28 January, 2014

तेरे हाथों पे निसार जायें मेरे कातिल...

ख्वाब था।

सुबह धूप ठीक आँखों पर पड़ रही थी। मगर ख्वाब इतना खूबसूरत था कि हरगिज़ उठने का दिल नहीं किया। बहुत देर तक आंख बंद किये पड़ी रही। नीम नींद में आँखों में इन्द्रधनुष बनते रहे। आँखें मीचती और हल्के से खोलती। मौसम इतना सुहाना था कि तुम्हारी बांहों में मर जाने को जी चाहे। चाह ये भी थी कि बीमारी का बहाना बना के छुट्टी डाल दी जाये और गाड़ी लेकर कहीं लौंग ड्राइव पर निकल जायें।

बात बस इतनी सी थी कि तुम्हारा ख्वाब देखा था।

तुम और मैं किसी ट्रेन में मिल गये हैं अचानक से। जाने कौन सी ट्रेन है और हम एक डिब्बे में कैसे बैठे हैं जबकि हमें दो अलग अलग दिशाओं में जाना है। स्लीपर बौगी है। हम किसी पुल से गुजर रहे हैं। रेल का धड़धड़ाता शोर है। शाम का वक्त है। देर शाम का। गहरा नारंगी आसमान सिन्दूरी हुआ है। दूर एक मल्लाह विरह का गीत गा रहा है। उसे मालूम है, जिन्दगी के अगले किसी स्टेशन तुम और मैं दो अलग दिशाओं में जाने वाली तेज रफ्तार ट्रेनों में बैठ एक दूसरे से फिर कभी न मिलने वाले स्टेशन का टिकट कटा कर चले जायेंगे। तुम गुनगुना रहे हो। जैसे धूप जाड़े के दिनों में माथा सहलाती है वैसे। खुले हुये बाल हैं, थोड़े गीले, जैसे अभी अभी नहा के आयी हूं। हल्के आसमानी रंग का शॉल ओढ़ रखा है। खिड़की से सिर टिकाये बैठी हूं। ठंढ इतनी है कि गाल लाल हुये जाते हैं। हाथों मे दस्ताने हैं हमेशा की तरह।

कुछ मुसाफिरों ने दरख्वास्त की है कि मैं खिड़की बंद कर दूं। हवा पूरे कम्पार्टमेंट की गर्मी चुरा लिये जा रही है। उनके पास दान में मिले कुछ कंबल हैं बस। मैं खिड़की तो यूं कब का बंद कर देती, मगर तुम्हारी ओर नहीं देखने का कोइ सही बहाना चाहिये था। शीशे की खिड़की बंद होते ही आँखों के कमरे में तूफान आया है। तुमने एक खूबसूरत सा कंबल खोला है। धीरे धीरे कर के कुछ और लोग हमारी बौगी में आ गये हैं। मैंने दास्ताने उतार लिये हैं। मुझे ठीक याद नहीं, तुम्हारे कंबल को कब हौले से ओढ़ा था मैंने। हल्की झपकी आयी थी। आँख खुली तो तुम्हारा कंबल कांधे पर था। तुम भी कोई एक फुट की दूरी पर थे। तुम्हारी कलम मेरे पास गिर कर आ गयी थी शायद। तुमने कंबल में मेरा हाथ अपने हाथों में लिया था और कहा था 'तुम्हारे हाथ बहुत मुलायम हैं', तुमने मेरे हाथों को जो अपने हाथों में लिया था वो याद है मुझे...जैसे फर का कोइ खिलौना हो...नन्हा सा खरगोश जैसे, कितने कोमल थे तुम्हारे हाथ। तुमने कहा था कि तुम्हारी कलम उधर गिर गयी है, और मैं वो तुम्हें लौटा दूं। जाने किसने गिफ्ट किया था तुम्हें। हो सकता है न भी किया हो, बस लगा मुझे।

हाथ कोई फूल होता गुलाब का तो हम कौपी तले दबा के रख देते, हमेशा के लिये। मगर हाथ जीता जागता था। दिल की तरह। सुबह उठी तो दर्द मौर्फ कर गया था। दिन भर कैसी कैसी तो गज़लें सुनी सरहद पार की...मन लेकिन उसी नदी के पुल पर छूट गया था जिस पर तुमने मेरा हाथ पकड़ा था। सोचती हूं क्यूं। समझ नहीं आता। ख्वाब तो बहुत आते हैं, इक ख्वाब पर दूसरे रात की नींद कुर्बान कर देना मेरी फितरत नहीं, मगर सवाल सा अटक गया है कहीं। मालूम है  कि एकदम बेसिर पैर की बात है मगर दिल ही क्या जो समझ जाये। लगता है कि जैसे तुमने बड़ी शिद्दत से याद किया है। तुम हँस दो शायद, पर लगा ऐसा कि तुमने भी यही सपना देखा था कल रात। कि तुमने भी बस इतना ही ख्वाब देखा था। फिर किसी स्टेशन हम दोनों उतरे और तुम अपने घर वापस चल दिये, मैं अपने भटकाव की ओर।

