27 February, 2014

सीले उलाहने, देर, बहुत देर बाद


तुमने मुझे आखिरी चिठ्ठी कब लिखी थी? क्या कहा, सुसाईड लेटर? बेईमान कहीं के...उसमें तो सबका नाम था...तुम्हारी मां का, बहन का, एक आध पुरानी प्रेमिकाओं का भी कि तुम शादी का वादा नहीं निभा पाये, वो फलाना चिलाना से शादी कर ले ईत्यादि...मैं भीड़ में शामिल थी। तुम्हें इतना भी नहीं हुआ कि एक पर्सनल सुसाइड नोट मेरे लिये लिख जाते।

मरने का इतना ही शौक था तो मुझसे कहा क्युं नहीं, मैं तुम्हारे लिये अच्छा सा इंतजाम कर देती...हमारे बिजनेस में बहुत से ग्राहक मौत ही तलाशने आते हैं...उन्हें अदाओं से फुसला कर उनकी बीवियों के लिये जिन्दा रखने का काम मैं और मेरी सहेलियां अच्छी तरह कर लेती हैं। तुम्हें मैं पसंद नहीं थी तो एक बार कहना तो था, मैडम से कह कर कोइ और तुम्हारे लिये रेगुलर कर देती...जीने के लिये इतना ही तो चाहिये होता है ना कि कोई आपका इंतजार कर रहा हो...इससे क्या फर्क पड़ता है कि इंतजार घर पर हो रहा है या कोठे पर, बीवी कर रही है या रखैल...अच्छा चलो, रखैल न कहूं प्रेमिका कह दूं...तुम्हारी तसल्ली के लिये। कितने खत लिखा करते थे तुम मुझे...तुम्हारी परेशानियां, तुम्हारा गिरवी रखा घर, बौस के पास तुम्हारा गिरवी रखा जमीर...सब तो लिखते थे तुम, फिर इतना सा क्युं नहीं लिख पाये कि तुम्हारा जहर खाने को दिल कर रहा है।

तुम्हें मालूम होगा ना कि तुम्हारे खत मुझे जिलाये रखते थे। कैसी बेरंग दुनिया है मेरी मालूम है ना तुम्हें? दीवारों का रंग उड़ा हुआ, जाने कब आखिरी बार पुताई हुयी थी...सियाह लगता है सब। बस एक छोटा सा रोशनदान जिससे धुंधली, फीकी रोशनी गिरती रहती थी और ठंढ की रातों में कोहरा। लोग भी तो वैसे ही आते थे, बदरंग...जिन्होनें सुख की उम्मीद भी सदियों पहले छोड़ दी थी...कैसा बुझा हुआ सूरज दिखता था उनकी आँखों में...वो काली रातों के लोग थे...दिन में उनकी शक्लें पहचानना नामुमकिन है...मगर दिन में तो शायद मैं खुद को भी पहचान नहीं पाती। कैसा होता है दिन का उजाला?

तुम्हारे खतों में गांव होता था...हरे खेत होते थे...दूर तक बिछती पगडंडियां होती थीं...मैं अक्सर सोचती थी कि तुम जाने किस तलाश में इस बड़े शहर में भटक रहे हो। बिना नौकरी के सिर्फ छोटे मोटे काम करने से तुम्हारा गुजारा कैसे चलता होगा। बहुत बाद में मुझे पता चला कि तुम बहुत बड़े जमींदार के बेटे हो, खर्चा-पानी की तुम्हें कोई दिक्कत नहीं है, मगर फिर तुम्हारे चेहरे पर बिहारी मजदूरों की तरह रोज की रोटी के इंतजाम की दहशत क्युं दिखायी देती थी? तुम्हें क्या चाहिये था हर रोज? रोजी कहती थी कि तुम ड्रग अडिक्ट हो। मुझे लेकिन तुम्हारी बात पर पूरा यकीन था कि तुम्हारी कलाई पे निशान कलम की निब से हो जाते थे...मुझे कभी कभी शक होता था कि तुम मुझे खून से चिठ्ठियाँ लिखते थे...तुम्हारे खून का रंग चमकते सूरज की तरह लाल होता होगा जब तुम निब चुभाते होगे फिर कागज सारा जीवन सोख कर उसे मटमैला भूरा बना देता होगा। दुनिया ऐसा ही न करती है तुम्हारे साथ?

