14 July, 2015

दफ़ा तीन सौ दो...सज़ा-ए-मौत


लेखक की हत्या करना बहुत मुश्किल कार्य है. खास तौर से उस लेखक की जो अपने ही मन के अन्दर रहता हो कहीं. ये बहुत जीवट प्राणी होता है. रक्तबीज की तरह. एक तरफ से मारो तो हज़ार तरफ से जिन्दा हो उठता है. कहानियों से ख़त्म करो तो कविता में उगने लगे...कविता से नामोनिशां मिटाओ तो उपन्यास का कोई किरदार बन कर दिन रात साथ रहने लगे...के लेखक के छुपने के कई ख़ुफ़िया ठिकाने हैं...दो धड़कन के बीच के अंतराल में...किसी मित्र के टूटे हुए दिल के सुबकते हुए किस्से में...बच्चों के खेल में...स्त्रियों की चुगली में...बूढों के अबोले इंतज़ार में. अन्दर का लेखक हुमक हुमक के दौड़ता है. कहता है. सुनता है. इक अदृश्य डायरी लिए चलता है लेखक. सब कुछ लिख जाने के लिए. उसकी अदृश्य कलम चलती है तो रंग. गंध. स्पर्श. सब रह जाता है.

पर किसी भी ऐसे कदम के पहले सवाल करना होगा कि 'आखिर क्यूँ किया जाए क़त्ल...' कोर्ट भी आखिर पहला सवाल यही करता है कि क़त्ल के पीछे मोटिव क्या है. अगर कोई स्ट्रोंग मोटिव न हो तो इतनी मुश्किल काम के लिए खुद को मोटिवेट करना बहुत मुश्किल हो जाता है. और जनाब, मोटिवेशन की जरूरत यहाँ चप्पे चप्पे पर पड़ती है. लेखक से रूबरू हुए बिना यहाँ सांस लेना मुहाल है. जिन लम्हों में आप किसी और के बारे में नहीं सोच सकते वहां भी लेखक अपनी मौजूदगी की दस्तक दिए रखता है.

उसे हज़ार तालों में बंद कर दें तो दस हज़ार चाबियाँ पैदा हो जाती हैं. डैन्डेलियन की तरह दूर दूर तक उड़ते रहते हैं फाहे. लेखक एक बहुत ही खुराफाती जीव होता है. और बहुत शक्तिशाली भी. उसकी ऊर्जा से इक और दुनिया बनने लगती है जो इस दुनिया के ठीक विपरीत होती है. सच की दुनिया और उस मायावी दुनिया के बीच रस्साकशी होने लगती है. इन दोनों दुनियाओं के ठीक बीच होता है वह व्यक्ति जिसके अन्दर लेखक पनाह पाता है. ये दोनों दुनियाएं उसे विपरीत दिशाओं में खींचती हैं. असल की दुनिया अगर वफ़ा का पाठ पढ़ाती है तो लेखक बेवफाई के कसीदे काढ़ता है. इस दुनिया को अगर प्रेम के अंत में दोनों प्रेमियों का एक साथ हो जाना पसंद है तो लेखक को विरह का अनंत दुःख पसंद आता है. दुनिया संस्कारों की दुहाई देती है, लेखक आज़ादी का परचम फहराता है कुछ इस तरह कि हर रिवाज़ को ठोकर मारता है और इन्कलाब की काली पट्टी बांधे घूमता है उम्र भर. इस दुनिया में मित्रों के लिए पैमाने होते हैं...कोई चीज़ कॉमन होनी चाहिए. शौक़. उम्र. मिजाज़. परिवेश. लेखक आपको एकदम रैंडम लोगों के बीच फेंकने के लिए कुल्बुलायेगा. आप अपने आप को अनजान देशों में अजनबियों की संगत में पायेंगे. इस दुनिया में व्यक्ति चैन चाहता है. शांति चाहता है. लेखक लेकिन बेचैनी चाहता है. अशांति मांगता है. उसकी दुआओं में दंगे होते हैं. बिगडैल बच्चे होते हैं. जिंदगी जहन्नम होती है.