दिन को ऐसी घबराहट हुयी, लगा कि सांस रुक जायेगी। जैसे तुमने अचानक मेरे शहर में कदम रखा हो। जाड़ों का ठिठुरता मौसम इतनी तेजी से गुजरा जैसे फिर कभी आयेगा ही नहीं। वसंत हड़बड़ में आया। मुझे अच्छी तरह याद है कि औफिस के रास्ते के सारे पेड़ों मे कलियां तक नहीं फूटी थीं। बाईक लेकर उड़ती हुयी जा रही थी कि अटक गयी। मौसम की बात रहने दो, बंगलोर मे अमलतास के पेड़ कभी नहीं थे। यहाँ की बोगनविलिया भी लजाये रंगो की होती थी। ये चटख रंग तो ऐसे आये हैं जैसे मन पर ईश्क रंग चढ़ता है। धूप छेड़ रही थी। तुम किसी हवाईजहाज में चढ़े थे क्या? कहां हो तुम...आखिर कभी तो याद कर लिया करो। तुम्हारे नाम क्या कोइ पौधा लगा रखा है...दिल कोई बाग तो नहीं है कि तुम्हारी जड़ें जमती जायें। उँगलियों से तुम्हारे आफ्टरशेव की खुशबू आती रही। दिन भर तुम्हें खत लिखती रही। जब सारी बातें खत्म हो गयीं तो तुम्हारे इस ख्वाब को कहीं ठिकाने लगाने की परेशानी शुरू हुयी। सीने में दर्द लिये जीने में दिक्कत होती है, चेहरा जर्द पड़ जाता है। हर ऐरा गैरा शख्स पूछने लगता है कि बात क्या है। किसको सुनायें रामकहानी। कवितायें लिखना भूल गयी हूं वरना इतनी तकलीफ नहीं थी। दो लाइन में इतना सारा दुख कात के रखा जा सकता था।

एक पूरा दिन बीत गया है...साल की कई कहानियों जैसा। धूप का गहरा साया छू कर गुज़रा है। आंखों में तुम्हारे हाथ बस गये हैं। दुआ करने को हाथ जुड़ते हैं तो बस तुम्हारा चेहरा उभरता है। ख्वाबों का पासवर्ड याद है तुम्हारी उँगलियों को भी। तुम्हारा कत्ल हो जाना है मेरे हाथों किसी रोज जानां। मत मिला करो यूं ख्बाबों में मुझसे। मेरे लिये जरा वो गाना प्ले कर दो प्लीज...आज जाने की जिद न करो...देर बहुत हुयी। कल का दिन बहुत हेक्टिक है। देखो, आज की रात छुट्टी लेते हैं...मेरे ख्वाबों मे मत आना प्लीज।

अगले इतवार का पक्का रहा। दुपहर। धूप में बाल सुखाते नींद आ जाती है। गोद में सर रख सुनाना मुझे गजलें। मिलना धूप के उस पुल पर जहां से किसी शहर की सरहद शुरू नहीं होती। मेरे लिये याद से लाना गहरे लाल रंग की बोगनविलिया और पीले अमलतास। जाते हुये रच जाना हथेलियों पर तुम्हारे नाम की मेंहदी। रंग आयेगा गहरा कथ्थई। उंगलियों की पोरों को चूमना...कहना, मेरे हाथ बेहद खूबसूरत हैं...फूलों की तरह नाजुक...मुलायम...मेरे लिये लाना खतों का पुलिंदा...कहानियों की कतरनें...हाशिये की कवितायें। चले जाना कमरे में फूलदान के बगल में रख कर ये सारा ही कुछ। देर दुपहर कहानियों से रिसेगी कार्बन मोनोक्साईड...मैं तुम्हारे प्यार में गहरी साँस लेते सो जाउंगी एक आखिरी मीठी नींद। तुम ख्वाबों में आना। तुम रहना। तुम कहना। तुम्हारे हाथ...

10 comments:

  1. अहोभाग्य भारतीय रेल का कि आपके ख़्वाबों में आयी। मन के अन्दर जितना चाहो, समाता जाता है, आनन्द भी, विषाद भी।

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  2. आपकी लिखी रचना बुधवार 29 जनवरी 2014 को लिंक की जाएगी...............
    http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
    आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  3. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति, आभार आपका।

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  4. कवितायें लिखना भूल गयी हूं वरना इतनी तकलीफ नहीं थी। दो लाइन में इतना सारा दुख कात के रखा जा सकता था। :-)

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  5. मन अटका हुआ है कहीं किसी ख्व़ाब में.....उम्दा

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  6. कोमल अभिव्यक्ति ...एक सुन्दर बहाव के साथ अलग २ रंग लिए

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  7. उपाध्याय जी। आपकी लहरों से प्यार करना सीख गया। पता है आपके लिखे में प्यार भी है अवसाद भी है। और ये संजोग बड़ी मेहनत एवं सच्चे मन से आता है। और हां बहुत समय से एक अत्यंत व्यक्तिगत अभिव्यक्ति करना चाहता हूँ की आपने कुनाल जी को खुशनसीब बना दिया है। आपके कई सारे लेख पढ़कर आप जैसा बिंदास जीवन जीने का मन करता है। शुभकामनाओ सहित।।

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