17 September, 2010

भारी राड़ है ई बादल

इ बादलवा नम्बरी बदमास है, कोने में नुका के बैठल रहेगा और जैसे ही कपडा लार के आयेंगे दन्न से बरसेगा जैसे केतना जो एमरजेंसी है. भोरे से बैठ के एतना चादर धोये हैं, तनी कमर सीधा करने लगे के आंख लग गया. भर दुपहर सुतले निकल गया. साम में माथा में ऐसा दर्द ऊठा के लगा के अबरी तो कपार फट जायेगा...बड़ी मुस्किल से चाय बना के पीए. तनी गो दर्द रुका तो जा के सब ठो चादर उलारे...संझा बाती देईए रहे थे कि बस...ए बादलवा का बदमासी सुरु. अब एक जान संझा दे की भाग के छत से कपड़वा उतारे.

छत पर अन्हेरा में छड़ से छेछार लग गया...चादरवा धर के सांसो नहीं लिए हैं कि बारिस ख़तम. भारी राड़ है ई बादल, ई कोई मौसम है बरसने का, ई कोई बखत है...बेर कुबेर देखे नहीं मनमर्जी सुरु हो गए...अबरी तो सेकायत लगा के मानेंगे. एकरा का लगता है कोई देखने वाला हैय्ये नहीं है का. पूरा एंगना में पिच्छड़ हो गया है, के गिरेगा इसमें पता नहीं. सब बच्चा सब एक जगह बैठ के पढ़ाई नहीं कर सकता...घर भर में भागते फिरेगा. हाथ गोड़ टूटेगा बोलते रहो कुछ बूझबे नहीं करता है.

अब लो...लालटेन में बत्ती ख़तम है, रे टुनकी भंसा से बत्ती लाओ, ऊपर वाले ताक पर है. ठीक से जाना आँगन में बहुत पिच्छड़ है, फिसलना मत. उठी रे!? बाप रे, केतना मच्छर हो गया है, एक मिनट चैन से नहीं बैठने देता है तब से भमोर रहा है. ई गर्मी के मौसम में मच्छर होने का है बरसात में तो बाप रे! उठा के ले जाएगा. कछुआ बारो रे कोई.

(गाँव के कच्ची पक्की यादों में से मेरे, दीदी, दादी, चाची और बहुत से लोगों के बीच का होता एकालाप जो मेरी भाषा में मुझे ऐसे ही याद रह पाता है)

वो कौन सा मौसम है जब तुम याद नहीं आती हो मम्मी.

14 September, 2010

परी है वो

४ थप्पड़ों के बाद गिनती नहीं याद रहती.
१० थप्पड़ों के बाद बेहोशी सी छा जाती है...सब कुछ सुन्न पड़ जाता है. जैसे नींद में कुछ ना कर सकते वाली स्थिति रहती है वैसे ही, शरीर होता है पर नहीं होता...गाल का दर्द आँखों, कनपटी और सर पर होता हुआ आत्मा तक पहुँच जाता है. जख्म गहरे होते हैं...जिंदगी से भी गहरे. 
ना माफ़ कर पाना एक ऐसा गहरा नासूर होता है कि अम्ल की तरह जिस्म को खोखला करता जाता है...माफ़ कर देना एक ऐसी जिंदगी होती है जिसमें खुद से आँखें मिलाने की हिम्मत बाकी नहीं रहती.
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लड़की है तो उसका नाम भी होगा...और ताज्जुब होगा लोगों को कि उसका नाम कुछ आम सा ही होता है...चलिए मान लेते हैं कि इस लड़की का नाम आँचल है, आँचल मिश्रा...जी हाँ कोई निचले जात की बीपीईल वाली परिवार की लड़की नहीं है जिसने घर पर बाप को दारू पी कर नशे में माँ को पीटते हुए देखा है. उच्च माध्यम वर्गीय परिवार की लड़की...शादी के लिए सुयोग्य हो इसलिए कॉन्वेंट में पढ़ी हुयी...पिटर पिटर अंग्रेजी बोलती है, अक्सर बातों से लोगों को चुप करा देती है...ताल ठोंक कर कहती है कि डिबेट में हरा के दिखाओ. 