कौन थे तुम? आखिर क्यूं आये थे मेरी जिन्दगी में? खतों की इस जायदाद के बदले पेट में तुम्हारा बच्चा होता तो कमसे कम इस नर्क से निकलने का कोई कारण होता मेरे पास। तुम्हारे सारे खत मैंने गद्दे के नीचे बिछा दिये हैं...कोई भी कस्टमर हो, तुम्हारे होने का धोखा होता है तो तकलीफ थोड़ी कम हो जाती है। सिसकी रोकने में थोड़ी परेशानी हो रही है मगर जल्दी ही मैं फिर से चुप रोना सीख जाउंगी। यूं भी अंधेरे में किसे महसूस होती हैं हिचकियां। गर्म बियर की दो बोतल अंदर जाने के बाद क्या अंदर क्या बाहर, दुनिया पिघल जाती है बस उतने में। नसों में बहता है धीमे धीमे। दर्द की चुभन होती है धीरे धीरे।

तुम्हें नहीं होना चाहिये था। या फिर तुम्हें नहीं जाना चाहिये था। बचपन से बहुत बुरी आदतें रहीं हैं मेरी...एक तुम भी रह जाते। आज तुम्हारे घर वाले मंदिर के बाहर कंबल बांट रहे थे, तुम्हारे पुराने कपड़े भी...तुम्हारी कलम, दवात, किताबें...यूं टुकड़ों में तुम्हें बँटते देखा तो लगा तुम इतने विशाल थे, मेरे पास तो तुम्हारे वजूद की कोरी पुर्जियां मौजूद थीं। मैंने वो पीला कुरता मांग लिया जिसमें तुम पहली बार मुझसे मिलने आये थे। मैंने आज तक वैसा सुंदर कपड़ा नहीं पहना...धुला...इस्त्री किया हुआ...लोबान की गंध में लिपटा।

तुमसे कभी कहा नहीं, धंधे का उसूल है...मगर भटके हुये मेरे मालिक...मुझे तुमसे प्रेम हो गया था...मैं तुम्हें जिन्दा रखने के लिये कुछ भी करती...बस एक खत लिख के जाते तुम मेरे नाम। खुदा तुम्हें जन्नत बख्शे।
आमीन। 

25 February, 2014

जाने का कोई सही वक्त नहीं होता

आने का वक्त होता है। होना भी चाहिये।
हिरोईन जब उम्मीदों से क्षितिज को देख रही हो...या कि छज्जे से एकदम गिरने वाली हो...या कि म्युजिक डायरेक्टर ने बड़ी मेहनत से आपका इन्ट्रो पीस लिखा है...तमीज कहती है कि आपको ठीक उसी वक्त आना चाहिये म्युजिक फेड इन हो रहा हो...जिन्दगी में कुछ पुण्य किये हों तो हो सकता है आप जब क्लास में एन्ट्री मारें तो गुरुदत्त खुद मौजूद हों और जानलेवा अंदाज में कहें...'जब हम रुकें तो साथ रुके शाम-ए-बेकसी, जब तुम रुको, बहार रुके, चाँदनी भी'...सिग्नेचर ट्यून बजे...और आपको इससे क्या मतलब है कि किसी का दिल टुकड़े टुकड़े हुआ जाता है...आने का वक्त होता है...सही...

