्द दुपहरों में कभी कभी अंकुर घर चला आता है. मेरी बड़ी पोती को लगता है कि वह बहाने से उसे देखने आता है और वो मेरी स्टडी में आती जाती रहती है. आजकल सजने का अर्थ भी तो बदल गया है. मेरे दुपट्टे निकल आते थे और यहाँ मिन्नी की मिनी स्कर्ट्स निकल आती हैं. पगली है थोड़ी, उसे समझाउंगी एक दिन कि अंकुर को तुम्हारी लॉन्ग लेग्स में नहीं तुम्हारी नीली आँखों में इंटरेस्ट है...तुम्हारी टेबल पर फेंके हुए तुम्हारे जर्नल में लिखी उल्टी पुल्टी कविताओं में और तुम्हारे कमरे में लगे बेहिसाब पोस्टर्स में. पिछली बार पूछ रहा था मुझसे कि तुम क्या वाकई कवितायें लिखती हो. उसका एक दोस्त भी राइटर है और बड़ा होकर दूसरा शेक्सपीयर बनना चाहता है. वो सोचता है कि मिन्नी उसके दोस्त को समझा सकेगी कि शेक्सपियर एक डायनासोर था और उसकी प्रजाति के लोग लुप्त हो गए हैं. इस तरह से अंकुर अपने दोस्त की अझेल कवितानुमा कहानियों से बच जाएगा. वो मुझसे तुम्हारा पता मांग रहा था एक रोज़...पूछ रहा था कि मेरी जेनरेशन में सारे लोग इतने खूबसूरत ख़त लिखा करते थे क्या एक दूसरे को...और अगर ख़त इतने खूबसूरत थे तो फिर किताबों की जरूरत भी क्या पड़नी थी किसी को. मगर ये तब की बात है जब मैंने उसे ये नहीं बताया था कि तुमने किताबें भी लिखी हैं. कहानियां भी और कवितायें भी.

खतों में तुम्हारा नाम नहीं इनिशियल्स होते थे. एक दिन अंकुर ने जिद पकड़ ली कि वो तुम्हारा पूरा नाम जानना चाहता है और तुम्हारी लिखी किताबें पढ़ना चाहता है. मैंने बात को टालने की बहुत कोशिश की मगर वो तुम्हारा दीवाना हो चुका था. मैं नहीं बताती तो शायद किसी और से पूछता. और फिर जाने कितना सच उसे सुनने को मिलता. तो मुझे लगा कि बेहतर होगा कि मैं ही उसे बता दूं.

तुम्हें सत्ताईस की उम्र में मरने का बहुत शौक़ था न. बचपन का ये मज़ाक जिंदगी की क्रूर सच्चाई बन जाएगा ये किसने सोचा था. हम अपनी अपनी नयी नौकरी में सुहाने सपने बुन रहे थे. छोटेमोटे मीडियाहॉउस में नौकरी लगी थी लेकिन हम खुश थे कि अपनी बात को बेहतर तरीके से लोगों तक पहुंचा पायेंगे. हमने पहली बार साथ मिल कर एक कौमिक्स शुरू करने का सोचा था. ज़ी डायलॉग लिखता और मैं स्केच करती. हम उस उम्र में थे कि जब दुनिया बदल देने के ख्वाबों पर यकीन होता है.

हमारा समाज एक टाइम बम पर बैठा था और पलीते में लगी चिंगारी किसी को नहीं दिखी थी. विश्व में किसी भी बड़ी घटना की व्यापकता को नापने का पैमाना मौतें हुआ करती थीं, बात सिर्फ चंद इक्की दुक्की मौतों की थी. ये दार्शनिक, साहित्यकार और इतिहासकार थे जो कि अपने विषय में प्रतिष्ठित विशेषज्ञ थे और जिनका पूरे विश्व में मान था. मीडिया ने लोगों का ध्यान हल्के विषयों के प्रति भटका दिया कि उन्हें भी डर था कि आग जल्दी न भड़क जाए. गहरा मुद्दा सबकी नज़र से छिपा हुआ था. समाज की परेशानी का कारण भूख, गरीबी, बेरोजगारी थी मगर लोगों के उन्माद को दिशा धर्म की मशाल दे रही थी. हम एक मुश्किल समय में जी रहे थे जहाँ धर्म हमारा इकलौता आश्रय भी था और इकलौता हथियार भी.