लेखक को हर जगह ऐसी चीज़ें दिखती हैं जो आम लोगों ने इग्नोर कर रखी हैं कि वे एक नार्मल जिंदगी जी सकें. अब इश्क़ को ही ले लीजिये. आखिर क्या कारण है कि हिंदी वर्णमाला में ल के बाद व आता है. बचपन से ही हम यर लव पढ़ते हैं. अब यार ऐसे में लव होना चाहिए ये कहेगा लेखक. 

ऐसी तमाम और चीज़ें हैं जो जीना मुहाल किये रखती हैं. लेखक के लिए ये दुनिया काफी नहीं पड़ती. यहाँ चाँद कम है. धूप कम है. इश्क़ कम है. दर्द कम है. और ख़ुशी तो बस. छटांक भर मिलती है. लेखक दुनिया की हर चीज़ को अपने हिसाब से बढ़ा-घटा कर इक ऐसे अनुपात में ले आता है जहाँ दुनिया होती तो है लेकिन क्षणभंगुर. मगर चूँकि उस दुनिया का वजूद बहुत कम वक़्त के लिए होता है तो उसकी हर चीज़ में इक मायावी ऊर्जा होती है. उस दुनिया का आकर्षण जब खींचता है तो इस दुनिया का कोई भी नियम उसपर लागू नहीं होता. सिर्फ 'गॉड' पार्टिकल नहीं होता. पूरी दुनिया हो जाती है उस एक लम्हे में दर्ज. इस तरह की अनगिन दुनियाएं जो टूटती रहती हैं तो उनका चूरा इकठ्ठा होते जाता है. आँखों में. उँगलियों की पोरों में. कलम की निब में. ये कचरा जहरीला होता है...इसके रेडियेशन से प्राण जाने का खतरा नहीं होता लेकिन इस जरा जरा से चूरे के कारण व्यक्ति का खिंचाव दूसरी दुनिया की तरफ बढ़ता जाता है. इक रोज़ ऐसा भी आता है कि वे इस दुनिया को पूरी तरह त्याग कर दूसरी दुनिया में चले जाते हैं. ऐसे लोगों को इस दुनिया में 'पागल' कहा जाता है. उनका संक्रमण और लोगों तक न फैले इसलिए दुनिया उन्हें खास तौर से आइसोलेट करके बनाए घरों में रखती है जिन्हें यूँ तो पागलखाना कहा जाता है मगर ये जगह ऐसी मायावी होती है कि कई और नामों से जानी जा सकती है जैसे कि पार्लियामेंट, चकलाघर, कॉलेज, कॉफ़ीहाउस इत्यादि. जहाँ पागलों का जमघट लग गया वो जगह अघोषित पागलखाना हो जाती है. कई बार ऐसी जगहों ने आंदोलनों को जन्म दिया है जिनसे इस दुनिया के लोगों में विरक्ति उत्पन्न हो गयी है और वे लेमुरों की तरह मंत्रबद्ध किसी ऊंची खाड़ी से आत्महत्या की छलांग लगाने को तत्पर हो गए हैं. 

लेखक ने सच को ओब्सोलीट और आउटडेटेड करार दे दिया है. 

जिस चीज़ के बारे में ठीक ठीक जानकारी न हो ये खतरनाक होती है ऐसा इतिहास ने बार बार सिद्ध किया है. लेखकों के ऊपर कुछ प्रमाणिक दस्तावेज खुद उनकी कलम से मिले हैं. जैसे कि मंटो साहब कह गए हैं के उनके मन में ख्याल उठता रहा है कि 'वो ज्यादा बड़ा अफसानानिगार है या खुदा'. गौरतलब है कि ये बात स्वयं मंटो ने अपनी कब्र का पत्थर चुनते हुए कही थी. 