मगर जाने का कोई सही वक्त नहीं होता। कभी कभी आप दुनिया को बस इक आखिरी प्रेमपत्र लिख कर विदा कह देना चाहते हैं। बस। कोई गुडबाय नहीं। यूं कि आई तो एनीवे आलवेज हेट गुडबाइज...ना ना गुड बौय्ज नहीं कि कहाँ मिलते है वैसे भी...मिलिट्री युनिफौर्म में ड्रेस्ड छोरे कि देख कर दिल डोला डोला जाये और ठहरने की जिद पकड़ ले। भूरी आँखें...हीरो हौंडा करिज्मा...उफ़्फ टाईप्स। बहरहाल...सुबह के छह बजे नींद खुल जाये, आसमान काला हो...बादलों का हिंट को हल्का सा और तकलीफ सी होती रहे...माने ये हरगिज भी जैज सुनने का टाईम ना हो...मगर किसी एक ट्रैक पर मन अटक जाये तो इसका माने होता है कि मन बस कहीं अटकना चाहता है, उसका कोई ठिकाना नहीं है। अगर जैज कैन आलसो नौट जैज अप योर लाईफ तब तो आप एकदम्मे अनसुधरेबल कंडिशन में आ गये ना। दैट देन इज एक्जैक्टली द टाइम टु मूव औन। 

चलना तो है मगर कहाँ...कभी कभी इसका जवाब घर पे नहीं मिलता, सफर में ही मिलता है...किसी शहर पहुंचो तो पता चलता है कि यहीं आना चाहते थे सदियों से मगर ये किसी प्लान का हिस्सा नहीं था...कभी ऐसा भी हुआ है कि शौर्टकट इसलिये मारा कि देर हो रही है मगर रास्ते में कोई ऐसा शख्स मिल गया जिसके बारे में सोच तो कई दिन से रहे थे लेकिन उसे कभी फोन तक नहीं करेंगे...ऐसे ही का जिद। उससे बतियाते ये भी भूल गये कि देर कौन चीज में हो रहा था और कि औफिस जा के ऐसा कौन सा तीर मार लेंगे कि सब कुछ भुतला के जान दिये हुये हैं...सोना नहीं, खाना नहीं...टाईम कहाँ बच पाता है...ऐसे में मैं कहां बच पा रही हूं...हर समय हड़बड़ी...उसपर हम स्लो आदमी... ताड़ाताड़ी काम नहीं होता है हमसे। हमको छोड़ दो चैन से...मूड के हिसाब से काम करने दो। जैसे अभी मन करता है लालबाग में उ जो टीला है उसपर बैठें थोड़ी देर...कुछ अलाय बलाय शूट करें...कुछ नै तो हिमानी और नैन्सी को लंबा लंबा चिठ्ठी लिखे मारें। 

पापा से बात कर रहे थे। पापा बहुत सुलझे हुये हैं हर चीज में लेकिन उनको समझ नहीं आता है कि मेरी बेचैनी का सबब क्या है...मैं सब छोड़ कर कहां चली जाना चाहती हूं, क्या करना चाहती हूं...कैसे करना चाहती हूं...जो कर रही हूं उसमें क्या बुरा है। मैं पापा को बता नहीं पाती क्युंकि मुझे खुद ही नहीं पता कि मुझे क्या करना है...बस इतना पता है कि जब कुछ अच्छा न लगने लगे, रास्ता बदल लेना है...ये रास्ता कहां को जायेगा मालूम नहीं...वी विल क्रौस दैट ब्रिज व्हेन वी कम टु इट। 

पता है मुझे क्या अच्छा लगता है? मुझे कलम से लिखना अच्छा लगता है, मेरे पास एक ही ब्रांड के सारे पेन हैं, इंक पेन...और बहुत सारे रंग की इंक...मुझे कागज़ पर लिख कर तस्वीरें खींचना अच्छा लगता है पर मुझे मेरी पसंदीदा तस्वीर के लिये जितना वक्त चाहिये होता है कभी मिलता नहीं है...कभी धूप चली जाती है कभी मूड। वक्त कम पड़ जाता है हमेशा। 