सब अचानक ही शुरू हुआ था. जैसे एक ही समय में. एक महीने के अन्दर. उस महीने विश्व के हर कोने और हर धार्मिक बस्ती को एक ही इन्टरनेट कनेक्शन से जोड़ा गया था. आदर्श सरकारों को लगा था कि इससे लोग एक दूसरे से बेहतर जुड़ेंगे, मगर जैसा कि डायनामाईट और ऐटम बम के साथ हुआ था. तकनीक का गलत इस्तेमाल होने लगा. चूँकि इस वर्चुअल दुनिया में किसी को ट्रैक करना मुश्किल था, आतंकवादी और दहशतगर्द लोगों को डराने और धमकाने लगे. वर्चुअल दुनिया की दीवारें नहीं होतीं मगर असल दुनिया में लोग धार्मिक बस्तियों के बाहर दीवारों का निर्माण करने लगे थे. यही नहीं पहचान के लिए धार्मिक चिन्हों का प्रचलन भी बढ़ गया था. लोगों को ये डर लगा रहता था कि कहीं वे गलत धर्म के लिए न मारे जाएँ.

उन्ही दिनों में मैंने और जीरो ने कोमिक्स शुरू की और उनका नाम दिया 'ज़ीरो' ये आईडिया उसका ही था. शून्य से शुरुआत करना. हमने एक ऐसा कोमिक्स लिखा जो धर्म आधारित था, लेकिन हमने हीरो और हीरोइन अलग अलग धर्मों के लिए थे और एक ऐसे काल्पनिक समाज की रचना की थी जिसमें हर व्यक्ति दो या तीन धर्म को मानता है. हमने एकदम आधुनिक किरदार रचे जिनके नाम तकनीक की सबसे नयी खोजों पर आधारित थे. हमारे किरदारों के टाइटल हमेशा मॉडर्न फिजिक्स के पार्टिकल के नाम पर होते थे 'ऐटम, टैकीऑन, बोसॉन, फोटोन, क्वार्क' इत्यादि. 

हमारे देखते देखते विश्वयुद्ध देश की सीमाओं में नहीं बल्कि धार्मिक बस्तियों के दरवाज़ों के बाहर होने शुरू हो गए थे.  भीषण धार्मिक दंगों की व्यापकता बढ़ती ही जा रही थी. लोग दिनों दिन कट्टरपंथी होते जा रहे थे. एक उन्माद था जिसकी लपेट में पूरा विश्व आता जा रहा था. मैं और ज़ीरो चूंकि मीडिया से जुड़े थे इसलिए अपनी इस काल्पनिक दुनिया में जाने अनजाने किसी न किसी खबर के इर्द गिर्द चीज़ें बुनने लगे थे. हमारी दुनिया के इश्वर मोबाइल टावर में रहा करते थे. उनका आशीर्वाद तेज़ इन्टरनेट स्पीड और डेटा के रूप में मिलता था और तपस्या के लिए लोग इन्टरनेट से दूर रहने की कसमें खाते थे. 

हमने अपनी कॉमिक स्ट्रिप कभी ऑनलाइन नहीं डाली थी, हम इसे छापते थे और ये लोगों तक बंट जाते थे. एक दिन किसी फैन ने उत्साह में आ कर बहुत सारी स्ट्रिप्स को स्कैन कर के अपलोड कर दिया. दुनिया को शायद ऐसे ही किसी बहाने की जरूरत थी. ज़ीरो नयी जेनरेशन का पोस्टर बॉय था. दुनिया भर में इस धार्मिक हिंसा से थके हुए लोगों ने ज़ीरो को अपना इश्वर मानना शुरू कर दिया. कुछ दिन तक तो लोगों को लगा कि ये क्षणिक रूझान है, वर्ल्ड कप फीवर की तरह. उतर जाएगा. मगर जब मामला तूल पकड़ने लगा तो कट्टरपंथियों ने ज़ीरो के निर्माताओं की खोज शुरू कर दी. हम दोनों अंडरग्राउंड हो गए. ये ख़त उन्ही दिनों लिखे गए थे. 