दिल्ली के एक अच्छे यूनिवर्सिटी में इकोनोमिक्स में शोध कर रही है...समाज की कई पेचीदगियों को समझती है. रिसर्च के सिलसिले में दुनिया देखी है...काफी ब्रोड माइंडेड है, अक्सर जलसों में भी हिस्सा लेती रहती है और काफी धारदार भाषण देती है. गे और लेस्बियन राइट्स पर खुल कर बोलती है. इन फैक्ट उसका 'लिव-इन' रिलेशन उस समय से है जब ये चीज़ें चर्चा का विषय हुआ करती थीं...अब तो खैर...फैक्ट सा हो गया है.
उसे जानने वाले कहते हैं कि उसकी उत्सुकता का लेवल काफी हाई है...घबराहट लेश मात्र भी नहीं...एक बार कदम आगे बढ़ा दिया तो मजाल है कि कोई उसे डरा के, समझा के या पुचकार के वापस हटा सके. उसका सच और झूठ, सही गलत का अपना हिसाब किताब है जो कभी दुनिया के साथ कभी दुनिया के खिलाफ होता रहता है...और जिंदगी छोटे मोटे हिचकोलों के साथ बढ़ती रहती है.
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लड़की से औरत बनने का सफ़र कभी आसान नहीं होता...खास तौर से तब जब ये सफ़र बिना के मर्द के नाम के साथ बिताया जाते...एक कच्ची उम्र से ३२ साल की उम्र का फासला तय किया आँचल ने और एक लड़की adopt की...लिव-इन से लिव-आउट होकर अपना फ्लैट लिए उसे चार साल बीत गए हैं. आज उसकी बेटी ने पहली बार बोलना शुरू किया है...म्मम्म जैसा कुछ जो जल्दी ही मम्मा में बदल जाएगा. फ्लैट में उसके साथ तीन लड़कियां और रहती है...सबकी अपनी अपनी कहानी है, सफलताओं की. 

रात को कई बार उसे नींद नहीं आती देर तक...ऐसे में जब वो बेटी को लोरी नहीं सुना रही होती है तो कुछ आवाजें जेहन में घूमने लगती हैं. एक झन्नाटेदार 'तड़ाक', नीम बेहोशी...और मेडिकल अबार्शन के बाद की दिल दहलाने वाली चीखें. 
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वो ना उसके थप्पड़ माफ़ कर पाती है...ना खुद को उसे वैसे टूट कर चाहने के लिए...हर दर्द के बावजूद. 
रात के देर पहर बेटी का रोना उसे धीमी धीमी लोरी सुनाता है...और वो बच्चों की मानिंद सो जाती है...सुबह बेटी को देखती है तो हज़ार से ख्यालों में एक जरूरी बात याद आती है...बेटी बड़ी होगी तो उसे सिखाएगी...अगर किसी ने कभी भी तुम्हें एक थप्पड़ मारा हो तुम्हें तो माफ़ कर दो...मगर दूसरा थप्पड़ कभी जिंदगी में मत खाना...वो थप्पड़ गाल पर नहीं, आत्मा पर निशान बनाता है.
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यादें बेरहम सही...वर्त्तमान के अपने मरहम हैं...बेटी के गुलाबी फाहों से गालों को चूमते हुए ख्याल घुमड़ता है...और वो प्यार से उसे बुलाती है 'परी'. 

09 September, 2010

एक आग का दरिया है

दिल्ली की चुभती गर्मियों की धूप तमाचे मार के रोज उठाती थी उसे. गर्मियों के ठहरी दोपहरों को उसकी उफनती क्रन्तिकारी सोच और आग लगा देती थी. यूँही थोड़े लोग कहते थे कि उसका दिमाग गरम रहता है हमेशा. लोग तो ये भी कहते थे कि उस लाल इमारत का कोई ऐसा मोड़ नहीं है जहाँ चार लोग उसको उसके फलसफे सुनने के लिए पकड़ ना लें...और बहसें कॉफ़ी या सिगरेट के साथ या बगैर गरमाती रहे. 

लोगों  को बस एक बात नहीं पता थी...कि एक दिन बुखार के तपते माथे पर किसी ने अमृतांजन लगा दिया है...और पूरब की उस इकलौती खिड़की पर एक पुराने चादर का पर्दा डाल दिया है...लोग ये भी नहीं जानते कि शाम को सूरज को चाय में डुबा कर होटों से लगाने लगा है वो. 