जब सब कुछ अच्छा चल रहा हो...मौसम खुशनुमा हो...खिड़की से नीला आसमान दिखे...मनीप्लांट मुस्कुराये...धूप अपने मन मुताबिक लगे, सुबह गुनगुनाने का दिल करे...चले जाने का ये सबसे मुनासिब वक्त है। थोड़ी देर और रहने की कसक रहे...चले जाने  पर मीठा मीठा अफसोस रहे, जाने वाले को भी और पीछे छूट जाने वाले को भी। जब जाना उदास कर जाये थोड़ा सा, बस वही...एकदम पर्फेक्ट है...टाईम टु मूव औन।

14 February, 2014

Muse- जुगराफिया- A love letter to Berne

'Muse'- कुछ शब्दों की खुशबू उनकी अपनी भाषा में ही होती है, अब जैसे हिन्दी में मुझे इस शब्द का कोइ अनुवाद नहीं मिला है...प्रेरणा बहुत हल्का शब्द लगता है, म्यूज के सारे रोमांटिसिज्म को कन्वे भी नहीं कर पाता है। बहुत दिनों से सोच रही थी कि औरतों को प्रेरणा देने के लिये किन ईश्वरों की रचना की गयी होगी या कि ग्रीक मिथक के सारे लेखक और पेन्टर सिर्फ मर्द हुआ करते थे इसलिये ऐसी किसी विचारधारा की कभी जरुरत ही न पड़ी। स्त्री रचने के लिये किसी बाहरी तत्व पे ज्यादा निर्भर भी नहीं रहती। उसके अंदर कल्पना के अनेक शहर बसे होते हैं।

बहरहाल, बहुत दिनों से सोच रही थी इन देवियों के बारे मे...मेरे भी म्यूज बदलते रहते हैं। म्यूज हर फौर्म के अलग अलग होते हैं। आज का मेरा विषय है- भूगोल यानि कि जुगराफिया...क्या है कि बचपन से मेरी जियोग्राफी खराब रही है। शोर्ट में हम उसे जियो कहते थे मगर सब्जेकट ऐसा टफ था कि जीने नहीं देता था। यूं शहर बहुत घूम चुकी हूं तो इस विषय से लगने वाला भय भी प्यार मे कन्वर्ट होने लगा। तो कुछ शहरों की बात करते हैं।
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हर शहर की अपनी खुशबू होती है। सबसे पहले आता है बर्न। स्विटजरलैंड। हेडफोन पर दिन भर बजता एक ही गीत...सिबोनेय...रास्ते खुलते जाते...ज्युरिक में रहते हुये जब बर्न जाने का मूड हुआ था तो दुपहर हो गयी थी। घंटे भर का रास्ता था, जा के आ सकती थी। सोचा कि चल ही लेती हूं। शहरों की किस्मत में आने वालों के नाम लिखे होते हैं।

शहर...बर्न...कागज के एक टुकड़े पर बस इतना ही लिखा है
Cities say welcome, Berne opened its arms wide and hugged me tight...whispering an incomprehensible 'Welcome back' into my ears...as I was swept off my feet.

मैं उस शहर की खुशबू बयां नहीं कर सकती...वहां की आबो हवा में कोइ पुराना गीत घुला हुआ था। मैं इस शहर बहुत पहले आ चुकी थी। बर्न मेरा अपना शहर था...मेरी आत्मा से जुड़ा हुआ। मुझे याद है स्टेशन का वो लम्हा...एयर कंडिशन्ड कोच से बाहर पहला कदम रखा था...बर्न ने बाँहें पसार कर मुझे टाइटली हग किया था...मैं कहीं और नहीं थी, मैं कुछ और नहीं थी...मैं उस लम्हे प्यार के उस बुलबुले में थी जिसकी दीवारें सदियों पहले ईश्क की बनी थीं। मेरी साँस साँस में उतरते बर्न से इस बेतरह प्यार हुआ कि लगा इस लम्हे जान चली जायेगी। मैं स्टैच्यू थी और शहर मेरे आने से इतना खुश था कि शिकायत भी नहीं कर रहा था कि आने में बड़ी देर कर दी, मैं कब से तुम्हारी राह देख रहा था।