यूँ अधिकतर लेखक खुद ही आत्महत्या कर के जान दे देते हैं. मगर जब ऐसा नहीं होता है तो उनकी सुनियोजित तरीके से हत्या जरूरी है ताकि दुनिया वैसी ही रहे जैसी कि इसे होनी चाहिए. उनके जीने के लिए दुनिया कभी काफी नहीं पड़ती. न इश्क़. न दर्द. न सुख. वे हमेशा उस 'डेल्टा' एक्स्ट्रा के चक्कर में मौजूदा चीज़ों के स्टेटस-को को चैलेन्ज करने चल देंगे. अक्सर सोचे बिना कि इसका हासिल क्या होगा. उन्हें जरा सी और मुहब्बत चाहिए होती है. जरा सी और बेवफाई. जरा से और दुःख. जरा सा और सुख. जितना कि उनकी नियति में लिखा है. इस जरा से के लिए वे एक जेब में कलम तो दूसरी जेब में माचिस लिए घूमते हैं कि दुनिया को आग लगा देंगे. इन्हें समझाने के तरीके तो कारगर नहीं होते इनके इर्द गिर्द के लोगों का जीना जहन्नुम बना होता है. लेखक एक बेहद सेल्फिश जीव होता है. सिंगल फोकस वाला. उसके लिए सब कुछ क्षम्य है. दुनिया के घृणित से घृणित अपराध तक. उसके लिए दुनिया महज़ एक रफ नोटबुक है. जिंदगी एक एक्सपेरिमेंट.

जिंदगी की लाइव फीड में स्पेशल इफ़ेक्ट की चलती फिरती दुकान हैं. इनके लिए जिंदगी में कुछ भी बाहर से नहीं आता...भीतर से आता है. मन के गहराई भरी परतों से. उनके अन्दर इतने भाव भरे होते है कि वे किसी चीज़ को साधारण तरीके से देख नहीं सकते. उनके लिए जिंदगी के तमाम रंग ज्यादा चटख हैं...तमाम दुःख ज्यादा असहनीय और तमाम खुशियाँ इस बेतरह कि बस जान दे दी जाये. जान देने से कम किसी चीज़ पर इनका यकीन नहीं होता. 

इक वक़्त ऐसा आता है कि ये मन के अन्दर पैठा हुआ लेखक जिंदगी को बेहद दुरूह और मौत को बेहद आकर्षक बना देता है. इसके पहले कि व्यक्ति किसी हंगेरियन सुसाइड गीत को सुनते हुए मरने की प्लानिंग कर ले...अपने अन्दर के इस लेखक को दफना के देखना चाहिए कि जिंदगी जीने लायक है या नहीं.

जरा कम उदास. जरा कम खुश. जरा कम तकलीफ. जरा कम जिंदा. मगर जरा से बचे रहने की कवायद में मैं अपने अन्दर के इस लेखक के लिए सजाये मौत की सज़ा मुकरर्र करती हूँ. इसे इक ताबूत में बंद कर गंगा की दलदली मिट्टी में दफनाती हूँ के अगर सांसें बची रह गयी हों तो गंगा का रिस रिस पानी भरता जाए ताबूत में. इक इक सांस को तरस कर मरे...कि ट्रेजेडी के प्रति उसके असीम प्रेम को देखते हुए साधारण मौत कम लगती है. 

कब्र के पत्थर पर की कविता लिखे इश्क़ और इस लेखक की मौत में शामिल होने के अपराधबोध से ग्रस्त हो कर गंगा में कूद कर आत्महत्या कर ले.

[ ज़िन्दगी टेक वन.
एक्शन. ]

1 comment:

  1. बहुत खूब! ताबूत से निकल लेखक चल पड़ा है फिर से कोई और साजिश के लिए :-)

    ReplyDelete

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...