ये भी नहीं कि जिस दिन वो बहस अधूरी छोड़ के गया था वो करवाचौथ था और एक लड़की ने अठन्नी के बदले उसकी एक लम्बी उम्र खरीद ली है भगवान से. कि उसका बेख़ौफ़ होना इसलिए हैं कि कोई उसकी चिंता करने लगा है हद्द से ज्यादा. 

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आम लोग ये सच में नहीं जानते कि लिम्फोमा जैसे डराने वाली गंभीर बीमारी सिर्फ फिल्मों में नहीं...असल जिंदगी में भी किसी सत्ताईस साल की लड़की को सच में होते हैं...और किसी की जिंदगी से अचानक चले जाना हमेशा नीयत नहीं, नियति भी हो सकती है. 

लोगों की तो छोडो...वो ही क्या समझ पाया है कि प्यार होता है...और उस लड़की को उससे हुआ था. 

07 September, 2010

The lyric-less monster

I let the music saw me in half
as my soul dances away the grief
resonating with a pain so intense I die and resurrect

I let the tune wander in my memory
scrubbing fiercely the stubborn stains
easing out the river of hurt, betrayal and disbelief

There are no lyrics, no predetermined fate
just an ebbing tide of notes, conflicting currents
wasting themselves upon the shore of my heart

Oh Catharsis...It's a big lie.
Nothing Heals.
Forgetting has never been an option.

01 September, 2010

जाना...लौटना

होना कुछ नहीं होता...एक पर्दा है, रेटिना कह लो...उसपर जो चित्र बनते हैं वही हमारा सच हो जाता है...हम कभी जवाब तलब नहीं करते...कि इस सच के पीछे क्या कुछ है.

मेरी रेटिना पर पतली, बिलकुल महीन धारियां पड़ी हुयी हैं...पुराने जख्मों के निशान जैसी...मैं जब भी अपनी कलाइयों को देखती हूँ मुझे खून रिसता नज़र आता है, हालाँकि जख्म बहुत पुराने हैं और उनके भरने के निशान रेटिना पर भी पक्के उकेरे गए हैं. मैंने जब भी मर जाना चाहा है मेरी रेटिना पर एक पतली रेखा उभर आई है. हालाँकि अभी इनकी संख्या कम है इसलिए मेरा दुनिया को देखने का नजरिया कुछ बचा हुआ है, मेरी जिंदगी जीने के पहले और मरने के बाद में नहीं बँटी हुयी है.

मुझे लगता है कि मरने के लिए कच्ची उम्र में मेरी आँखों को बस धारियां दिखेंगी और कलाइयाँ टीस उठेंगी...वो एक ऐसा दौर होगा जब ब्लेड बनने ही बंद हो जायेंगे. मैं कितना भी कहूँ कि मेरी  कलाइयाँ कटी हुयी हैं कोई इलाज नहीं होगा क्योंकि ना सिर्फ उनका दर्द मेरे अलावा किसी को महसूस होगा बल्कि उनका काटना भी बस एक पतला निशान होगा...रेटिना पर.

मेरे सपने फिल्मों के रूप में अमर हो चुके होंगे...दर्द बड़े परदे पर उभर आएगा....और सिनेमाहाल के बिना चेहरे वाले अँधेरे में लोग सीटी बजायेंगे...लड़कियां बिना कन्धों के सुबकेंगी और मुझे कोसेंगी, जैसे मैं कोसना चाहती थी 'पचपन खम्बे लाल दीवारें' पढ़ कर. हर कोई सोचेगा कि इतना गहरा दर्द कोई 'सोच' कैसे सकता है...खुशकिस्मत लोग दर्द को जीना नहीं जानते.

किसी जाड़ों की सुबह मैं चाहूंगी कि तुम मेरा हाथ थामे रहो...और मैं आँखें बंद कर सकूँ...कि रौशनी चुभती है. तुम जैसे सड़क पार कराते वक़्त मेरी कलाई थामते हो...छोटे बच्चे की तरह...वैसे ही मेरी कलाई थामना...जब कलाई नहीं दिखती है तो रेटिना पहले की तरह हो जाती है...ऐसे में सारी बारीकियां दिखती है...जैसे कि तुम्हारी आँखों में मेरा चेहरा...प्यार में डूबा हुआ...जीवन से लबालब भरा हुआ.

और ऐसा थोड़े हुआ है कभी...कि मैं तुम्हारा हाथ छुड़ा के गयी हूँ...लौट आउंगी फिर...फिर.

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