मंजिल होना कैसी त्रासदी है...कि यहाँ से कहीं और राहें नहीं जाती जहाँ मैं तुम्हारे साथ चल सकूँ. चकित करने की बात ये भी है कि मंजिल किसी सागर किनारे शहर नहीं है जैसे कि मुंबई, या कि मद्रास जहाँ स्टेशन नहीं होते टर्मिनस होता है. सारी पटरियां वहां जा के ख़त्म हो जाती हैं...मैं और तुम चलती रेलगाड़ियाँ तो नहीं हैं न कि टर्मिनस आने पर रुकें कुछ देर...जैसे जिंदगी बसती है और फिर वापस उन्ही रास्तों से दूसरी मंजिलों की और चल पड़ें...या कि हमारा रुकना ही क्यूँ जरूरी है.
मंजिलें तो पुरानी सदियों की खोज हैं न जब नौकाएं नहीं बनी थीं, हवाईजहाज़ नहीं थे...तब जब कि पता भी नहीं था कि धरती गोल है या सपाट कि अगर मेरे 'तुम' की तलाश में क्षितिज तक जाना चाहूँ तो शायद धरती से गिर जाऊं अनंत अन्तरिक्ष में...तब ये भी कहाँ पता था कि धरती हमें यूँ ही गिर नहीं जाने देगी...गुरुत्वाकर्षण की खोज भी कहाँ हुयी थी तब. ये मंजिल उस सदी में हुआ करती थी रास्ते का अंत....घर, परिवार, समाज.
आज क्या जरूरी है कि ज़मीं के छोर पर मैं रुकूँ...क्यूँ न नाव के पाल गिरा...चाँद का पीछा करते सागर पर रास्ते बिछा दूँ....या कि अतल गहराइयों में उतर परदे हटाऊं...गहरे अँधेरे समंदर के बीच कहीं नदियाँ ढूँढूं...पाऊं...गरम पानी की नदियाँ जैसे अन्तः करण का मूक विलाप.
कौन से सफ़र पर निकल जाऊं जिधर रास्ते न हों...पैरा-ग्लाइडिंग, हवा के बहाव पर उड़ना...पंछी जैसे, धरती पर छोटा होता सब देखूं और जब महज़ बिंदु सा दिखे कुछ भी 'होना' वहां से तुम्हारे साथ एक रिश्ते की कल्पना करूँ...एक बिंदु से फिर रास्ते बनाऊं...और तुम्हारे संग चल दूँ...किसी तीसरी दुनिया के किसी अनजाने सफ़र पर.
सो माय लव, आर यु गेम?