हर देश की सरकार ने 'ज़ीरो' की कॉपीज ज़ब्त करने की कोशिश की, लेकिन ज़ीरो वायरल हो गया था और नयी जेनरेशन हथियारों से तौबा कर चुकी थी. 'अहम् ब्रह्मास्मि' की तरह 'आई एम ज़ीरो' एक नारा, एक फलसफा बनता चला गया. मैं और ज़ीरो इसके लिए तैयार नहीं थे. हर नयी कॉमिक स्ट्रिप दुनिया को दो हिस्सों में बांट देती. पुराना और नया. ज़ीरो हेटर्स और ज़ीरो लवर्स. कट्टरपंथी और ज़ीरोपंथी.

फिर एक दिन एक ख़त आया. ज़ीरो का आखिरी ख़त. उसने आत्महत्या कर ली थी.
'व्हाट?' अंकुर जैसे नींद से जागा था. किसी मीठे सपने से. 'बट व्हाई?' 

हम इस दुनिया का हिस्सा होते चले गए थे. एक नया पंथ बनने लगा था. हमने एक काल्पनिक दुनिया बनायी थी. इसके सारे सिरे थामने में बहुत एनर्जी लग जाती थी. हम इतने वोलेटाइल समय में रह रहे थे कि ज़ीरो को कुछ दिन और भी अगर लिखा जाता तो शायद बात हमारे सम्हालने से बाहर हो जाती. हमने ज़ीरो की रचना जब की थी तो एक ऐसी दुनिया की कल्पना की थी जिसमें सेना की जरूरत नहीं रहे क्यूंकि इंसान की ह्त्या का हक किसी को भी नहीं था. उस रोज़ अख़बार में एक ग्रुप की तस्वीर आई थी जिसमें ज़ीरोपंथी वालों ने कट्टरपंथियों को अपने धार्मिक निशान मिटाने को मजबूर कर दिया था. बात यहाँ से शुरू हुयी थी...यहाँ से बात किसी और जंग तक जाती ही जाती.

'फिर?' अंकुर किसी ख्याल में खोया तुम्हारे खतों को उलट पुलट रहा था. 

अचानक से तुमसे वो चीज़ छिन जाए जिसमें तुम्हारी आस्था है...और तुम १५ से २० साल के बच्चे हो तो तुम कैसे रियेक्ट करोगे? दुनिया में चारों ओर खलबली मच गयी. अराजकता. अनुशाशनहीनता. बच्चे पागल हो गए थे. रोने धोने और सुबकने से जब ज़ीरो के वापस आने की कोई राह नहीं मिली तो वे विध्वंसक हो गए. उन्होंने तोड़फोड़ शुरू कर दी. 