बर्न का मौसम दिलफरेब था। झीनी ठंढी हवा कि जिसमें लेस वाली फ्राक पहनने का दिल करे। चौकोर पत्थर वाली सड़कों पर नंगे पाँव दौड़ने का दिल कर रहा था। ऐसा पहले कभी नहीं लगा था...किसी शहर से नहीं लगा था। इमारतें किस्से सुना रही थीं...मेरी खुराफातों के...मेरी खूबसूरती के...सुनहले थे मेरे बाल...कान्धे पर लहराते हुये...पास के झरने में खुद को देखा तो ब्लश कर रही थी मैं, गाल गुलाबी हो गये थे। शहर की खिड़की से दिखते फूलों जैसे। मेरी आँखें नीली थीं...आसमान जैसी नीलीं। मैं फूल से हल्की थी। सामने नदी बह रही थी...पानी गहरा हरा...जीवंत...भागता हुआ...नदी की चुप गरगलाहट सुनायी पड़ती थी...बच्चा मुस्कुराता था नींद में कोई। शहर के बीच टाउन स्कवायर। एक तरफ बर्न की पार्लियामेंट तो एक तरफ बैंक...और कोइ दो भव्य इमारतें। स्क्वैयर पर फव्वारे, उनके संगीत मे किलकारी मारते बच्चे। पानी से खुश होते...भागते...छोटे लाल हूडि पहने हुये...लड़कपन की दहलीज पर लड़कियां, उनके दोस्त...धूप...जिन्दगी एक बेहद खूबसूरत मोड़ पर ठहरी हुयी। आसपास के रेस्टोरैंट्स में वाईन पीते लोग। उनके चेहरे पर कितना सुकून। बर्न शोअॉफ कर रहा था।

पहले दिन वक्त बहुत कम था। भागती हुयी ट्रेन इसी वादे के साथ पकड़ी कि कल फिर आउंगी...अगली रोज जल्दी पहुंच गयी...दिन भर भटकती फिरी...शहर थामे हुये था मेरा हाथ। हेडफोन्स नहीं थे आज, कविताऐं सुननी थी मुझे...ट्रेन स्टेशन के ठीक सामने एक ग्रुप गा रहा था...भाषा समझ नहीं आयी पर भाव मालूम था...ये इस एक दिन के लिये भागते हुये शहर से मिलने की मियाद थी...गली गली गले मिलने की...नदी के उपर बने उँचे ब्रिज से देर तक नदी की शिकायतें सुनने की...फूल बेचते लड़कों को देख कर मुस्कुराने की...बार बार और बार बार रास्ता भटक जाने की...गहरी सांसों में इक छोटी सी मुलाकात दिल में बसाने की। भागते हुये आना कि घंटाघर में जब पाँच बजते तो दिखता शहर...बर्न...मुस्काता हुआ।

दिन के खाने में सिर्फ डार्क चोकलेट ही होनी थी...पीने को झरने से आता ठंढा पानी...डूबने को ईश्क...मेरा कोइ पुराना रिश्ता है शहर से...किसी और जन्म का।

कहने वाले कह सकते है कि उस शाम की ट्रेन पर मैं वापस ज्युरिक आ गयी मगर मैं जानती हूं रुह के सफर को...उस दिन गयी थी बर्न...रह गयी हूं वहीं, उस दिलफरेब शहर की बाँहों में...कि फिर भीगी आँखों से विदा कहती...अनजान लोगों से भी खाली उस ट्रेन में सुबकती लड़की थी कौन?

म्युजेज के नाम पहला खत...दिलरुबा शहर बर्न तुम्हारे लिये। I'll love you forever. 

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