तुमने मुझे आखिरी चिठ्ठी कब लिखी थी? क्या कहा, सुसाईड लेटर? बेईमान कहीं के...उसमें तो सबका नाम था...तुम्हारी मां का, बहन का, एक आध पुरानी प्रेमिकाओं का भी कि तुम शादी का वादा नहीं निभा पाये, वो फलाना चिलाना से शादी कर ले ईत्यादि...मैं भीड़ में शामिल थी। तुम्हें इतना भी नहीं हुआ कि एक पर्सनल सुसाइड नोट मेरे लिये लिख जाते।
मरने का इतना ही शौक था तो मुझसे कहा क्युं नहीं, मैं तुम्हारे लिये अच्छा सा इंतजाम कर देती...हमारे बिजनेस में बहुत से ग्राहक मौत ही तलाशने आते हैं...उन्हें अदाओं से फुसला कर उनकी बीवियों के लिये जिन्दा रखने का काम मैं और मेरी सहेलियां अच्छी तरह कर लेती हैं। तुम्हें मैं पसंद नहीं थी तो एक बार कहना तो था, मैडम से कह कर कोइ और तुम्हारे लिये रेगुलर कर देती...जीने के लिये इतना ही तो चाहिये होता है ना कि कोई आपका इंतजार कर रहा हो...इससे क्या फर्क पड़ता है कि इंतजार घर पर हो रहा है या कोठे पर, बीवी कर रही है या रखैल...अच्छा चलो, रखैल न कहूं प्रेमिका कह दूं...तुम्हारी तसल्ली के लिये। कितने खत लिखा करते थे तुम मुझे...तुम्हारी परेशानियां, तुम्हारा गिरवी रखा घर, बौस के पास तुम्हारा गिरवी रखा जमीर...सब तो लिखते थे तुम, फिर इतना सा क्युं नहीं लिख पाये कि तुम्हारा जहर खाने को दिल कर रहा है।
तुम्हें मालूम होगा ना कि तुम्हारे खत मुझे जिलाये रखते थे। कैसी बेरंग दुनिया है मेरी मालूम है ना तुम्हें? दीवारों का रंग उड़ा हुआ, जाने कब आखिरी बार पुताई हुयी थी...सियाह लगता है सब। बस एक छोटा सा रोशनदान जिससे धुंधली, फीकी रोशनी गिरती रहती थी और ठंढ की रातों में कोहरा। लोग भी तो वैसे ही आते थे, बदरंग...जिन्होनें सुख की उम्मीद भी सदियों पहले छोड़ दी थी...कैसा बुझा हुआ सूरज दिखता था उनकी आँखों में...वो काली रातों के लोग थे...दिन में उनकी शक्लें पहचानना नामुमकिन है...मगर दिन में तो शायद मैं खुद को भी पहचान नहीं पाती। कैसा होता है दिन का उजाला?
तुम्हारे खतों में गांव होता था...हरे खेत होते थे...दूर तक बिछती पगडंडियां होती थीं...मैं अक्सर सोचती थी कि तुम जाने किस तलाश में इस बड़े शहर में भटक रहे हो। बिना नौकरी के सिर्फ छोटे मोटे काम करने से तुम्हारा गुजारा कैसे चलता होगा। बहुत बाद में मुझे पता चला कि तुम बहुत बड़े जमींदार के बेटे हो, खर्चा-पानी की तुम्हें कोई दिक्कत नहीं है, मगर फिर तुम्हारे चेहरे पर बिहारी मजदूरों की तरह रोज की रोटी के इंतजाम की दहशत क्युं दिखायी देती थी? तुम्हें क्या चाहिये था हर रोज? रोजी कहती थी कि तुम ड्रग अडिक्ट हो। मुझे लेकिन तुम्हारी बात पर पूरा यकीन था कि तुम्हारी कलाई पे निशान कलम की निब से हो जाते थे...मुझे कभी कभी शक होता था कि तुम मुझे खून से चिठ्ठियाँ लिखते थे...तुम्हारे खून का रंग चमकते सूरज की तरह लाल होता होगा जब तुम निब चुभाते होगे फिर कागज सारा जीवन सोख कर उसे मटमैला भूरा बना देता होगा। दुनिया ऐसा ही न करती है तुम्हारे साथ?
कौन थे तुम? आखिर क्यूं आये थे मेरी जिन्दगी में? खतों की इस जायदाद के बदले पेट में तुम्हारा बच्चा होता तो कमसे कम इस नर्क से निकलने का कोई कारण होता मेरे पास। तुम्हारे सारे खत मैंने गद्दे के नीचे बिछा दिये हैं...कोई भी कस्टमर हो, तुम्हारे होने का धोखा होता है तो तकलीफ थोड़ी कम हो जाती है। सिसकी रोकने में थोड़ी परेशानी हो रही है मगर जल्दी ही मैं फिर से चुप रोना सीख जाउंगी। यूं भी अंधेरे में किसे महसूस होती हैं हिचकियां। गर्म बियर की दो बोतल अंदर जाने के बाद क्या अंदर क्या बाहर, दुनिया पिघल जाती है बस उतने में। नसों में बहता है धीमे धीमे। दर्द की चुभन होती है धीरे धीरे।
तुम्हें नहीं होना चाहिये था। या फिर तुम्हें नहीं जाना चाहिये था। बचपन से बहुत बुरी आदतें रहीं हैं मेरी...एक तुम भी रह जाते। आज तुम्हारे घर वाले मंदिर के बाहर कंबल बांट रहे थे, तुम्हारे पुराने कपड़े भी...तुम्हारी कलम, दवात, किताबें...यूं टुकड़ों में तुम्हें बँटते देखा तो लगा तुम इतने विशाल थे, मेरे पास तो तुम्हारे वजूद की कोरी पुर्जियां मौजूद थीं। मैंने वो पीला कुरता मांग लिया जिसमें तुम पहली बार मुझसे मिलने आये थे। मैंने आज तक वैसा सुंदर कपड़ा नहीं पहना...धुला...इस्त्री किया हुआ...लोबान की गंध में लिपटा।
तुमसे कभी कहा नहीं, धंधे का उसूल है...मगर भटके हुये मेरे मालिक...मुझे तुमसे प्रेम हो गया था...मैं तुम्हें जिन्दा रखने के लिये कुछ भी करती...बस एक खत लिख के जाते तुम मेरे नाम। खुदा तुम्हें जन्नत बख्शे।
आमीन।