बड़ों की दुनिया में हड़कंप मच गया. इस तरह की दिशाहीनता घातक थी. ये एक वैश्विक समस्या थी, हमारा भविष्य खतरे में था और हमारे वर्तमान का कोई हल दिख नहीं रहा था. एक 3 डी कर्फ्यू लागू किया गया जो रियल और वर्चुअल दोनों दुनिया के बाशिंदों पर बाध्य था. हर देश में अनिश्चितकाल के लिए मिलिट्री रूल लागू किया गया. समस्या का हल जल्दी तलाशना जरूरी था. एक सेक्योर हॉटलाइन पर दुनिया के हर देश के लीडर को मेसेज भजे गए और सब दिल्ली में इकट्ठे हुए. उनमें से कई लोग मुझसे बात करना चाहते थे. उन्हें लगता था मेरे पास इसका कोई उपाय होगा...या शायद कोई सही दिशा. मुझे आज भी वो मीटिंग रूम याद है. लगभग २०० लोग थे उसमें. सबके पास लाइव इन्टर्प्रेटर डिवाइस थी ताकि वो मुझे सुन सकें. मेरे पास भविष्य की कोई प्लानिंग नहीं थी...मगर हमारे वर्तमान के लिए जरूरी था कि कहानी कि शुरुआत के सारे एलीमेंट्स उनसे डिस्कस किये जाएँ. वे सब ज़ीरो के बारे में और जानना चाहते थे. मैं उन्हें बता रही थी कि जैसे हमें बचपन से सिखाया जाता है कि हम किसी भी धार्मिक स्थल पर प्रार्थना कर सकते हैं...हम मज़ार पर भी जाते थे और चर्च में भी, मंदिर में भी हाथ जोड़ते थे और स्तूप में भी. हमारा इश्वर एक भी था और उसके हज़ार रूप भी थे. इन्हीं कुछ बेसिक चीज़ों के हिसाब से हमने किरदार रचे जिनपर किसी एक धर्म का हक नहीं था. मैंने उन्हें अपने इनिशियल स्केचेस दिखाए, अपना आईडिया जितना डिटेल में हो सके डिस्कस किया और बाहर आ गयी.

कई सारे लोगों को लगा था कि ज़ीरो को रचने वाले किसी बड़े संगठन का हिस्सा होंगे जिसकी अपनी फिलोसफी होगी और तरीके होंगे. उनके समाधान में कई विरोधाभास थे...हम कई बार चीज़ों को जबरन पेचीदा करना चाहते हैं जबकि वे होती एकदम सिंपल हैं. लेकिन साथ ही चीज़ों का अत्यंत सरलीकरण भी बुरा होता है. जैसे कि हम ऐसे समाज में रहते हैं जिसके लोगों को किसी वाटरटाइट खांचे में बांटना नामुमकिन था. पर हुआ वही 'डेस्पेरेट टाइम्स कॉल फॉर डेस्पेरेट मेजर्स'. वर्ल्ड आर्डर का नया नियम लागू हुआ...बेहद सख्ती से...दुनिया एक धर्म को मान कर विध्वंस की तरफ जा रही थी. इसका एकदम सिंपल उपाय निकाला गया.

