जिंदगी...अजनबी क्या तेरा नाम है?
अजीब है ये जिंदगी ये जिंदगी अजीब है
ये मिलती है बिछड़ती है बिछड़ के फ़िर से मिलती है...
एक वो शहर होता है जिसमें हम बसते हैं
और एक शहर होता है जो हमारे अन्दर बसता है
अपने शहर को छोड़ कर आने से वो शहर तो शायद हमें भूल जाता है
पर जाने कैसे हमारे अन्दर जो शहर है उसकी मिट्टी से सोंधी खुशबु आने लगती है, चाहे कहीं भी बारिशो में फँसें हो हम। जाने कैसे गीत गुनगुनाने लगता है वो शहर, दर्द के, टूटने के, बिखरने के, एक बार अलग होकर कभी न मिलने के। जाने कैसी हवाएं बहती हैं इस शहर में की हमेशा टीस ही लगती है और जाने कैसी मिट्टी है इस शहर की कि जिसमें यादों की बेल कभी सूखती नहीं। मुस्कुराहटों का अमलतास हमेशा खिला रहता है और गुलमोहर के पेड़ छाया देते रहते हैं।
शहर बदलना एक अजीब सा अहसास होता है, मुझे कभी रास नहीं आता, जो अपनेआप में अजीब है, क्योंकि मैं ठहरी भटकती आत्मा, पर जाने कैसे जहाँ रुक जाती हूँ जैसे पैरों से जड़ें उग आती हैं, और शहर छोड़ते हुए उन्हें काट के आना पड़ता है।
दिल्ली शायद हमेशा मेरे दिल के सबसे करीब रहेगा, इस शहर में मैंने बहुत कुछ खोया...कुछ पाया और कुछ पीछे छोड़ आई। इस पाने खोने के दरमियाँ मैंने जाने कब अपने आप को उस मिट्टी में रोप दिया, या जाने दफ़न हो गई, कुछ तो हुआ जिससे मैं वाकिफ नहीं, लगता है कहीं वही मैं भी रह गई हूँ।
शायद जिस लम्हा, माँ को खोया मैं भी कहीं घूमने निकल गई अपने शरीर से बाहर, अब भी हूँ तो सही, पर पहले जैसी नहीं। बदल गई हूँ और इस बदलाव को बर्दाश्त नहीं कर पा रही।
लिखना चाहती भी हूँ और नहीं भी, डर भी लगता है ऐसे ख़ुद को एक्स्पोज़ करने में, कई बार दुःख हुआ है इसके कारण. पर शायद लिखे बिना रह भी नहीं सकती।
जिंदगी में सिर्फ़ एक चीज़ से सबसे ज्यादा प्यार किया है...अपनी कविता से...शायद इसके बिना भी जीने की आदत डालनी पड़े।
कभी किसी को मुक्कमल जहाँ नहीं मिलता
कभी ज़मीं तो कभी आसमाँ नहीं मिलता
पर सोचती हूँ
मैंने कौन सा आसमाँ माँगा था