'एक ही धर्म के लोग शादी नहीं कर सकते'. दुनिया के बाकी सारे नियम ख़त्म कर दिए गए थे. बॉर्डर्स ख़त्म कर दिए गए. लोग विश्व नागरिक हो गए थे. इस नियम को दुनिया के सारे दस्तावेजों से मिटाया गया और पूरा पूरा इतिहास फिर से लिखा गया. जैसे कि जीने का तरीका हमेशा से ऐसा ही रहा था. अनगिन भाषाओं में लोग पिछले कई सालों का इतिहास बदलने में लगा दिए गए. इसमें सारे धर्म और धार्मिक चिन्ह, पूजा करने की जगहें, एक दूसरे से मिला दी गयीं, कुछ वैसा ही कि जैसे मैंने और ज़ीरो ने शुरू में लिखी थीं. कई सारी किंवदंतियाँ लिखी गयीं. तुम इसे एक तरह का प्रोपगंडा भी कह सकते हो.
'तो आपका कहना है कि धर्म की सारी हिस्ट्री मैनुफैक्चर्ड है?'
'हाँ' वी आल वांट द कन्वीनियेंट ट्रुथ. हमें आसान सच चाहिए होता है. लोगों को अपनी ज़िन्दगी में कोई खलल नहीं चाहिए था. वे मिलिट्री रूल के तले दबे नहीं रह सकते थे. नियम की बहुत खामियां थीं...लोगों को आइडेंटिटी क्राइसिस होते थे. मनोवैज्ञानिकों का एक बड़ा तबका सामने आया और उन्होंने लोगों को हर तरह से मदद की. धीरे धीरे सबने इसे एक्सेप्ट कर लिया. सब कुछ ऐसे चलने लगा जैसे कहीं कोई युद्ध कभी हुआ ही नहीं था. तानाशाही में बहुत बल होता है. सरकारें चाहे तो कुछ भी कर सकती हैं. जर्मनी के बारे में तो तुमने पढ़ा ही होगा. कैसे एक पूरा देश जीनोसाइड में इन्वोल्व था और कई बार लोगों को मालूम भी नहीं था कि वे किसी बड़ी मशीनरी का हिस्सा है. अनेक धर्मों में अपनी आइडेंटिटी ढूँढने को ग्लैम्राइज किया गया. और देखो, तुम सोच भी नहीं सकते कि एक ऐसा वक़्त था जब धर्म के लिए लड़ाइयाँ होती थीं. तुम्हारी पीढ़ी के अधिकतर बच्चे कमसे कम तीन धर्म में विश्वास करते हैं'
'तो केओस नाम का कोई इश्वर नहीं था जिसने वृन्दावन में रासलीला की, जिसमें सारे धर्म के अलग अलग इश्वर आये थे? 
'उनका नाम कृष्ण था'
'तो केओस था कौन?'
'केओस इस न्यू वर्ल्ड आर्डर का इश्वर था जिसे हमने रचा था'
'कोई कभी सवाल नहीं करता इन चीज़ों पर?'
'हमें आसान जिंदगी चाहिए अंकुर, ये बहुत मुश्किल सवाल हैं और सच जानकार भी तुम इतिहास को बदल नहीं सकते हो. लोग अभी भी रिसर्च करते हैं कि इसका क्या फायदा हुआ...इन फैक्ट तुम अपनी अकादमी में अभी इन चीज़ों के बारे में जानोगे. तुम्हें मालूम कि आर्मी का क्रेज इतना ज्यादा क्यों है लोगों में?'
'नहीं. क्यों?'
'क्योंकि सिर्फ उनके पास सच है. पूरा का पूरा सच. तुम्हें जब इतिहास पढ़ाया जाएगा तो कोई पन्ने ढके नहीं जायेंगे. पूरा का पूरा कड़वा सच बताया जाएगा तुम्हें. अभी के तुम्हारे क्लासेस के पहले तुम्हें ध्यान करने को कहा जाता होगा. तुम्हारे मेंटल टेस्ट्स भी हुए होंगे...सिर्फ वही लोग जो इस लायक है कि सच का भार वहन कर सकें उन्हें सब कुछ बताया जाता है'
'ये सब इतना मुश्किल क्यों है'
'क्यूंकि तुम्हें चुना गया है. अभी तुम्हारी जगह कोई नार्मल बच्चा होता तो इस सब को सिरे से ख़ारिज कर देता और अपनी उम्र के लोगों से मिलने चला जाता. बैठ कर मेरी चिट्ठियां नहीं पढ़ता. मेरी कहानियों में यकीन नहीं करता'
'मेरे यकीन करने से सच बनता है?'
'हाँ'
'कितने लोगों को बतायी है आपने ये पूरी बात?'
'सिर्फ अपने साइकैट्रिस्ट को'
'साइकैट्रिस्ट?'
'हाँ. पर वो कहता है मैं सिजोफ्रेनिक हूँ. मुझे लोग दिखते हैं जो सच में होते नहीं'
'मेरी तरह?'

5 comments:

  1. हर सच, हर किसी के लिए नहीं होता..बहुत सुंदर।

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  2. Nice. The open ending makes you think it all over ...

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  3. शब्द जादुई धागे में पिरोए गये है... एक खूबसूरत एहसास की खुशबु लिए हुए

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  4. Shuruat se akhiri tak ek bhi shabad nhi tha jise apne hatho se sundar sajaya na gaya ho
    dhanyawad ise likhne ka..

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  5. This comment has been removed by the author.

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